Book Title: Anusandhan 2013 09 SrNo 62
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) अनुसन्धान - ६२ श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि Pooनललल TETTEALLLLLL कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि 2013 www.janabraryote Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू( ठाणंगसुत्त,५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि SOON 0: 00 श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २०१३ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ६२ प्रकाशकः आद्य सम्पादकः डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क: _C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ___११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ प्रतिः २५० मूल्य: Rs. 150-00 मुद्रकः क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३) जो तमे अनुसन्धानने डिजीटल (PDF) स्वरूपे वांचवा (निःशुल्क) इच्छता हो तो नीचेना ID पर संदेशो mail करो. sheelchandrasuriji@yahoo.com For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन संशोधन एटले प्रश्नविद्या; जिज्ञासामूलक प्रश्नोनी विद्या, अने ते द्वारा थती, समाधाननी शोधनी विद्या. संशोधन अथवा शोधखोळनी पृष्ठभूमां हमेशां कोईने कोई प्रश्नो होय छे. प्रश्नोना मूळमां होय छे जिज्ञासा. 'आ आम केम छे, आम केम नहि ?' अथवा, 'आ आमने बदले तेम होय तो वधु ठीक न गणाय ?' - आ प्रकारना प्रश्नोमांथी जे नीपजे ते ज होय छे संशोधन. एक रीते जोईए तो शोधविद्या अने अध्यात्मविद्या समान्तरे अथवा तो लगोलग चालती विद्याओ लागे. अध्यात्मविद्याना क्षेत्रमा पण, आत्मार्थी जीवना चित्तमां, 'आ जगत् आq केम हशे ?, 'आ जगत् कायम आवं ज होय ?, 'आ जगत्नी उत्पत्ति केवी रीते अने शा माटे थई हशे ?, 'आ जगत्मां मारुं स्थान शुं ? मारुं शुं ? मारे करवानुं कर्तव्य शुं ?' - आ प्रकारना प्रश्नो सतत उद्भवता रहे छ; अने तेना परिणामरूपे जे फलित थाय छे तेनुं नाम छे 'आत्म-संशोधन.' अने शोधविद्याना क्षेत्रमा पण, उपर जोयुं तेम, जुदा जुदा विषयो परत्वे, जुदाजुदा प्रश्नो उद्भवता रहे छे, तेना परिणामरूपे जे थाय तेनुं ज नाम छे 'संशोधन'. आम, एक बिन्दु पर, बन्ने विद्याओ, समान अनुभूति करावी जाय छे. सार ए के प्रश्नो जागवा जोईए. ते पण कुतूहलथी के कौतुकने खातर नहि, पण जिज्ञासाभावे-थवा जोईए. वस्तुतः जिज्ञासा ज संशोधननो पायो छे. For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मसूत्रना प्रथम सूत्रमा 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' एम कहेवामां आव्यु, ते पण, ऋषि द्वारा थता 'ब्रह्म-शोधन'नो पायो जिज्ञासा होवार्नु ज सूचन करे छे. जिज्ञासुना प्रश्नो तेमज विमर्श-बन्ने दमदार होय छे; छीछरां के क्षुल्लक नहि. अने तेवा प्रश्नोना उत्तरमा जे समाधान अथवा अर्क सांपडे, तेने 'संशोधन'थी ओर्छ कशुं ज न कही शकाय. आपणा आगेवान शिक्षणविद् डॉ. विद्युत् जोषीए ताजेतरमां ज लखेला एक मजाना लेखमां, भले जराक जुदा सन्दर्भमां, पण आ मुद्दो बहुज तार्किक रीते आलेख्यो छे. तेमना शब्दोमां ज ते वांचीए : "जेने संशोधन करवू होय तेमणे प्रश्नो करता अने वैज्ञानिक रीते विचारता शीखवू पडे. जो तमे वैज्ञानिक रीते विचारता हशो तो ज वैज्ञानिक संशोधन करी शकशो. आम जोईए तो संशोधननी तालीम ए बौद्धिक विचारनी तालीम छे. लागणीथी नहीं पण बुद्धिथी विचारवानी तालीम एटले रेशनालिझम अने अनुभवजन्य साबिती शोधवानी तालीम एटले एम्पिरियसिझमनी तालीम." (दिव्य भास्कर, ता. ७ जुलाई, २०१३) लागणी एम कहे के महान् ग्रन्थकारे आ शब्दो लख्या छे तेने, अन्य आधारभूत प्रमाणोथी ते खोटा पुरवार थतां होय तो पण, आपणाथी भूसाय केम ? बदलाय केम ?; एमां आपणे तेमनो अपराध को न गणाय ? त्यारे बुद्धि एम कहेशे के आटला महान् आचार्य, आवं असंगत लखे ज नहि. आ देखाय छे ते पाछळना कोईना लेखनदोष के अन्यथा समजणने कारणे ज थयुं होय; मूळ व्यक्ति आवं न करे. परिणामे, साधार थनार आवा सुधारा, संशोधननो दरज्जो तो पामे ज, साथे साथे, ग्रन्थकारनी भावना अने बौद्धिक क्षमताना पुनःप्रतिष्ठापननो सुयोग पण, ते संशोधन करनारना हाथे सर्जाय छे. आथी ज, जिज्ञासा, तन्मूलक प्रश्नो, अने पछी फलरूपे सांपडतां तारणो - आ क्रम प्रत्येक संशोधके स्वीकारवो जोईए; अने आ क्रमना कारणे ज, संशोधनने प्रश्नविद्या तरीके ओळखाववामां औचित्य समजाय छे. - शी. For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पं. शीलशेखरगणिकृता श्रीदेवसुन्दरसूरि-विज्ञप्तिः सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १ श्रीमण्डपीयसङ्घप्रशस्तिः सं. सुयशचन्द्र-सुजसचन्द्रविजयौ ५ श्रीविनयप्रभोपाध्यायनिर्मित दो लघुकृतियाँ श्रीसीमन्धर एवं इक्कवीसस्थानगर्भित नेमिस्तवन सं. म. विनयसागर ११ अव्ययार्थ-सङ्ग्रहः सं. म. विनयसागर २४ डॉ. नारायणशास्त्री काङ्कर उपाध्याय-श्रीशिवचन्द्रगणि-प्रणीत चार लघुकृतियाँ सं. म. विनयसागर ४५ स्वाध्याय : जीवसमास-स्वाध्याय मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ६३ शिवदासकृत 'कामावती' (ई. १५१७)मां आवती समस्याना अर्थनी समस्या हसु याज्ञिक ७९ जैन दार्शनिक साहित्य प्रो. सागरमल जैन ८२ जैनदर्शन में प्रमाण-विवेचन प्रो. सागरमल जैन ९४ ढूंकनोंध : मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १०१ १. 'पुद्गलनो ग्रहण गुण' ओटले शुं? १०१ २. श्रीविजयानन्दसूरि(-आत्मारामजी)विरचित सत्तरभेदी पूजा- रचनावर्ष : वि.सं. १९१९ के १९३९ ? १०३ ३. श्रीस्तम्भनपार्श्वपञ्चविंशतिकाना कर्ता विशे १०५ ४. श्रीसौभाग्यसागरसूरिजी विशे १०६ हस्तप्रत-सम्पादननी शिस्त विषे थोडुक दिशासूचन डॉ. कान्तिलाल बी. शाह १०७ श्रीहेमचन्द्राचार्यचन्द्रक-प्रदान-समारोह : हेवाल ११५ प्राकृत भाषा के विकास हेतु केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत सुझाव प्रो. फूलचन्द्र जैन प्रेमी १२१ आ वेदना छे, विरोध नहि विजयशीलचन्द्रसूरि १२४ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - ३ विषे अनुसन्धान ६०-६१ एम बे अङ्को विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क भाग १-२ तरीके प्रगट थया छे. तेनो त्रीजो भाग हवे, अङ्क ६३ तरीके प्रगट करवानी गणतरी छे. तेमां थोडाक संस्कृत पत्रो अने वधारे गुजराती भाषा-पत्रो आपवामां आवशे. आ विशेषाङ्कमां प्रगट करवा योग्य विज्ञप्तिपत्रो आपनी पासे, संघमां, संस्थामां के व्यक्तिगत रूपमां होय तो तेनी नकल, तेमज तेमांनां चित्रोनी फोटोनकल अमने आपवा/ मोकलवा अनुरोध करवामां आवे छे. आप स्वयं ते पत्रनी प्रतिलिपि तथा सम्पादन करीने मोकलो तो ते आपना ज नामे प्रगट करतां अमने आनन्द थशे. - सम्पादक For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. शीलशेखरगणिकृता श्रीदेवसुन्दर सूरि विज्ञप्ति: सं. विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीदेवसुन्दरसूरि ए तपागच्छना प्रभावक गच्छनायकोमांना एक अग्रणी आचार्य छे. १४मा शतकना आ आचार्य तथा तेमनो विशाल शिष्यसमुदाय संस्कृत- प्राकृत भाषानी अवनवी, चमत्कृतिपूर्ण, ललित रचनाओ तथा सैद्धान्तिक साहित्यसर्जन माटे प्रसिद्ध छे. आ आचार्य तथा तेमना पट्टधर आचार्योना काळमां साहित्यनुं विपुल मात्रामां सर्जन थयुं छे, तो ए समयमां लखायेली हस्तप्रतो पण एक आगवी कलात्मक भात धरावती जोवा मळे छे. तेमना ज शिष्यगणमांना एक पं. शीलशेखरगणिनी, गुरुस्तवनात्मक, बे प्राकृत पद्यरचनाओ अत्रे प्रस्तुत छे. प्रथम रचनामां १० पद्यो छे, तेमां जोके गुरुनुं नाम क्यांय नथी; तो पण सन्दर्भ जोतां ते देवसुन्दरसूरिनी स्तवना ज होवानुं मानी शकाय तेम छे. प्रत्येक पद्यमां, स्तुतिकारमां हृदयनो, गुरु प्रत्येनो, असाधारण अहोभाव नीतरे छे, जे कोईपण गुरु-उपासकने भावविभोर बनावी मूके तेम छे. पद्य ६-७ - ८ तो उत्तराध्ययनसूत्रगत नमिप्रव्रज्या - अध्ययननी गाथाओ छे. कर्ताए बहु ज सार्थक रीते ते पद्योनो अहीं विनियोग कर्यो छे, जे आनन्ददायक छे. बीजी रचना, जे खरेखर 'देवसुन्दरसूरिविज्ञप्ति' रूप छे, ते १५ कडीनी चौपाई प्रकारनी गेय रचना छे. आमां गुरुना गुणोनुं आलङ्कारिक छतां प्रासादिक वर्णन छे. प्रथम कडीमां गुरुनां माता - पिता ( सोहिणिदेवी अने पाल्हणसीह) नो नामोल्लेख एक महत्त्वनी ऐतिहासिक विगत आपी जाय छे. १५मी कडी हरिगीतछन्दना लयमां छे, जे जोतां हरिगीत ४ नहि, पण २ पंक्तिमां पण रची शकाय, तेवुं समजाय छे. प्रान्ते कृतिनुं अने कर्तानुं नाम छे. आ रचनानी एक पत्रात्मक प्रति राधनपुरना विजयगच्छना ज्ञानभण्डारमां सचवायेली छे. लखावट अनुमानत: १५ मा सैकानी छे. आनी झेरोक्स नकल उपाध्याय श्रीभुवनचंन्द्रजी द्वारा मळेल छे, तेने आधारे आ वाचना तैयार करेल छे. For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ पत्रना पृष्ठभागमां पौरुषी (पोरिसी)- यन्त्र, तथा पांच समिति, १० यतिधर्म इत्यादिन गाथा तथा तेना अर्थ साथे विवरण छे. शीलशेखरगणिकृता श्रीदेवसुन्दरसूरिविज्ञप्तिः गोअम-सुहम्म-जंबू पभवो सिज्जंभवा य आयरिया । अन्ने वि जुगप्पहाणा पई दिट्ठई सुगुरु ते दिट्ठा ।।१।। अज्जु कयत्थो जम्मो अज्ज कयत्थं च जीवियं मज्झ । तुह दंसणामयरसेण सित्ताइं नयणाइं ॥२॥ अवयरिया सुरधेणू संजाया मह गिहे कणयवुट्ठी । दारिदं अज्ज गयं दिढे तुह सुगुरु ! मुहकमले ॥३॥ चिंतामणिसारिच्छं सम्मत्तं पावियं मए अज्ज । संसारो दूरिकओ दिढे तुह सुगुरु ! मुहकमले ॥४॥ हत्था ते सुकयत्था जे किइकम्मं कुणंति तुह चरणे । वाणी बहुगुणखाणी सुगुरुगुणा वन्निया जीए ||५|| "अहो ! ते निज्जिओ कोहो अहो ! माणो पराजिओ । अहो ! ते निरक्किया माया अहो ! लोहो उ वसीकओ ॥६।। अहो ! ते अज्जवं साहु अहो ! ते साहु मद्दवं । अहो ! ते उत्तमा खंति, अहो ! ते मुत्ति उत्तमा ॥७॥ इहंसि उत्तमो भंते ! पच्छा होहिसि उत्तमो । लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धिं गच्छसि नीरुओ ||८॥" सो देसो तं नगरं तं गामं सो अ आसमो धन्ना । जत्थ पहु ! तुम्ह पाया विहरंति सयावि सुपसन्ना ॥९।। जह सरइ सुरहि वच्छो वसंतमासं च कोइला सरइ । वं(वि)झं सरइ गयंदो तह अम्ह मणं तुमं सरइ ॥१०॥ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ पाल्हणसीहकुलंबरहंस ! सोहिणिदेविउअरसिरिहंस ! | अवगयपंचपगारंतराय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥१॥ गुणकेरववणबोहणचंद ! उम्मूलियभवभूरुहकंद! । पवरसुलक्खणमंडियकाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥२॥ जणमणवंछिअवरसुरसाल ! घणनिम्मलगुणगणसुविसाल ! । बहुलपावधूलीभरवाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥३॥ कुंदुज्जलकलजससंभार ! निज्जियनिम्मलतरवरहार ! । अमलकमलदलकोमलपाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥४॥ वाणीमधुरिमनिज्जियवीण ! जगजणनित्थारणसुपवीण ! । पगडियकम्मक्खयवरुवाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ||५|| जिणसासणरहधुराधुरीण ! निअयपयावांचलिहिं अरीण ! । भंसिअभूरभवंतरमाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥६॥ नवधाराधरविसिमिरघोस ! नासिअसयलमहीअलदोस ! । पवरपी(पि)यंकरउत्तरआय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥७॥ चरणकरणखंडिअसंसार ! घणकरुणारसगुणकासार ! । दिन्नमणोभवभूवअवाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥८॥ दंभरसातलदारणसीर ! भग्गनयणनरवइनासीर ! । अमियरसोवममहुरिमवाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥९॥ चारित(त्त?)लच्छीलीलागार ! धम्मनयररक्खणपायार ! । हिमकिरणोवमवरगुणजाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥१०॥ निम्मलजलस(जस)संपूरिअलोअ ! सुमणी(मुणि)अजगजणमणआलोअ ! । निज्जियदुद्धरभूरिकसाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥११।। ताविअकंचणसंनिहदेह ! मंगलवल्लिअवणवरमेह ! । नासिअनिअजणसयलवसाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥१२॥ For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ उवएसियवरचउव्विहधम्म ! अवगयसव्वागमगयमम्म ! । जणबोहणकयअज्झवसाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥१३।। अणुकंपारसजलहिं(हि)सरूव ! निज्जियविस्सोवमपररूव ! । आविक्कयपुव(व्व)मुणिवरनाय ! जय सिरिदेवसुंदरसूरिराय ! ॥१४॥ इअ विभवसुंदर देवसुंदरसूरिणो जे सव्वया । थुणिहिं रंगिहिं भत्तिचंगिहिं ते भवई नर निव्वया ॥१५।। श्रीदेवसुन्दरसूरिविज्ञप्तिः । पं० शीलशेखरगणिकृताः ।। ना For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ श्रीमण्डपीयसङ्घप्रशस्तिः सं. मुनि सुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजयौ खरतरवसहीनी सामेनी बाजु 'शणगारवसही' तरीके चैत्यपरिपाटीओमां नोंधायेलुं जिनालय, घणा समय पछी संप्रतिमहाराजाना जिनालय तरीके प्रसिद्ध थयुं. ते जिनालय खम्भातना हरपतिसाहना पुत्र व्यवहारी शणगारे के शाणराजे अने संघवी भूभवे बंधाव्यानुं नोंधायेलुं छे. सं. १५०९मां बृहत्तपागच्छीय जयतिलकसूरिजीना शिष्य रत्नसिंहसूरिजीओ तेनी प्रतिष्ठा करी. मूळनायकजी सम्बन्धी तथा प्रस्तुत जिनालय सम्बन्धी ऐतिहासिक घणी बाबतोनी नोंध आणंदजी कल्याणजी पेढीओ प्रकाशित करेल 'महातीर्थ उज्जयन्तगिरि' पुस्तकमां छे. (ले. डॉ. मधुसूदन ढांकी) ц त्यार पछी भट्टारक रत्नसिंहसूरिजीना शिष्य उदयवल्लभसूरिजी नी प्रेरणाथी माण्डवगढना श्रीसङ्घ ते प्रासादनो (?) मण्डप (रंगमण्डप के नृत्यमण्डप) नवो बनाव्यो हशे के जीणोद्धार कर्यो हशे प्रस्तुत प्रसङ्ग पछीथी कदाच आ प्रशस्तिनी रचना थई हशे . अलबत्त, आ प्रशस्तिना केटलाक श्लोको सं. १५२५मां संग्राम सोनी गिरनार तीर्थ उपर बनावेल (?) श्रीनेमिनाथ जिनालयनी ज्ञानसागरसूरिजी कृत 'श्रीनेमीश्वर जिनप्रासाद प्रशस्ति'ना श्लोको साथे मळे छे. आ प्रशस्ति पं. लाभसागर गणि द्वारा संशोधित थईने आगमोद्धारक ग्रन्थमाळा तरफथी प्रकाशित थई छे. अत्रे ते प्रशस्तिगत समान श्लोकोनी, क्रमाङ्क अने पाठान्तर साथेनी नोंध टिप्पणमां करी छे. 'मु.प्रश.' अथी संज्ञाथी आ प्रशस्तिने टिप्पणमां निर्देशी छे. प्रशस्तिना कर्ता - तेनो रचना काळ वगेरे बाबतो उपर कोई प्रकाश करे ते अपेक्षा छे. माण्डवगढना सम्बन्धमां अवुं पण जाणवा मळ्युं छे के 'मांडु नामे ओळखाता, विन्ध्याचल पर्वतना शिखर माण्डवदुर्गमां अगाउ ७०० जिनमन्दिरो अने पौषधशाळाओ हती. छ लाखथी वधु जैनोनी वस्ती हती. अहीं जे नवो जैन आवे तेने दरेक जैनना घरमांथी अक सोनामहोर अने ओक इंट अपाती. ' For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ तेथी ज आवा श्रावकोना गुणथी आकर्षाईने आ 'श्रीसङ्घप्रशस्ति:'नी रचना थई हशे. ___ पाटण-हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिरमा 'श्रीमण्डपीयसङ्घप्रशस्ति'ना नामे सचवायेली २ पानानी आ प्रतना अक्षर सुवाच्य छे. प्रत आपवा बदल भण्डारना व्यवस्थापकोना आभार सह श्रीनेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्ति पुस्तकनी नकल अमने आपनार पू. मुनिराज श्रीहेमवल्लभविजयजी म.नो पण आभार मानीये तेटलो ओछो छे. श्रीमण्डपीयसङ्घप्रशस्तिः ॥ ६० ॥ ॐ नमः श्रीवीतरागाय ।। स्वस्तिश्रीविजयोद्वहः सुविदितः श्यामाङ्गजानाप्तरुक् भव्याङ्गीकृतवर्मभूपतिमतो ब्रह्माधिकः षण्मुखात् । वर्यो यो जितशत्रुविश्रुतमहायक्षान्वितस्वान्तिकः; कुर्याद् वो विमलेश्वरोजि(रोऽजि)तबलोपेतो द्वितीयो जिनः ॥१॥ दृष्ट्वा यामचलां धरामृणभयाज्जीर्णाम्बराच्छादितां चक्रे यो विभयां रतां च बुभुजे सा रत्नगर्भाऽभवत् । सूतैषाऽथ वसुन्धराऽजनि सुतः सम्पत्सराख्यस्तदा विश्वेऽद्याऽपि जयी स यत्र समभूत् श्रीविक्रमार्को नृपः ॥२॥ ये भोजप्रमुखाः सुधारुचिमुखाः भूपाः सुरूपाः पुरा दानोदारतरा बभूवुरदरा विद्वद्वराः सुन्दराः । ये चाऽन्येऽपि जना घना गुरुधनास्ते यत्र सर्वेऽधुना तत् सन् मालवमण्डलं विजयते विश्वावधूकुण्डलम् ॥३॥ मालवोऽपि जनाधारो, दुष्कालादौ "हि यद् भवेत् । हेतुं धाराधराम्भोज-शस्यश्रियमवेहि तम् ।।४।। पंन्यास लाभसागरगणिप्रवरेण संशोधिता, आगमोद्धारकग्रन्थमालासंस्थानेन प्रकाशिता 'श्री ज्ञानसागरसूरिकृता श्रीसङ्ग्रामकारितश्रीनेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्तिः [संज्ञा - मु.प्रश.] १. मु. प्रश श्लो. ५२, २. 'सु' इति मु. प्रश. । ३. मु. प्रश. श्लो. ५५, ४. 'ही' इति मु. प्रश. । For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ५भूभृत्कोटियुतो न भूभृदयुतेनाऽसौ ततो जीयते यत्स्थाऽनन्तरमा महाम्बुजसमा किं स्यात् सदा सत्तमा । यन्मध्यं न शतेन कोऽपि लभते दत्तेन वित्तेन वा तं श्रीमण्डपदुर्गमिच्छति न को गन्तुं धनप्राप्तये ? ॥५॥ यत्र स्यादजितः स्वामी, तथाऽजितबलान्वितः । लघुशत्रुञ्जयेत्याख्या, तस्य स्थानस्य तूचिता ॥६॥ 'विश्वोद्भवा कीर्तिवल्ली, सुवंशान् प्राप्य 'चोर्ध्वगा । मण्डपे यत् स्थिता भाति, तद्युक्तं गुणशालिनि ॥७॥ १ चित्रं सङ्ग्रामगोत्रोत्था, ११व्यक्तं सदसि मार्गणैः । मिलिता फलिता जाता, विश्वव्यापिन्यसौ च यत् ।।८।। १२दानं श्रीनरदेवमेवमवदद् देवांशिनो ये पुराऽभूवन् भूरि १२नराः कुदानवदरात् ते स्वर्गलोकं गताः । तेनाऽऽधारविवर्जितं समभवं तस्याऽतिहर्ता भवांस्तस्मादुद्धर मां यतस्त्वमसि भो ! प्रत्यक्षदेवोऽधुना ॥९॥ "तच्छ्रुत्वा स जगौ सगौरवमदो भूयात् परं प्रौढतां नीतं त्वं किल यासि तं तु तदवग् वंशेऽपि तेऽहं स्थिरम् । नोक्तं मे यदि मन्यसे तव मतं शीलं तदा साक्षि सत् तद्वाक्यात् स्वगृहे निवासितमिदं द्वेधाऽपि लक्ष्मीप्रदम् ॥१०॥ १५सोऽथ स्वार्थकृते तदर्थ निवहे प्रौढं ददात्यन्वहं शीलं रक्षति किन्त्वदः प्रतिभुवं तस्माच्च तेषां गृहे । १७नो तिष्ठेत् पुनरेति १“चाऽस्य निलये वाणीनिबद्धं सदा येनाऽद्याऽपि तदन्वये गतभये सन्दृश्यते तद्वयम् ॥११॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ ५. मु. प्रश. श्लो. ५८ ७. 'जेतुं' इति मु. प्रश. । ९. 'वृद्धिभाग्' इति मु. प्रश. । ११. 'शीघ्रम्' इति मु. प्रश. । १३. 'तराः' इति मु. प्रश. । १५. मु. प्रश. श्लो. ६८ १७. 'तत्तिष्ठेत्' इति मु. प्रश. । ६. 'समाब्जचरमा' इति मु. प्रश. । ८. मु. प्रश. श्लो. ७२ १०. मु. प्रश. श्लो. ७३ १२. मु. प्रश. श्लो. ६६ १४. मु. प्रश. श्लो. ६७ १६. 'ततये' इति मु.प्रश. । १८. 'चाऽस्य' इति मु. प्रश. । For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ सत्रागारबाज सुधीज सपादलक्ष, बासमुत्कलमत्र व पारं १ यदुष्काले कराले नरपतिरिह नो पाति मान् कुमृत्योविक्रीणीयात् पिताऽपि स्वसुतमसुकृते २'चोर्वरा रङ्करूपा । सत्रागाराणि तस्मिन् प्रकटतरमसौ मण्डयित्वा ह्यरक्षद् भूस्पृक्बीजं सुधीजं प्रति दिननृपतिस्तेन जज्ञेऽस्य २३नाम ॥१२॥ २४भ्रात्राऽस्य धन्येन सपादलक्षं, बद्धं जनं चन्द्रपुरीसमुत्थम् । धन्येन यन्मोचयता धनेन, चक्रे जगन्मुत्कलमत्र चित्रम् ॥१३|| २६ श्रीसङ्ग्रामेऽभिरामे विमलगुणगणा येऽत्र तेषां न पारं याति ब्रह्मापि चैकोऽस्त्यनणुरपगुणो यत्पितुः कीर्तिभीरोः । स्वीयां तामेकशूरां त्रिभुवनभवने वासयत्यादरेणैतस्याऽयं वा न दोषः सुत इह लभते पैतृकं येन सर्वम् ॥१४॥ देवप्रसादान् मम वित्तमस्ति, तस्माद् गुरुत्वं किल सर्ववर्णे । इतीव सञ्चिन्त्य स सूत्रधारै-स्तमेव तस्याऽपि चकार यत् कृती ॥१५॥ २७निजजायासहजलदे-श्रेयोर्थं चाऽत्र विमलजिनचैत्ये । देवकुलिका तथैका, येनोच्चैः कारिता कृतिना ॥१६।। जिनप्रतिष्ठा प्रवरां मुहूर्ते, योऽकारयत् स्वस्य पुनः सदा ताम् । प्रवर्तयेत् तत् किमु सर्वकालं, सत्कर्मकर्तुः सुदिनं भवेद् वा ॥१७॥ २८/२"सत्पुण्यवृत्तार्थमसौ सुवर्ण-वारं सतां राति सदाऽनिवारम् । ते लब्धवर्णाः पुनरस्य तारं, सुश्लोकमाहुः कथमर्थसारम् ॥१८॥ ३°आप्ताङ्गानि सुवीधैः, सोपाङ्गानि प्रपूर्य सः । गुरुन् ३५दर्शयते तानि युक्तमर्थवतोऽस्य तत् ॥१९॥ ३२सुव्यापारेऽप्यसौ धर्मं, यद्दधाति मुदाशये । ३२वेलायां तच्च चित्रं नो, सङ्ग्रामस्येदृशो विधिः ॥२०॥ १९. मु. प्रश. श्लो. ६४ २०. 'मसुकृतेः' इति मु. प्रश. । २१. 'वोर्वरा' इति मु. प्रश. । २२. 'दिननृपबिरुदं' इति मु. प्रश. । २३. 'लोके' इति मु. प्रश. । २४. मु. प्रश. श्लो. ७१ २५. 'समत्थं' इति मु. फश. । २६. मु. प्रश. श्लो. ८७ २७. 'तेजजाया०' इति मु. प्रश. । २८. मु. प्रश. श्लो. ८६ २९. 'यत्' इति मु. प्रश. । ३०. मु. प्रश. श्लो. ३१. 'यद् दर्शयेत्' इति मु. प्रश. । ३२. मु. प्रश. श्लो. ९१ ३३. 'सद्गुणं' इति मु. प्रश. । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ श्रीसङ्ग्रामो नगदल-मलुकाऽपरनामभृत् । नरदेवसुतो जीयात्, सोनाईकुक्षिसम्भवः ||२१|| ३४यद्देवभवनं देवो-ऽकारयत् स्ववसुव्ययैः । स्वभाव ३५एषां शालां तु, पौषधस्य ३६ तदद्भुतम् ॥२२॥ देवेन देवयात्रायां, प्रपा मण्डयता सता । शर्करासुकाल इति, लेभेऽत्र बिरुदं जने ॥ २३ ॥ ३७सौवर्णिकस्य सद्गोत्रे, यन्माणिक्यस्य सम्भवः । तच्चित्रमथ भोजस्य, गृहे किं नो भवत्यहो ! ||२४|| ३८मण्डपे मण्डनमिव, मण्डनोऽसौ विराजते । वामानन्दकृदाकार-शोभाभृच्चारुवर्णयुक् ॥२५॥ ३९ महाबलयुतो जीयाद् भीमो भीम इवाऽतुलः । दुर्दिने शरणं यस्य, प्रपद्यन्ते घना जनाः ||२६|| ४० माणिक्य- ४१ मण्डन - भीम - ४ २ नामानः सोदरास्त्रयः । ४३तीर्थे सङ्घपतीभूय, यात्रां चक्रुः प्रमोदतः ||२७|| ४४ सङ्ग्रामे डुङ्गरोऽयं यज्जापयत्परिमण्डलम् । रक्षयेत् स्वजनव्यूहं सोऽयं धर्मोऽस्य भूभृतः ॥२८॥ ४६ सर्वज्ञसेवां साण्डाख्यो, यत् कुर्यात् तच्च युक्तिमत् । परं निरङ्कस्तच्चित्रं, नरसिंहसुतस्तथा ॥ २९ ॥ ४ गोधाख्यः श्रीजिनागारं धर्मशालां चकार यत् । ४८पितेव जायते पुत्र, इति सत्यापयेद् वचः ॥३०॥ ३४. मु. प्रश. श्लो. ४२ ३६. 'तदद्रुतम्' इति हस्त. । ३८. मु. प्रश. श्लो. ३३ ४६. मु. प्रश. श्लो. ४० ४८. 'पिता वै' इति हस्त. । ३५. 'एष' इति मु. प्रश. । ३७. मु. प्रश. श्लो. ३२ ४०. मु. प्रश. श्लो. ३१ ४२. ‘भोजाकस्य सुतात्रयः' इति मु. प्रश. । ४३. 'सर्वे' इति मु. प्रश. । ४४. मु. प्रश. श्लो. ४९ ४५. 'सङ्ग्रामं' इति मु. प्रश. । ४० मु. प्रश. श्लो. ४६ ३९. मु. प्रश. श्लो. ३४ ४१. 'मण्डन' इति हस्त । For Personal & Private Use Only ९ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ४९ व्याघ्रो (धो) डुङ्गर घुम्नेन, यच्चिन्तयति तत् सृजेत् । नो चेदग्रेसरो" भूत्वा, जीरापल्लीं कथं व्रजेत् ? ||३१|| एतेषु ये सम्प्रति वर्तमानाः, सद्धर्मकर्मा जनसावधानाः । त्यक्ताभिमाना गुरुदत्तमानाः सुदत्तदाना नृपतिप्रधानाः ||३२|| सर्वेऽपि ते श्रीविमलेश्वरस्य चैत्याय सदैवतशेखरस्य । आत्मीयतां वाऽपरतां निरस्य, सम्प्रेषयन्ति स्वधनं वरस्य ||३३|| युग्मम् ॥ ५२ तद्युक्तं यच्च गोधाख्यो, वहेत् पुण्यमनोरथम् । सहस्त्रकिरणः सङ्घ, वस्त्राणि परिधापयेत् ||३४|| ५३ सुदर्शनभृत् श्रीवत्सः, श्रीनिधिः सङ्घनायकः । उपाध्यायपदोद्भु(द्भू?)तः श्लोकः सर्वैस्तु लेभिरे ||३५|| श्रीसङ्घोऽन्योऽथ धन्यो वितरणविदितस्तन्निरीक्ष्य स्वचित्ते चिन्तामेवं प्रचक्रे सुकृतकृतधियो ह्येत एवाऽत्र विश्वे । ये प्रासादे स्वकीये सति धनमतुलं प्रेषयन्त्यन्यचैत्ये नाऽस्माभिस्त्वेकतीर्थे तदनु स सकल : प्रापये (य)त् तत्तदर्थे ||३६|| अवषोऽप्यजीत: (जित) स्वामी, यत्रस्थो रैवताचले । प्रहिणोति धनं तर्हि सवृषाणां किमुच्यते ? ||३७|| अचलं त्वचलं प्राप्य, तद्वित्तं यद् भवेत् किल । तद्युक्तं परमेतेषां कूटस्थं तदिहाऽद्भुतम् ||३८|| श्रीरत्नसिंहसूरीश पट्टपूर्वाद्रिभास्वताम् । श्रीपूज्योदयवल्लभ - सूरीणामुपदेशतः ॥ ३९ ॥ मण्डपो मण्डपस्थेन, श्रीसङ्गेनाऽत्र कारितः । प्रासादे विमलेशस्य, जयताज्जगतीनुतः ॥