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________________ उस दुषम-सुषम आरा के बेतालीस हजार और पिन्चोतेर वर्ष साडा आठ महीने ही शेष रहे थे, उस समय भगवान गर्भरुप आये, भगवान गर्भरुप आने के पूर्व इक्ष्वाकुकुल में जन्म पाये हुए और काश्यप गोत्रवाले इक्कीस तीर्थंकर क्रम से हो गये थे। हरिवंश कुल में जन्म पाये हुए गौतम गोत्र वाले दूसरे दो तीर्थंकर भी हो गये थे, अर्थात् इस प्रकार से तेवीस तीर्थकर हो चुके थे। उस समय भगवान गर्भ रुप आये थे। प्रथम के तीर्थंकरों ने इसके बाद "श्रमण भगवान महावीर अन्तिम तीर्थकर होंगे " ऐसा भगवान महावीर के विषय में पहले ही कहा था। इस प्रकार उपर्युक्त कथनानुसार श्रमण भगवान महावीर पूर्व रात के अन्त में ओर पिछली रात के प्रारंभमें याने बराबर मध्यरात्री में हस्तोत्तरा - उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र का योग होते ही देवानंदा की कुक्षि में उत्पन्न हए। भगवान जब कुक्षि में गर्भरुप आये तब उनका पहले के देव भव योग्य आहार, देव भव के आयुष्य व शरीर छूट गया था और वर्तमान मानव भव के अनुरुप आहार-आयु व शरीर प्राप्त हो गया था। ३) श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान सहित थे। “ अब मै देव भव से व्यवगा " ऐसा जानते थे।" 42010050005000 For Private Personal Use Only
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
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