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________________ 105 d 0 500 40 ८७) उसके बाद श्रमण भगवान महावीर प्रभुने गर्भ में यह विचार किया कि “मेरे हलन चलन से माता को | कष्ट न होना चहिए" इस प्रकार माता की अनुकंपा हेतु याने माता की भक्ति हेतु तथा औरो को भी माता की भक्ति करनी चाहिए ऐसा दिखाने हेतु स्वयं गर्भ में निश्चल बने रहे। बिल्कुल चलायमान नहीं होने से निष्पन्द हुए, और अकंप बन गये। इन्होंने अपने अंक्कों पाक्को को संकुचित कर माता की कुक्षि में अत्यन्त गुप्त होकर रहने लगे। ८८) उसके बाद उस त्रिशला क्षत्रियाणी को इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ कि "क्या मेरे गर्भ को किसी दुष्ट देवादिने अपहरण कर लिया है? अथवा क्या मेरा गर्भ मृत्यु को प्राप्त हो गया है? अथवा मेरा गर्भ च्यवित हो गया है, यानी जीव- पुद्गल के पींड स्वरुप पर्याय से नष्ट हो गया है? अथवा क्या मेरा यह गर्भ गल गया है, यानी दव रुप होकर निकल गया है? क्योंकि यह मेरा गर्भ पहले कंपायमान होता था, किन्तु अब तो बिल्कुल कंपता नहीं है। " ऐसे विचारों से कलुषित हुए मन के संकल्प वाली चिन्ता और शोक समुद्र में डूब गई। दोनो हाथों से मुंह ढंक कर आर्तध्यान को प्राप्त वह नीचे द्दष्टि डालते हुए चिन्ता करने लगी। ऐसे अवसर पर सिद्धार्थ राजा का संपूर्ण भवन शोकाकुल हो गया है। जहां पहले मृदंग, वीणादि अनेक वाजत्र बजते थे, लोग दांडिया लेते थें, लोग नृत्य करते थे, 70 405001405014050140
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
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