४०॥ युग्मम् ॥ ॥ इति श्रीमण्डपीय श्रीसङ्गप्रशस्तिः ॥ , ४९. मु. प्रश. श्लो. ५० ५१. ' री' इति मु. प्रश. । ५३. मु. प्रश. श्लो. ४५ , , अनुसन्धान-६२ ५०. 'सारेण' इति मु. प्रश. । ५२. मु. प्रश. श्लो. ४४ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ११ श्री विनयप्रभोपाध्याय निर्मित दो लघु कृतियाँ श्री सीमन्धर एवं इक्कवीस स्थान गभित नेमि स्तवन - सं. म. विनयसागर जैन समाज में सर्वजन प्रसिद्ध 'गौतम रास' - 'वीर जिणेसर चरणकमल कमलाकय-वासउ' के प्रणेता महोपाध्याय विनयप्रभ खरतरगच्छ में हुए हैं । दादा जिनकुशलसूरिजी के स्वहस्तदीक्षित शिष्य थे । इनके सम्बन्ध में यत्र-तत्र जो स्फुट उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे हैं - खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली (पृ. ७९) के अनुसार वि. सं. १३८२, वैशाख सुदि ५ के दिन भीमपल्ली (भीलडियाजी) में साधुराज वीरदेव सुश्रावक कारित दीक्षा, मालारोपणादि नन्दी महामहोत्सव के समय, जिनकुशलसूरिजी ने इनको दीक्षा प्रदान कर इनका विनयप्रभ नामकरण किया था । इसमें विनयप्रभ के लिये क्षुल्लक शब्द का प्रयोग किया गया है, अतः तब बाल्य/किशोर अवस्था १० से १५ वर्ष की होनी चाहिए । फलतः इनका जन्म १३६७ से १३७२ के मध्य हुआ हो, ऐसी कल्पना कर सकते विनयप्रभ कहाँ के निवासी थे ? माता-पिता का क्या नाम था ? आदि उल्लेख प्राप्त नहीं है । अधिक सम्भावना यही है कि ये खम्भात के ही निवासी हो । क्षमाकल्याणीय पट्टावली के अनुसार तत्कालीन गच्छनायक जिनलब्धि सूरि जो कि विनयप्रभ के सहपाठी भी थे, ने इन्हें उपाध्याय पद प्रदान किया था । पट्टावली में संवत् का उल्लेख नहीं है, तथापि अनुमान है कि वि.सं. १३९४ और १४०६ के मध्य ही ये उपाध्याय बने होंगे । ___ मन्त्रीश्वर वीरा और मन्त्रीश्वर सारङ्ग ने सं. १४३१ में नरसमुद्र से सिद्धाचल का यात्रासंघ जिनोदयसूरि की अध्यक्षता में निकाला था । यह संघ प्रयाण करता हुआ घोघावेलकुल (घोघा बन्दर) स्थान पर पहुंचा और तत्र स्थित नवखण्डापार्श्वनाथ की पूजा अर्चना की । घोघा में ही विराजमान For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ महोपाध्याय विनयप्रभजी से मिलकर गच्छनायक जिनोदयसूरिजी हर्षविभोर हो उठे । मिलन के हर्षातिरेक का वर्णन करते हुए लिखा है - "गो-दुग्ध में मिश्री, व्याख्यान के रस में मधुर सुभाषित की भाँति आह्लादजनक, गच्छभार निर्वाह में अपने विशिष्ट सहयोगी/सहायक, समस्त विद्या-नदियों के समुद्र (श्री विनयप्रभोपाध्याय)से संगम बहुत दिनों के बाद हुआ ।" इन उपमाओं में विनयप्रभोपाध्याय का गच्छ में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान था इसका आभास मिलता है । आचार्य जिनोदयसूरि के अत्याग्रह से विनयप्रभ भी इस संघयात्रा में सम्मिलित हुए । (पृ. २७) शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा-पूजा करने के पश्चात् संघ गिरिनार तीर्थ की यात्रा के लिये चल पड़ा । महोपाध्याय विनयप्रभ शारीरिक दृष्टि से सशक्त न थे, अतः वे संघ के साथ गिरिनार तीर्थ न जाकर स्तम्भतीर्थ (खम्भात) चले गए । (पृ. ३१) विनयप्रभ उपाध्याय का स्वर्गवास हो गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। परम्परागत श्रुति के अनुसार इनका स्वर्गवास खम्भात में ही हुआ था । ____महोपाध्याय विनयप्रभ गीतार्थ एवं सर्वमान्य विद्वान् थे । इनके द्वारा सर्जित कुछ कृतियाँ प्राप्त हैं, सूची इस प्रकार है - १. नरवर्म चरित्र- संस्कृत पद्यबद्ध, श्लोक संख्या ४९४ : रचना संवत् १४११, कार्तिक पूर्णिमा, खम्भात । श्री नाहटा बन्धुओं की सूचनानुसार उन्होंने "संवत् १४१२ वर्षे श्री विनयप्रभोपाध्यायैः श्रीस्तम्भपुरे स्थितैः सम्यक्त्वसारा चक्रे हि नरवर्म-नृपकथा" प्रशस्ति वाली १० पत्रों की तत्कालीन लिखित प्रति भावहर्षीय ज्ञान भण्डार, बालोतरा में देखी थी। इस ग्रन्थ को पं. हीरालाल हंसराज, जामनगर ने १०० वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था, पर उसमें कर्ता के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं है । गौतमरास- भाषा प्राचीन मरु गुर्जर, पद्य ४७ : रचना संवत् १४१२, कार्तिक शुक्ला १, खम्भात । कहा जाता है कि इसकी रचना उपाध्यायजी ने अपने भाई के दारिद्र्य निवारणार्थ की थी, जो कि खम्भात में ही निवास करता था । For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १३ इस रास के कर्ता के सम्बन्ध में परवर्ती कई लेखकों एवं प्रकाशकों ने “विजयभद्र या उदयवन्त' लिखकर भ्रामकता पैदा की है । रास की गाथा ४३ में स्पष्टतः “विणयपहु उवझाय थुणिज्जई" विनयप्रभोपाध्याय का उल्लेख है। दूसरी बात, रचना सं. १४१२ के १८ वर्ष बाद की अर्थात् १४३० की लिखित स्वाध्याय पुस्तिका में यह रास और विनयप्रभरचित कई स्तोत्र भी प्राप्त हैं । यह प्रति बीकानेर के बृहद् ज्ञानभण्डार में सुरक्षित है। ३. महावीरस्तव- (सानन्दनम्रसुरकोटिकिरीटपीठ) श्लोक २४ भाषा-संस्कृत ४. विमलाचल ऋषभजिनस्तव-(विमलशैलशिरोमुकुटायतं) श्लोक २७, भाषा संस्कृत ५. शान्तिजिनस्तव-(सज्ज्ञानभानुहतमोहतमोवितानक) श्लोक १९, भाषा-संस्कृत ६. तमालताली पार्श्वस्तव-पद्य ९, भाषा-संस्कृत ७. वीतरागविज्ञप्ति-(मुखं संकुखं नयणले) पद्य १३, भाषा प्राचीन मरु गुर्जर ८. तीर्थयात्रा स्तव-(महानन्द-महानन्द). प. ४१, भाषा-संस्कृत ९. वीतरागस्तव-(देविंद नागिंद नरिंद चंद) गाथा २५, भाषा-अपभ्रंश १०. चतुर्विंशति जिन स्तव-(मोह महाभड़ भय महण रिसह) गाथा २९, भाषा अपभ्रंश ११. सीमन्धरस्तव-(नमिर सुर असुर नरविंद वंदिय पयं)गाथा १४, भाषा अपभ्रंश १२. तीर्थमाला स्तवन-(पणमिय जिणवरचलणे) गाथा २५, भाषा-अपभ्रंश जिस प्रकार याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपनी कृतियों में स्वयं के लिये "भवविरह" का प्रयोग किया है, उसी प्रकार विनयप्रभ ने भी अपनी रचनाओं में अपना उपनाम "बोधिबीज" का प्रयोग किया है। शिष्यपरम्परा-विनयप्रभ के प्रमुख शिष्य विजयतिलक और प्रमुख प्रशिष्य क्षेमकीर्ति हुए । विनयप्रभ की शिष्य परम्परा में अन्तिम यति श्यामलालजी के शिष्य यति विजयचन्द्र हुए, जो कि बीकानेर की बड़ी गद्दी For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ पर जिनविजयेन्द्रसूरि के नाम से श्रीपूज्य बने थे । इनके पश्चात् विनयप्रभ की परम्परा लुप्त हो गई है । स्तवनों की विशेषताएं १. सीमन्धर स्वामी स्तवन - इसकी भाषा अपभ्रंश लगती है किन्तु है नहीं । अपभ्रंश-प्रभावित यह रचना अवश्य है । इसमें स्थान-स्थान पर अपभ्रंश के शब्द प्ररूपित किये गए हैं । पूर्व भव में श्रेष्ठ पुण्यों का संचय कर पुष्करावर्त नगर के राजा के यहां जन्म लिया । भरत क्षेत्र के कुन्थुनाथ और अरनाथ के मध्यकाल में इनका जन्म लिखा है । सीमंधर स्वामी के गुणों का पूर्ण वर्णन किया गया है और उनसे याचना कि गई है कि तूं ही मेरी गति है, तूं ही मेरी मति है, तूं ही मेरा जीवन है और तुम्हीं मेरे पिता हो और तुम्हीं मेरे कर्ममल का नाश करने वाले हो । इसमें विनयप्रभ ने अपना नाम न देकर उपनाम बोधिबीज कहा है। कुल पद्य अपभ्रंश छन्द में इक्कीस पद में इसकी रचना की गई है। २. इक्कीस स्थान गर्भित नेमिनाथ स्तवन - इसमें बाईसवें भगवान् नेमिनाथ का संक्षिप्त जीवन-चरित्र इक्कीस स्थानों से गर्भित रूप में दिया है। अपराजित देव लोक से तैतीस सागरोपम आयुष्य पूर्ण कर, शौरीपुर के राजा समुद्रविजय की पत्नी शिवादेवी की कुक्षी से जन्म लिया । श्रावण शुक्ला पञ्चमी को जन्म होने पर दिक्कुमारिकाओं द्वारा जन्मोत्सव मनाने के साथ पूर्णिमा के चन्द्र के समान आनन्द देने भगवान् का जन्मोत्सव इन्द्रादिक देवताओं ने मनाया । बलदेव और कृष्ण उनके चचेरे भाई थे । जिन्होंने जरासन्ध के बल का हरण किया था । तीन सौ साल तक गृहावस्था में रहे थे । यदुवंशियों के साथ मिलकर उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ विवाह करने गये थे । पशुओं की पुकार सुनकर वापस लौट गये । लोकान्तिक देवों के द्वारा प्रतिबोधित होकर वर्षीदान देकर देवताओं के समूह के जय जयकार करते हुए रेवंतगिरि पर्वत पर जाकर श्रावण शुक्ल छठ को दीक्षा ग्रहण की थी। उस समय कन्या राशि चल रही थी । दूसरे दिन वरदत्त के यहाँ पारणा किया था । आश्विन शुक्ला अमावस्या के दिन चौपन दिन छद्मस्थावस्था में रहने के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त किया था । उस समय इन्द्रादिक देवताओं For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ने समवसरण की रचना की थी । धर्मदेशना देकर चतुर्विध संघ की स्थापना की थी। उसके पश्चात् साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका की गणना आदि की संख्या आदि दी गई है । गणधरों की स्थापना की थी और रेवन्तगिरि-गिरिनार के ऊपर भगवान् ने मोक्ष प्राप्त किया था । उस गिरनार तीर्थ पर भगवान् का मन्दिर बना हुआ है, जहाँ साम्ब और प्रद्युम्न भी विराजमान हैं । अम्बिकादेवी शासनरक्षिका हैं । हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर, गिरिनार पर चढ़कर, एक मास का उपवास कर, आषाढ शुक्ला अष्टमी के दिन पाँच सौ छतीस के साथ सिद्धि पद प्राप्त किया था । इस प्रकार इक्कीस स्थानों से गर्भित शुभ ध्यान से विनय भक्ति करता है और उसके हृदय में बोधिबीज जागृत करें । इसमें पद्य संख्या बत्तीस हैं। इसमें सीमन्धर स्तवन की अपेक्षा कुछ टकशाली शब्द भी अधिक हैं । घात(घत्ता?) इत्यादि छन्दों की दृष्टि से भी अपभ्रंश के निकट हैं । ये दोनों कृतियाँ जैसलमेर जिनभद्रसूरि ज्ञानभण्डार की हैं । पाठकों के रसास्वादन के लिए दोनों कृतियाँ दी जा रही हैं । ॥सीमन्धर-स्वामी स्तवना ॥ नमिर-सुर-असुर-नर-वंदिय-पयं रयणिकर-निकर-कर-कित्ति-भर-पूरियं । पंच-सय-धणुह-परिमाणु-परिमंडियं, थुणह भत्तीइ सीमंधरं सामियं ॥१॥ मेरुगिरि सिहरि धयबंधी जो कुणइ, गयणि तारा गणइ वेलुयाकण मणइ । चरमसायर जले लहिरमाला मुणइ, सो वि न हु सामि तुह सव्वहा गुण थुणइ ॥२॥ तह वि जिणनाह नियजम्म सफलीकए, विमल-सुह-झाण-संघा(धा)ण-संसिद्धए । असुह-दल-कम्म-मल-पडल-निन्नासणं, तात करवाणि तुह संथवं बहुगुणं ॥३॥ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ मोहभर-बहुल-जलपूर-संपूरिए, विसय-घणकम्म-वणराज-संराजिए । भवजलहि मज्झ निवडत-जंतूकए, सामि सीमंधरो माय जिम सोहए ॥४॥ तेयभर-भरिय दिइ-विदिसि(सि) गयणंगणे, पि(प)बल-मिछत्त-तिमिर-विद्धंसणो । तविय-जलकमल-वणसंड-बोहंकरो, सामि सीमंधरो दिप्पउ दिणयरो ।।५।। सुजण-मण-नयण-आणंद-संपूरकं, दुरित-हर-भार-तारक-मणी-नायकं । सयल-जग-जंतु-भव-पाप-तापापहं, नमउं सीमंधरं चंदसोभावहं ।।६।। सुरभवणि गयणि पायालि भूमंडले, नयरि पुरि नीरनिहि मेरुपव्वयकुले । देव-देवीगणा नारि-नर-किन्नरा, तुम्ह जस नाह गायंति सादरपरा ॥७॥ नाणगुणि झाणगुणि चरणगुणि सोहिया, सार-उवयार-संभार-संसोहिया । रयण-दिण इरिसवेसि(हरिसवसि?) सुत्त-जागरमणा, नाह तुह नामु झायंति तिहुयणजणा ।।८।। सिद्धिकर रिद्धिकर बुद्धिकर संकर, वियवि(?) अमियभर सामि सीमंधरं । पुव्वभव-विहिय-वरपुन्न-वय-पामियं, राखिहिव भूरि भवभमणु मूं सामियं ।।९।। कम्म-भर-भरिउ संसार अइभग्गउ, थुणउ परिऊण पायहउ लग्गउ । मज्झ हीणस्स णस्स सिर गामिय,(?) करवि करुणायरु संसार करि सामिय ॥१०॥ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १७ कठिन-हठ-घाइ तिरियत्तणे ताजिउ, नरयगइ करण विलवंतु न हु लाजिउ । मणुयगइय हीण पक्खिम्म वसि पडियउ, लागि तुह चलणि आणंदि हिव चडिवउ ॥११॥ के वि तुह दंसणे देव सिवसोहगा, के वि वाणी सुणी चरणि भवमोयगा । भरहखित्तंमि हउं झाणि छउं लग्गउ, देहि आलंबणं नाह जइ जग्गउ ॥१२॥ धन्न ते नयरि जहि सामि सीमंधरो, विहरए भवियजण-[स]व्व-संसयहरो । कामघट देवमणि देवतरु फलियउ, तीइ घरि जीह हूइ सामि तुम्ह मिलियउ ॥१३।। करजुयल जोडि करि वयण तुह निसुणिसो, बाल जिम हलदे(?) पाय तुह पणमिसो । महुर-सरि तुम्ह गुणगणु हउं गाइसो, निय-नयणि रूव रोमंचिउं जोयसो ॥१४॥ तुम्ह पासे ठिउ चरणु परिपालिसो, हणिय कम्माणि केवल थिर पामिसो । तुम्ह जिण नियय-करु सिरसि संठविसउ, सो वि कईया वि मूहो सपदि वासउ ॥१५।। भरहखित्तंमि सिरि कुंथु अर अंतरे, जम्मु पुंडरगिणी विजय पुक्खलवरे । मुणिसुव्वय तित्थ नमि अंतरं इह जया, रेजु सिरि परिहरवि गहिय संजमु तया ॥१६।। हणिय कम्माणि लहु लद्ध केवलसिरी, देहि मे दंसणं नाहु करुणा करी । भाविए उदय जिण सत्तमे सिवगए, बहुय कालेण सिद्धि गमी सामिए ।१७।। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ मोहभर कामभर लोभभर भरियउ उदरभर रागभर कामभर पूरिउ । एह परि भरहखित्तंमि मं सामिय, सार करि सार करि तारिगो सामिय ॥१८॥ भोगपद राजपद नाणपद संपदं, चक्किपद इंदपद जाव परमं पदं । तुज्झ भत्तीइ सव्वं पि संपज्जुए, एह माहप्पु तुह सयलि जगि गज्जुए ॥१९।। तुहुं जि गति तुहुं जि मति तुहं जि मम जीवनं, तात तउं परमगुरु कम्ममलपावनं । कम्मकर विनयपह जोडि कर वीनवं, देहि मे अलजया दंसणं अभिनवं ॥२०॥ इय भवण-भूषण दलीय-दूषण सव्व-लक्खण-मंडणो, मद-मान-मंजण मोह-भंजण वाम-काम-विहंडणो । सुरराय-रंजण नाण-दसण-चरण-गुण-जय-नायगो, जिननाहु भवि भवि तात भव मे बोधिबीजह दायगो ॥२१॥ इति श्री सीमन्धरस्वामि स्तवनं ॥ (२) ॥ इगवीस स्थान गर्भित नेमि जिनस्तव ॥ सयल-जग-ललिय-लावण्ण-सोभावहं, नमवि सिरि-नेमि-जिण-पाय-पंकय-महं । थुणिसु तस चरिय बहु भत्ति-भर-पूरिउ, मणि वयणि काइ आणंदि अंकूरिउं ॥१॥ नाण-विन्नाण-घण-झाण-दंसण-गुणा, करण-दम-चरण-परिचरण-धी-धीरणा । सयल फलवंतु किरि होइ य(भ)वियण-जणे, तात ! तुह थुणण-रस-रसिय-निय-निय-मणे ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ अवर तित्तीस अवराजिए सुरभवो, करिय सोरियपुरे समुद्दविजयाधिवो । तत्थ सिवदेवि कुच्छंसि उववन्नउ, तिहुयणाणंद-सोहग्ग-संपुन्नउ ॥३।। मासि सावण सिए पंचमी-वासरे, नाह ! तुह जम्मु जगि मिलिय-सचराचरे । दिसिकुमरि सूई करइ रोमंचिया, न्हवई सुरसेलि इंदा य आणंदिया ॥४॥ पुन्निमाचंद जिम नयण-आणंदणो, संख-लंछण-चणो जणिय-जग-रंजणो । रूव-लावन्न-बलि कुणिहि न वि नामिउ, रमइ रामेण गोविंद सउं सामिउं ॥५॥ मयणभड-चूरि भडवाय-भर-भंजणो, संख सद्दिणि जरासंध बलगंजणो । वाम-भुय-दंडि हरि हेलि हिंडोलणो, धरिय-धीरिम-धुरा मेरुगिरि-तोलणो ॥६॥ भोग-भंगी-भुजंगी-परीवजु(ज्जु?)णो, साम-तणु विमल-मणु सिरिसिवा-नंदणो । ललिय-गइ ललिय-मइ ललिय-संवर वरो, तिन्नि सय वरिस घरि रहिय नेमीसरो ॥७॥ मिलिय-जदुवंस-नरनारि-रंजणकए, गरुय-विछडि वीवाहु वरि चल्लुए । पसुय-गण पिखि करुणा-परो वलियउ, सरभु केणा वि किं बंधणिहिं कलियउ ॥८॥ समय जाणवि लोगंतिया आगया, नमवि नेमिजिणु विन्नवइ देवया । धम्मवर तित्थु जगिनाह तुम्हि पयडउ, सूरि जिम मोह-अंधारउ फेडउ ।।९।। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० परम वयणु जिण वरिस - दिण दाणु देई करी, माय-पियराण पहु अणुमन्नई अणुसरि । - संवेग-रसि-रसिय- साहसपरो, बारवई मज्झि मज्झेण जिणेसरो ||१०|| मिलिय सुर-असुर - नर कोडि-कोडी गणा, जय जयाकार भरि करइं जिणवरगुणा । मासि सावण सिए छट्टि दिणि सामिउ, चडिय रेवंतिगिरि नेमि सिवगामिउ ॥११॥ रायमइ रायमइ रायमइ रहियउ, सहस सहकार-वण सहस- जण सहियउ । लेइ संजमसिरिं नेमि जीणेसरो, छट्ठि तवि कन्नरासम्मि परमेसरो ॥१२॥ निसम निकसाय संसार - सिव- सम-मणो, बीय दिणि विहिय वरदत्त-घरि पारणो । दस - दिसा गंतु जग-जंतु रक्खणकए, नेमि जिण धणह दस माण करि सोहए ||१३|| मास आसोय अम्मावसी सुहदिणे, दिवसि चउवन्न वणिय - भूरि- भवरिय - गणे । तिति उववास करि दिक्ख ठाण ठिऊ, गरुय संवेगि केवलसिरि य वरियऊ ||१४|| ॥ घात ॥ सयल सुरवर सयल सुरवर मिलिय बहुभत्ति, आणंदहिय उल्हसिय, समवसरणु निमवई बहुपरि सिंहासणि सिंह जिम नेमिनाह उवविसइ तहि गिरि । जयजयकारु समुहसिय उवदंसइ जिण धम्मु, जोजन वाणिय अमिय जिम सामिय महिमा रम् ॥ १५ ॥ धम्मदेसण सुणिय मुणिय भव जु भयं, के विचारितु मह के वि सावय-वयं । के वि सम्मत्तु गिण्हति उत्तमतमं, नेमिजिण पासि गुरु- भाव - वासि समं ||१६|| अनुसन्धान-६२ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ सहस अट्ठारस सय-हत्थि मुणि दिक्खिया, सहस चालीस साहुणि सय - निम्मिया । इगुणसत्तरि सहस लक्खु इगु सावया, सहस छत्तीस सउ लक्ख तिनि साविया ||१७|| तम्मि रस - थुणिर- सुर-असुर - नारी - नरा, विन्नवई नाह तुह पाय सेवायरा । उल्लसिर- भकति-भर- भरिय - रोमंचिउ, मण-मणोरह भणउं नाह चिर संचिउ ॥१८॥ देव भावारिगण जे हु तुम्हि जित्तुउ, तेहि इह हउं जित्तु छउं नाह भत्तउ । करिय सेवक दया पसूय जिम सामिय, कम्मबंधाडि मेल्हाविगो सामिय ॥ १९ ॥ अनंत युगल फिरिय चउद-रज- गोचरे, जीव चतुरासियं लख गुणंतरे । तिरियगइं नरयगइ मणुयगइ सुरगई, तुम्ह दंसण विणा दुक्ख मय अणुहुई ||२०| [ घत्ता ] नेमि जिणवर नेमि जिणवर मोह माहप्पा हउ हीणमणु बहुकषाय विषय विगंजिय । मिच्छत्तगहगणगहिय कोडिरूप पाखंडि रंजिय । कुगुरु कुतित्थ कुदेव कुल कोडा कोडि भमंत, तुह सरणाई होइ करिहि बहूउ निश्चित ||२१| नयण मणि वयण तणि अमिय रसि रसियउ, देवतरु- धेणु - मणि कुंभ करि वसियउ । जम्म मह दिवस मह पुन्न मह फलियउ, अज्ज रेवंतगिरि तुम्ह जउ मिलियउ ॥ २२॥ वयगहण नाण सिव गण हउ पामिउ, तत्थ गिरि चडवि मई तुम्ह सिरु नामिउ । धरिय गरुयडि धणिय सार हव किजुउ, एग दु नवि सवे मम वि ए दिउ ||२३|| २१ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ कमलदलि भमर जिम लीणु छउ तुम्ह पए, एग संवासि हिव चासु दइ सिवपए । रिद्धि-बहुमाण-दाणेण सामिय सयं, करइं गरुया जउ निय-समं सेवयं ॥२४॥ गयणि ठिउ करइ रवि कमल-पडिबोहणं, दर ठिय तुज्झ झाणेण तिम सोहणं । गरुय रेवंतगिरि सोइ सिवदाइगो भेटिउ वाटरि मह पुन्न नर नायको ॥२५।। ॥ घात ॥ धम्मवासर धम्मवासर अज्जु मह नाह, सिरि रेवइगिरि चडिय, नेमिनाह नयण दीठउ अइफलियउ पुन्नतरु, अमिय मेहु मह देहि वूठउ । तुह गइ तुह मइ तुहि हजि गुरु तुह सामिय तुह देव, तिम करि हिव जिस होइ मम भवि भवि तुम्ह पयसेव ॥२६।। मयणि जिणि तुह जगि जंत जगवंतरे, सो वि माहेण सउ हणिय हेलाभरे । एहु माहप्पु तुह सयलि जगि गज्जए, जगह दुजुण जए कवणु नह गज्जुए ॥२७॥ वणगहण जिण-भुवण-बिंब बहु सुंदरो, सांब पज्जून अवलोय सिहरो वरो । गयंदमयकुंड कंचणबलाणाजुउ, अंबिका पमुह बहु गण कंचणमउ ॥२८॥ एहु रेवंतगिरि सुकय-जण-सुल्लहो, तत्थ तियलोयगुरु नेमि जगवल्लहो । नमिय मणरंगि गुणरंगु तसु थुणियए, वरिसए मास दिणु धन्नु करि मुणियए ॥२९।। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ॥ घात ॥ नाह लघउ नाह लघउ मणुय भवराह, कुल निमलु सुगुरु गुरु । वीतराग जिण धम्म संजम, तुह दंसण पूयण न्हवण गुणह गान गिरनार उत्तम इति य चडिउ इकु हिव हित्था लंबणु दहि, जिम हेलाई हउ चडउं अइगरुइ सिवगेहि ॥३०॥ पुहवि पूरिय सहस वरिसाउ, सिरि रेइगिरि चडिय नाण ठाणि मासोपवासिय, असाढ अठमि रयणि धवल पखि मुणिगण भासिय । पंचसय छत्तीस सउ उम्मूलिय भवकंदु, सोहग-सुंदर सिद्धि-पुरि पुहतउ नेमि-जिणंदु ॥३१।। [कलश] इय नेमि जिणवर भुवण-दिणयर वासुदेव नमंसिउं, गोमेध-अंबिक-जक्ख-जक्खिणि-विहिय-सासण-संसिउ । इगवीस-ठाणिहि सुद्ध-झाणिहि विनय भत्तिहि संथुउ, जगजणिय रीजं बोधिबीजं देहि वंछिय पूरउ ॥३२।। ॥ इति इगवीसठाणगर्भित नेमिस्तव ॥ छ । ना For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनुसन्धान-६२ अव्ययार्थ-सङ्ग्रहः - सं. म. विनयसागर डॉ. नारायणशास्त्री काङ्कर, विद्यालङ्कार आचार्यप्रवर श्रीजिनभद्रसूरिजी महाराज ने खम्भात, पाटन आदि स्थानों के खरतरगच्छीय ज्ञानभण्डारों में से कुछ ग्रन्थों को लाकर शुष्क प्रदेश मरुस्थल जैसलमेर में संवत् १४९७ के आस-पास जिनभद्रसूरि ज्ञानभण्डार की स्थापना की थी। उस समय उनका समस्त शासन/समुदाय तथा प्रतिलिपिकार ज्ञानभण्डार को समृद्ध करने में लगे थे । आचार्य और उनके साधुगण लिखापित प्रतियों का संशोधन भी करते थे । उस समय में संवत् १५११ चैत्र वदी बारस रविवार को किसी विद्वान ने इस ग्रन्थकी प्रतिलिपि की थी। कागज की प्रतिलिपि होने के कारण पत्र पाँच, प्रत्येक पृष्ठ पर पङ्क्ति सत्रह और प्रत्येक पङ्क्ति में अक्षर अड़तालीस के लगभग हैं । इसकी साइज पौने ग्यारह और साढे चार है । अव्यय पदों का संग्रह जैसे अमरकोष में किया गया है वैसे ही अन्य अभिधानचिन्तामणिनाममाला, अनेकार्थसंग्रह, विश्वप्रकाशकोष, मेदिनीकोष आदि में भी संभवत: किया गया है । प्रस्तुत अव्ययार्थ-संग्रह अपने आप में कुछ विशिष्ट ही है क्योंकि इसमें अव्ययों का तो अर्थ किया ही गया है किन्तु उन अव्ययों के साथ प्रयुक्त स्थल भी दृष्टान्त के रूप में दिये गये हैं जिससे कि अध्येता वर्ग को समझने में सहायता मिलती है । सभी अव्यय श्लोकबद्ध किये गए हैं किन्तु साथ में दृष्टान्त प्रस्तुत करने से उनकी श्लोकबद्धता प्रतीत नहीं होती है । पाठकों के अध्ययन के लिए यह प्रस्तुत है - ___ अव्ययार्थसङ्ग्रहः स्वरादिरव्ययं चादेरस्त्वे(रसत्त्वे)क्त्वातुमं गतिः । कात्प्राग्वदादिरूादिच्चिडाखाट प्रादयो गतिः ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ चादिनिपातसंज्ञश्च न सत्त्वे च: समुच्चये । एवोऽवधारणे क्त्वादिः कृत्वा कर्तुं घटं घटम् ॥२॥ ऊरी शुक्ली पटपटा खाट प्रादेः कृत्यराजवत् । स्वः स्वर्गे परलोके च । स्वर्गे- स्व: सुखयति, स्वर्गच्छति, स्व: संजानीते, स्वः स्पृहयति, स्वरागच्छति, स्वः सुखं, स्वर्वसति । परलोके- स्वर्यातस्य ह्यपुत्रस्य । पुनर्भेदेपि । भेदो विशेष:- किं पुनर्ब्राह्मणः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा । अपि-शब्दाद् भूयोऽर्थेऽपि- पुनरुक्तं वचः । रोदसी द्यावाभूम्योः सहोक्त्याऽपि स्त्रीवानीस्नुनपुंसकम् । अपि शब्दाद् दिवि भूमौ च पृथक् पृथक् । रुणद्धि रोदसी कीर्तिः, रुणद्धि रोदस्यौ, रुणद्धि सर्वं रोदः । वृथा निरर्थकाविध्योः । वृथाश्रमः प्रातिभाव्यं, वृथा दान-माक्षिकं सौरिकं च यत् । नानाऽनेकोभयार्थयोः । नानाविधा जनाः, नानापक्षावमर्शः संशयः । प्रशंसातिशये सुष्ठ । सुष्ठूक्तम्, सुष्ठु विभाति । समयाऽन्तिक-मध्ययोः । त्वां समयाऽऽस्ते, त्वदन्तिके इत्यर्थः । ग्रामं समयाऽऽस्ते, ग्राममध्ये इत्यर्थः । तिरोऽनूर्द्धवो(चे) तिर्यगर्थे । तिरोहितः, तिरः काष्ठं कुरु । कं मूर्द्धनि जले सुखे । कंजाः केशाः, कंजं पद्मम्, कंयुः । मत्वर्थे युः । साम्यर्द्ध कुत्सिते । सामि संमीलिताक्षी, सामिकृतमकृतं स्यात् । अन्योन्यं रहोऽर्थे द्वौ मिथो मिथः । For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मिथो मन्त्रयन्ते, मिथो प्रियामाभाषते । एवं मिथः शब्दोऽपि । प्रसह्य शीघ्रहठयोः 1 प्रसह्य सिंहः किल तां चकर्ष । प्रसह्य वित्तानि हरन्ति चौराः । धिग् निर्भत्सननिन्दयोः । धिक् तार्किकान्, धिक्कृतोऽयम् । जोषं मौने सुखे ज्योष्यं च । जोषमास्व, जोषमास्ते जितेन्द्रियः । एवं ज्योष्यं च । अञ्जसा तत्त्वशीघ्रयोः । अञ्जसा वक्ति साधुः, अञ्जसा श्लोकं पठति । पापकुत्सेषदर्थे कु । पापो ब्रह्मा कुब्रह्म, कुपुरुषः, कामधुरम् । सपदि द्रुततत्क्षणे । सपदि प्रदहत्युपेक्षितोऽग्निः सपदि मुकुलिताक्षी । प्रत्यक्षतुल्ययोः साक्षात् । साक्षाद् दृष्ट्वा, इयं साक्षाल्लक्ष्मीः । अम्नः संप्रतिशीघ्रयोः । अम्न एवागच्छति अम्नरेवाऽऽगच्छति । स्वस्त्याशीर्मङ्गलक्षेमपुण्यप्रत्यभिवादने । , आशिषि - स्वस्ति तेऽस्तु लतया, -- सुक्षा, मङ्गले- स्वस्ति श्रीकुसुमपुरात्। क्षेमे- स्वस्त्यस्तु ते सौम्य चिराय जीव । पुण्ये- स्वस्त्यस्तु ते धार्मिक मत्प्रसादात् । प्रत्यभिवादने - राज्ञा नमस्कृता विप्राः स्वस्तीत्येते प्रयुञ्जते । अद्धा तत्त्वे । अवैमि त्वामद्धा, तत्त्वत इत्यर्थः । मुधा व्यर्थे स्यात् । किं त्वं मुधा ताम्यसि । अनुसन्धान-६२ For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ २७ द्वौ द्वौ मिथुनं मिथुः मिथुनं मन्त्रयन्ते, मिथुर्मन्त्रयन्ते, द्वौ द्वावित्यर्थः । रुधक् सत्यमृतं सत्ये । रुधग्वदति, सत्यवादी, ऋतवादी । मिथुर्मिथ्या मृषाऽनृते । मिथुवादी, मिथ्यावादी, मृषावादः । उच्चैर्नीचैर्महत्यल्पे । क्रमेण उच्चैर्याति, नीचैर्गच्छन्ति । प्रायो भूम्ना सन्तः । प्रायो विवेक्तारः । आत्मना स्वयम् । स्वयं ददाति । प्रशांस्तुल्ये । प्रशान् देवदत्तो यज्ञदत्तेन । वरं दीनोत्कर्षे । वरं विरोधो हि समं महात्मभिः । युगपदेकदा । सहस्रमणां युगपत् पपात । समकाले प्रवाहोः क्कं । प्रवाहुग् गृह्णीयात्, प्रबा(वा)हुकं गृह्णीयात् । शं सुखे । शंकरः नियमे मतं ---वर्तते । आनुकूल्येऽन्वक् । अन्वग् ययौ मध्यमलोकपालः । अन्याय्येऽसांप्रतम् । विषवृक्षोऽपि संवर्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम् । खे विहायसा द्युः । विहायसा रम्यतमं विभाति । For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ भुवो निर्मलं द्युश्चन्द्रो द्योतते । निश्चयेऽवश्यम् । अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषयाः । तूष्णीं मौने । तूष्णीं कुरु । सु पूजने । सुनासीर: । पृथग्विनाऽन्तरेणते॑ ऽन्यत्र नानाऽन्तराहिरुक् । बहिर्विकारं पृथग् विदुः, विना धर्म्यं कुतः सुखम्, तथाऽन्तरेणर्ते पतितान्न बिभृदन्यत्र मातु:, नाना नारीर्निष्फला लोकयात्रा, त्वामन्तरा तामरसायताक्षि !, हिरुक् कर्मणो मोक्षः, कर्म्मक्षये मोक्ष इत्यर्थः । रहस्युपांशु | उपांशु मन्त्रं जपति । मध्येऽन्तरन्तरेणाऽन्तरान्तरे । अन्तर्वनस्य, अन्तरेण त्वां च मां च कमण्डलुः, तथाऽन्तरा, आवयोरन्तरे जाताः पर्वताः सरितो द्रुमाः । परितः सर्वतो विष्वक् समन्ताच्च समन्ततः । परितः पतन्ति दुष्कृतां विपदः, सर्वतः संपदः सताम्, विष्वग् धावन्ति, एवमन्यौ च । दीर्घकाले मिनायात्स्यरात्रायेति चिरात् पराः । अनुसन्धान-६२ चिरं जीव, चिरेणाऽऽगतः, चिराय निर्द्धनो भूत्वा भवत्यह्ना महाधनः, कस्माच्चिराद् दृश्यसे, चिरस्य दृष्टोऽसि, चिररात्राय जनेन चिन्तितम् । मुहुः पुनः पुनः शश्वदभीक्ष्णमसकृत्समाः । कान्ता मुहुर्ध्यायति, पुन: पुनर्वारि पिबेदभूरि, शश्वदुक्ति कुशिक्षितः, अभीक्ष्णमास्फालयतीव कुम्भम्, असकृद् वक्ति । स्स्राग् द्राक् ताजग् झगित्याशु झटित्यह्नाय मंक्ष्वरं तरसाऽवद्रुते । स्राक् सरन्त्यभिसारिका: द्राग् विद्रुतं कातरैः, ताजक् पचति झगिति पलायते, आशु गच्छति, आनीय झटिति घटयति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः, अह्नाय सा नियमजं क्लममुत्ससर्ज्ज, मक्षूदपाति परित: पटलैरलीनाम्, अरं For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ पठति, तरसा पठति । कालभूयस्त्वे ज्योक् । ज्योग् जीवन्ति धार्मिकाः । नमो नतौ । नमो जिनाय । बलवत्किमुताऽतीवसुष्ठ स्वति च निर्भरे निप्रात् कामम् । बलवत् पिपासितोऽस्मि, किमुत शोभते, तथाऽन्यौ च, सुसिक्त आम्रः फलति, अतिसिक्तः, निकामं क्षामाङ्गी, प्रकामं क्षामाङ्गी । अथो दुष्ठ निन्दायाम् । दुष्ठुवादी खलः । अद्रुते शनैः । शनैयान्ति पिपीलिका[:] । आनुषगनुपूर्व्याम् । आनुषक् प्रविशति बन्धुता । धु-दिवाऽह्नि । शोभनं धु, दिवाऽधीते । अस्तमदर्शने । अस्तं गतः सूर्यः, अस्तं गतानि दुःखानि । सायं साये । सायन्तनो वायुः । तथा प्रगे प्रातः प्रभाते । निकषाऽन्तिके । निकषा ग्रामं वसति । ह्यो गतेऽनागतेऽह्नि श्वः । ह्योऽकरोत्, श्वो गन्ता । परश्वः श्वःपरेऽहनि । परश्वो यास्यामि । अकामानुमतौ कामम् आदावनिच्छायां पश्चादङ्गीकारे- कामं करोमि । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसन्धान-६२ पुनर्भूयः । पुनरुक्तं, भूयोऽप्यागमनम् । सना सनात् सनन्नित्ये । सनातनः, सनादेव पठति, सनत्कुमारः । अथ नक्तं निश्युषा दोषास्वपि द्वयम् । नक्तन्तनः, उषातनः, दोषातनः । स्त्रीत्वे औषिकः दौषिकः । परं किन्तु । विद्वानसि परमहङ्कारी । बहिर्नाऽन्तः । बहिर्दामाद् वसति । प्रसह्याऽऽर्यहलं बलात् हठे ।। प्रसह्य वित्तानि हरन्ति चौराः, आर्यहलं गृह्णाति, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । सनुतरन्तौं । सनुतश्चौरो गच्छति । पुरात्तस्स्तात् पुरोऽग्रतः । अग्रे नासीरधूलिधवलाः, पुरतः प्रयान्ति, पुरस्ताद् धावतीत्यादि । साम्प्रतं स्थाने युक्ते । न साम्प्रतं यत् स्त्री, स्थाने प्रश्नः कृतः । भू रसातले । भूर्वसन्ति सर्पाः । ॥ इति स्वरादिगणः समाप्तः ॥छ।। चाऽन्वाचयसमाहारेतरेतरसमुच्चये विनियोगे । अन्वाचयो मुख्यसिद्धावप्रधाननिष्पत्तिः- भिक्षामट गां चाऽऽनय । समाहारः संहतिः- पाणी च पादं च पाणिपादम् । इतरेतरयोगः संहन्यमानप्रधानः समूहः- प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधौ। समुच्चये एकत्राऽनेकप्रत्ययः- गार्यो वात्स्यश्चाऽऽगतौ । पचति च पठति च चैत्रः । For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ - विनियोगे - अहं च त्वं च गच्छावः । अन्यत्राऽपि तुल्ययोगितायां ध्यातश्चोपस्थितश्च । हेतौ - ग्रामश्च गन्तव्यः शीतं च वर्त्तते, शीतात् कथं गम्यत इत्यर्थः । अह हैतौ द्वौ निन्दायां च चकाराद् विनियोगे च । निन्दायां - स्वयमह रथेन याति, उपाध्यायं पदातिं गमयति । स्वयं ह ओदनं भुङ्क्ते, उपाध्यायं सक्तून् पाययति । विनियोगे- त्वमह ग्रामं गच्छ, अयमहाऽरण्यं गच्छतु । अर्चनेऽप्यह- अह माणवको भुङ्क्ते । वा विकल्पोपमाद्वन्द्वेषु । यवैर्वा व्रीहिभिर्वा यजते । उपमायां- जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वाऽन्यरूपाम् । द्वन्द्वे - उभे एव क्षमे वोढुमुभयोर्वीर्यमाहितम्, सा वा शम्भोस्तदीया वा मूत्तिर्जलमयी मम । न तृतीयेत्यर्थः । उञ् संबुद्धिवितर्कयोः । उ उत्तिष्ठ, क उ उपरि । एवं प्रकारनिर्देशोपदेशौपम्यनिश्चये इत्थमर्थेऽभ्युपगमे । प्रकारे - एवं कुरु । निर्देशे - एवं तावत् । उपदेशे - एवं पठ, औपम्येअग्निरेवं विप्रः, निश्चये - एवमेतत् कः सन्देहः । इत्थमर्थे - एवं वादिनि देवर्षौ । अभ्युपगमे - एवं कुर्म्मः । एवौपगम्या - ऽनियोगयोः नियोगे च । औपगम्ये श्रीस्तवैवाऽस्तु । अनियोगे अद्येव गच्छ, यदि रोचते । नियोगे - अद्यैव गच्छ । ३१ - अथ विषादा - se निन्दाशोकविस्मये । विषादे - हा रमणीनां गतः कालः । आत- हा हतोऽहमस्मि । निन्दायां- हा देवदत्त । शोके- हा प्रिय क्व गतः । विस्मये- हा लब्धं पाटलिपुत्रम् । इव मुखम् । अल्पार्थोत्प्रेक्षयोर्वाक्यालङ्कारोपमयोरिव । कडार इवाऽयम्, लिम्पतीव तमोऽङ्गानि कथमिवैतद् भविष्यति, चन्द्र For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ हुं वितर्के परिप्रश्नेऽनिच्छायां भर्त्सनभये । वितर्के - चैत्रो हुं मैत्रो हुम् । परिप्रश्ने - हुं स त्वं गृहीतः अनिच्छायांहुं मन्द । भर्त्सने हुं निर्लज्जाऽपसर, भये- हुं राक्षसोऽयम् । वाक्यालङ्कारजिज्ञासानियमानुनये खलु । वाक्यालङ्कारे- अथो खल्वाहुः । जिज्ञासायां - स खल्वधीते वेदम् । नियमे प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां धियः । अनुनये- न खलु न खलु मुग्धे साहसं कार्यमेतत् । अनुसन्धान-६२ हन्त हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः निश्चये च । हर्षे - हन्त जीविताः स्मः । अनुकम्पायां- पुत्रक हन्त ते धानाका: । वाक्यारम्भे- हन्त ते कथयिष्यामि । विषादे - हन्त हताः पाथिकगेहिन्यः । निश्चये च- हन्त गच्छामः । दाने च - हन्त कारः । अथ किं क्षेपे प्रश्नाल्पातिशयेषु च । क्षेपे - किमयमपि ब्राह्मणः । प्रश्ने- किं गतोऽसि । अल्पे- न किमप्यस्याऽस्ति । अतिशये- किमप्येष प्रगल्भते । नाम सम्भावनाक्रोधकुत्साङ्गीकारविस्मये प्रकाश्या - ऽलीकयोः । सम्भावनायां - कथं नाम स नाऽऽगमिष्यति । क्रोधे- को नाम मामयि क्षिपति । कुत्सायां- को नामाऽयं सवितुरुदयः । अङ्गीकारे - एवमस्तु नाम । विस्मये- अन्धो नाम पर्वतमारोक्ष्यति । प्राकाश्यालीकयोः- हिमालयो नाम नगाधिराजः । दष्टेव सा रोदिति नाम तन्वी । सूपत् कूपत् प्रश्नप्रशंसयोः । सूपदयं गायति । कूपदयं गायति । अभितः शीघ्रसाकल्यसंमुखोभयतोऽन्तिके । शीघ्रे - गच्छाऽभितः । साकल्ये - व्याप्नोत्यभितो राजा । संमुखेआपतन्तमभितोऽरिमपश्यत् । उभयतोऽन्तिके - अभितो ग्रामं वसति । इति हेतुपरामर्शप्रादुर्भावसमाप्तिषु एवमर्थे विवक्षायां विपर्यासप्रकारयोः । हेतौ- हन्तीति पलायते । उक्तपरामर्शे - इत्युक्तवन्तं परिरभ्य दोर्भ्याम्। वक्ष्यमाणपरामर्शे - विनिश्चितार्थामिति वाचमाददे । प्रादुर्भावे- इति पाणिनिः । समाप्तौ- पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि । एवमर्थेक्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः । विवक्षायां - तदस्याऽत्र वाऽस्तीति मतुः । For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ३३ विपर्यासे- स्त्रियं पुरुष इत्ययमाह । प्रकारे- गौरश्वः पुरुषो हस्तीति जातिः । प्रश्नप्रत्युक्त्यनुज्ञेच्छानुनयामन्त्रणे ननु । । प्रश्ने- नन्वध्येष्यसे । प्रत्युक्तौ- अकार्षीः कटं चैत्र?, ननु करोमि भोः। अनुज्ञेच्छायां- नन्वादिश । अनुनयामन्त्रणे-- ननु चण्डि प्रसीद मे । आक्षेपे च विरोधोक्तौ ननु च । आक्षेपे च- ननु किमर्थमागतोऽसि । विरोधोक्तौ- ननु च कः शब्दार्थः । आः कोप-पीडयोः । आः पाप किं त्वया कृतम् । आः कष्टं वर्त्तते । उत पक्षान्तरे प्रश्ने बाढाथै स्यात् समुच्चये । पक्षान्तरे- एकमेव वरं पुंसामुत राज्यमुताऽऽ श्रमः । प्रश्ने- उत दण्डः पतिष्यति । बाढार्थे- उत कुर्यात्, बाढं करिष्यतीत्यर्थः । समुच्चये- उत भीम उताऽर्जुनः । बताऽनुकम्पासन्तोषखेदामन्त्रणविस्मये । अनुकम्पायां- बत निःस्वोऽसि । सन्तोषे- बत प्राप्त सीता । खेदेअहो बत महत्कष्टम् । आमन्त्रणे- बत वितरत तोयं तोयवाहा नितान्तम् । विस्मये- अहो बताऽसि स्पृहणीयवीर्यः ।। यावत् तावच्च साकल्येऽवधौ मानेऽवधारणे । साकल्ये- यावत् कार्यं तावत् कुर्वित्यर्थः । अवधौ- यावद् गङ्गा तावत् तिष्ठ । माने- यावद् दत्तं तावद् भुक्तम् । अवधारणे- यावदमत्रं ब्राह्मणानामन्त्रयस्व । यथा स्याद् योग्यतावीप्सापदार्थानतिवृत्तिषु क्रमे । योग्यतायां- यथारूपं चेष्टते । वीप्सायां- यथावृद्धं भोजय । पदार्थानतिवृतौ- यथाशक्ति पठ, यथाबलम् । क्रमे- यथाज्येष्ठं प्रवेशय, ज्येष्ठानुक्रमेणेत्यर्थः । तथाऽभ्युपगमे निदर्शनसमुच्चये । अभ्युपगमे- स तथेति प्रतिज्ञाय । निदर्शने- तथा हि सर्वे तस्याऽऽसन् पराबैंकफला गुणाः । समुच्चये- चैत्रो व्रजतु तथा मैत्रः । पुरा भविष्यदासन्ने चिरातीत-प्रबन्धयोः ।। भविष्यदासन्ने- गच्छ पुरा देवो वर्षति । चिरातीते- पुरा भवः पुरातनः कम्बलः । प्रबन्धे- उपाध्यायेन स्म पुराऽधीयते, अविरलमपाठीत्यर्थः । तथापगम- स तथेति प्रतिशत व्रजतु तथा मैत्रः For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ अहहेत्यद्भुते खेदे । अद्भुते- अहह प्रज्ञाप्रकर्षो राज्ञः । खेदे- अहह हता विरहिणी बाला । ही विस्मय-विषादयोः । विस्मये- हतविधिललितानां ही विचित्रो विपाकः । विषादे- शतकृत्वोऽप्यधीयाना ही न विद्मो जडा वयम् । शश्वन्नित्ये सहार्थे च । नित्ये- शश्वद् वैरम् । सहाथै- शश्वद् भुञ्जाते । नूनं निश्चयतर्कयोः । । निश्चये- नूनं हन्ताऽस्मि रावणम् । तर्के- नूनं शरत्फुल्ला हि काशाः । अस्त्वसूयाभ्युपगमे । असूयापूर्वकाभ्युपगमे- एवमस्तु, को दोषः । हि हेतौ । अग्निरत्र धूमो हि दृश्यते । अङ्ग पूजने । अङ्ग स्म विद्वन् माणवकमध्यापय । निषेधस्फुटामन्त्रणेष्वप्येते । अथाऽथो मङ्गलारम्भेऽनन्तरे प्रश्नकात्य॑योः समुच्चयेऽधिकारान्वादेशयोश्च । मङ्गले- अथ परस्मैपदानि । आरम्भे- अथ शब्दानुशासनम् । अनन्तरेस्नातोऽथ भुङ्क्ते। प्रश्ने- अथ शक्नोषि भोक्तुम् । कात्स्न्र्ये- अथाऽतो धर्म व्याख्यास्यामः । समुच्चये- भीमोऽथाऽर्जुन । अधिकारे- अथ समासः । अन्वादेशेएतं व्याकरणमध्यापय, अथैनं छन्दोऽपि । एवमथो शब्दोऽप्युदाहार्यः । अद्भुतेऽप्यहो । अहो आश्चर्यम् । सम्बोधनेऽपि- अहो चैत्र ! । नूत्तरोत्प्रेक्षयोः । उत्तरे- अकार्षीः कटं चैत्र, न करोमि । उत्प्रेक्षायाम्- रञ्जिता नु विविधास्तरुशैला नामितं नु गगनं स्थगितं नु । For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ - प्रश्नवितर्के स्वित् चकारान्नु । प्रश्ने- कः स्विदेकाकी चरति । वितर्के- अधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् । नुप्रश्ने - को नु वाचमीरयत्यन्तरिक्षे । नु वितर्के - अहिर्नु रज्जुर्नु । भर्त्सने क्विद् । क्वित् किं कितव कदर्योऽसि । पादपूरणेऽपि क्वित् तदुपयुज्यते । चिदप्यर्थसंमत्योरसाकल्योपमानयोः । I अप्यर्थे न किञ्चिद् ब्रवीति । संमतौ - कुल्माषांश्चिदाहर । असाकल्ये - किञ्चित् प्रयच्छति । उपमाने - अग्निश्चिद् भायात् । रै दाना - ऽनादरे । रै करोति, दानं ददातीत्यर्थः । त्वं ह रै किं करिष्यसि । यच्च यत्र चाऽनवकल्पने आश्चर्यामर्षगर्हे अनवकल्पने- न च कल्पयामि । आश्चर्ये - न मर्षयामि । गर्हे - यच्च तत्र भवान् वृषलं याजयेत्, यत्र तत्र भवान् वृषलं याजयेत् । अर्चा-ऽऽश्चर्ययोः पश्य पश्यत । पश्य गुरुर्भुङ्क्ते, पश्य शिशुरपि विद्वान् । एवं पश्यत । अस्यस्मि त्वमहं युष्मदस्मदर्थानुवादयोः । वेत्स्यसि पार्थिवस्त्वमसि सत्यमभ्यधाः । तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनाऽस्मि सागरम् । न मृतो भागीरथ्यां मृतोऽस्म्यहं प्राप्य मन्दभागी रथ्याम् । अविमर्शेऽपि सहसा । सहसा विदधीत न क्रियाम् । अपिशब्दात् कस्मादर्थेऽपि - दिव: प्रसूनं सहसा पपात । स्मस्फुटेऽपि । म करिष्यति । अपिशब्दात् पादपूरणेऽपि इति स्म पूर्वे मुनयो बभाषिरे । ३५ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ इतिहाऽऽगमे लोकवादे । इतिह स्मोपाध्यायो ब्रूते । लोकवादे- इतिह चकार । ननु त्वेवमेववाऽवधारणे । नन्वद्य गच्छामः । भीमस्तु पाण्डवानां रौद्रः । आहार्यमेवं मृगनाभिपत्रम् । महेश्वरस्त्र्यम्बक एव नाऽपरः । अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रियौ न स्पृशतः । सह साकल्यसादृश्ययौगपद्यसमृद्धिषु विद्यमाने च सम्बन्धे तुल्ययोगे क्रियादिभिः । साकल्ये- सतृणमभ्यवहरति । सादृश्ये- सव्रतमनयोः । यौगपद्येसचक्रं धेहि । समृद्धौ- समद्रम् । विद्यमाने च सम्बन्धे- सलोमकः । तुल्ययोगे क्रियादिभि:- सह पुत्रेणाऽऽगतः स्थूलो गोमान् वा । किङ्किलेति पदं क्रोधा-ऽश्रद्धयोः । क्रुद्धयामि, न श्रद्धे, किङ्किल तत्र भवान् वृषलं याजयति । अरुचौ किल संभावनागमालीकहेतुन्यक्करणेषु च । अरुचौ- एवं किल केचिद् वदन्ति । संभावनायां- पार्थः किल विजेष्यते कुरून् । आगमे- जघान कंसं किल वासुदेवः । अलीके- गोत्रस्खलितं किलाऽश्रुतं कृत्वा । हेतौ- स किल कविरेवमुक्तवान् । न्यक्करणे- त्वं किल योत्स्यसे । अलं भूषणपर्याप्तिशक्तिषु प्रतिषेधने । भूषणे- अलङ्कारः । पर्याप्तौ-- अलमस्त्यस्य धनम्, बबित्यर्थः । शक्तौ- अलं मल्लो मल्लाय । प्रतिषेधने- अलं कृत्वा । आ स्मृति-वाक्ययोः । स्मृतौ- आ एवं किल तत् । वाक्यपूरणे पूर्वोक्तस्याऽन्यथात्वे द्योत्येआ एवं नु मन्यसे । पूर्वं नैवममंस्थाः , अद्य तु मन्यस इत्यर्थः । आमा-ऽऽम् प्रत्युक्ताववधारणे । प्रत्युक्तौ- कटं कुरु, आम करोमि, आं करोमि । अवधारणे- गच्छाम्याम, आं गच्छामि । अथैकार्थाः; सुकं शैष्ये । सुकं गच्छ । कुम् प्रश्ने । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ कुं त्वं करोषि । अतिशये शुकम् । शुकं शोभते । किंवृत्ताच्चिच्चनाऽकार्त्स्न्ये । अकात्स्र्त्स्न्ये- असाकल्ये- किप्रत्ययतोऽत्र किंवृत्तम् । कश्चित् कौचित् क्वचित् कदाचित् । एवं चन । कच्चित् कामप्रवेदने । कच्चि जीवति मे माता । किमोऽल्ये न्यौ मनागीषत् ( ? ) । किञ्चिद् ददातीत्यादि । प्रेत्याऽमुत्र भवान्तरे । अन्यो प्रेत्य तस्य भुङ्क्ते । अमुत्र भविता यत्ते तच्चिन्तय शुभाशुभम् । नञ्नो द्वाभ्यां हि चेन्नाद् वा नहि कं खलु मा स्म माङ् माकिर्भवतु पर्याप्तं किं कृतं पूर्यतेऽस्त्वलम् । निषेधे - न पठति बुध्यते । नो मनुष्यः । नहि नहि महिमानं प्राप्य तृप्यन्ति भूपाः । न हि पठसि त्वम् । न चेत् कर्त्तव्यम् । न वा पचसि । अस्ति ते किञ्चिन्नहि कमिति । खलु कृत्वा । मा स्म कार्षीः । रक्षां माकि: कुरु । भवतु तेन धनेन । पर्याप्तं व्यवसायेन । किं धनेन । कृतं धनेन । पूर्यते प्रणामेन । अस्तु भोजने । अलं कृत्वा । वर्त्ततेऽस्ति द्वौ नादमङ्गल-सत्तयोः । अमङ्गलनिषेधे- समराभिमुखे पत्यावश्रु निपातसे न वर्त्तते तस्याः । सत्तानिषेधे - नास्तिकः । नवै निषेधनियमे विशेषप्रतिषेधने । नवै दुर्जनानामवाच्यमस्ति नैवेत्यर्थः । नवै उपहतः श्रियाः स्मरिष्यति । पक्षान्तरे चेद् यदि स्यात् । सन्तश्चेदमृतेन किं, यदि खलास्तत् कालकूटेन किम् । ओमेवं परमं मते । ३७ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ - मतमभ्युपगमः पुनरर्थे वै वै तु । अयं तुवै प्रकृष्यते । अयं त्वै प्रकृष्टः । क्षीरान्मांसं तु पुष्टिकृत् । वै वै नु वितर्क । को नुवै एषोऽभिगच्छतीत्यादि । अत्र पक्षान्तरं नास्तीति वक्ष्यमाणाद् भेदः । विकल्पे किं द्विधोताऽऽहो स्विच्चैभ्यः, किमुतेऽप्ययम् । हुं वा स्विन्नु नुकम् । विकल्पः पक्षान्तरावमर्श:- किं रज्जुः किं सर्पः । स्थाणुरयमुत ओं कुरु । एवं कुरु । परमं तत्राऽवसम् । अनुसन्धान-६२ पुरुषः । तथा आहो उताहो किंस्वित् उतस्वित् आहोस्वित् उताहोस्वित् आहोस्वित् इत्येतेऽपि । I किमु रज्जुः किमु सर्प्पः । किमुत रज्जुः किमुत सर्प्पः । चैत्रो हुं मैत्रो हुम् । स्थाणुर्वा पुरुषो वा । अधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् । अहिर्नु रज्जुर्नु । अहिर्नुकं रज्जुर्नुकम् । स्माऽन्यद्यदाऽतीता-न्य - हेतुषु । स्माऽतीते - वक्ति स्मोपाध्यायः । - अन्यदन्यार्थे– देवदत्त आगतोऽन्यच्च यज्ञदत्त इति । यदा हेतौ - यदा बुधैः सर्वगतस्त्वमुच्यसे । वेला -मात्रेति यामन्तौ कालाभ्य- परिमाणयोः । वेलायां चर: । मात्रायां भोजकः । सम्बोधने द्विधा है है हो हौ चाऽहाश्च भो भगो अघो त्रयः (?) सि हंहो प्याट् माऽड्योऽङ्ग-हयेऽचि च । अहो भोः शब्दात् पूर्वे हे है हो हौ ए ऐ ओ औ इत्येते द्रष्टव्याः । हे देवदत्त है देवदत्तेत्यादि । हीनस्य रे-रे-वे । रे चौर, अरे दास, अवे चौर । अवक्षेपणाऽऽमन्त्रणेऽररे । अररे महाराजं प्रति कुतः क्षत्रियाः । For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ३९ श्रौषट् वौषट् वषट् स्वाहा स्वधा देवहविर्तुतौ । अस्तु श्रौषट्, अस्तु वौषट्, वषडिन्द्राय, सोमाय स्वाहा, स्वधा पितृभ्यः । एवं यथा तथा चेव साम्ये । यथा कर्ण एवं पुरुषः । यथा चैत्रस्तथा मैत्रः । जातां मन्ये शिरसि मथितां पद्मिनी बाष्परूपाम् । शारदाभ्रमिव पेलवमायुः । अभ्युपगमेऽथ किम् । देवदत्त गच्छस्यथ किम् ? सह साकं समं सार्द्धं सत्राऽमा । पुत्रेण सहाऽऽगतः स्थूलो गोमान् वा । एवमन्येऽपि । हमसंमतौ । हं क एवमाह । हि स्फुटोड(?) । को ह्यबालिशो हस्तगतं पादगतं कुर्यात्(?) । अतर्कितेऽकस्मात् सहसैकपदे तथा वियोगे । किमित्यकस्मात् कुप्यसि । दिव: प्रसूनं सहसा पपात । अयमेकपदे तथा वियोगे । नकिरौपम्ये । मेघो नकिर्वर्षति । यदि नाम विपर्यये । यदि नामेति प्रकृतस्य विपर्यये । विप्रोऽसि यदि नाम मूर्खः । कदाचित् कर्हिचिज्जातु । कदाचित् विहरन् सोऽथ चित्रकूटमुपाययौ । तथा कहिचित् । न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति । अहङ्कारेऽहम् । अहंयुः । शुभे शुभम् । शुभंयुः । For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनुसन्धान-६२ यत्प्रतेरुत वाक्यार्थनिर्देशोक्तविपर्यये । तेनाऽहमुक्तो यदुतैतत् करिष्यसि । न दोषः पुनरुक्तेऽपि प्रत्युतेयमलङ्क्रिया । किमोऽङ्गात् पुनः । प्राकृतोऽपि नाऽवमन्तव्यः, किमङ्ग राजा किमुत विद्वान् । किं पुनरित्यर्थः । यत् तद् येन तेन यतस्ततो हेतौ । यत् सभासु प्रगल्भसे तत् पूज्योऽसि । येन दाता तेन श्लाघ्यः । यतो विद्वांस्ततः सभ्यः । यथाकथाचाऽनादरे । यथाकथा च दीयते । यथाकथा चाऽदक्षिणा । अठाऽवर्भत्सने । अठ करोतीत्यादि । दिष्ट्या समुपजोषं चेत्यानन्दे । दिष्ट्या पुत्रो जातः । समजोषं वर्त्तते । अथ बहौ कुचित् । कुचिदङ्ग धनं नः । मन्ये शङ्के वितर्के । मन्ये मार्तण्ड गृह्याणि पद्मान्युद्धर्तुमुद्यतः । शङ्के शशाङ्कोऽयं विद्यते इति । अनेकान्ते स्यात् । स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति च नास्ति चेत्यादि । याति शक्यते । इदं कर्तुं याति । न यात्यन्यत्र । इदं कर्तुं न याति । सत्तायां विद्यतेऽस्ति भवत्यपि । विद्यते नाम, अस्ति नाम, भवति नाम तत्र भवान् वृषलं याजयिष्यति । वर्त्तत इति सोल्लुण्ठगात्रसंवरणे पदम् । For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ४१ वृद्धास्ते न विचारणीयचरितास्तिष्ठन्तु हुं वर्तते ।। आहोवाच । अथाऽऽह वर्णी विदितो महेश्वरः । [आस?] बभूवासां लावण्य उत्पाद्य इवाऽऽस यत्नः । रुषोक्तिप्रश्नयोरुमूम् । रुषोक्तौ- उं सैवाऽस्ति तव प्रिया । रुषा प्रश्ने- ऊं न जानासि स्वार्थम् । तु हि च स्म ह वै क्विन्नु खलु थोञ् पादपूरणे । आख्यास्यामि तु तत्त्वं ते । यो हि मानुष्यमासद्य । भीमः पार्थस्तथैव च । इति स्म पूर्वे मुनयो बभाषिरे । इति स्माऽऽहुराचार्याः । यो वै युवाऽप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः । क्वित् किं तदुपयुज्यते । आख्यास्यामि नु ते तत्त्वं कः खलु नालङ्क्रियते । थ हि नस्तु मृगं व्याधः । किमु कुवलयनेत्राः सन्ति नो नाकनार्यः । इति चादिः ॥छ॥ * प्राग्धातोर्गतिसूर्यादेः कृतं कृत्यकरोतयः । ऊर्युरर्युरुरी चेति विस्तारेऽङ्गीकृतौ त्रयम् ॥१॥ ताल्पाताली वर्णोत्तमार्थयोः कान्तिकाक्षयोधूंशी । विध्वंसे माधुर्ये करुणाविलापे च पामी स्यात् ॥२॥ हिंसायामालम्बीके वासीसेवपादपूर्वाली। शकला संध्वं भ्रंम्यश्चमस्भसामसमसेति दश ॥३॥ आविष्कृतौ परिभवेऽपि चूर्णसंवरणयोरपीलासाः । पीडायां क्रीडायां च गुलुगुधागुलेत्येके ॥४॥ वे:कार चारभागेद्वावाक्लीविक्लीफलूफली । विकारे कर्मसिद्धौ च क्रियासंपत्त्यकण्टके ॥५॥ *इत आरभ्याऽशुद्धिबाहुल्ये सत्यपि प्रतेरभावात् शुद्धीकरणं न शक्या: 'तु -शी. For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ सजः सहार्थे पञ्चाऽमी दाने देवहविर्तुतौ । श्रौषट् वौषट् वषट् स्वाहा तृप्तिप्रीत्योरपि स्वधा ।।६।। प्राकाश्ये प्रादुराविश्चोर्याद्याः कृभ्वस्तिभिर्युजि । श्रद्धानशीघ्रयोः श्रद्धाकृभ्यां क्राहनने पशू ।।७।। कारिका वृत्तिमर्यादाक्रियायत्नेष्वयं गणः । खाट पूत् फूत् थू हुमित्यादि भूषणाऽलं सदादरे ॥८॥ अनादरे सन्निषेधविद्यमानेतरेषु च । अग्रहानुपदेशेऽन्तरदोऽर्हत्यवैरिण:(?) ॥९॥ गतो न मूषिकां श्येनोऽदः कृत्ये तत्करिष्यति । इत्येवं चिन्तने चान्यकथनेऽदस्त्यदादिषु ॥१०॥ घ्नादिक्कणे मनस्तप्तौ पबयः पिबति यप्परम् । अर्थोऽस्य तावत्पिबति यावत्तृप्तः पुरोव्ययम् ॥११॥ अस्तं च कृगमादिग्न शक्तौऽङ्गतेऽन्तिमात् । गत्यर्थवदिनाच्छामि दृढार्थेऽर्थाद्वजानतु ।।१२।। अच्छ कृत्वागतोनाच्छं कृत्वोदकमनव्ययम् । भूधाञादिक्तिरोऽन्तौँ तिर्यगर्थेन च कृञा ॥१३।। तिरोभूत्वा स्थितः काष्ठं तिरः कृत्वा गतोऽत्र न । मध्ये पदे निवचने मनस्युरसि चाव्ययम् ॥१४|| वात्याधान उपश्लेषे समसौमितृणादिवत् । वाचं नियम्य निश्चित्य द्विरित्यर्थोऽन्तिमत्रये ॥१५।। मध्ये कृत्वा धान्यराशिं स्थितो न न च हस्तिनः । पदे कृत्वा शिरः शेतेऽत्ताभ्यां कृत्वा सुखं गतः ॥