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यानी लोगों के समुदाय के द्वारा सम्यक् प्रकार से पीछे गमन किये जाते ऐसे प्रभु दीक्षा लेने हेतु चले। वह संपूर्ण पाठ पूर्वोक्त श्री महावीर स्वामी के मुताबिक कहना। परन्तु विशेष इतना है कि श्री पार्श्वनाथ प्रभु वाराणसी नगरी के बीच में से होकर निकलते है। निकलकर आश्रमपद नाम का उद्यान है, जहां अशोक नाम का उत्तम वृक्ष है, वहां आते है। आकर के वे उत्तम अशोकवृक्ष के नीचे अपनी पालखी रुकवाते है। रुकवाकर पालखी से नीचे उतरते है। उतरकर स्वयं ही आभूषण, मालादि अलंकार उतारते है। तत्पश्चात् अपने ही हाथों से पंच मुष्ठि लोच करते है। लोच करके निर्जल अट्टम तप युक्त विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का योग प्राप्त होने पर एक देव दुष्य वस्त्र ग्रहण कर तीन सौ पुरुषों के साथ लोचकर मुंड होकर, गृहवास से निकलकर अणगारपने को यानी साधुपने को प्राप्त हुए ।
१५४) पुरुषदानीय अर्हन् पार्श्वप्रभु हमेशा के लिए काया पर के ममत्व को छोड़ दिया था। शारीरिक वासनाओं का भी त्याग किया था। इस कारण अणगार अवस्था में वे दैविक, मानवीय एवं पशु-पशुओं से होने वाले अनुकुल •व प्रतिकुल सभी - उपसर्गों को निर्भयता के साथ अच्छी तरह से सहन करते है, क्रोध रहित क्षमा करते है, उनको दीनता रहित और निश्चलता से सहन किया ।
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