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________________ 40051 205 | मधुर भाषा से बांते करते इस प्रकार कहने लगी। ५१) वास्तव में ऐसा है कि हे स्वामी! मैं आज उस प्रकार की शय्या में सोयी और जागती हुई थी तब चौदह स्वप्न | देखकर जाग्रत हुई। वे चौदह स्वप्न ऐसे थे । 1: गज (हाथी), 2: वृषभ (बैल), 3: सिंह, 4: अभिषेक- लक्ष्मी देवी का | अभीषेक, 5: माला- पुष्पमाला युगल, 6: चन्द्र, 7: सूर्य, 8: ध्वज, 9: कुंभ, cc 10: पासरोवर, 11: क्षीरसमुद्, 12: देवविमान, 13: रत्नों का ढेर, 14: निर्धम अग्नि। हे स्वामी! उदार ऐसे उन चौदह महास्वप्नों का कल्याण रूप विशेष फल होगा ऐसा मैं मानती I ५२) उसके बाद, वह सिद्धार्थराजा त्रिशला क्षत्रियाणी से इस बात को सुनकर, समझकर हर्षित हो, संतुष्ट मन वाले बने। प्रमुदित हुये, उनके मनमें प्रीति उत्पन्न हुई, मन बहुत ही प्रसन्न हुआ, खुशी के कारण उसका हृदय स्पन्दन करने लगा तथा मेघ की धारा से सिंचित कदंब के सुगंधी पुष्पों की भांति विकसित बनी हुई रोमराजी वाला ऐसा अति प्रसन्न बना हुआ सिद्धार्थ उन स्वप्नों के विषय में सामुहिक साधारण विचार करता है, फिर स्वप्नों का अलग अलग विस्तार से विचार करता है, उसके बाद अपनी स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धि और विज्ञान के द्वारा उन स्वनों के अर्थ का निर्णय करता है फि cation International Ivate & Personal use 40501405004050140
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
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