१६।। पाणिं शेते नडेः कृत्वा वाचं तिष्ठत्यनव्ययम् । उपाजेऽन्वागे च बलाधाने दुर्बलभग्नयोः ॥१७॥ स्वाम्येधि नतमुद्दिश्य चै ग्रामेधिकृत्य वा । साक्षात्प्रभृतयश्चार्थे साक्षात्प्रत्यक्षतुल्ययोः ॥१८।। For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ४३ मिथ्यानृते स्मृतौ चिन्ताप्रशंसायां तु रोचना । भद्रा च लोचना दीप्तौ रह:सामर्थ्ययोरमा ॥१९।। आस्थाऽऽदरे प्रतिज्ञायां चास्ता स्यान्निर्मलीकृतौ । प्राजवीजा द्रुहार्या च शोभायां ह्योपधौ क्रमात् ॥२०॥ रोपणे चाप्यं गृहं वृक्षे धनं त्रिषु । प्रयोजने पर्यटने संसर्पार्थे प्रयोजने ॥२१॥ अग्नौ तैक्ष्ण्येऽस्वतन्त्रत्वे वशे सन्तापहिंसयोः । प्रविभ्यां कपेने सामर्थ्योत्साहे सहने प्रवेः ॥२२।। रुच्याभिनवयोः क्लेदे लवणोष्णोदकाः समः । सोदकेऽभिनवे च स्यादाढूँ शीतमनादरे ॥२३।। नमः प्रणामे प्रकाश्ये प्रादुराविरयं गणः । हस्ते पाणौ सदोद्वाहे प्राध्वं बन्धे विपर्यये ॥२४॥ कार्षापणं गतः कृत्वा शब्दाग्रे शकटं गतः । जीविकोपनिषच्चैवेतां कृत्वेत्युपमा विना ॥२५।। ॥ इति खाडादिः ॥ छ । उपसर्गाः क्रियायोगे प्रपरापसमन्ववाः । निर्दुर्व्याडोन्यधिप्रत्युदभिसुप्रतिपयुयाः ॥१॥ गतार्थाधिपरीना;तिक्रमेऽतिः सुरर्चने । पूर्वं त्वनियमात्वाभ्यामागंतौ वा गमे: परौ ॥२॥ अधेरुपरिभावोऽर्थः प्रस्तावादेः प्रतीयते । परेश्च सर्वतोभावो गतार्थत्वं द्वयोरितस्ततः ॥३॥ प्रस्तावाद्यप्रतीतेऽर्थे द्योत्ये नियतपूर्वता । सुषिक्तं भवतैवं सुर्धात्वर्थोऽत्र प्रशस्यता ||४|| सुषिक्तं किं तवात्रेति षत्वं धात्वर्थकुत्सनात् । निष्पन्नेऽपि क्रियासाध्येऽस्याः प्रवृत्तिरतिक्रमः ॥५।। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान-६२ धात्वर्थं बाधते कश्चित् कश्चित्तमनुवर्त्तते । तमेव विशिनष्ट्यन्योऽनर्थकोऽन्यः प्रयुज्यते ॥६।। प्रस्थाप्रवस्प्रतीक्षादिवदाचक्षादृडादिवत् । प्रपचप्रकारोत्यादिविजिप्रार्थिप्रलम्बवत् ॥७॥ छ ।। संवत् १५११ वर्षे चैत्रवदि १२ रवौ ॥छ॥ शुभं भवतु ॥छ॥ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ४५ उपाध्याय-श्रीशिवचन्दगणि-प्रणीत चार लघुकृतियाँ - सं. म. विनयसागर पुष्पाञ्जलि-स्तोत्रम् । केवललोकितलोकालोक-सकलवसुगुणपर्यायते, दरभरकर-संसारमहा-मकराकरतारण-तरणरते ! । परमानन्दनन्दन ! प्रमदानन्दनवल ! विबुधपते !, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥१॥ त्रिभुवनशङ्कर ! सकलसुरासुरनरवरनिकरैर्विहितनुते ! भव्यकमलकमलाकरबोधनवासरकर-करनिकरकृते ! । शठतामठ-दुर्द्धरकमठासुरमदतरुभञ्जननित्यगते !, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ॥२॥ विकटिक-जन्तुविटपिकट-मोहमहोद्भटसुभटकटकमिलिते, करटिघटोत्पाटनप्रकटीकृतवीर्यसटोत्कटहरिणपते ! । जय जिनचन्द्र ! निजक्रमणाम्बुज-प्रणत-भक्तजनकृतसुमते !, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥३॥ नीलकमलदलससलिलजलधरकाञ्चनगिरिवरकरणद्युते !, मददवजलदोरगपतिपूजितपदपङ्कजराजमरालगते ! । तीर्थकराद्भुत-गरिमावगणितगिरिवरसुरगिरिराजधृते !, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥४॥ १. वयोवृद्ध विद्वान् श्रीविनयसागर तरफथी आ ४ रचनाओ मळी छे, ते साथे कोई परिचय के भूमिकारूप लखाण नथी, तेथी ते यथावत् अत्रे प्रगट करेल छे. क्षतिओ माटे मूळ प्रति होय तो ज सुधारी शकाय. खरतरगच्छना आ उपाध्याय होय तेम मानवं जोईए. प्रथम बे रचना संस्कृत छे, बीजी २ रचना भाषामां छे. For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ हे चिदानन्दघनकन्दसलिलसुमहानन्द ! विशद-वितते !, पद्मानन्दवृन्दमकरन्दास्वादनमधुकरहतकुमते ! ।। सुरललना-नटनेऽपि वशीकृतदुर्जय-सकलकरणचिकृते !, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥५।। अयि विमलाचल ! केवल-कमला-लीला-निलय ! दलय ! दुरितं, वितरत रामे सुषमाशालं मङ्गलमालां मां त्वरितम् । विनिमग्नं भवजलधौ तारय गुरुतर-पातक-दर-भरितं, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥६॥ त्वयि पार्श्वेश ! विश्वविश्वेश्वरताभर्तरि यो नारमते, पापतापसंहर्तरि मङ्गलकर्तरि गुणधर्तरि शमिते । अनवद्यां स जिनेन्द्रचन्द्र वन्द्यां परमात्मदशां भजते, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥७॥ तव जिनचन्द्र ! वचन-सुर-तरुवरभङ्गमिभीभूयारभते, योवदु(?)यावदनन्तकालमनाधिसमाधि-धनाधिपते । भव-दीपाङ्कर-ज्वलन-ज्वालायां स शलभतामालभते, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥८॥ सुशरच्चन्द्रविशद-सुयशो-विमलीकृतसकलविश्ववितते, वचन-परशु-विच्छिन्न-भव्य-जन-व्यसनविततिकुगतिव्रतते । जय निजमुखशिवचन्द्र-सुवर्द्धित समजन-नयन-चकोररते, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥९॥ कलश ।। अश्वसेननन्दनपदवन्दनममृतपदेदनमातनुते(?), यः पुष्पाञ्जलिना ह्यमुना धृतहृदय-विमलभाव: सुमते ! । स स्वं मङ्गलनिलयं पातक-विलयं मुक्तिलयं कुरुते, जय जय हे जिन ! जगदानन्दन ! वामावन्दन ! विश्वपते ! ॥१०॥ ॥ इति श्रीपुष्पाञ्जलि-स्तोत्रम् ॥ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ४७ (२) चिदानन्दलहर्याख्या अध्यात्मचत्वारिंशिका (श्रीवामानन्दन-जिनेन्द्र-स्तुतिः) यकः संसाराम्भो-निधि-तरण-तारण्य-तरणिस्त्रिलोकीभव्यानां दुरित-तिमिर-ध्वंस-तरणिः ।। अनन्त-ज्ञाना-विष्कृत-विमल-गो-ब्रह्मसरणिः, स च श्रीपार्श्वेशस्त्रिभुवन-विजेता विजयताम् ॥१|| यकः प्राक् सञ्जातः शठकमठसन्दुष्टकुतपोऽजनि स्फारापारोन्नतमदगिरिच्छेदकुलिशः । सदा प्रातीहार्योल्लसदतिशयैश्वर्य्यकलितः, स पार्वाधीशोऽयं भवतु भवतां मङ्गलकरः ॥२॥ भवारण्यातङ्कक्रमपवनवह्निर्भवदवज्वलज्ज्वालामालाविपुलघनमालाप्रतिनिधिः । गलत्कामो वामोदरवरदरीदन्तिदमनः, स पार्श्वेशः पायाद् व्यसन-पततो भव्यभविनः ॥३॥ समस्तत्रैलोक्यान्तरसुभृतसुव्यापिगतिना, कुमत्याः पित्रा वै सकलघनकाधिपतिना । अचिन्त्यात्मैश्वर्यं स्मरणज-मदोन्मत्त-मतिनाऽन्यदा ध्यातं चित्तेऽतिकुटिल-महामोहपतिना ॥४॥ अहो ! यादृक् शक्तिर्मयि परिवरीवर्ति सुतरां, न तादृक् चाऽन्यस्मिन्निखिलजगदानन्दददद(रे?) । अतो मत्सादृश्यं नहि परिदधत्कोऽपि भुवनत्रयेऽहं त्रैकाले जगति विजयै विश्वविजयी ॥५॥ समीक्षध्वं शक्तिं मम सवयसो भो मतिभृतो, महाजैनेन्द्राणां त्रिभुवनविभूनां मघवताम् । पुनश्चक्र्यादीनां हरिहरविधीनामपि मया, महीयांसो जीवाः शृणुत हि पुराऽनन्तसमयम् ॥६॥ For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ महाकारागार-प्रतिनिभ-निगोदादिकुगतौमहादुःखानन्तोत्कट-निगड-कोटीषु पतिताः । कृताः सन्तस्तस्थुषुतिलघुतराणामसुमतां, तदाऽन्येषां पापाकुल-मतिमतां कापि गणना ॥७॥ युग्मम् अपारे संसारे शुभतर-निगोदादिकुगतिस्वरूपे नि:सारे विगतततपारे रतिकरे । महातङ्कागारे व्यसनततिधारेऽनवरतं महाकारागारेऽमृतपदमहानन्दददरे ॥८।। पुनर्भव्याभव्यद्विविधपदपर्यायकलिता, अनन्तानन्ता वा गुरुतरमदादेशनिरताः । अनतानन्तैर्य्यद्घनदुरितपाशैर्दृढतरैरनन्तानन्तैर्वा निजनिजप्रदेषु भविनः ।।९।। मया बद्धा गाढं विविधभवभीतिव्यसनिनः कषायाग्निज्वालावलिभिरवलीढाः सुविहिताः । सदा सन्तिष्ठन्ते शृणुत समतिष्ठन्त विबुधाः, पुनः संख्यास्यान्ते विविधविकलावस्थितिमिताः ॥१०॥ (त्रिभिर्विशेषकम्) सकामाकामाभ्यां निरुपपदकाभ्यामतिभृशं, जराभ्यां स्फाराभ्यां प्रचुरतरकर्माणि पुरुह(?) । क्षयं नीत्वा भव्या समितनुभवाः केचिदमलास्तु केषां मध्यानां झटिति च विनिःसृत्य कुगतेः ॥११।। ततो मत्तो भीता अरमुपगता जैन-सविधि, जिनेन्द्रस्तांस्त्रस्तान् स्वनिकटगतान् वीक्ष्य सदयः । स्ववाण्या वक्रोक्त्या समितसुमतीन् कारितसमस्त-कारिध्वंसान् परमचरणे योगिगुणगान् ।।१२।। अनादौ भूते भाविनि च समनन्ते भवति च, त्रिकाले दुष्प्रापं निरुपममहानन्दनगरम् । महाभव्यं नव्यं विभयमचलं द्रागगमयन्, सदृज्वा गत्या वा सपदि गमयिष्यन्ति नितराम् ॥१३।। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ तितीर्षन् संसारं झटिति गमयन्तीह चरितं, तदैतद् दृष्ट्वाऽयं भवति हि भवो भव्यविरही । अमुष्यारिव्यावा विपुलतरचिन्ताकुलतया, महामोहेनैवं मदनपुरतश्चिन्तितमहो ॥१४।। विहायान्यत् कृत्यं स्मर शृणु मदुक्तं व्यतिकरं, य एते गीर्वाणाः परमविभवैश्वर्य-कलिताः । समस्ता इन्द्राद्या हरि-हर-विरञ्चि-प्रभृतयस्तथाप्यन्ये सृष्टि-स्थिति-प्रलय-कर्तृत्वनिरताः ॥१५।। त्रिलोक्याः संपूज्याः सकलजगतां वल्लभतमा इमे त्वेतादृक्षा अपि मम महाज्ञानुचरिणः । अहं चित्ते नित्यं मम भवतु योगो नहि कदाप्यमीषां ध्यायामि स्फुटतरवियोगः सवयसाम् ॥१६।। (द्वाभ्यां सम्बन्धः) पुनर्पा संसारस्थितिपरमवृद्ध्यर्थमुररीकृतव्यापारास्ते मम परममैत्रीमुपगताः । मया प्रागत्रापि स्फुटविविधभोगैः सुखकरैमनोऽभीष्टां नीता घनतरसुपुष्टिं सुरवराः ॥१७|| अतस्ते मन्वाना उपकृतिमिमां मे बहुतरां मयि स्नेहौत्सुक्यादपि रुचिरनिर्वाणपदगाः । भवे वारं वारं समवतरणं संविदधते मम स्फीत-प्रीति-प्रतति-ततितां पल्लवयितुम् ॥१८।। इमे ये जैनेन्द्रास्त्रिभुवनजनैर्ध्वन्दितपदा महान्तो विज्ञाना सकलभुवनव्यापियशसः । भृशं लोकालोकप्रकटनपरा विश्वविदिता महादेवा आसन्निखिलजगतां पालनपराः ॥१८॥ मया पूर्वं नानाविधललितलावण्यविजिताऽमरस्त्रीसौन्दर्यस्वयुवतिविलासैनिरुपमैः । तथैवान्यै|गोद्भवसुखभरैः संप्रति कृता महाभक्तिस्त्वेषां तदपि मम तन्त्रं नहि गताः ॥२०॥ For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अतोऽमी तीर्थेशा वरगुणमहान्तोऽपि सुधियः कृतघ्नाः संजाताः कुत उपकृति मे गुरुतराम् 1 अरं विस्मृत्याऽनुत्तरशिवपदं जग्मुरभयं विधायाऽस्य द्राग् मे मम निखिलसैन्यस्य निधनम् ॥२१॥ ये भूता भवभाविनो हि बहुशः संवर्तमानास्तके संसारोद्गमिता अनन्त - भविनो भव्यात्मनो निर्वृतिम् । भव्यानन्तजनैर्विहीनमिमकं संकर्तुकामा भवं ह्येते सर्व्वजिनेश्वरा मम महाप्रत्यर्थिनः सन्त्यतः ॥२२॥ समस्तं त्रैलोक्यं लघुतर-कंनिष्ठाङ्गुलिजया सुकोट्या प्रोत्पाट्यान्तरमलमलोक सुतराम् (?) । विभुः पार्श्वशोऽयं गमयितुमरं नेतरहरिर्ह्यतोऽनन्ता शक्तिर्भगवति दरीदृश्यत इति ॥२३॥ अचिन्त्यैषां शक्तिर्गुरुतरमहावीर्य्यधरणादजय्या एतेऽतो जिनवरनियुक्तस्य भवता । निरोधः कर्त्तव्यो जिनपयतिनां मुक्तिसरणेरतस्संसारोऽयं न भवति सखे ! भव्यवियुतः ॥२४॥ इति श्रुत्वा वाचं धृतमदमहामोहनृपतेस्तदेवं सज्जोऽभूज्जलधितनयासूनुरभयः । समस्तत्रैलोक्यान्तरगतसमग्रामनगर अनुसन्धान-६२ स्त्रियो गण्याचिन्त्याद्भुतललितलावण्यकलिताः ॥२५॥ अनङ्गव्याप्तात्माऽखिल- सुर-नर- स्वान्त - हरिणाऽपकर्षाभेद्याछेद्यघनतरपाशप्रतिनिभाः । इमा याः सन्तीह प्रियललितवक्षःस्थलजयोस्तकासां सौन्दर्याद्भुतकनककुम्भोपमितयोः । भुजाजङ्घाजेत्रोदरवरशरच्चन्द्रवदना दिमां गोपाङ्गाग (ङ्ग?)प्रकरवृतयोश्चित्तहरयोः ||२६|| षट्पदं काव्यम् || सुदुल्लंघ्यस्फूर्जत्कुचशिखरिणोस्तुङ्गतरयो र्गभीरायां नाभीरुचिरदर्य्यां पुनरसौ (?) । For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ कृतावासो वासः कुगतिजभयानामसुमतं महाभिल्लाभासोऽमृतसुललनालिङ्गनरतीन् ॥२७।। सुवामावामाभ्रूधनुषि हि समारोपितनिजेरितस्त्रीदृग्बाणावलिसमभिघातार्दितहृदः । शुभध्यानव्याप्तोल्लसदुपशमश्रेण्युपगतांस्तथा तत्राप्येका दशमगुणगाजैनयतिनः ॥२८।। शुभक्षान्त्याद्युद्यद्दशविधसुवाचंयमतमोल्लसद्धाधारान् सुविमलचतुर्ज्ञानगुणिनः । धियाऽधीतोदाराम्बुनिधिदशपूर्वानपि तदा, ह्यधस्तात्संपात्याहमहमिकयोऽनन्तगुणितान् ॥२९।। अपार्द्धं देशोनं निरुपम-महापुद्गलपराह्यवर्ती कालत्वादिति गदितानन्तगुणतम्(?) । महातडै?रान्नरकगतितोऽनन्तगुणितातिघोरा सातौघावलि-समुचितान् पाप-कलितान् । महाभीतित्रस्तान् कुमतिनिरतान् संचरिकरां चकार प्रायातान् पुनरपि निगोदादिकुगतौ ॥३०॥ (षट्पदं, षड्भिः कुलकम्) अपीदृक्षं कामं पुनरपि महामोहसुभटं, समूलं संहत्याऽखिलविकटकर्मारिकटकम् । क्षणेनैव प्राप्योज्ज्वलकलचिदानन्दघनतां, समक्षेत्रोदाराविदरमकरं लोकशिखरम् ॥३१॥ सुगत्याग्रेगण्याचिरतरसमश्रेणिगतिना, सुभाजेन्दुः प्रापामृजुसरणिना मुक्तिनगरी । विभूति सम्भूतिं त्रिभुवनमहैश्वर्यविवतेश्चिरं पार्श्वेशोऽयं भवतु शिवतातिस्त्रिजगताम् ॥३२॥ मुदा ॐ ह्री अहँ नम इति महामन्त्रसुपदाऽ-, ध्यानं ध्याये जगदधि'पार्वेशितुरलम्(?) । स्वसद्भक्त्यासक्तो भगवदतिभक्तोऽनवरतं, त्रिलोकाधीशानां गुणगरिमभूति स भजते ॥३३।। For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ संख्यातीतमहानदीनविमलाम्भोराशिरूप्यात्मकोदारस्फारमसीभिरुत्तरमहावीर्य्यप्रतापोद्भटाः । दिव्याऽचिन्त्यसुशक्तिपङ्क्तिकलिता दिव्यप्रभाभासुराः, संख्यातीतसमायुषः सुविलसद्देवीविलासान्विताः ||३४|| ये भूता यदि भाविभो (नो ) ऽपि च भवन्तोप्यत्र कालत्रयेतोऽते भाविनि संभवत्यपि तदा सम्भूय सात्यद्भुताः । रङ्गद्गाङ्गतरङ्गरङ्गसुमिलच्चञ्चच्छरच्चन्द्रिके नालोकां विलसद्गुणावलिमनन्तानन्ततां बिभ्रतीम् ||३६|| जानद्भिर्भगवद्भिराननकजेनावाच्यरूपामपि, अनुसन्धान-६२ लोकसमस्तपुष्करदले नात्र ह्यनन्ते मले ( ? ) । शश्वत्ते लिलिखुल्लिखन्ति नितरां कृत्यं विमुच्याखिलं, लेखिष्यन्ति तथापि ते हि सकला भावा व्रजन्तोऽव्ययम् ॥३७॥ पारं न प्रययुः प्रयान्ति न तदा यास्यन्ति नो कर्हिचित्, तस्यास्ते मयकाह मन्दमतिना स त्वं कथं स्तूयसे । योगीन्द्रैरपि चारुवाङ्मनसयोर्वालक्ष्यरूपोद्यतः, स्वस्य स्वच्छविरूपकेवलचिदानन्दात्मकत्वादलम् ||३८|| (पञ्चभिः कुलकम्) सदा विश्वव्याप्तोऽखिलकुमतविध्वंसकरणाष्टमस्थस्वर्भानोरघतिमिरभानोर्भगवतः । प्रशस्तस्याद्वादोद्धतवचनतन्त्रीकृतज[ग]त्त्रयस्याग्रेगण्याऽमरशिखरिधीरत्वविजितः ॥३९॥ समस्ताधि-व्याधि-व्यसन-निधियादोनिधिविधि प्रपाने पीताब्धिप्रतिनिधिरुदाराय सुलभः । प्रसादोऽमन्दारामरमणिसुगीर्वाणसुरभी समानो वो भूयान्मम सपरिवारस्य सततम् ||४०|| चिदानन्दलहर्य्याख्या स्तुतिरेषा जिनेशितुः । आचन्द्रार्कं च बोभूयात्स्थायिनी मोददायिनी ॥ ४१|| (अनुष्टुप्) समाधिप्राग्भारामृतजलधिवेलाम्बुजननि, मुदा स्पृष्टा येनोज्ज्वलतरचिदानन्दलहरी । For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ महातापं छित्त्वा निविडतरकर्मोघजनितं, महानन्दानन्दातुलविपुलशैत्यं स भजते ॥४२॥ (युग्मम्) मुदोपाध्यायेनेत्थमिति शिवचन्द्रादि गणिना, स्तुतिस्रक् संधार्या वरनिगरणे भव्यमतिभिः । सदौदार्य्यस्फूर्जद्विविधवरवर्णावलिलसत्स्वयम्भूस[च्च? ]ञ्चचद्गुणमणिगणैः संविरचिता ।। कृपाम्भोधेायाक्षितिसुहलपार्वेशितुरियंस्तुतस्यासंख्येयैविविधविबुधेन्द्रैः क्रमनतैः ॥४३।। षट्पदं काव्यम् कलश भवसिन्धुवर्द्धनचन्द्रिकोपम-कुमतितापसुचन्दनः, समभक्तिभर-निर्भरपुरन्दर-निकर-विरचितवन्दनः । घनकुशलकारी दुरितदारी सकलजगदभिनन्दनः, स भवतु भविनां भक्तिमनसां जननिवामानन्दनः ॥४४॥ इति श्रीपार्श्वेश्वरजिनेन्द्रस्तुतिगर्भिता अध्यात्म-चत्वारिंशिका कृता उपाध्याय-श्रीशिवचन्द्रगणिना आत्मनो वाचनाय । (३) सिद्धपद-वृद्ध-स्तवन नेम जिणंद जयकारी रे लाला नेम जिणंद जयकारी हां हो रे बाला वारी जाउं वार हजारी रे लाल ॥ नेमि० ॥ ए चाल ॥ सिद्ध परम पद वंदो रे वाला सिद्ध परम पद वंदो । हां हो रे वाला वंदीनै चिर नंदो रे ॥ सिद्ध० ॥ आंकणी ॥ ए पद परम मंगल सुख कंदौ, दुरित ताप हरि चंदौ । लोकालोक मगन वर चंदौ, प्रणमी करम निकंदौ रे वाला । सि० ॥१॥ अगम अगोचर अंतरजामी, विमल अनंत गुण धामी । विजित अनंतानंत-रविधामी, सकल जंतु हितकारी रे वाला । सि० ॥२॥ अलख निरंजन अक्षयरूपी, अव्याबाध अरूपी । शिव वनितानन अनुभव चुंपी, समतामृतरस-कूपी रे वाला । सि० ॥३॥ For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अनुसन्धान-६२ शरशतमित धनु (५००) जे तनुमाना, सत्तरयणि सुन वांना । दोय रयणि अनुक्रम पहिचाना, परम१ मध्य२ लघु३ जाना रे वाला । सि० ॥४॥ तृतीय भाग पूरव तनु घटीयौ, घन अवगाहन जाता । तिहां संठाण अनित्थंस्थ सोहै, सकल लोक विख्याता रे वाला । सि० ।५।। त्रिणशत तेतीस धनुष त्रिभागा, चउ कर अंगुल सोला । एक रयणि वसु अंगुल क्रमसै, परम१ मध्य२ लघु३ तोला रे वाला । सि० ॥६।। सिद्धानंत चतुष्टय ४ धरता, ऋजु गति समयांतरता । गगन प्रदेशांतर परिहरता, धरीय लोक-ईश्वरता रे वाला । सि० ॥७॥ अननुभूत सिद्ध पर्याय उपनौ, विगम्यौ तिणहि ज समयै । भवपर्याय चेतनता ध्रवता, रूप रही तिण समयै रे वाला । सि० ।।८।। इम उतपत्ति१ विगम२ अरु ध्रुवता३, ए त्रिपदी अनुभवता । एक समयमै शिवपद पंहता, सिद्ध सदा जयवंता रे वाला । सि० ॥९॥ एक सिद्ध अवगाह क्षेत्रमै, सिद्ध अनंत अवगाढा । सम अवगाहन तिणसै असंख्या, देस प्रदेसै गाढा रे वाला । सि० ॥१०॥ काल अतीत अनागत सांप्रत, नर चक्री मुख देवा । जे निरुपम सुखकुं भोगवीयौ, ते सहु इक करकवा रे वाला । सि० ॥११।। सकल काल के समय अनंते, तिण सुख रासिनुं गुणीयै । तेह अणंत गुणो भयौ गुणतां, इम पन्नवणा भणीयै रे वाला । सि० ॥१२॥ इक इक पुंज सकल अंबरना, प्रति परदेसै धरीयै ।। धरतां धरतां सहु नभ भरीयौ, अणंत गुणौ वलि करीयै रे वाला । सि० ॥१३॥ गुण्य-गुणक जिहां सम अंक लहीयै, तदगुण वर्ग ते कहीयै । एहवै अणंत वर्गसै वर्गित, करीयै सुख पुंज वहीयै रे वाला । सि० ॥१४॥ इम उतकर्ष भयौ सुख रासी, सिध सुख सम नवि होई । इण सुखनुं जिनवर पिण जाणै, कहिणमै नावै कोई रे वाला । सि० ॥१५॥ सादि अनंतानंत काल लगि, जे सिध सुख अनुभवीयौ । ते सहु सुख एकत्र करीनै, यो विधि करीयै भवीयौ रे वाला । सि० ॥१६॥ तेह अनंत एक सिध सुखनौ, इम अपवर्तन करीयै । पूरव वर्गमूल के अनंते, भूरितरांकनि करीयै रे वाला । सि० ॥१७|| For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ५५ इण विधि सिणि(धि) सुख भाग हरंतां, शेष अलपतर रहीयौ । प्रथम समय सिध पर्यय लहीने, सिध सेव्यौ सुख कहीयौ रे वाला । सि० ॥१८॥ जे पूरवलौ सहु नर सुर सुख, सकल कालनौ गुणीयौ । सकल काल के समय अनंते, अनंत वरगि वलि भिणीयौ रे वाला । सि० ॥१९॥ एक समय सिद्ध अनुभूत सुखनै, तदपि तुल्य नवि आवै । अनंतवरग वरगित ते अनंतो, ए विधि आगम गावै रे वाला । सि० ॥२०॥ एक समय सिधि अनुभूत सुख सम, ते सुख यदि नवि होई । अनंत कालना सिध सुख सरिसौ, तद किम होइ न कोई रे वाला । सि० ॥२१॥ यौ सुख यदि सहु गगनि न मायौ, सिध मै केम समायौ । सकल द्रव्य गुण पर्ययवर्ती, केवल जिनि जिम गायौ रे वाला । सि० ॥२२॥ अति सुषम इक परमाणू मै, जिम ए सहुय समायौ । गुण पर्याय अनंतानंता, सिध मै सुख इण न्याया रे वाला । सि० ॥२३।। एक असंभव परतिख दीसै, सिध मै अनंत सुख कहीयै । भूत निगोद तुल्य ए जांणौ, सिद्ध निगोद सरदहीयै रे वाला । सि० ॥२४॥ एक सिद्ध मै सिद्ध अनंता, जैसे जीव अनंता । भूत निगोदै सिद्ध निगोदै, दुख तिम घोर नहि अंता रे वाला । सि० ॥२५।। कारण योगै कारज उपजै, कृत्य न विण कारणता । जिहां कर्मादिक कारण वरतै, तिह दुःख कारज वणता रे वाला । सि० ॥२६।। भूत निगोदै कारण वरतै, अनंत कृत्यकारी । सिद्ध निगोदि कारण नहि तिणसै, सिद्ध अनंत सुख धारी रे वाला । सि० ॥२७॥ मुगति युवति सम तीन भुवन मै, गुणवति युवति न निरखी । एह देस तै गणिका-भासा, सर्वै सीलवती परखी रे वाला । सि० ॥२८॥ आप एक अरु नाथ अनंते, परमेसर सै लीना । सादि अनंत काल लगि पतिकुं, सुख उपजावण पीना रे वाला । सि० ॥२९।। द्रव्यलिंगी तनु वीरजधर, रूपी ए नर इष्टा ।। गणिका जननै मुगति युवति कै, ए जन परम अनिष्टा रे वाला । सि० ॥३०॥ मुगति रमा लोकोत्तर वनिता, एक समय सम कालै । आप इकेली नाथ अनंत सुं, पतिरंजनता पालै रे वाला । सि० ॥३१।। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ लौकिक नारी निज इक पति सुं, गाढालिंगन धरती । एक अधिकता इणमे दीसै, गाढालिंगन सक्ता । निज पति कुं, सुख करती रे वाला । सि० ||३२|| अनुसन्धान-६२ नाथ अनंत सुं पति सुख करती, सुख सुं आप विरक्ता रे वाला । सि० ||३३|| जेह अनंत सिद्ध परमेसर, मुगति रमणिसु मिलीया । ते परतिख नहि किंतु परंपर, द्वार सकल क्रम दलीया रे वाला । सि० ||३४|| क्षायिकभावजनक वलि जननी, सुमति सती विख्याता । एहनी तनया केवल कमला, मुगति सखी अवदाता रे वाला । सि० ||३५|| तीर्थंकर चक्री बल ईसर, सेठ रंक वर जीवा । मुगति नार सुं संगम धरीयौ, इण विधि तेह सदीवा रे वाला | सि० ||३६|| क्षायिक जनक सुमति जननी सुं, प्रथम सुं मीलणौ कयौ । तेह प्रसन्न भये तनयानौ, मिलण करायौ गिरीयो रे वाला । सि० ||३७|| जनक जननिनै शिक्षा सेती, प्रमुदित केवल कमला । निज सखी मुगति सै तेह मिलाया, जिन परमुख जीउ विमला रे वाला । सि० ||३८|| जिनवर नै पिण मुगति संग भयौ, तेह परंपर द्वारै । तद का अवर जीवनी गणना, इम गुणियण सुविचारै रे वाला | सि० ||३९|| भोगी गणिका संगसुख सेवै, सादि सांत भंग रंगै । सिद्ध अनंत मुक्ति सुख सेवै, सादि अनंत सु भंगै रे वाला | सि० ||४०|| भुपति सेठ द्रव्यवंत जनकुं, गणिका आदर देवै । दीन हीन कुल जात निःस्वकुं द्यै अपमान सदैवे रे वाला । सि० ॥४१॥ जिनवर चक्री बल पद रंकता, अनुभवि मुगति से मिलीया । ते सहु नै सम भावै गिणीया, क्षीर नीर परि भिलीया रे वाला । सि० ||४२|| भूपति सेठ महा पुण्यवंता, ईश्वर पद भोगवीयौ । गणिका संगै दीन-हीन वलि, रंकपणौ अनुभवीयौ रे विला । सि० ||४३|| जे पूरव भव दीन हीन कुल, मातंगादि लहंता । मुगति संगतै सकल लोकना, नाथ भये ते महंता रे वाला । सि० ॥ ४४ ॥ क्षय करि च्यार करम घन घाती, तेरम गुणमै पाया । लोकालोक प्रकाशक केवल, परम चरम गुण आया रे वाला । सि० ॥ ४५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ५७ (डोरी म्हारी आवै रे रसीया पग तलै ॥ ए चाल) प्रकृति पच्यासी अघाती कर्मनी, जीरण पट सम जांण रे सनेही जांण रे सनेही। शेष रही ते क्षय करिवा भणी, उद्यत भये जिण भांण रे सनेही भांण रे सनेही। सिद्ध परम पद वंदौ, भावसुं वंदीनै चिर नंद रे सनेह । सि० ॥१॥ करि शैलेशीकरण जिनेसरा, परम चरम गुणठांण रे सनेही, ठांण रे सनेही । सरव संवर वर चरण सु योगता प्रकृति बहुत्तर जांण रे सनेही, जांण रे सनेही । सि० ॥४६।। चवदम गुणना रे दु चरम समयंमि, क्षय करि जिनवर भांण रे सनेही, भांण रे सनेही । चरम समय मै तेरस प्रकृति कुं, क्षय करि निरमल नांण रे सनेही, नांण० । सि० ॥४७॥ सिद्धशिलोपरि योजन एकना, करीये भाग चोवीस रे सनेही, चोवीस रे सनेही । भाग तेवीस छंडि चोवीसमै, भागै लोकना ईस रे सनेही, ईस रे० । सि० ॥४८॥ त्रिण शत तेतीस धनुष त्रिभागमै, राजै सिध महाराज रे सनेही, महाराज रे सनेही । विमल चिदानंद घनता शोभिता, सहु देवां सिरताज रे सनेही, ताज रे० । सि० ॥४९।। जीव द्रव्यसै ए[क] सिध कहै, असंख प्रदेसे रे असंख रे सनेही, असंख रे सनेही । अनंत पर्यवतै सिद्ध अनंत है. ए सिध अद्भुत संख रे सनेही, संख रे० । सि० ॥५०॥ केवल नांण दंसणना पर्यवा, तेह अनंता रे अनंत रे सनेही, अनंत रे सनेही । अगुरुलघूना पर्यव सिद्ध जू, ए निज पर्ययवंत रे सनेही वंत रे० । सि० ॥५१।। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ जीव अनंतानंत इह जांणीय, पुद्गल जाण अजीव रे सनेही, अजीव रे सनेही । तेह अनंतानंत गुण जीव सै, पन्नवणा मै रे अतीव रे सनेही, अतीव रे० । सि० ॥५२।। वलीय अनंतानंत तसु पर्यवा, एहना इतना रे अभाव रे सनेही अभाव रे सनेही । एक अभाव रूप परपर्यवा, सुणीयै चित्त धरी भाव रे सनेही, भावरे० । सि० ॥५३॥ एह सकल वसु गण पर्यायना(?), अनंतानंत अभाव रे सनेही, अभाव रे सनेही । एक सिद्ध मै वरते शाश्वत, पर पर्याय स्वभाव रे सनेही, स्वभाव रे० । सि० ॥५४।। ताते अनंतानंत इक सिद्धनै, . जंपै जिनमहाराय रे सनेही महाराय रे, सनेही । एक सिद्ध एक अनेकता, वरतै इण विधि न्याय रे सनेही न्याय रे० । सि० ॥५५॥ भूरि कोटि मण धान्यै परीयौ, इक कोठी मन भाय रे सनेही भाय रे सनेही । तिणसै नित इक इक कण काढतां, कदपि ते खाली थाय रे सनेही, थाय रे० । सि० ॥