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________________ ३७) उसके बाद संपूर्ण चन्द्रमा के समान मुंहवाली त्रिशलादेवी चौथे स्वपन में लक्ष्मी देवी को देखती है। वह लक्ष्मी देवी कैसी है? ऊंचा जो हिमवान पर्वत, उस पर उत्पन्न हुआ जो कमल रुपी मनोहर स्थान, उसके ऊपर बैठी हुई है, सुन्दर रूपवाली हैं, उसके दोनों पावों के पंजे ठीक यथोचित सोने के कच्छुए के समान ऊंचे है । अत्यन्त ऊंचे और मजबुत अंगुठे और अंगुलियों के बिच इसके नाखून मानो रंजित न हो ऐसे लाल, मांस से भरपुर, ऊंचे पतले, तांबे जैसे लाल और कान्ति से चमकदार है। कमल पत्रों के समान कोमल इसके हाथ पांव की उत्तम अंगुलियाँ है । 'कुरुविंदावर्त' नाम के आभरण विशेष, अथवा आवर्त विशेष, उससे सुशोभित, गोलाकार व अनुक्रम से पहले पतली बाद में जाडी इस प्रकार की पैर की पिंडियोंवाली, गुप्त घूंटनवाली, उत्तम हाथी के सूंढ सद्दश-जैसी पुष्ट सांथलवाली, सुवर्णमय कमरबंध (कंदोरे) युक्त है रमणीय व विस्तीर्ण कमर का भाग है जिसका वैसी, घुटे हुए अञ्जन-भौंरे व घटाटोप बने हुए मेघ जैसी श्याम, सरल, सपाट, अंतर रहित, सूक्ष्म, विलास के द्वारा मनोरम, शिरीष पुष्प इत्यादि सुकोमल पदार्थो से भी अधिक सुकोमल व रमणीय हैं, रोम की पंक्तियां जिसकी ऐसी, नाभी मण्डल के द्वारा सुन्दर, विशाल और सुलक्षणों से युक्त "जधन" अर्थात् कमर के नीचे के आगे का भाग जिसका ऐसी मुट्ठी में समा जाय ऐसा व रमणीय त्रिवली युक्त हैं, उदर जिसका ऐसी, चन्द्रकान्तादि विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण, वैडूर्य विगेरे करने For Private & Personal Use Only cation International 140 1500 40 500 40 500 40
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
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