५६।। जगमै भव्य निगोद असंख्य छै, तेहमै अनंता रे जीव रे सनेही जीव रे सनेही । एक निगोदै तिणसै नीकले, जीव अनेक सदीवै रे सनेही, सदीव रे० । सि० ॥५७।। ते जीउ संयम धरि शिव जावंता, अभवि निगोद रे(र?)हाय रे सनेही, रेहाय रे सनेही । काल अनंतानंत गयां थकां, गतभव्य ए भव थाय रे सनेही,(?) थाय रे० । सि० ॥५८|| For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ सकल अनादि अनंत गगन तणा, परदेसनो अपहार रे सनेही अपहार रे सनेही रे । काल अनंतानंत लगि करण ते, प्रति समयै गत पार रे सनेही पार रे० । सि० ॥ ५९ ॥ खाली तदपि गगन ते नहु हुवै, अनंत गुणौ गतथाग रे सनेही, थाग रे सनेही । तिम ए निगोदै जीव अनंत गुणा, सिद्ध अनंतमै भाग रे सनेही, भाग रे० । सि० ||६०|| अनंत समय आगामी कालना, मिलीया मिलसी रे अनंत सनेही, अनंत सनेही । भूतकाल मै तदपि अनंतगुणौ, भूतसै अनागत संत रे सनेही, संत रे० । सि० ||६१|| अनंत पुग्गल परियट्ट गयां थका, जद पूछै तद एह रे सनेही, एह रे सनेही । उत्तर जगगुरु गणधरने, सुणीयै विगत संदेह रे सनेही संदेह रे० । सि० ||६२|| एक निगोदै जितना जीव छै, तेहनै अनंतमै भाग रे सनेही भाग रे सनेही । सिधिमे वरतै सिद्ध निरंतरै, ए प्रवचननी रे वाग रे सनेही, वाग रे० । सि० ||६३|| अनंत गुणा सिद्धसै ते जांणीयै, एक निगोद ना जीव रे सनेही जीव रे सनेही । काल अनंतानंत गयां थकां, व्यतिकर एह सदीव रे सनेही दीव रे० । सि० ||६४ || समयै समयै भवि सिधमै गयां, सिद्ध वधेय अनंत रे सनेही अनंत रे सनेही । घटय निगोद ए परतिख देखीये, इम जंपै भगवंत रे सनेही वंतरे० । सि० ||६५|| For Personal & Private Use Only ५९ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ घटय न रासि निगोद की भवि सुणौ, वधय न सिद्ध अनंत रे सनेही, अनंत रे सनेही । एह लोकमै प्रगट प्रवृत्ति छै, ते किम संभवै रे संत रे सनेही संत रे० । सि० ॥६६॥ भव्य अभव्य सिद्ध भगवंतनौ, अलपबहुत्व विचार रे सनेही विचार रे सनेही । अभव्य अभवि अनंत तथा ते थोव छै, लघु युगतानंत धार रे सनेही धार रे० । सि० ॥६७॥ तिणसै सिद्ध अनंत गुण जांणीयै, तेहनौ एह विचार रे सनेही विचार रे सनेही । मध्यम युगतानंत संख्यायुता, सरव काल निरधार रे सनेही धार रे० । सि० ॥६८।। सिधसै भव्य अनंत गुण जांणीयै, सरवकाल अवधार रे सनेही धार रे सनेही । अनंत भाग इक भव्य निगोदना, जीव तणै सिध सार रे सनेही सार रे० । सि० ॥६९।। मध्यम युगतानंत गणना थकी, सिद्ध अधिक नवि होइ रे सनेही होइ रे सनेही । सकल काल लगि संख्या सिधमै, एहिजं अवर न कोइ रे सनेही कोइ रे सनेही । सि० ॥७०।। अनंत गुणा इक भव्य निगोदना, जीव सदा कहिवाय रे सनेही वाय रे सनेही । सकल सिद्धसुं न्यूनाधिक नही, सकल काल समवाय रे सनेही वाय रे० । सि० ॥७१।। घटय न रासि निगोद की पद तणौ, वधय न सिद्ध अनंत रे सनेही अनंत रे सनेही । एहनौ तत्त्व कहुं ते भवि सुणौ, पन्नवणा पभणंत रे ससनेही, भणंत रे० । सि० ॥७२॥ For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ समय समय भवि भव्य निगोदसुं, नीकलै मुगतै रे जाय रे सनेही जाय रे सनेही । तदपि सकल सिद्ध सुं ते निगोदनी, अनंतगुणत न मिटाय रे सनेही मिटाय रे० । सि० ॥७३।। काल अनादि अनंत लगि सिध वधै, न घटै होय अनंत रे सनेही, अनंत रे सनेही । तदपि मध्यम युगतानंत संख्यसुं, अधिक कदपि न भवंत रे सनेही भवंत रे० । सि० ॥७४॥ ऐसे परमेसर परमातमा, भगवंत सिद्ध अनंत रे सनेही अनंत रे सनेही । ए प्रभुनै नित वंदन मांहरौ, हुइज्यो भव भय अंत रे सनेही, अंत रे० । सि० ॥७५।। चरण सेवि कहै सिध प्रभु मांहरा, अवहुं सरणैरे तास रे सनेही, तास रे सनेही । मेरी एह अरज अवधारीय, हरीयै बंधन पास रे सनेही, पास रे० । सि० ॥७६।। (कलश) इह वरस सुंदर राम सिंधुर विधिनयन विधु(१८८९) मांन ए । सित माघ मास त्रयोदशी तिथि शुक्रवासर जांन ए ॥ मरुदेश जेसलमेरु मंडन पास प्रभु सुपसाय ए । शिवचंद्र पाठक तवनगर्भित सिद्धना गुण गाय ए । ॥७७|| ॥ इति श्रीमदनंत सिद्ध परमेश्वरस्तुति संपूर्ण ॥श्री॥ लीखतु रीसाधु जयनगर मध्ये ।। (४) ज्ञान-स्तव आबू गिरिंद सोहामणै ए चाल ॥ ज्ञान निरंतर वंदीयै, ज्ञान भगति चित लाय सनेही । ज्ञान सकल गुण सेहरौ, ज्ञान विमल जस गाय सनेही । ज्ञान० ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ मति १ श्रुत २ परम अवधि ३ मनपर्यय ४ केवल नांण सनेही । लोकालोक प्रकाशनौ, कारण निरुपम भांण सनेही । ज्ञान० ॥२॥ सकल ज्ञान मै श्रुत कह्यौ, जग नायक जिनराज सनेही । जग जन उपगारी सदा, भवजल जंगी जिहाज सनेही । ज्ञान० ॥३।। जे भवि करुण पुटै करै, ज्ञानामृत रस पान सनेही । ते अजरामर पद लहै, अक्षय सौख्य निधांन सनेही । ज्ञान० ॥४॥ मासतुसाभिध मुनिवरु, घातीया करम विदार सनेही । ज्ञान चरण आराधतौ, पाम्यौ केवल सार सनेही । ज्ञान० ॥५॥ विमल ज्ञान आराधतां, तरिया भविक अनंत सनेही । तुरत भये जगदीसरु, भयभंजन भगवंत सनेही । ज्ञान० ॥६॥ पारस प्रभु प्रसादथी, पांमी परम आनंद सनेही । ए श्रुत चरण शरण ग्रह्यौ, नित पाठक शिवचंद सनेही । ज्ञान० ॥७|| ॥ इति ज्ञान स्तुति संपूर्ण ॥श्री।। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ स्वाध्याय जीवसमास-प्रकरण - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय जीवसमास ओ प्राचीन आगमिक प्रकरण छे. श्रीअभयदेवसूरिकृत भगवतीटीका, श्रीविजयसेनसूरिकृत सेनप्रश्न, श्रीविनयविजयोपाध्यायकृत लोकप्रकाश व. अनेक ग्रन्थोमां थयेलो जीवसमासकारना मतनो सादर निर्देश आ ग्रन्थ- माहात्म्य समजवा माटे पूरतो छे. आ प्रकरण दृष्टिवादमांथी उद्धृत छे; वालभी वाचना वखते श्रीदेवर्द्धिगणिनी अध्यक्षतामां आ प्रकरण पुस्तकारूढ थयुं छे; आवी अनुश्रुतिओ आ प्रकरणनी महत्तानी ज साख पूरे छे. चौद गुणस्थानकमां सत्पदप्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वार वडे विचार ते आ ग्रन्थनो मुख्य विषय छे. आ प्रेकरण पर चारेक टीका रचाई छे : (१) मूलवृत्ति (-आनो निर्देश गाथा-४७ मलधारीय टीकामां छे.) (२) चूणि (-आनो निर्देश गाथा१३९ मलधारीय टीकामां छे.) (३) शीलाचार्यरचित अर्वाचीन टीका (-आ टीका अद्यावधि अप्रगट छे. अनो निर्देश मलधारीय टीका-गाथा ७३, ८०, २१६, २१८, २३६ व. अनेक स्थळे छे.) (४) प्रसिद्ध मलधारी श्रीहेमचन्द्राचार्यरचित टीका; अत्यारे जीवसमास- अध्ययन आ टीकाना आधारे ज थाय छे. मलधारीय टीका साथे जीवसमास- सौ प्रथम प्रकाशन सं. १९८४मां पूज्य आ. श्री आनन्दसागरसूरिजी म. द्वारा सम्पादित थईने आगमोदयसमितिसूरत तरफथी थयुं हतुं. आ सम्पादनमां खम्भातना श्रीशान्तिनाथ जैन ताडपत्रीय भण्डारमा विद्यमान, सं. ११६५मां अणहिलपुरपाटणमां टीकाकार भगवन्ते स्वहस्ते लखेली प्रतनो उपयोग नहोतो थयो. आ प्रतना आधारे मुद्रित वाचनामां संशोधन आवश्यक हतुं. आ कार्य पूज्य गुरुभगवन्त आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी द्वारा सं. २०४३मां संपन्न थयु. अने जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति-खम्भात तरफथी अनुं प्रकाशन थयु. अभ्यासीओ माटे आ कार्य बहु उपयोगी सिद्ध थयु. आ टीकानां भाषान्तरो पण एकाधिक प्रगट थयेल छे. For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनुसन्धान-६२ सं. २०६८ ना भावनगरना चातुर्मास दरमियान पूज्यपाद गुरुभगवन्त पासे आ ग्रन्थना अध्ययननो सुयोग सांपड्यो. ग्रन्थ अने तेनी मलधारीय टीकामां केवी सरस वातो रजू थई छे ते अध्ययनथी ज खबर पडे तेम छे, तो पण नमूना खातर थोडी वातो जोईओ - *३. जे पर्याय द्रव्यमां वर्तमानकाले अविद्यमान होय, परन्तु भूतकाले के भविष्यकाले जो ते पर्याय द्रव्यमां अस्तित्व धरावतो होय तो, ते पर्यायनी अपेक्षाओ ते द्रव्य अत्यारे 'द्रव्यनिक्षेप' गणाय छे. जेमके, माटी भूतकालीन के भविष्यकालीन घडानी अपेक्षाओ 'द्रव्यघट' कहेवाय छे. प्रश्न ओ थाय के अजीव जीव बने के जीव अजीव बने तेम बनतुं न होवाथी 'द्रव्यजीव' कोने गणवो ? पूर्वाचार्योओ आ समस्यानां अनेक समाधानो सूचव्यां छे ज. पण प्रस्तुत स्थळे सूचवायेलुं समाधान तद्दन विलक्षण छेजीव मूळभूत रीते अरूपी होवा छतां औदारिकादि शरीरो साथे अन्योन्यानुगत होवाथी कथंचिद् रूपी पण जणाय छे. तेना आ द्रव्य साथेना सम्बन्धने प्रधानता अपीओ तो द्रव्यभूत जणातो ते जीव 'द्रव्यजीव' छे अने मूळभूत स्वरूपनी अपेक्षाओ ते ज 'भावजीव' छे. १६. ज्यां इन्द्र, सामानिक, आभियोगिक अवा देवोना भेदो होय ते कल्पोपपन्न देवलोक, अने ज्यां बधा ज देवो सरखी कक्षाना गणाय ते कल्पातीत देवलोक. आ प्रचलित व्याख्याने बदले अत्रे जुदी ज व्याख्या आपी छ : - जे देवलोकमां नवा उत्पन्न थयेला देवोने मज्जन, स्नान, अलङ्करण, व्यवसायसभागमन, पुस्तकवांचन व. कल्प-कर्तव्य- आचरण करवानुं होय ते कल्पोपपन्न. अने जे देवलोकमां आq कोई नियत कल्पाचरण नथी ते कल्पातीत. अलबत्त, बन्ने व्याख्या प्रमाणे व्यवस्था तो सरखी ज रहे छे. २५. कया जीवने केटली पर्याप्ति संभवे ते दर्शावता ग्रन्थकारे "चत्तारि पंच छप्पिय एगिदियविगलसन्नीणं" जणाव्युं छे. मतलब के अकेन्द्रियने चार, * अत्रे दर्शावेली सङ्ख्या प्रकरणनी कई गाथानी टीकामां प्रस्तुत वात छे ते सूचवे छे. For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ विकलेन्द्रियने पांच अने संज्ञी पंचेन्द्रियने छ पर्याप्ति संभवे. आमां असंज्ञी पंचेन्द्रिय विशे अटले अलगथी नथी जणाव्युं के अत्रे 'विकल'नो अर्थ 'मनरहित' करीने तेमने पण विकलेन्द्रिय ज गणी लेवाना छे. पण जो 'विकलेन्द्रिय' ने प्रचलित 'इन्द्रियविकलता'ना सन्दर्भे ज प्रयोजीए तो असंज्ञी पंचेन्द्रिय 'विकलेन्द्रिय' न गणाय. माटे आजे आ पाठ परिवर्तन पाम्यो छे : "चउ पंच पंच छप्पिय इगविगलाऽसन्निसन्नीणं" (-नवतत्त्व- गाथा ६) ५५. योग मे वीर्यना प्रयोग स्वरूप छे. तेथी तेमां सत्य के असत्यनो व्यपदेश थवो शक्य नथी. तो पण मनोविज्ञानगत के वचनगत सत्यत्व-असत्यत्व योगमा आरोपण करीने योगने सत्य के असत्य गणवामां आवे छे. ५५. स्थूल व्यवहारना मते साचुं गणातुं वचन पण जो परपीडा- जनक बने तो निश्चयनयना मते असत्य ज गणाय छे. ७६. जीव सम्यक्त्व पामे त्यारे मति-श्रुतज्ञान पण मेळवे छे अने सम्यक्त्व गुमावे ते साथे मति-श्रुतने पण गुमावी दे छे. आम सम्यक्त्व साथे आ ज्ञानोनो अन्वय-व्यतिरेक होवाथी आ ज्ञाननां आवारक कर्मोने स्थूल व्यवहारनयथी सम्यक्त्वना पण आवारक गणवामां आवे छे. आवी ज बीजी केटलीक सरस प्ररूपणाओनी सामान्य नोंध - गाथा विशेष वात १ थी १४ प्रकारे जीवोनुं वर्णन १४ गुणस्थाननुं वर्णन ५६ अन्तर्वीपो, १० कल्पवृक्षो, ९ प्रकारना आर्यो, २५।। आर्यदेशो, म्लेच्छो व. नुं वर्णन ओकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियोमां मळता सास्वादन गुणठाणानो घणी जग्याओ अनुल्लेखनुं कारण २६-३६ विविध प्रकारनां पृथ्वी, मणि, पाणी, अग्नि, वायु अने वनस्पतिओनो परिचय ४५-४७ संवृत-विवृत, सचित्त-अचित्त, शीत-उष्ण व. योनि-प्रकारोनुं वर्णन त For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ६४ ६५ ६८ ७०-७४ द्रव्यलेश्या - भावलेश्यानी व्यवस्था ७६ स्पर्धकनी प्ररूपणा ८० ८२ त्रण संज्ञानुं स्वरूप विग्रहगतिनुं वर्णन दर्शननी अनाकारता ८३ ८७- १४३ द्रव्य-क्षेत्र - काल अने भावभेदे प्रमाणनी प्ररूपणा * गाथा १३ २६ ३२ ३६ ४८ ५५ ५७ 2222 अवधिज्ञाननी अवस्थितता - हीयमानता अंगे विचार मिश्र गुणठाणे ज्ञान - अज्ञाननी नयभेदे व्यवस्था ५ प्रकारना निर्ग्रन्थोनुं वर्णन ६४ * - * टीकामां मतभेदोनी नोंध पण विपुल प्रमाणमां मळे छे मतभेद छठ्ठी नरकनुं नाम १. तमः प्रभा / २. तमा सातमी नरकनुं नाम १. तमस्तमः प्रभा / २. तमस्तमा 'पनकमृत्तिका' कोने कहेवाय ते अंगे मतभेद छे.. 'अङ्गार, ज्वाला अने अर्चि कोने कहेवाय ते अंगे मतभेद छे. 'भूमिस्फोट' अने 'सर्पछत्रक'ने अन्यत्र 'प्रत्येक वनस्पति' तरीके ओळखाव्या छे; ज्यारे जीवसमासमां तेमने 'साधारण वनस्पति' गण्या अनुसन्धान-६२ छे. द्वितीय संहनन १. वज्रनाराच / २. ऋषभनाराच वैक्रियमिश्र अने आहारकमिश्र योग वैक्रिय अने आहारक शरीरना प्रारम्भ वखते होय के समाप्ति वखते ते अंगे मतभेद छे. आहारक शरीरनी समाप्ति वखते अप्रमत्तत्व होय ओम अन्य स्थाने कह्युं छे, ज्यारे प्रस्तुत स्थळे ए वखते पण आहारकना प्रारम्भकाळनी जेम प्रमत्तता मानी छे. अवधिज्ञाननो पर्यायोमां उपयोग ७ के ८ समय जेटलो होय. ज्यारे केटलाक ओम कहे छे के गुणमां उपयोग ८ समय जेटलो होय अने पर्यायोमां ७. For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ६७ केटलाकना मते परिहारविशुद्धि-चारित्रधारकने उपशमश्रेणी के क्षपकश्रेणी पर आरोहण नथी होतुं. ज्ञानपुलाक अने लब्धिपुलाकनां लक्षणो जुदां जुदां छे. पण केटलाकना मते ज्ञानपुलाक ज लब्धिना प्रयोगे लब्धिपुलाक गणाय छे. मिथ्यादृष्टि विभङ्गज्ञानीने अवधिदर्शन होय के नही ते अंगे मतभेद कृष्णादि ३ लेश्या ५-६ गुणठाणे होय के नहीं ते अंगे मतभेद मूळ गाथामां सूचवायो छे. वैमानिक देव सिवाय अन्य गतिमां पाछला भवनुं क्षायोपशमिक सम्यक्त्व न मळे अम कार्मग्रन्थिक मत छे, ज्यारे सैद्धान्तिक मते ओवो अकान्त नथी. विग्रहगतिमां प्रथम समये जीव प्रज्ञप्तिना मते अनाहारक होय छे ज्यारे तत्त्वार्थटीकाना मते आहारक होय छे. कोइकना मते गति पांच समयनी पण होई शके छे, ज्यारे प्रचलित मान्यता अनुसार गति वधुमां वधु चार समयनी ज होय छे. काल- ओक माप 'प्राणु' कहेवाय के 'प्राण' कहेवाय ओम बे मत १०७ १३९ १७० उत्कृष्ट असङ्ख्यात असङ्ख्यातुं कई रीले थाय ते विशे बे मत छे. उत्कृष्ट अनन्तानन्त थाय के नहीं ते अंगे जीवसमासचूणि अने अनुयोगद्वारसूत्रनो अभिप्राय विभिन्न छे. 'प्रत्यक्ष' शब्दनी व्युत्पत्ति तत्पुरुषसमासथी करवी के अव्ययीभावसमासथी तेमां मतभेद छे. चक्रवर्तीना सैन्यनी नीचे क्यारेक उत्पन्न थाय छे ते आशालिक जीव बेइन्द्रिय होय के सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय होय अवा बे मत छे. अनुयोगद्वारसूत्रना अभिप्राये रुचकवरद्वीप जम्बूद्वीपनी अपेक्षाओ ११मो द्वीप छे, ज्यारे से ज सूत्रनी चूर्णिना उल्लेख प्रमाणे १३मो छे. भवनपति, व्यन्तर अने ज्योतिष निकायमां सम्यक्त्व सहित उत्पन्न न थाय अवो कार्मग्रन्थिक मत छे, पण सैद्धान्तिक मते तेवो अकान्त नथी. १८८ २२६ For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ २३५ २५७ २६६ २६९ २५७ अनुसन्धान-६२ अवधिदर्शननी १३२ सागरोपमनी उत्कृष्टस्थिति कई रीते गणवी ते विशे बे मत छे. मिथ्यात्वप्राप्तिना उत्कृष्ट अन्तर विशे त्रण मत छे. कर्मोमां औपशमिक व. केटला भाव होय तो अंगे मतभेद छे. लेश्याना मूळभूत स्वरूप विशे त्रण मत छे. पुद्रलपरावर्तनी प्ररूपणामां बे मत छे. (आमां जीवसमासकारनी प्ररूपणा अने आगमिक प्ररूपणाओमां जे मतभेदो छे तेमनी नोंध आगळ लीधी होवाथी अत्रे नथी लीधी.) * * * टीकाकार भगवन्त शब्दोनी जे व्युत्पत्तिओ दर्शावे छे ते ओटली स्वयंस्पष्ट होय छे के ते शब्दो विशे तेओओ झाझुं लखवानुं रहे ज नहि. केटलीक व्युत्पत्तिओ उदाहरण तरीके जोईओ व्युत्पत्तिः गाथा २ निरुक्तिः निश्चिता उक्तिर्निरुक्तिः, निश्चयेन वा उच्यतेऽर्थोऽनयेति निरुक्तिः । मार्गणा अनुयोगः अनुरूपं सूत्रस्याऽर्थेन योजनमनुयोगो व्याख्यानम् । जीवादिवस्तूनां सदसत्त्वादिप्रकारेण नरकगत्यादिष्वन्वेषणा । सह वर्तते योऽसौ सयोगः, स विद्यते येषां ते सयोगिनः । गम्यते स्वकर्मरज्ज्वाऽऽकृष्टैर्जन्तुभिर्याऽसौ गतिः । सयोगिनः निर्गतमयं (-इष्टफलं दैवम्) येभ्यस्ते निरया: । १३ शर्कराप्रभा शर्कराणामुपलखण्डानां प्रभा - प्रकाशनं स्वरूपेणाऽवस्थानं यस्यां सा शर्कराप्रभा । ९ ११ गतिः निरया: नाम गोत्रम् १५ आर्याः ४४ योनिः तेषु तेष्वपरापरपर्यायेषु नमनात्- सर्वदैवाऽनुवर्तनान्नाम । गो:- स्वाभिधायकवचनस्य त्राणाद्- यथार्थत्वसम्पादनेन पालनाद् गोत्रम् । आराद्- दूरेण हेयधर्मेभ्यो याता आर्याः । युवन्ति भवान्तरसङ्क्रमणकाले तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ १६६ धीराः औदारिकादिशरीरयोग्यस्कन्धद्रव्यैः सह मिश्रीभवन्ति जीवा अस्यामिति योनिः । ७४ भवसिद्धिकाः भवा- भाविनी सिद्धिर्येषां भवसिद्धिका इति कृत्वा । ७६ सम्यक्त्वम् जीवादिपदार्थश्रद्धाने सम्यग् अञ्चति - प्रवर्तते जीवो येन शुभात्मपरिणामविशेषेण तत् सम्यक्त्वम् । दर्शनम् दृश्यते - सम्यक् परिच्छिद्यते वस्त्वस्मिन् सतीति दर्शनंसम्यक्त्वम् । ८० हेतुवादसंज्ञा हेतु: - युक्तिनिष्ठः साध्यार्थगमको वचनविशेषः । वदनं वादो, हेतोर्वादो हेतुवाद:, तेन संज्ञा हेतुवादसंज्ञा । ( सा च द्वित्रिचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मन्तव्या । ते हि हेतुवादे - नैवं वक्तुं शक्यन्ते- 'संज्ञिन एते आतपादिभ्यश्छायाद्याश्रयणादाहारादिनिमित्तचेष्टायुक्तत्वाच्च मनुष्यादिवद्' ।) I धी :- बुद्धिस्तया राजन्ते इति धीराः - बुद्धिमन्तः । * * * आपणे त्यां बे परम्पराओ चाली आवे छे : १. सैद्धान्तिक परम्परा अने २. कार्मग्रन्थिक परम्परा घणा बधा विचारो अने पदार्थोमां आ बे परम्पराओ वच्चे मतभेद छे. अटलुं ज नहि, अक परम्पराना समर्थकोमां पण अमुक मुद्दा परत्वे परस्पर मतभेद होय छे. आमांथी पोताना मतनुं प्रतिपादन कर्या पछी सामेना मतने अपेक्षाभेदनो आश्रय लईने रजू करवो से मान्य परम्परा छे.' अलबत्त, सामेनो मत युक्ति के शास्त्रथी सदन्तर विरुद्ध जतो लागे तो अनी से खामी दर्शावाती ज होय छे, पण अमां से मतभेदना पुरस्कर्ताने उतारी पाडवानो भाव नथी होतो. ६९ हवे, आ सन्दर्भे विचारीओ तो, जीवसमासगत सिद्धान्तोथी भिन्न प्रतिपादनो परत्वे टीकाकार मलधारीजी भगवन्ते अपनावेलुं वलण आश्चर्यजनक छे. तेओ करे छे तो जीवसमासनी टीका, पण सतत तेनां प्रतिपादनोनो प्रज्ञापना, भगवती व. सिद्धान्तग्रन्थो साथे विरोध दर्शावीने तेमनुं खण्डन करवानो प्रयत्न करतां रहे छे. (जुओ गाथा ७३, ९६, १५२, १५७, १५८, १७५, १९८, १. जुओ प्रज्ञापनाजीना कायस्थितिपदमां स्त्रीवेदनी उत्कृष्ट स्थितिनी प्ररूपणा । For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनुसन्धान-६२ १९९, २३३, २५४, २५६, २६०, २६४, २७४ व. नी टीका') सैद्धान्तिक ग्रन्थोथी जीवसमासगत जुदी प्ररूपणाओने तेओ मतभेद तरीके जोतां ज नथी, विसंवाद ज गणे छे. जेम के देशविरतिनो उत्कृष्ट विरहकाल आवश्यकना मते १२ दिवस अने पञ्चसङ्ग्रहना मते १४ दिवस होय छे. जीवसमासकारे गाथा २६२मां कार्मग्रन्थिक परम्परा प्रमाणे १४ दिवस गणाव्या छे. आ अंगे मलधारी महाराजना शब्दो- "उत्कृष्टतस्त्वावश्यके 'विरयाविरईए होइ बारसग'मिति वचनाद् द्वादश दिनानि विरहकालः प्रोक्तः । अनेन तु कुतोऽपि चतुर्दश दिनान्यसौ लिखित इति, परमार्थमत्र न जानीमः ।" (आवश्यक सूत्र प्रमाणे देशविरतिनो उत्कृष्ट विरहकाल बार दिवस होवा छतां आणे चौद दिवस केम लख्यो हशे तेनो परमार्थ अमे जाणतां नथी.) अत्रे जीवसमासकार महर्षि माटे करेलो 'अनेन' प्रयोग केटलो विचित्र लागे छे ! वळी, मलधारीजी भगवन्त जीवसमासकारना कथननो सैद्धान्तिक ग्रन्थो साथे विरोध दर्शावे ते पण अमुक वखत विचारणीय लागे छे. जेमके - * जीवसमास गाथा-१५२ मां देवो करतां पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोने संख्यातगुण जणाव्या छे. टीकाकार श्रीमलधारीजी भगवन्त प्रज्ञापनाजीना नीचेना पाठने आधारे आ वातने अयोग्य गणावे छे : १. गाथा मतभेदनो विषय देवोनी लेश्या उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिकानुं प्रमाण १५७-१५८ भवनपति देवो, रत्नप्रभा नारको, सौधर्मदेवलोकना देवो व.नुं प्रमाण १७५ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोनुं शरीरप्रमाण २३३ चक्षुर्दर्शननो उत्कृष्ट स्थितिकाल २५४ देवगतिमा अन्तरकाल सर्वार्थसिद्धमा उत्कृष्ट उत्पादविरहकाल २६० आहारकशरीरनो उत्कृष्ट विरहकाल २६४ परमाणुनो अन्तरकाल २७४ देवगतिमां अल्पबहुत्व गाथा १५२, १९८, १९९नी वात आगळ रजू करी छे. २५६ For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ "....जोइसिया देवा संखेज्जगुणा, जोइसिणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ, खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया नपुंसया असंखेज्जगुणा, थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया नपुंसया असंखेज्जगुणा, जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया नपुंसया असंखेज्जगुणा, चउरिदिया पज्जत्तया संखेज्जगुणा, पंचिंदिया पज्जत्तया विसेसाहिया..." (.... (वाणव्यन्तर निकायनी देवीओ करतां) ज्योतिषी देवो संख्यातगणा वधारे छे, तेमना करतां ज्योतिषी देवीओ संख्यातगणी छे. तेमना करतां नपुंसक खेचर पञ्चेन्द्रिय, नपुंसक स्थलचर पञ्चेन्द्रिय अने नपुंसक जलचर पञ्चेन्द्रिय क्रमशः असंख्यगुण-असंख्यगुण छे. तेमना करतां पर्याप्ता चतुरिन्द्रिय संख्यातगुण छे तेमज तेमनी अपेक्षाओ पर्याप्ता पञ्चेन्द्रियो विशेषाधिक छे...) (प्रज्ञा. सू. ९३) प्रज्ञापनाजीना आ पाठने आधारे देवो करतां पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चो असङ्ख्यगुणा छे ते स्पष्ट छे. केमके ज्योतिषी देवीओ के जे अन्य तपाम देव-देवीओ करतां वधारे छे तेमना करतां पण फक्त नपुंसक पञ्चेन्द्रिय खेचरो ज असंख्यगुण छे, तो तेमना करतां नपुंसक पञ्चेन्द्रिय स्थलचर - नपुंसक पञ्चेन्द्रिय जलचर - पर्याप्ता चतुरिन्द्रिय - पर्याप्ता पञ्चेन्द्रिय अम चढती भांजणीले पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चो असंख्यगुण ज थवाना. माटे प्रज्ञापनाजीना अभिप्राये देवो करतां पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चो असंख्यगुण थाय छे, ज्यारे जीवसमासकार संख्यातगुण कहे छे, तेथी तेमना कथनमा स्पष्ट विसंवाद आवे छे. परन्तु आपणे प्रज्ञापनाजी जोइशुं तो आपणने जणाशे के मलधारीजी भगवन्ते जेवो पाठ उद्धृत को छे अवो पाठ प्रज्ञापनाजीमा छ ज नहीं. उपर उद्धृत करेला पाठमां ज्यां ज्यां 'असंखेज्जगुणा' छे त्यां त्यां 'संखेज्जगुणा' पाठ ज प्रज्ञापनाजीमां छे. प्रज्ञापनाजीना टीकाकार श्रीमलयगिरिजी भगवन्त 'असंखेज्जगुणा' पाठ केम असङ्गत छे ते दर्शावतां जणावे छे के ___"ताभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नपुंसकाः सङ्ख्येयगुणाः । क्वचित् 'असङ्ख्येयगुणा' इति पाठः । स न समीचीनः । यत इत ऊर्ध्वं ये पर्याप्तचतुरिन्द्रिया वक्ष्यन्ते तेऽपि ज्योतिष्कदेवापेक्षया सङ्ख्येयगुणा एवोपपद्यन्ते। तथाहि- षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गलप्रमाणानि सूचिरूपाणि For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनुसन्धान-६२ खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा ज्योतिष्काः । उक्तं च"छपन्न-दोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइयं पयरं । जोइसिएहिं हीरइ" इति । अङ्गलसख्येय-भागमात्राणि च सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा-श्चतुरिन्द्रियाः । उक्तं च- "पज्जत्तापज्जत्तबितिचउरअसन्निणो अवहरंति । अंगुलसंखासंखपएसभइयं पुढो पयरं ॥" अङ्गलसङ्ख्येयभागापेक्षया च षट्पञ्चाशदधिकमङ्गलशतद्वयं सङ्ख्येयगुणम् । ततो ज्योतिष्कदेवापेक्षया परिभाव्यमानाः पर्याप्तचतुरिन्द्रिया अपि सङ्ख्येयगुणा एव घटन्ते, किं पुनः पर्याप्तचतुरिन्द्रियापेक्षया सख्येयभागमात्राः खचरपञ्चेन्द्रियनपुंसका इति ।" (ज्योतिषी देवीओ करतां नपुंसक खेचर पञ्चेन्द्रियो संख्यातगणा छे. जो के क्यांक 'असंख्यातगणा' अवो पाठ मळे छे, पण ते बराबर नथी. कारण के हजु घणा पद पछी पर्याप्त चतुरिन्द्रिय कहेवाशे ते पण ज्योतिष्क देवो करतां संख्यातगुण ज घटे छे. (आनुं कारण उपरना टीकापाठमां विस्तृत रीते देखाड्युं छे.) तो पर्याप्त चतुरिन्द्रियोना संख्यातभागमात्र खेचर नपुंसको कई रीते देवो करतां असंख्यगुण थाय ?) उपरना टीकापाठथी बे वात स्पष्ट थाय छे : १. जीवसमासटीकामां उद्धृत पन्नवणाजीना पाठमां खेचर, स्थलचर अने जलचरे त्रणे नपुंसक पञ्चेन्द्रियो साथे 'असंखेज्जगुणा' भले लखायुं होय; साचो पाठ ‘संखेज्जगुणा' छे २. पन्नवणाना अभिप्राये पण देवो करतां पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चो संख्यातगुणा ज छे, असंख्यातगुणा नहीं. तेथी जीवसमासकारचं कथन प्रज्ञापनाजी साथे संवादी ज छे, विसंवादी नथी. * गाथा १९८मां विकलेन्द्रियोनी स्पर्शना जणावतो पाठ आम छे : 'विगलिंदीहिं तु सव्वजगं'. सर्वलोक विकलेन्द्रियोनुं स्पर्शनाक्षेत्र छे अवो आ पाठनो भाव छे. आनी टीका मलधारीजी भगवन्ते आम करी छे : "द्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणैर्विकलेन्द्रियैरुत्पादसमुद्घातावस्थायां सर्वं जगत्- सर्वोऽपि लोको व्याप्तः प्राप्यते इत्यर्थः । एष तावत् प्रस्तुतग्रन्थाभिप्रायः । प्रज्ञापनायां तूत्पादसमुद्घात-स्वस्थानैर्लोकासख्येयभागवर्तिन एव विकलेन्द्रियाः सर्वेऽप्युक्ताः । तदेव च युक्तिसङ्गतं बुध्यते, स्वल्पत्वादमीषाम् । तत्त्वं तु बहुश्रुता एव विदन्ति ।" (विकलेन्द्रियो वडे उत्पाद अने समुद्घात अवस्थामां सर्वलोक For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ७३ व्याप्त थाय छे. जो के आ प्रस्तुत ग्रन्थनो अभिप्राय छे. प्रज्ञापनामां तो उत्पाद, समुद्घात अने स्वस्थान - त्रणे रीते लोकना सङ्ख्येय भागमां ज विकलेन्द्रियो कह्या छे. अने विकलेन्द्रियो अल्प होवाथी ते ज युक्तिसङ्गत भासे छे. तत्त्व तो बहुश्रुतो जाणे छे.) अत्रे जे प्रज्ञापना अने जीवसमास वच्चे विसंवाद देखाडायो छे ते विचारणीय छे. केमके प्रज्ञापनाजीनी प्ररूपणा जीवोना स्थानना क्षेत्रने आश्रयीने छे, ज्यारे जीवसमासनी वात स्पर्शनाक्षेत्र अंगे छे. बेमां मोटो तफावत से छे के स्वस्थान, समुद्घात अने उपपात - त्रण रीते जीवो वर्तमानकाळे केटला क्षेत्रने व्यापे छे तेनी प्ररूपणा प्रज्ञापनाजीमां छे, ज्यारे चोक्कस स्थितिमां वर्तमान जीव केटला क्षेत्रने स्पर्शे तेनी विचारणा जीवसमासमां छे के जेमां अतीतकालने पण गणतरीमा लेवामां आवे छे. दा.त. देशविरतिधर जीवोनुं क्षेत्र लोकनो असङ्ख्यातमो भाग छे, कारण के ओ जीवो बहु थोडा छे. पण ओमनी स्पर्शना छ राज जेटली छे, केमके अेक देशविरतिधर जीव मनुष्यलोकथी मरीने अच्युत देवलोकमां जाय तो वच्चे छ राज पसार करे छे. मतलब के ते देशविरतिधरनुं क्षेत्र, मनुष्यलोकमां होय ते समये के अच्युत देवलोकमां होय ते समये, लोकनो असङ्ख्यातमो भाग ज रहे छे, पण स्पर्शना अतीत समयोने पण गणतरीमा लेती होवाथी कुल मलीने छ राज थाय छे. जीवसमास-गाथा १८१मां प्रस्तुत वात स्पष्टतः रजू थई छे : ___ "सट्ठाणसमुग्घाएणुववाएणं व जे जहिं भावा । संपइ काले खेत्तं तु फासणा होइ समईए ॥" हवे विकलेन्द्रियो सर्व लोकमां एकेन्द्रिय व. तरीके उत्पन्न थई शके छे अने सर्व लोकमांथी अकेन्द्रिय व. विकलेन्द्रिय तरीके जन्मी शके छे. तेथी तेओनी स्पर्शना सर्व लोकमां मळी शके छे. पण तेनी सामे कोई पण समये जोईओ तो विकलेन्द्रियो लोकना असंख्यातमा भागमां ज होय छे, केमके ते बहु थोडा छे. प्रज्ञापनानु कथन तेओना व्याप्तिक्षेत्रने अनुलक्षीने छे के जे बहुज थोडं छे. ज्यारे जीवसमासनी विचारणा स्पर्शनाक्षेत्रने अंगे छे के जे सर्वलोक छे. आमां विसंवाद जेवं कशुं ज नथी. आ ज गाथामां थयेलुं मनुष्योनी सर्वलोकस्पर्शनानुं कथन पण आ ज रीते जोईओ तो प्रज्ञापना साथे विसंवादी For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनुसन्धान-६२ नथी बनतुं. आ पछीनी गाथा १९९मां पण बादर पर्याप्ता अकेन्द्रियो, विकलेन्द्रियो अने पञ्चेन्द्रियो समुद्घात अने उत्पाद वडे सर्वलोकने स्पर्श छे अवा जीवसमासकारना कथननो, ते जीवो समुद्घात अने उत्पाद वडे लोकना असङ्ख्यातमा भागने ज व्यापे ओवा प्रज्ञापनाजीना कथन साथे विसंवाद दर्शावायो छे. परन्तु स्पर्शना अने व्याप्ति वच्चेना तफावतने ध्यानमां लईओ तो आ विसंवाद पण रहेतो नथी. वळी, आ गाथामां बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियोने नथी नोंध्या तेनुं कारण टीकाकार मलधारीजी भगवन्त आम आपे छे : "अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियास्त्वस्य ग्रन्थस्याऽभिप्रायेण स्वस्थानेनाऽपि सर्वलोकव्यापिन एवेति तेऽपीह नोपात्ताः । प्रज्ञापनाभिप्रायतस्तु बादरापर्याप्तैकेन्द्रिया अप्युत्पादसमुद्घाताभ्यामेव लोकं व्याप्नुवन्ति, न स्वस्थानेन ।" (अपर्याप्त बादर अकेन्द्रियो आ ग्रन्थना अभिप्रायथी स्वस्थानथी पण सर्वलोकमां व्याप्त छे माटे तेमनुं ग्रहण समुद्घात - उत्पादथी व्यापिता, कथन करनारी आ गाथामां नथी). वास्तवमां आपणे जोईशुं तो जणाशे के बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियो सर्वलोकमां व्याप्त छ अर्बु विधान जीवसमास गाथा १७९मां छे त्यां मे सर्वलोकव्यापिता स्वस्थान, उत्पाद के समुद्घातथी छे ओवी विशेष चिन्ता करी ज नथी, सामान्यथी ज वात करी छे. अने विशेष चिन्ता करीओ तो समुद्घात-उत्पादथी ज आ सर्वलोकव्यापिता समजवी ओवी चोखवट टीकाकारे स्वयं त्यां करी छे : "उत्पादसमुद्घातौ त्वाश्रित्य बादरापर्याप्ता अप्येकेन्द्रियाः प्रत्येकं सर्वस्मिन्नपि लोके प्राप्यन्ते ।" (उत्पाद-समुद्घातने आश्रयीने बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियो सर्व लोकमां मळे छे, स्वस्थानथी नहि). हवे स्वस्थानथी बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियो सर्वलोकव्यापी नथी ओम जीवसमासकारना कथननुं तात्पर्य समजावनारा (गाथा १७९) टीकाकार भगवन्त स्वयं गाथा १९९ नी टीकामां स्वस्थानथी सर्वलोकव्यापितापरक जीवसमासकारना अभिप्रायने वर्णवे अने ओ रीते प्रज्ञापनाजी साथे तेनो विसंवाद दर्शावे ते विचारणीय लागे छे. पूज्य गुरुभगवन्त श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि म. द्वारा सम्पादित प्रस्तुत For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ पुस्तकमां केटलाक दृष्टिदोषो तथा मुद्रणदोषो रही गया छे, जेनी नोंध अत्रे आपवामां आवे छे. आ नोंधमां सामान्य पदच्छेदना तफावतो के मुद्रणदोषो नथी लीधा. ङ्नी जग्याओ ह्य एवी क्षति पण मुद्रणदोषथी व्यापकपणे थई छे, परन्तु ते पण नथी नोंधी. पृष्ठ ४ ४ ८ 39 388 ११ १६ १७ १९ २८ ३५ ३७ पङ्क्ति १३ २१ १ २१ ४ १७ २६ ७ x 2 5 २७ २५ ३८ ३ ४१ १९ ४१ २० ४३ ३ ४३ ४९ ५१ ५१ १२ १६ ११) शुद्धिपत्रक अशुद्धि औदयिकभावानाम् संतपयरूवणया ० पपातिकयौनिक० ० विषये स्थूल० सह [ योगेन ] वर्तते स्वल्प एव (स्वल्पमेव) केवमेता इति • पडलडब्भ० प्रत्येकचतुर्धे० मनोज्ञानां सहकारिणो नन्वाहारप्रारम्भ० ० निवृत्तैरप्रमत्तो ० अर्थ दण्दक० ० क्षयमसम्भूते सम्भवति ० निर्विशेषण० शुद्धि औदयिकादिभावानाम् संतपयपरूवणया ० पपातिकायोनिक० ० विषयस्थूल० सहवर्त स्वल्प एव (स्वल्पे एव स्थानान्तरे अवो भाव छे.) केवलमेता रतिः ०पडलऽब्भ० प्रत्येकश्चतुर्धे ० मनोज्ञानं सहकारिणा नन्वाहारकप्रारम्भ० ० निवृत्तेरप्रमत्तो० अथ दण्डक० ० क्षयसम्भूते सम्भवन्ति ० निर्विशेषणं ७५ For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ ५२ ५६ ५६ ५७ ५९ ६४ ७४ ८० ८५ ९ २१ १७ ३ १३ १४ १७ पंचसु गहो जाऽनियट्टि उत्कृष्टतस्तु तु दुष्षमा-दुष्षमसुषमा० दुष्षमसुषमा० स्थितमेतद् सकुन्तसन्दोह वैडूर्यमणिः प्रस्तुत पंचविहं ०मणिन्यायेनाऽत्रा० ० भूतोऽव्यावहारिक० ९५ इति १०० २५ १०१ ५ १०४ ११ १०४ १५ १०५ ६ १०६ २ ११२ २३ ११६ २४ ११८ १३ १२० २० पंचसुऽगहो जा नियट्टि उत्कृष्टस्तु तु दुष्षमसुषमा० दुष्षसुषमा० स्थितमेद् सकुन्ततसन्दोह वैडूर्यणि प्रस्तुत्व० पंचिविहं ०मणिन्याये नाऽत्रा० ० भूतो व्यावहारिक० इत एतान्मानस्य पक्षो लक्ष कढसंखेज्ज० ०शरीरतल्यां परिणाम खण्डेऽपहियमाणे एवमनस्थित० ०सूत्राभिप्रायस्तु प्रधानं शब्दरूपं न ०तावत्प्रमाणः श्रेसङ्ख्येय० ०प्रथवर्गमूल० देवलोकोषु अंगुलपढमं बिय० एतन्मानस्य पक्षौ लक्षं कट्टसंखेज्ज ०शरीरतुल्यं परिमाणं खण्डेऽपहियमाणे एवमनवस्थित० सूत्राभिप्रायतस्तु प्रधानः शब्दरूपं न(च?) ०तावत्प्रमाणाः श्रेण्यसङ्ख्येय० ०प्रथमवर्गमूल० देवलोकेषु अंगुल पढमंबिय० www १३३ १३४ १३४ १ १५ २६ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ १३७ १५ १४० २ १४० १९ १४९ २४ १५२ ५ १५२ १५५ १५९ ४ १५९ २३ १६४ २१ १६४ २७ १६५ ११ १६५ १४ १६८ ६ १६९ २४ १३ १९ १७३ १ १७३ ४ १७३ १२ १७८ २६ १८४ १४ १८४ १६ १८६ १८८ १४ १९३ ५ १९६ ५ २०१ १३ २०३ १८ २०४ १५ २०५ १२ 2 28 २२ प्रामाणभावना पल्योमपा० प्रदेशस्तावद्भिः बादरपर्याप्त० ०झल्लरीमुंइंग० लोकोऽप्युरितन० नरकपृथिव्योः ०नाहारशरीर० इत्याहशङ्क्या० यावदुत्पद्यतेः ● लोकसङ्ख्येय० ० लोकव्यापितेन विकेन्द्रियाणां पन्नं ० स्थितिस्तवेक० देवत्यो० कालस्थिति० निरिया कायस्थतिः स्नायुष्य० भवस्थतिः तमितिदिश० विवक्षत ० पुव्वीकोडी खल्वधि० योगानाप्येक० पुद्गल क्षणा धम्माए ० नेन्द्रियाणाश्रित्य प्रमाणभावना पल्योपमा० प्रदेशास्तावद्भिः बादरापर्याप्त० ०झल्लरीमुइंग० लोकोऽप्युपरितन० नरकपृथिव्यो ०नाहारकशरीर० इत्याशङ्क्या० यावदुत्पत्तेः ● लोकसङ्ख्येय० • लोकव्यापित्वेन विकलेन्द्रियाणां पल्लं ० स्थितिस्त्वेक० देवगत्यो० काय स्थिति० तिरिया कायस्थितिः • स्वायुष्य० भवस्थिति: तमतिदिश० विवक्षित पुव्वकोडी खल्ववधि० योगानामप्येक० पुद्गललक्षणा० घम्माए ०नेन्द्रियाण्याश्रित्य For Personal & Private Use Only ७७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ नियन्ते २१ एवं २०६ २०७ २०८ २१६ २१७ २१८ २१८ २१९ १० २० १० १२ १५ मियन्ते एव ०सप्तमसमयादि० सागरोपमाणाम् ४ ०प्रदेशेष्वगाढ रसङ्ख्येयगुणाः सङ्ख्येयगुणानि रोहितामिदं दानादिकस्तु.. इहु ०पहोरणा० ०सप्तसमयादि० सागरोपमाणां ०प्रदेशेष्ववगाढ रसङ्ख्येयगुणा असङ्ख्येयगुणानि रोहतामिदं दानादिकास्तु २४ इह २३० १७४ २२ २५ ०पहारेणा० न For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ७९ स्वाध्यायः शिवदासकृत ‘कामावती' (ई. १५१७) मा आवती समस्याना अर्थनी समस्या ___ - हसु याज्ञिक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश अने प्राचीन के जूनी गुजराती कथासाहित्यनुं 'समस्या' अत्यन्त रसप्रद अभ्यास, अङ्ग छे. कालनिर्गमक रसिक आ अङ्ग काव्यत्वने पण कवचित् सिद्ध करे छे. जैन स्रोतनी कथाकृतिओनुं तो आ अत्यन्त महत्त्वनु अङ्ग छे. तेमां पण जयवंतसूरिकृत 'रसमञ्जरी' (१६७०)मां तो कदाच कोई पण कृतिमां नथी ओवी - अटला प्रकारनी विदग्ध समस्या/ प्रहेलिका/प्रश्नोत्तर/पृच्छादि छे. आवी समस्याना अर्थ लगभग बधी ज हस्तप्रतोमां ज आपेलां होय छे. विशेष संख्यामां समस्या शामळे आपी छे अने तेना अर्थ पण आपेला छे. परन्तु शामळथी २०० वर्ष पहेला शिवदास नामनो अत्यन्त तेजस्वी पद्यवार्ताकार थयेलो, ओणे 'कामावती' अने 'हंसा-चारखण्डी'नी रचनाओ आपी. आमां 'कामावती'मां क्रमाङ्क ८०५ थी ८२०मां कुल १७ समस्याओ छे. विविध सन्दर्भे आ समस्याओ रसप्रद अने अभ्यासयोग्य छे. परन्तु हस्तप्रतमां अर्थ न होवाथी केवळ अटकळ करवी पडे छे. सन्दर्भ अवो छे चित्रान्गद राजाओ कामावतीने एकदंडिया महेलमां केद करी छे. अनो पति करण रात्रे घोडो लई झरूखा नीचे आवे छे: राहमां ज करणने जोकुं आवी गयुं ने अक चोरे घोडो हाथ करी लीधो. कामावती झरूखामांथी नीचे ऊतरी. अन्धकारना कारणे चोरने ज पति मानीने घोडा पर बेसी. मूढ चोर मौन रह्यो. रात ने वाट खूटाडवा कामावतीओ १६ समस्या पूछी. मूढ चोर उत्तर आपी न शक्यो. हस्तप्रतमां पण अर्थ नथी. तो चालो, आ निमित्ते आपणे उकेलवानो, अटकळ करवानो सहियारो प्रयत्न करीओ : [वायक कहुं ते मन धरो, सांभलो स्वामीराय नयणे निद्रा का भरो ? जागो, कहुं दुहाय. (८०४)] For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनुसन्धान-६२ १. कामनी कामातुर थई, कीधो पितासुं संग, शशी जेसो पुत्र प्रसवो, ते कहो विमासी कंथ. २. अक फूल रंगे रातडु, वळी महीं बी सींगाकार, ओके कैहे करोडीआं, ते स्वामी करो विचार. ३. पुत्री उपर चडो पिता, वेहेतीऊ लई राचंत, भुज पग बेहु हलावतो, ते कहो विमासी कंथ. ४. ओक काननी कामनी, भक्ष करे नर सात, पाछो नर सहुने हणे, स्वामी करो विचार. ५. चक्र थकी नर नीपनो, फाटी बे छोरू थाअंत, मही कथ आवो खालतां, कोहो विमासी कंथ. ६. पांच नर बांधी करी, नाम परठु अक नार, गजदंतने आकार छे, ते स्वामी करो विचार. ७. नारी मस्तक छोकरूं, पर नरसुं रहंत, मोल कोडी ओकनु, ते कहो विमासी कंथ. सरय मुखमां कमल छे, तेमां शशीकार म्रग सार, कोयल वळी टहुका करे, ते स्वामी करो विचार. नारीथी बे नर नीपना, नर पर नारी रहंत, त्रणे जणने स्नेह घणा, ते कहो विमासी कंथ. ओक नर धुंधु करे, ने वीस ते साथे नार, नामु करे तारेतारनु, ते स्वामी करो विचार. ११. ओक सीगानी कामनी, खाधे नहीं हारत, खाधा जेटलुं आपती, ते कहो विमासी कंथ. १२. नारी उदरमां नर रहे, क्रोधे काढे बाहार, छानो देहडी पाडतो, ते स्वामी करो विचार. For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १३. दीठी मेहे अक नारने, चोथी सहस्र सहंत, पग भुज विना पेट छे, ते कहो विमासी कंथ. १४. सोल नार साथे रमे, बनो राजकुमार, मोई जीवाडे प्रेमदा, ते स्वामी करो विचार १५. ओक नारे में दीठडी, मुख विना सेहेस्र ज दंत पोयणी जेसी पातली, ते कहो विमासी कंथ. १६. पाटण पहोथी परवरा ------ ------ ----- ------ -------- प्रो. डॉ. भूपेन्द्र बालकृष्ण त्रिवेदी ९नो स्तन, ११नो घंटी, १२नो सगडी के अंगारा, १५नो करवत अवो अर्थ होवानी संभावना दर्शावे छे. आप सहु विदग्धोने शुं लागे छे ? आ बधी समस्याओना उकेल मेळववा माटे आ उपक्रम कौ छे. तज्ज्ञ जनो प्रकाश पाडे तेवी अपेक्षा. ना C/o. १, पद्मावती बंगलोझ थलतेज अमदावाद-५१ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ जैन दार्शनिक साहित्य ___- प्रो. सागरमल जैन जहाँ तक जैन धर्म के दार्शनिक साहित्य का प्रश्न है, उसे मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा गया है - (१) प्राकृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य (२) संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य और (३) आधुनिक युग का जैन दार्शनिक साहित्य । प्राकृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य जैन धर्म का आधार आगम ग्रन्थ है । आगम-साहित्य के सभी ग्रन्थ तो दार्शनिक साहित्य से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते हैं, किन्तु आगमों में कुछ ग्रन्थ अवश्य ही ऐसे है, जिन्हें हम दार्शनिक साहित्य के अन्तर्गत ले सकते हैं । दार्शनिक साहित्य के तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा - ये तीन प्रमुख अङ्ग होते है । तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत सृष्टिविज्ञान एवं खगोल-भूगोल सम्बन्धी कुछ चर्चा भी आ जाती है । इस दृष्टि से यदि हम प्राकृत जैन साहित्य और उसमें भी विशेष रूप से आगमिक साहित्य की चर्चा करे तो उसमें निम्न आगमिक ग्रन्थों का समावेश हो जाता है । हम उन्हें तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं आचारमीमांसा की दृष्टि से ही वर्गीकृत करने का प्रयत्न करेंगे । जहाँ तक तत्त्वमीमांसीय आगम साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत प्रथम ग्रन्थ सूत्रकृताङ्ग ही आता है। यद्यपि सूत्रकृताङ्ग में जैन आचार सम्बन्धी कुछ दार्शनिक विषयों की चर्चा है, किन्तु फिर भी प्राथमिक दृष्टि से उसका प्रतिपाद्य विषय उस युग की विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा रहा है । इस आधार पर हम उसे प्राकृत एवं जैन आगम साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ कह सकते है । जहाँ तक प्रथम अङ्ग आगम आचाराङ्ग का प्रश्न है वह मुख्यतः दार्शनिक मान्यताओं के साथ-साथ जैन साधना के मूलभूत दार्शनिक सूत्रों को प्रस्तुत करता है । इसमें आत्मा के अस्तित्व एवं षट्जीवनिकाय के साथ किन-किन तत्त्वों का अस्तित्व मानना चाहिए – इसकी चर्चा है । किन्तु इसके साथ ही उसमें जैन आचार और For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ विशेष रूप से मुनि आचार की विस्तृत विवेचना है । आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग के अतिरिक्त अङ्गआगमों में तीसरे और चौथे अङ्गआगम स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग का क्रम आता है । ये दोनों ग्रन्थ संख्या के आधार पर निर्मित जैन विद्या के कोषग्रन्थ कहे जा सकते है। इनमें विविध विषयों का संकलन है । यह सत्य है कि इनमें कुछ दार्शनिक विषय भी समाहित किये गये हैं। किन्तु ये दोनों ग्रन्थ दार्शनिक विषयों के अतिरिक्त जैन सृष्टिविद्या, नक्षत्रविद्या एवं खगोल-भूगोल आदि से भी सम्बन्धित है। पांचवे अङ्ग आगम के रूप में भगवतीसूत्र का क्रम आता है । निश्चय ही यह ग्रन्थ जैन दार्शनिक मान्यताओं और विशेष रूप से तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं का आधारभूत ग्रन्थ है । अङ्गआगमों में भगवतीसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, प्रश्नव्याकरणसूत्र और विपाकदशा का क्रम आता है। सामान्यतया देखने पर ये सभी ग्रन्थ जैन साधको के जीवनवृत्त और उनकी साधनाओं को ही प्रस्तुत करते है। फिर भी उपासकदशा में श्रावक के आचार नियमों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार प्रश्नव्याकरणसूत्र भी वर्तमान विषय-वस्तु पांच आश्रवद्वारों और संवरद्वारों की चर्चा करता है, जो जैन आचारशास्त्र की मूलभूत सैद्धान्तिक अवधारणा से सम्बन्धित है। अन्य दृष्टि से आश्रव और संवर जैन तत्त्वयोजना के प्रमुख अंग है । इसी दृष्टि से इस अङ्ग का सम्बन्ध भी जैन तत्त्वमीमांसा से जोड़ा जा सकता है । विपाकसूत्र के अन्तर्गत दो विभाग है - सुखविपाक और दुःखविपाक । यह ग्रन्थ यद्यपि कथारूप ही है, फिर भी इसमें व्यक्ति के कर्म का परिणामों का चिन्तन होने से इसे एक दृष्टि से जैन दार्शनिक साहित्य से सम्बन्धित माना जा सकता है। जहाँ तक उपाङ्ग साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत निम्न १२ ग्रन्थ आते है – इनमें औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र ये दो ग्रन्थ ऐसे है जिनमें क्रमशः संन्यासियों का साधना के विभिन्न रूपों का एवं आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है । अतः ये दोनों ग्रन्थ आंशिक रूप से जैन दार्शनिक माने जा सकते हैं । सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ये तीन ग्रन्थ मुख्य रूप से जैन खगोल और भूगोल For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनुसन्धान-६२ से सम्बन्धित है, उपाङ्ग साहित्य के शेष पांचो ग्रन्थ मूलतः कथात्मक ही है I इनके पश्चात् छेद सूत्रों का क्रम आता है । मूर्तिपूजक परम्परा छ: छेद ग्रन्थों को मानती है, जबकि स्थानकवासी और तेरापन्थी परम्परा में छेद सूत्रों की संख्या चार मानी गयी है । स्थानकवासी परम्परा के अनुसार दशाश्रुतस्कन्ध, बृहद्कल्प, व्यवहार और निषीथ ये चार छेद ग्रन्थ हैं, जो मूर्तिपूजक परम्परा को भी मान्य है । इन चारों का सम्बन्ध विशेष रूप से प्रायश्चित्त और दण्ड व्यवस्था से है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा को मान्य जीतकल्प और महानिशीथ – ये दोनों ग्रन्थ भी मूलतः तो प्रायश्चित्त और दण्डव्यवस्था से सम्बन्धित ही रहे है । अत: इन्हें किसी सीमा तक जैन आचारमीमांसा के साथ जोड़ा जा सकता है । मूलसूत्र और चूलिकासूत्रों में भी कुल मिलाकर छह या सात ग्रन्थों का समावेश होता है । इनमें उत्तराध्ययनसूत्र एक प्रमुख ग्रन्थ है, जो मुख्य रूप से जैन साधना और आचार व्यवस्था से सम्बन्धित है । किन्तु इसके २८ वे और ३६ वे अध्याय में जैन तत्त्वमीमांसा की चर्चा देखी जा सकती है । दशवैकालिकसूत्र मुख्यतः जैन मुनिजीवन की आचार व्यवस्था से सम्बन्धित है । इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार मूल ग्रन्थों में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं आवश्यके के अतिरिक्त ओघनिर्युक्ति और पिण्डनिर्युक्ति को भी समाहित माना जाता है । ये दोनों ग्रन्थ जैन मुनि के सामान्य आचार और भिक्षाविधि से सम्बन्धित है, अत: किसी सीमा तक इनको भी जैन आचारमीमांसा के अंग माने जा सकते है । स्थानकवासी परम्परा में एवं मूर्तिपूजक परम्परा में चूलिकासूत्र के नाम से प्रसिद्ध नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार माने जाते है । इनमें नन्दीसूत्र मूलत: पांच ज्ञानों की विवेचना करता है, अत: इसे जैन ज्ञानमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों के अन्तर्गत पांच ज्ञानों की विवेचना करता है, अत: इसे जैन ज्ञानमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों के अन्तर्गत रखा जा सकता है । यद्यपि नन्दिसूत्र में जैन इतिहास के भी कुछ अर्ध खुले तथ्य भी समाहित है । अनुयोगद्वार सूत्र को जैन दार्शनिक मान्यताओं को समझने की विश्लेषणात्मक विधि कहा जा सकता है । जैन दार्शनिक प्रश्नों को समझने के लिये अनेकान्त नय और निक्षेप की अवधारणाएँ तो प्रमुख है ही, इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारों की व्यवस्था भी महत्त्वपूर्ण रही है । जैनदर्शन का निक्षेप का सिद्धान्त यह बताता For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ८५ है कि किसी शब्द के अर्थ का घटन किस प्रकार से किया जा सकता है । उसी प्रकार नय का सिद्धान्त वाक्य या कथन के अर्थघटन की प्रक्रिया को समझाता है । अनुयोगद्वार किस विषय की किस-किस दृष्टि से विवेचना की जा सकती है, इसे स्पष्ट करता है । अतः यह जैन दार्शनिक साहित्य का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जा सकता है। जहा तक आवश्यकसूत्र का प्रश्न है, वह मूलतः जैन साधना का ग्रन्थ है । इस प्रकार जैन आगमिक साहित्य में मुख्य रूप से दार्शनिक विषयों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है, कि वे जैन धर्म की साधना विधि के साथ भी जुड सके । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णक साहित्य को भी मानती है । प्रकीर्णकों का मुख्य विषय दार्शनिक विवेचना न होकर साधना सम्बन्धी विवेचना है। फिर भी वे सभी प्रायः जैन साधना एवं आचार से सम्बन्धित माने जा सकते है । क्योंकि लगभग ६-७ प्रकीर्णकों का विषय तो समाधिमरण की साधना है। जैन प्राकृत साहित्य के अन्तर्गत श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य अनेक ग्रन्थ भी आते है । इन ग्रन्थों के विशेषता यह है कि ये सभी ग्रन्थ मूलतः जैन दार्शनिक साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । इनमें सर्वप्रथम कसायपाहुड और षटखण्डागम का क्रम आता है । जहाँ कसायपाहुड जैन कर्म सिद्धान्त के कर्मबन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करता है, तो वही षट्खण्डागम जैन कर्मसिद्धान्त की मार्गणास्थान, गुणस्थान एवं जीवस्थान सम्बन्धी अवधारणाओं की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करता है । इनके अतिरिक्त मूलाचार नामक जो प्राचीन ग्रन्थ है, वह भी मुख्य रूप से जैन आचार और विशेष रूप से मुनि आचार की विवेचना करता है । भगवती आराधना में भी मुख्य रूप से जैन साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना का विवेचन है । इसके अतिरिक्त जैन दर्शन साहित्य के रूप में कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकायसार और अष्टप्राभृत, दशभक्ति आदि ग्रन्थ प्रमुख है । इनमें समयसार में मुख्य रूप से तो आत्म तत्त्व के स्वरूप की विवेचना है, किन्तु प्रासङ्गिक रूप से आत्मा के कर्म-आश्रव बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनुसन्धान-६२ चर्चा भी इसमें मिल जाती है । इस दृष्टि से इसे जैन तत्त्वमीमांसा का मुख्य ग्रन्थ माना जाता है। इसी प्रकार उनका पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थ भी पाँच अस्तिकायों की चर्चा करने के कारण जैन तत्त्वमीमांसा का एक प्रमुख ग्रन्थ माना गया है। प्रवचनसार, नियमसार, रयनसार (प्रवचनसार?), अष्टप्राभृत आदि का सम्बन्ध जैन साधना से रहा हुआ है । अतः ये ग्रन्थ भी किसी सीमा तक जैन तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा से सम्बन्धित रहे है । दिगम्बर परम्परा के प्राकृत के अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गोमट्टसार विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस ग्रन्थ का मुख्य सम्बन्ध तो जैन कर्म सिद्धान्त से है । इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में कुछ अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थ भी जैन दार्शनिक ग्रन्थों में समाहित किये जा सकते है, जैसे - परमात्मप्रकाश आदि । दिगम्बर परम्परा में कुछ पुराण भी अपभ्रंश भाषा में मिलते है, इनमें भी जैन तत्त्वमीमांसा और जैन आचारमीमांसा से सम्बन्धित विषय विपुल मात्रा में उपलब्ध है । यद्यपि यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैनों का ज्ञानमीमांसा सम्बन्धी विपुल साहित्य संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध है । प्राकृत आगमिक व्याख्या साहित्य में मुख्य रूप से सूत्रकृताङ्ग नियुक्ति में भी तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा ही परिलक्षित होती है । नियुक्ति साहित्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उत्तराध्ययन निर्यक्ति है, जिसमें जैन तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा की कुछ चर्चा ही परिलक्षित होती है। इसके पश्चात् शेष नियुक्तियाँ मुख्यतया जैन आचार की ही चर्चा करती हैं । नियुक्तियों में आवश्यकनियुक्ति अवश्य ही एक बृहद्काय ग्रन्थ है, इसमें जैन दर्शन एवं जैन आचार पद्धति की चर्चा उपलब्ध होती है । शेष नियुक्तियाँ भी प्रायश्चित्त एवं जैन साधना विधि की चर्चा करती है। नियुक्ति-साहित्य के पश्चात् भाष्य-साहित्य का क्रम आता है । इसमें मुख्य रूप से विशेषावश्यकभाष्य ही ऐसा ग्रन्थ है, जो दार्शनिक चर्चाओं से युक्त है । इसके प्रथम खण्ड में जैन ज्ञानमीमांसा और विशेष रूप से पाँच सानों उनके उपप्रकारों और पारस्परिक सहसम्बन्धो की चर्चा की गई है । इसके तिरिक्त इसके गणधरवाद वाले खण्ड में आत्मा के अस्तित्व के साथस. जैन कर्मसिद्धान्त की गम्भीर चर्चा है । प्रथमतया यह खण्ड गणधरों For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ७ के सन्देहों और उनके उत्तरों की व्याख्या प्रस्तुत करता है, उसमें स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, कर्म और कर्मफल आदि की गम्भीर चर्चा है । भाष्यसाहित्य के शेष ग्रन्थों में मुख्य रूप से जैन आचार, प्रायश्चित्त-व्यवस्था और साधना पद्धति की चर्चा की गई है । भाष्यों के पश्चात् चूर्णि साहित्य का क्रम आता है, चूर्णि साहित्य की भाषा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का मिश्रित रूप है । इनमें भी आगमों की चूर्णियो की अपेक्षा मुख्य रूप से छेदसूत्रों की चूर्णियाँ ही अधिक प्रमुख है। उनमें एक आवश्यक चूणि ही ऐसी है, जो कुछ दार्शनिक चर्चाओं को प्रस्तुत करती है। शेष चूर्णियों का सम्बन्ध आचार-शास्त्र से और उनमें भी विशेष रूप से उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की साधना से है । उसके पश्चात् लगभग आठवी शताब्दी के आगमों की व्याख्या के रूप में संस्कृत टीकाओं का प्रचलन हुआ, इनमें दार्शनिक प्रश्नो की गम्भीर चर्चा है, किन्तु इसकी विशेष चर्चा हम जैन दार्शनिक संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत ही करेगें। यद्यपि प्राचीनकाल में कुछ दार्शनिक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में लिखे गये है । इनमें मुख्य रूप से सन्मति तर्क का स्थान सर्वोपरि है । सन्मति तर्क मूलतः तो जैनो के अनेकान्तवाद की स्थापना करने वाला ग्रन्थ है, फिर भी इसमें अनेक दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा करके अनेकान्त के माध्यम से उसमें समन्वय का प्रयत्न है । यह ग्रन्थ जहाँ एक और दार्शनिक एकान्तवादों की समीक्षा करता है, वही प्रसंगोपात्त अनेकान्तवाद की स्थापना का प्रयत्न भी करता है । दार्शनिक दृष्टि से सामान्य और विशेष की चर्चा ही प्रमुख रूप से हुई है, और यह बताया गया है कि वस्तु-तत्त्व सामान्यविशेषात्मक होता है । और इसी आधार पर वह एकान्त रूप से सामान्य या विशेष पर बल देने वाली दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा भी करता है । इसके अतिरिक्त इसमें जैन परम्परा के प्रचलित ज्ञान और दर्शन के पारस्परिक सम्बन्ध को भी सुलझाने का प्रयत्न किया गया है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा ने जहाँ प्राकृत भाषा में अनेक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा हेतु संस्कृत भाषा को ही प्रमुखता दी है । और इसका परिणाम यह हुआ की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में दार्शनिक चर्चाओं को लेकर For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अनुसन्धान-६२ मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ लिखे गये । आगे हम जैनों के दार्शनिक संस्कृत साहित्य की चर्चा करेगे । संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य 1 यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान के सम्बन्धित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत भाषा में ही निषद्ध है । जैन तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित प्रथम सूत्र ग्रन्थ की रचना उमास्वाति (लगभग २ री शती) ने संस्कृत भाषा में ही की थी । उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक निकायों के सूत्र ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, आदि । अत: उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैनधर्मदर्शन से सम्बन्धित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र - शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करे । उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे । सिद्धसेन दिवाकरने भारतीय दार्शनिक धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिंशिकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी । जिनमें न्यायावतार जैन प्रमाण मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है । इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा, युक्त्यनुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की । इन सभी की विषय-वस्तु दर्शन से सम्बन्धित रही है । इस प्रकार ईसा की तीसरी - चौथी शताब्दी से जैन दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा था । उमास्वाति ने स्वयं ही तत्त्वार्थसूत्र के साथ साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी संस्कृत में लिखा था । लगभग ५ वी शताब्दी के अन्त और ६वी शताब्दी में प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्वार्थसूत्र पर ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका संस्कृत में लिखी । इसके अतिरिक्त उन्होंने जैनसाधना के सन्दर्भ में 'समाधितन्त्र' और 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में ही लिखे । इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयाचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की, जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई । इसके पश्चात् ५वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ८९ ने विशेषावश्यकभाष्य तो प्राकृत में लिखा, किन्तु उसकी स्वोपज्ञ टीका संस्कृत में लिखी थी। उनके पश्चात् ७ वीं शती के प्रारम्भ में कोट्याचार्य ने भी विशेषावशयकभाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी, जो प्राचीन भारतीय दार्शनिक मान्यताओं का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती है, साथ ही उनकी समीक्षा भी करती है। लगभग ७वीं शताब्दी में ही सिद्धसेन गणि ने श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीका लिखी थी, इसी क्रम सिंहशूरगणि ने द्वादशारनयचक्र पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी । ८वीं शताब्दी में प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्रसूरि हुए, जिन्होने प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में अपनी कलम चलाई । हरिभद्रसूरि ने जहाँ एक ओर अनेक जैनागमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी, वही उन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थो का भी संस्कृत भाषा में प्रणयन किया । उनके द्वारा रचित निम्न दार्शनिक ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है - षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्त-जयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तप्रघट्ट आदि । साथ ही इन्होंने बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के न्यायप्रवेश की संस्कृत टीका भी लिखी । इसके अतिरिक्त उन्होने 'योगदृष्टिसमुच्चय' आदि ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे । हरिभद्र के समकाल में या उनके कुछ पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलङ्क और विद्यानन्दसूरि हुए, जिन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की । जहाँ अकलङ्क ने तत्त्वार्थसूत्र पर 'राजवार्तिक' टीका के साथ साथ न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, लघीयस्त्रय, अष्टशती एवं प्रमाणसंग्रह आदि दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की, वहीं विद्यानन्द ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर श्लोकवार्तिकटीका के साथ साथ आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, अष्टसहस्री आदि गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की । १०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सिद्धसेन के न्यायावतार पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धऋषि ने विस्तृत टीका की रचना की । इसी काल में प्रभाचन्द, कुमुदचन्द्र एवं वादिराजसूरि नामक दिगम्बर आचार्यों ने क्रमशः प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, न्यायविनिश्चयटीका आदि महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की । इसके पश्चात् ११वीं शताब्दी में देवसेन ने लघुनयचक्र, बृहद्नयचक्र, आलापपद्धति, माणिक्यनन्दी ने परीक्षामुख तथा अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चयटीका आदि दार्शनिक कृतियों का सृजन किया । इसी कालखण्ड मैं श्वेताम्बर For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ परम्परा के अभयदेवसूरि ने सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर वादमहार्णव नामक विशाल टीकाग्रन्थ की रचना की । इसी क्रम में दिगम्बर आचार्य अनन्तकीर्ति ने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहद्सर्वज्ञसिद्धि, प्रमाणनिर्णय आदि दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य वादिदेवसूरि हुए । उन्होंने प्रमाणनयतत्वालोक तथा उसी पर स्वोपज्ञ टीका के रूप में स्याद्वादरत्नाकर जैसे जैन न्याय के ग्रन्थों का निर्माण किया । उनके शिष्य रत्नप्रभसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक पर टीका के रूप में रत्नाकरावतारिका की रचना की थी। इन सभी में भारतीय दर्शनों एवं उनके न्यायशास्त्र की अनेक मान्यताओं की समीक्षा भी है । १२वीं शताब्दी में हुए श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने मुख्य रूप से जैन न्याय पर प्रमाणमीमांसा (अपूर्ण) और दार्शनिक समीक्षा के रूप में अन्ययोगव्यच्छेदिका ऐसे दो महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की । यद्यपि संस्कृत व्याकरण एवं साहित्य के क्षेत्र में उनका अवदान प्रचुर मात्रा में है, तथापि हमने यहाँ उनके दार्शनिक ग्रन्थों की ही चर्चा की है। यद्यपि १३वीं, १४वीं, १५वीं और १६वीं शताब्दी में भी जैन आचार्यों ने संस्कृत भाषा में कुछ दार्शनिक टीका ग्रन्थों की रचना की थी, इनमें स्याद्वादमञ्जरी एवं शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं षट्दर्शनसमुच्चय की टीकाएँ मुख्य है । कुछ ग्रन्थ भी लिखे गये, फिर भी वे अधिक महत्त्वपूर्ण न होने से हम यहाँ उनकी चर्चा नही कर रहे हैं । १७वीं शताब्दी में श्वेताम्बर परम्परा में उपाध्याय यशोविजय नामक एक प्रसिद्ध जैन लेखक हुए, जिनके अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि दर्शन के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । अध्यात्म के क्षेत्र में अध्यात्ममतपरीक्षा आदि तथा दर्शन के क्षेत्र में जैन तर्कभाषा, नयोपदेश, नयरहस्य, न्यायालोक, स्याद्वादकल्पलता आदि उनके अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । उनके पश्चात् १८वीं, १९वीं और २०वीं शताब्दी में जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा गया हो यह हमारी जानकारी में नहीं है । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की शैली पर आचार्य तुलसी के जैनसिद्धान्तदीपिका और मनोनुशासनम् नामक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की है, फिर भी इस कालखण्ड में संस्कृत भाषा में दार्शनिक ग्रन्थों के लेखन की प्रवृत्ति नहिवत् ही रही है।* * देखिये लेख के अन्त में टिप्पण । For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ जहाँ तक अपभ्रंश भाषा में जैन दार्शनिक साहित्य का निर्देश उपलब्ध होता है, उसमें दो ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण माने जाते है - १. परमात्मप्रकाश और २. प्राभृतदोहा (पाहुडदोहा) । यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ दर्शन की अपेक्षा जैन साधना पर अधिक बल देते है, फिर भी इन्हें अपभ्रंश के दार्शनिक जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जा सकता है, किन्तु इनकी चर्चा हम प्राकृत के जैन दार्शनिक साहित्य के साथ कर चुके हैं । इसके अतिरिक्त दिगम्बर जैन परम्परा में स्वयम्भू से लेकर मध्य काल तक अनेक पुराणों और काव्य ग्रन्थों की संस्कृत में रचनाए हुई हैं । उनमें भी जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा का विवरण हमें मिल जाता है। अन्य भाषाओं मे जैन दार्शनिक साहित्य अन्य भारतीय भाषाओं में जैन दार्शनिक साहित्य का निर्माण हुआ है, उसमें आगमों के टब्बे प्रमुख है । इनमें भी आगमों में वर्णित दार्शनिक मान्यताओं का मरूगुर्जर भाषा में निर्देश हुआ है। मरूगुर्जर भाषा में जैन दर्शन का कोई विशिष्ट ग्रन्थ लिखा गया है, यह हमारी जानकारी में नही है, किन्तु हम सम्भावनाओं से इनकार नहि करते है । मरूगुर्जर में जो दार्शनिक चर्चाएँ हुई है, वे प्रायः खण्डन-मण्डनात्मक हुई है। इनमें भी अन्य मतों की अपेक्षा जैन धर्म दर्शन की विविध शाखाओं व प्रशाखाओं के पारस्परिक विवादों का ही अधिक उल्लेख है । जहाँ तक पुरानी हिन्दी और आधुनिक हिन्दी का प्रश्न है, उनमें भी पर्याप्त रूप से जैन दार्शनिक साहित्य का निर्माण हुआ हो, किन्तु उनमें से अधिकांश विषय पारस्परिक दार्शनिक अवधारणाओं से सम्बन्धित है। इनमें मेरी जानकारी के अनुसार एक प्रमुख ग्रन्थ अमोलकऋषीजी कृत जैनतत्त्वप्रकाश है । यह सर्वाङ्गीण रूप से जैन दर्शन के विविध पक्षों की चर्चा करता है । यह सम्भावना है कि उनके द्वारा इस प्रकार के अन्य ग्रन्थ भी लिखे गये होंगे, किन्तु उनकी मुझे जानकारी उपलब्ध न होने के कारण उन पर अधिक कुछ कह पाना सम्भव नहीं है । यद्यपि गुणस्थान सिद्धान्त पर अढीशतद्वारी भी इन्हीं का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । जहाँ तक आधुनिक हिन्दी में लिखे गये जैन दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें पं. फूलचन्दजी द्वारा लिखित जैनतत्त्वमीमांसा एक प्रमुख ग्रन्थ है । इसके For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ अनुसन्धान-६२ अतिरिक्त पं. (डॉ.) दरबारीलालजी कोठिया द्वारा रचित जैनतत्त्व, ज्ञानमीमांसा, पं. सुमेरचन्द दीवाकर द्वारा रचित जैन शासन, पं. दलसुखभाई द्वारा रचित आगमयुग का जैनदर्शन, विजयमुनि जी रचित जैन दर्शन के मूलतत्त्व, आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा जैनदर्शन मनन और मीमांसा, पं. देवेन्द्रमुनि जी द्वारा रचित जैनदर्शन स्वरूप व विश्लेषण एवं जैनदर्शन मनन और मूल्यांकन, पं. महेन्द्रकुमारजी जैन द्वारा रचित जैनदर्शन, मुनि महेन्द्रकुमार द्वारा रचित जैन दर्शन एवं विद्या, जिनेन्द्रवर्णी द्वारा रचित जैन दर्शन में पदार्थ विज्ञान, डॉ. मोहनलाल महेता द्वारा रचित जैनदर्शन, मुनि न्यायविजय जी द्वारा रचित जैनदर्शन प्रमुख आदि ग्रन्थ है । इसके अतिरिक्त जैनधर्मदर्शन के विविध पक्षों के लेकर हिन्दी में पर्याप्त साहित्य की रचना हुई है। इनमें डॉ. रतनचन्द जैन का शोध प्रबन्ध - जैन दर्शन में निश्चय और व्यवहारनय : एक परिशीलन, पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री का जैन न्याय एवं प्रमाण नय निक्षेप प्रकाश, डॉ. सागरमल जैन के जैनभाषादर्शन, जैन दर्शन में द्रव्य गुण और पर्याय, जैन दर्शन का गुणस्थान सिद्धान्त प्रमुख ग्रन्थ है । यहा हमने हिन्दी के कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, वैसे तो हिन्दी भाषा जैन धर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित सैकडों ग्रन्थ है । जिनके नामोल्लेख से यह निबन्ध-निबन्ध न रहकर एक ग्रन्थ ही बन जायेगा । इसी क्रम में साध्वी धर्मशीलाजी का नवतत्त्व, मुनि प्रमाणसागरजी का जैन धर्म और दर्शन, साध्वी विद्युतप्रभाजी का द्रव्यविज्ञान, समणी मङ्गलप्रज्ञाजी की आर्हती दृष्टि भी जैनधर्मदर्शन के प्रमुख ग्रन्थ माने जाते है । हिन्दी भाषा के अतिरिक्त बंगाली, पंजाबी, मराठी और कन्नड भाषाओं में भी आधुनिक युग में जैनधर्मदर्शन से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थ प्रकाश में आए है। विस्तार भय से उन सब की चर्चा करना यहा सम्भव नहीं है । दार्शनिक समस्याओं के लेकर पं. सुखलालजी के दर्शन और चिन्तन में प्रकाशित कुछ महत्त्वपूर्ण आलेख भी इस दृष्टि से विचारणीय है । इसी क्रम में पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा ने भी नव तत्त्वों पर अलग अलग रूप से स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं । वैसे गुजराती भाषा में भी पर्याप्त रूप से जैन धर्म दर्शन सम्बन्धी साहित्य के ग्रन्थ लिखे गये है । किन्तु इस सम्बन्ध में मेरी जानकारी की अल्पता के कारण उन पर विशेष कुछ लिख पाना सम्भव नहीं है । यद्यपि अंग्रेजी भारतीय भाषाओं का एक अंग नहीं है, फिर भी For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ विश्व की एक प्रमुख भाषा होने के कारण उसमें भी जैन दर्शन सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते है। उसमें प्रो. नथमल जी टाटीया का जैन स्टडीज, डॉ. इन्द्रशास्त्री का जैन एपीस्टोमोलाजी, जे.सी. सिकदर का जैन थ्योरी आफ रियलीटी, प्रो. बी.आर. जैन का कासमोलाजी ओल्ड एण्ड न्यू आदि कुछ प्रमुख ग्रन्थ माने जा सकते है । यद्यपि आज कुछ मूल ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद सहित लगभग पाँच सौ अधिक ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध - फ्रेंच, ऊर्दू, पन्जाबी, बन्गाली आदि में क्वचित् जैनधर्मदर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ उपलब्ध है। प्राच्य विद्यापीठ दुपाडारोड, शाजापुर (म.प्र.) टि. १८वीं शतीमें उपाध्याय विनयविजयजी ने लोकप्रकाश ग्रन्थ बनाया । तदुपरान्त, यशस्वत्सागरकृत स्याद्वादमुक्तावली आदि, पद्मसागरकृत प्रमाणप्रकाश आदि विविधकर्तृक विविध ग्रन्थ संस्कृत में जैन दार्शनिक ग्रन्थ हैं । आत्मारामजी महाराज के ग्रन्थ प्रसिद्ध ही है । ___ वीसवीं शती में आचार्य विजयनेमिसूरिजीने न्यायसिन्धु, अनेकान्ततत्त्वमीमांसा, सप्तभङ्गी-उपनिषत्, नयोपनिषत् इत्यादि ग्रन्थ व न्यायालोक, अनेकान्तव्यवस्था आदि के टीकाग्रन्थ बनाये । उनके शिष्यवृन्द में से अनेक साधुओंने सन्मतितर्कवृत्ति पर विवरण आदि दार्शनिक ग्रन्थों रचे । आ. सागरानन्दसूरिजीने भी तत्त्वार्थ-पूर्ति इत्यादि अनेक दार्शनिक रचनाएं की। आ.लब्धिसूरिजीने भी तत्त्वन्यायविभाकर, सन्मति-टीका आदि की रचना की। और ग्रन्थरचना का यह सिलसिला, थोडे अंश में, आज भी जारी रहा है। इतना पाठकों की जानकारी के लिए । वैसे गुजराती में भी विविध लेखकों द्वारा दार्शनिक पुस्तकें लिखी गई हैं। - शी. For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६२ जैनदर्शन में प्रमाण विवेचन - प्रो. सागरमल जैन जैनदर्शन में प्रमाण चर्चा एक परवर्ती अवधारणा है। नैयायिकों और बौद्धों के पश्चात् ही जैनों ने प्रमाण विवेचन को अपना विषय बनाया है । सम्भवतः इसका काल लगभग ईसा की चौथी-पांचवी शताब्दी से प्रारम्भ होता है, क्योंकि लगभग तीसरी शताब्दी के जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में 'ज्ञानं प्रमाणम्' मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है। जैन आगमों में भी पमाण (प्रमाण) शब्द का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु उनमें प्रायः प्रमाण से क्षेत्रगत या कालगत परिमाण को ही सूचित किया गया है । प्राचीन स्तर के दिगम्बर ग्रन्थों में भी उक्त प्रमाण शब्द वस्तुतः नापतौल की ईकाई के रूप में ही देखा गया है । आगमों में केवल एक स्थान पर ही चार प्रमाणों की चर्चा हुई है, किन्तु वे चार प्रमाण वस्तुतः नैयायिकों के प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान प्रमाण के समरूप ही है । अतः यह कहा जा सकता है कि जैनों में प्रमाण चर्चा का विकास एक परवर्ती घटना है। आगमों में उक्त प्रमाण चर्चा का विशेष उल्लेख हमें नहीं मिलता है । ___ कालक्रम की अपेक्षा से आगमयुग के पश्चात् जैन दर्शन में 'अनेकान्त स्थापना' का युग आता है । इसका काल लगभग चौथी शताब्दी से प्रारम्भ करके आठवी-नवी शताब्दी तक जाता है । इस कालखण्ड के प्रथम दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर और दिगम्बर परम्परा की अपेक्षा से समन्तभद्र माने जा सकते है । इस युग में प्रमाण चर्चा का विकास हो रहा था । इस युग में प्रमाण को परिभाषित करते हुए जैनाचार्यों ने कहा "प्रमीयते येन तत् प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा जाना जाता है वह प्रमाण है, ज्ञान का साधन है । तत्त्वार्थसूत्र में सर्वप्रथम प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों का उल्लेख मिलता है । जैनों के द्वारा मान्य पांच ज्ञानों को ही इन दो प्रमाणों में वर्गीकृत किया गया है । कालान्तर में 'नन्दीसूत्र' में प्रत्यक्ष प्रमाण के दो विभाग किये गये - १. पारमार्थिक प्रत्यक्ष और २. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष । तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्यक्ष के ऐसे दो विभाग नहीं करके मात्र पाँच ज्ञानों में मति और श्रुतज्ञान For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट 1 को परोक्ष तथा अवधि, मनपर्यव तथा केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है यह स्पष्ट है कि जैनों ने लगभग पांचवीं शताब्दी में ही ऐन्द्रियप्रत्यक्ष को, जो कि पूर्व में परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत ही आता था, लोक परम्परा का अनुसरण करते हुए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया । इस प्रकार प्रत्यक्ष के दो विभाग सुनिश्चित हुए - सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष और पारमार्थिकप्रत्यक्ष । इनमें पारमार्थिकप्रत्यक्ष को आत्मिकप्रत्यक्ष और सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष को ऐन्द्रियप्रत्यक्ष भी कहा गया । परोक्ष प्रमाण के विभागों की चर्चा परवर्ती काल में उठी थी । दिगम्बर परम्परा में अकलङ्क ने प्रायः आठवीं शती में और श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धऋषि ने लगभग नवीं शताब्दी में परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद किये, जो क्रमश: इस प्रकार है (१) स्मृति, (२) प्रत्यभिज्ञान ( पहचानना ), (३) तर्क, (४) अनुमान और (५) आगम । दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलङ्क ने भी प्रत्यक्ष को मिलाकर अपनी कृतियों में छः प्रमाणों की चर्चा की थी (१) प्रत्यक्ष, (२) स्मृति, (३) प्रत्यभिज्ञान, (४) तर्क, (५) अनुमान और (६) आगम । किन्तु इस व्यवस्था के पूर्व जैनों में भी प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम या शब्द ऐसे तीन ही प्रमाण माने गये थे । यद्यपि - 1 — २०१३ जैन आगमों ने उपमान को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया था, किन्तु कालान्तर में इसका अन्तर्भाव अनुमान में करके स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में इसका परित्याग कर दिया गया था । जहाँ तक भारतीय चिन्तन का प्रश्न है उसमें सामान्यतया जैनों को तीन प्रमाण मानने वाला ही स्वीकार किया गया है । भारतीय चिन्तन में प्रमाणों की संख्या सम्बन्धी चर्चा को लेकर विभिन्न दर्शनों में इस प्रकार की व्यवस्था रही है - प्रत्यक्ष (१) चार्वाक (२) वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शन (३) सांख्य एवं प्राचीन जैन दर्शन - — — - या शब्द (४) न्यायदर्शन १. प्रत्यक्ष २. अनुमान ३. शब्द और ४. उपमान (५) मीमांसादर्शन (प्रभाकर सम्प्रदाय) १. प्रत्यक्ष २. अनुमान ३. शब्द ४. उपमान और ५. अर्थापत्ति (६) मीमांसादर्शन का भाट्ट सम्प्रदाय और वेदान्त १. प्रत्यक्ष और २. अनुमान १. प्रत्यक्ष २. अनुमान और ३. आगम — ९५ - For Personal & Private Use Only १. प्रत्यक्ष २. अनुमान Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ३. शब्द ४. उपमान ५. अर्थापत्ति और ६. अभाव प्रमाण लक्षण सामान्यत: प्रमाण शब्द से प्रमाणिक ज्ञान का ही अर्थबोध होता है । किन्तु कौनसा ज्ञान प्रमाणिक होगा इसके लिये विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के लक्षणों का निरूपण किया गया है । सामान्यतः उस ज्ञान को ही प्रमाण माना जा सकता था, जो ज्ञान किसी अन्य ज्ञान या प्रमाण से खण्डित न हो, और वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करे । किन्तु कालान्तर में प्रमाण के लक्षणों की चर्चा काफी विकसित हुई । सामान्यतः इसमें प्रमाण के स्वरूप को लेकर दो वर्ग सामने आये प्रथम वर्ग में नैयायिकों ( न्यायदर्शन) का कहना यह था कि प्रमाण वह है जो पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में जानता हो, किन्तु इसके विपरीत दूसरे वर्ग में बौद्धों का कहना यह था कि प्रमाण वह है जो अपने स्वानुभूत ज्ञान को ही प्रामाणिक रूप से जानता है । इस दूसरे वर्ग ने प्रमाण के सम्बन्ध में यह निश्चित किया कि स्वानुभूत 'ज्ञान ही प्रमाण है ।' इस प्रकार प्रमाण - लक्षण के सन्दर्भ में पुन: दो मत देखे जाते है । बौद्धों ने ज्ञान को प्रमाण मानकर भी ज्ञानाकारता / तदाकारता को प्रमाणरूप माना, जबकि जैनों ने इस तदाकारता का खण्डन करके स्व पर प्रकाशक ज्ञान को प्रमाणरूप माना । नैयायिकोंका कहना था कि ज्ञान 'पर' ( पदार्थ) प्रकाशक है, अर्थात् ज्ञान के करण (साधन) ही प्रमाण होते हैं । वे "इन्द्रियार्थसन्निकर्ष" को प्रमाण मानते थे । जहाँ तत्त्वार्थसूत्र में जैनों ने " तत् प्रमाणे " कहकर ज्ञान को प्रमाण मानने के मत का समर्थन किया था, वहाँ नैयायिकोने ज्ञान के करण अर्थात् साधन-इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष अर्थात् संयोग को ही प्रमाण माना । यद्यपि बौद्ध और जैन दोनों ज्ञान को ही प्रमाण मानते थे । जैनों के अनुसार, न तो बौद्धों द्वारा मान्य ज्ञान में वस्तु की चेतना जो तदाकारता बनती है, वही ज्ञानरूपता प्रमाण है, और न नैयायिको द्वारा मान्य 'इन्द्रियार्थसन्निकर्ष' ही प्रमाण है । जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में बौद्धों और नैयायिकों दोनों की आलोचना की । नैयायिकों के मत के अनुसार प्रमाण 'पर' ( पदार्थ) का प्रकाशक अर्थात् पदार्थ का ज्ञान कराने वाला होता है, जबकि बौद्धों ने यह माना था कि प्रमाण 'स्व' का अर्थात् अपने ज्ञान का ही ज्ञान कराता है, अर्थात वह स्व-प्रकाशक है । इस प्रकार प्रमाण के लक्षण में दो प्रकार की I - — अनुसन्धान- ६२ For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ अवधारणाएँ बनी - एक प्रमाण स्व-प्रकाशक है, और दूसरी प्रमाण पर(पदार्थ)-प्रकाशक है। प्रमाण परप्रकाशक है इस मत के समर्थक नैयायिक और वैशेषिक दर्शन थे, जबकि प्रमाण मात्र स्वप्रकाशक है इस मत के समर्थक विज्ञानवादी बौद्ध थे । जैनों के सामने जब प्रमाण के स्वप्रकाशकत्व और परप्रकाशकत्व का प्रश्न आया तो उन्होंने अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर उसे स्व-पर-प्रकाशक माना । सर्वप्रथम श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार (१) में, और दिगम्बर परम्परा में आचार्य समन्तभद्र ने सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्र की टीका (१/१०) में, इस मत का समर्थन किया, और इस प्रकार प्रमाण का जैनों ने जो लक्षण निर्धारित किया उसमें उन्होंने उसे 'स्व' अर्थात् अपने ज्ञान का तथा 'पर' अर्थात् पदार्थ-ज्ञान का प्रकाशक माना । बौद्ध पदार्थज्ञान को इसलिए प्रमाणभत नहीं मानते थे कि विज्ञानवादी बौद्ध ज्ञान से पृथक् ज्ञेय अर्थात् पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं मानते थे । आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार की निम्न कारिका में इस बात को स्पष्ट किया है - प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं, बाधविवर्जितम् ।। प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा, मेयविनिश्चयात् ॥ - न्यायावतार १ इस प्रकार न्यायावतार में प्रमाण का लक्षण करते हुए उसे स्व-पर दोनों का प्रकाशक माना है। साथ ही उसे बाधविवर्जित अर्थात् स्वतः सुसंगत भी माना गया है, सुसंगत होने का अर्थ है, अविसंवादित या पारस्परिक विरोध से रहित होना । इस प्रकार प्रारम्भ में प्रमाण के दो मुख्य लक्षण माने गये। इसके पश्चात् अकलङ्क ने बौद्ध परम्परा का अनुसरण करते हुए अष्टशती में बाधविवर्जित अर्थात् अविसंवादिता को भी प्रमाण का लक्षण स्वीकार किया। इसी क्रम में मीमांसको के प्रभाव से अकलङ्क ने अनधिगतार्थक या अपूर्व को भी प्रमाण-लक्षण में संनिविष्ट किया । अकलङ्क और माणिक्यनन्दी ने प्रमाण लक्षण के रूप में अपूर्व को अधिक महत्त्व दिया था। इस प्रकार जैन परम्परा में प्रारम्भ में प्रमाण के चार लक्षण माने थे – १. स्वप्रकाशक २. परप्रकाशक ३. बाधविवर्जित या असंविवादी ४. अनधिगतार्थक या For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ अनुसन्धान-६२ अपूर्व । लगभग हेमचन्द्र के पूर्व तक जैन परम्परा में प्रमाण के यही चार लक्षण माने गये थे । किन्तु हेमचन्द्र इन्हें अन्य शब्दावली में प्रकट किया है, उनके अनुसार सम्यक् अर्थनिर्णय: ही प्रमाण है । यद्यपि यह ठीक है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण - लक्षण -निरूपण में नयी शब्दावली का प्रयोग किया है, किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि उन्होंने अपने पूर्व के जैनाचार्यों के प्रमाण लक्षणों को पूरी तरह से छोड़ दिया है । यद्यपि इतना अवश्य है कि हेमचन्द्र ने दिगम्बराचार्य विद्यानन्द और श्वेताम्बराचार्य अभयदेव और वादिदेवसूरि का अनुसरण करके अपने प्रमाणलक्षण में अपूर्व पद को स्थान नहीं दिया है। साथ ही पं. सुखलालजी के शब्दों में उन्होंने 'स्व' पद को, जो सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्यों की परिभाषा में था, निकाल दिया । अवभास, व्यवसाय आदि पदों का भी स्पष्ट निर्देश नहीं किया और उमास्वाति, धर्मकीर्ति, भासर्वज्ञ आदि के 'सम्यक्' पद को अपनाकर ‘सम्यगर्थनिर्णय:' प्रमाणम् के रूप में अपना प्रमाणलक्षण प्रस्तुत किया । इस परिभाषा या प्रमाण - लक्षण में सम्यक् पद किसी सीमा तक पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रयुक्त बाधविवर्जित या अविसंवादिता का ही पर्याय माना जा सकता है । 'अर्थ' शब्द का प्रयोग बौद्धों के विज्ञानवादी दृष्टिकोण का खण्डन करते हुए प्रमाण के 'पर' अर्थात् वस्तु के अवबोधक होने का सूचक है, जो जैनों के वस्तुवादी (Realistic) दृष्टिकोण क समर्थक भी है। पुनः 'निर्णय' शब्द जहाँ एक ओर अवभास, व्यवसाय आदि का सूचक है, वहीं दूसरी ओर वह प्रकारान्तर से प्रमाण के 'स्वप्रकाशक' होने का भी सूचक हैं । इस प्रकार प्रमाण- लक्षण -निरूपण में अनधिगतार्थक या अपूर्वार्थग्राहक होना ही एक ऐसा लक्षण है, जिसका हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती श्वेताम्बर आचार्यों के समान परित्याग किया हैं । वस्तुतः स्मृति को प्रमाण मानने वाले जैनाचार्यों को यह लक्षण आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ । श्वेताम्बर परम्परा ने तो उसे कभी स्वीकार ही नहीं किया । दिगम्बर परम्परा में भी अकलङ्क और माणिक्यनन्दी के पश्चात् विद्यानन्द ने इसका परित्याग कर दिया । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अपने पूर्वाचार्यों के दृष्टिकोणों का सम्मान करते हुए और उनके प्रमाण - लक्षणों को सन्निविष्ट करते हुए प्रमाणमीमांसा में 'प्रमाण' की एक विशिष्ट परिभाषा प्रस्तुत की है । For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण-निरूपण में 'स्व' पद क्यों नहीं रखा, इसका उत्तर स्वयं उन्होंने प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक के चतुर्थ पद की स्वोपज्ञ टीका में दिया है। उन्होंने बताया है कि ज्ञान तो स्व-प्रकाश ही है, किन्तु 'पर' का व्यावर्तक नहीं होने से लक्षण में इसका प्रवेश अनावश्यक है । पं. सुखलालजी के अनुसार ऐसा करके उन्होंने एक ओर अपने विचार-स्वातन्त्र्य को स्पष्ट किया, वहीं दूसरी ओर पूर्वाचार्यों के मत का खण्डन न करके, 'स्व' पद के प्रयोग करने की उनकी दृष्टि दिखाकर उनके प्रति आदर भी व्यक्त किया। साथ ही ज्ञान के स्वभावतः स्व-प्रकाशक होने से उन्होंने अपने प्रमाण-लक्षण में 'स्व' पद नहीं रखा । इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण में 'अधिगत' या 'अपूर्व' पद क्यों नहीं रखा ? इसका उत्तर भी प्रमाणमीमांसा में धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की चर्चा में मिल जाता है। भारतीय दर्शन में धारावाहिक के प्रामाण्य और अप्रामाण्य को लेकर दो दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं । एक ओर न्याय-वैशेषिक और मीमांसकों के प्रभाकर एवं भाट्ट सम्प्रदाय कुछ सूक्ष्म मतभेदों को छोड़कर सामान्यतया धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य को स्वीकार करते है, दूसरी ओर बौद्ध परम्परा सामान्य-व्यक्ति(प्रमाता) के ज्ञान में सूक्ष्म काल-भेद का ग्रहण नहीं होने से धारावाहिक ज्ञान को अप्रमाण मानती है । यद्यपि कुमारिल भट्ट की परम्परा भी अपने प्रमाणलक्षण में अपूर्व पद रखने के कारण सूक्ष्म काल-कला के भान (बोध) को मानकर ही उसमें प्रामाण्य का उत्पादन करती है । इसी प्रकार बौद्ध दार्शनिक अर्चट ने अपने हेतुबिन्दु की टीका में सूक्ष्म-कला के भान के कारण योगियों के धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण माना है । जहाँ तक जैनों का प्रश्न है, सामान्यतया कुछ दिगम्बर आचार्यों ने अपने प्रमाण-लक्षण में 'अपूर्व' पद को स्थान दिया है । अतः उनके अनुसार भी धारावाहिक ज्ञान, जब क्षणभेदादि की स्थिति में विशेष का बोध कराता हो और विशिष्ट प्रमाजनक हो तभी प्रमाण कहा जाता है । इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य अपने प्रमाण-लक्षण में 'अपूर्व' पद नहीं रखते हैं और स्मृति के समान धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं । श्वेताम्बर For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-६२ आचार्यो में हेमचन्द्र ने अपने प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद क्यों नहीं रखा, इसका उत्तर भी उनकी प्रमाणमीमांसा में मिल जाता है। आचार्य स्वयं ही स्वोपज्ञ टीका में इस सम्बन्ध में पूर्वपक्ष की उद्भावना करके उत्तर देते हैं। प्रतिपक्ष का कथन है कि धारावाहिक स्मृति आदि ज्ञान अधिगतार्थक पूर्वार्थक हैं और इन्हें सामान्यतया अप्रमाण समझा जाता है । यदि [तुम] भी इन्हें अप्रमाण मानते हो तो (तुम्हारा) सम्यगर्थनिर्णय रूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है । प्रतिपक्ष के इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा था कि यदि धारावाहिक ज्ञान और स्मृति प्रमाण है तो फिर प्रमाण के लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद निरर्थक हो जाता है । पं. सुखलालजी का कथन है कि "श्वेताम्बर आचार्यों में हेमचन्द्र की खास विशेषता यह है कि उन्होंने गृहीतग्राही और ग्रहीष्यमाणग्राही में समत्व दिखाकर सभी धारावाहिक ज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है, वह विशिष्ट है। यही कारण है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद की उद्भावना नहीं की है। वस्तुतः हेमचन्द्र की प्रमाण-लक्षण की अवधारणा हमें पाश्चात्त्य तर्कशास्त्र के सत्य के संवादिता सिद्धान्त का स्मरण करा देती है । पाश्चात्त्य तर्कशास्त्र में सत्यता-निर्धारण के तीन सिद्धान्त हैं – १. संवादिता सिद्धान्त, २. संगति सिद्धान्त और ३. उपयोगितावादी या अर्थक्रियावादी सिद्धान्त । उपर्युक्त तीन सिद्धान्तों में हेमचन्द्र का सिद्धान्त अपने प्रमाण-लक्षण में अविसंवादित्व और अपूर्वता के लक्षण नहीं होने से, तथा प्रमाण को सम्यगर्थनिर्णयः के रूप में परिभाषित करने के कारण, सत्य के संवादिता सिद्धान्त के निकट हैं । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण-लक्षण-निरूपण में अपने पूर्वाचार्यों के मतों को समाहित करते हुए भी एक विशेषता प्रदान की है । प्रमाण लक्षण निरूपण में यही उनका वैशिष्ट्य है । - प्राच्य विद्यापीठ, दुपाडा रोड, शाजापुर (म.प्र.) ४६५००१ For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ ट्रंक नोंध : ( १ ) 'पुद्गलनो ग्रहण गुण' ओटले शुं ? मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय उपा. श्रीयशोविजयजी विरचित द्रव्य-गुण- पर्यायनो रास - ढाळ - २ गाथा - २ अने अनो स्वोपज्ञ टबो नीचे मुजब छे. — - १०१ " धरम कहीजई गुण सहभावी, क्रमभावी पर्यायो रे; भिन्न अभिन्न त्रिविध त्रयलक्षण, ओक पदारथ पायो रे.... २.२ बो- सहभावी कहतां यावद्द्रव्यभावी जे धर्म ते गुण कहिइं, जिम जीवनो उपयोग गुण, पुद्गलनो ग्रहण गुण, धर्मास्तिकायनो गतिहेतुत्व, अधर्मास्तिकायनो स्थितिहेतुत्व, आकाशनो अवगाहनाहेतुत्व, कालनो वर्तनाहेतुत्व.... आमां अन्य द्रव्योना गुण तो जाणीता ज छे, पण पुद्गलास्तिकायना ग्रहणगुणनो उल्लेख प्रायः ग्रन्थोमां देखातो नथी, तेथी ते परत्वे थोडीक विचारणा करीओ. पण्डित श्रीधीरजलाल महेताओ करेला आ रासना विवेचनमां 'ग्रहण' नो अर्थ 'पूरण- गलन' अम करवामां आव्यो छे. जोके पुद्गलास्तिकायमां पूरण- गलन होय छे खरं, पण ए यावद्द्रव्यभावी अर्थात् कायम नथी होतुं के जेथी एने गुण गणी शकाय. 'ग्रहण' नो अर्थ पूरण- गलन करवो पण अघरो छे. वळी, खरेखर जो अत्रे पुद्गलना गुण तरीके पूरण- गलन ज कहेवुं होत तो ओने माटे उपाध्यायजी शा माटे 'पूरण - गलन' अ जाणीता शब्दोने छोडीने 'ग्रहण' जेवो शब्द वापरे ? माटे पण्डितजीओ करेलो आवो अर्थ विचारणीय लागे छे. केटलाक विवेचको वळी, 'ग्रहण' नो अर्थ पूरण-गलन न थई शके तेम जणावीने, 'ग्रहण' नो अर्थ 'रूप-रस व. ४' एम करे छे. एमना विवेचनना मुख्य शब्दो For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-६२ "पूरण-गलन यावद्दव्यभावी न होवाथी ओ 'गुण' शी रीते कहेवाय?" "बहिरिन्द्रियैर्गृह्यते इति ग्रहणं अम कर्म अर्थमां अनट् प्रत्यय लागीने आ 'ग्रहण' शब्द बन्यो छे. अर्थात् बहिरिन्द्रिय वडे जेनुं ग्रहण (-ज्ञान) थाय ओवा गुण ओ ग्रहणगुण. वर्ण, गन्ध, रस अने स्पर्श आवा गुणो छे. माटे आ वर्ण, गन्ध, रस अने स्पर्श से पुद्गल-गुणो छे अम समजवू.' "ओक ज शब्दथी चारेनो उल्लेख थई जाय ओवी गणतरीथी ओ चारनो अलग अलग उल्लेख न करतां मात्र 'ग्रहण' शब्दनो उल्लेख को होय अवी आपणे कल्पना करी शकीओ.". _ "बाकी सौथी महत्त्वनी वात ओ छे के आगळ उपर ग्रन्थमां पुद्गलना गुण तरीके क्यांय पूरण-गलननो उल्लेख नथी. पण कृष्ण-गौर वगेरे वर्णादिनो ज छे... आ बाबत पण निश्चित करे छे के कृष्णादि वर्णो ज गुणरूपे अभिप्रेत छे." हवे, कृष्णादि वर्णो के मधुरादि रस व. पुद्गलना गुण जरूर छे, पण अहीं 'ग्रहण' शब्दनो आवो अर्थ करवो वाजबी छे के नहीं ते प्रश्न थाय छे. वर्णादि चारने सूचववा माटे आ ज रासमां – टबामां उपाध्यायजीओ 'रूपरसादिक' जेवा शब्दो प्रयोज्या ज छे, तो अत्रे शा माटे तेने सूचववा 'ग्रहण' अवो क्लिष्ट प्रयोग करे ? वळी, आगमोमां पुद्गलना गुण तरीके 'ग्रहण' सूचवाय त्यारे तेनो अर्थ टीकाकार क्यारे पण वर्णादिपरक नथी करता- "गुणओ गहणगुणे (-पोग्गलत्थिकाए)" - भगवती-२.१०.११७ टीका - "गहणगुणे त्ति ग्रहणम्- औदारिकादिशरीरतया ग्राह्यता इन्द्रियग्राह्यता वा वर्णादिमत्त्वात्, परस्परसम्बन्धलक्षणं वा, तद् गुणो- धर्मो यस्य स तथा ॥" "गुणओ गहणगुणे" - स्थानाङ्ग-४४१ टीका - "गहणगुणेत्ति ग्रहणं- परस्परेण सम्बन्धनं, जीवेन वा, औदारिकादिभिः प्रकारैरिति ॥" "पोग्गलत्थिकाए णं जीवाणं ओरालिय-वेउव्विय-आहारए तेयाकम्मए सोइंदिय-चक्खिंदिय-घाणिदिय-जिब्भिदिय-फार्सिदिय-मणजोग-वयजोग For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ . १०३ कायजोग-आणपाणूणं च गहणं पवत्तति गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए" - भगवती-१३.४.४८१ टीका- "पोग्गलत्थिकाए णं । इहौदारिकादिशरीराणां श्रोत्रेन्द्रियादीनां मनोयोगान्तानामानप्राणानां च ग्रहणं प्रवर्तते इति वाक्यार्थः, पुद्गलमयत्वादौदारिकादीनामिति ॥ आ शास्त्र-उल्लेखोनो सार अटलो ज छे के परस्पर जोडाण मात्र पुद्गलोमां ज शक्य छे; तेमज जीव द्वारा औदारिक व. शरीर वडे के इन्द्रियो वडे ग्राह्य फक्त पुद्गलो ज बनी शके छे. पुद्गलगत आ परस्पर सम्बन्ध के आत्मा द्वारा ग्रहण थवानी योग्यता ज अत्रे 'ग्रहण' शब्दथी विवक्षित छे. आ ग्राह्यता पुद्गलनो आगवो धर्म छे, बीजा कोई द्रव्यमां आवी ग्राह्यता संभवती नथी, तेथी ते पुद्गलनुं लक्षण बनी शके छे, अने तेथी ज भगवतीजीमां "गहण-लक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए" अम कां छे. वळी, पुद्गलो, ग्रहण थतुं होय के ना. थतुं होय, तद्गत ग्राह्यता- ग्रहणयोग्यता तो टकी ज रहे छे, माटे आ यावद्रव्यभावी ग्राह्यता पुद्गलनो गुण पण बनी शके छे. ध्यान आपवा जेवी वात ए छे के 'ग्रहण'नो अर्थ 'बहिरिन्द्रियथी जेनुं ग्रहण थाय ते' ओम व्युत्पत्ति करीने वर्णादिपरक करी शकाय तेम छे, पण अवो अर्थ अस्वाभाविक लागे छे. तेने बदले 'गहणगुणे'नो 'ग्रहण थर्बु ओ ज गुण' ओम करवो स्वाभाविक लागे छे. भगवतीजी - २.१०.११७नी टीकामां पण वर्णादिने 'ग्रहणगुण' नथी कह्या, पण जे वर्णादिने लीधे पुद्गलोमां आवती ग्राह्यताने ज 'ग्रहण' तरीके ओळखावी छे. -X ___ (२) श्रीविजयानन्दसूरि(-आत्मारामजी)विरचित सत्तरभेदी पूजा, रचनावर्ष : वि.सं. १९१९ के १९३९ ? हमणां आ. श्रीकीर्तियशसूरि द्वारा सम्पादित श्रीआत्मारामजी म. विरचित For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान-६२ सत्तरभेदी पूजा-सानुवादनुं पुस्तक जोवा मळ्युं.' आ पुस्तकमां पूजाना रचनावर्ष अने कर्ताना नामाचरणवाळी छेल्ली कडी अने तेनो अनुवाद आ प्रमाणे छ : "विजय आनन्द लघु नन्दा, निधि शशि अङ्क है चन्दा (१९१९) । अंबाले नगर में गायो, निजातम रूप हुं पायो ॥" "मूलचन्दजी महाराजना नाना भाई आनन्दविजय उर्फे विजयानन्दसूरि के आत्मारामजी महाराजे सं. १९१९मां अंबालानगरमां आ सत्तरभेदी पूजा रचीने पोतानु आत्मस्वरूप प्राप्त कर्यु." ___ हवे आत्मारामजी म.नी संवेगी दीक्षा सं. १९३२मां थई छ.२ वळी तेओओ आ पूजानी छेल्लेथी बीजी कडीमां 'मुक्ति गणि सम्प्रति राजा' अवो उल्लेख कर्यो छे जे सूचवे छे के मुक्तिविजयजी (-मूळचन्दजी) महाराजनी गणिपदवी (सं. १९२२) थया पछीनी आ रचना छे. आ संजोगोमां आ रचनानुं वर्ष सं. १९१९ होई शके नहीं अवो ख्याल आव्यो. आ सम्बन्धे पू.आ. श्रीविजयप्रद्युम्नसूरिजी सम्पादित सत्तरभेदी-पूजा, विविधपूजासङ्ग्रह, लघुपूजासङ्ग्रह व. पुस्तको तपासतां बधे ठेकाणे "निधि शशि अङ्क है चन्दा (१९१९)" अवो ज पाठ मळ्यो. विचार करतां जणायुं के वीसमी सदीना चोथा के पांचमा दसकानी आ रचना होई शके, अने तेथी दशकाङ्कसूचक 'शशि' शब्दमां ज गरबड होय. अने जो 'शशि' हस्तप्रत-वांचननी के मुद्रणनी क्षति होय तो बहु ज सम्भव छे के अने बदले मूळ शब्द 'राशि' होय. 'राशि' शब्द त्रणनो अङ्क सूचवी शके. तेथी पाठ आम होवो जोइओ : "निधि राशि अङ्क है चन्दा. (१९३९)". जैन साहित्यनो सङ्क्षिप्त इतिहास - पृ. ६८६ पर आ पूजा सं. १९३९मां रचाई होवानी नोंध पण पाछळथी जाणवा मळी. तेथी आ पूजा- रचनावर्ष खरेखर वि.सं. १९३९ होवू जोईओ, ओ वधु ठीक लागे १. प्रका. - सूरिरामचन्द्र दीक्षा शताब्दी समिति २. जैन साहित्यनो सङ्क्षिप्त इतिहास - पृ. ६८५ ३. वस्तुसङ्ख्याकोश - सं.- भारती सं. भगत - पृ. १८८ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ (३) स्तम्भनपार्श्वपञ्चविंशतिकाना कर्ता विशे जैनस्तोत्रसन्दोह-भाग २ (सं. - श्रीचतुरविजयजी, प्र. - साराभाई मणिलाल नवाब, वि. १९९२)ना पृ. ९५ - ९७ पर 'श्रीपार्श्वनाथस्तवनम्' एवा नामे अक अतीव प्रासादिक स्तोत्र छपायुं छे. २५ श्लोकना आ स्तोत्रमां श्रीस्तम्भतीर्थमण्डन स्तम्भनपार्श्वना दर्शने ऊगेली आन्तरिक लागणीओने आ स्तोत्रमां बखूबी व्यक्त करवामां आवी छे. १०५ पुस्तकमां आ स्तोत्रने श्रीदेवसुन्दरसूरिजी (विक्रमना १५मा सैकाना तपगच्छपति) कृत जणाववामां आव्युं छे. 'जैन संस्कृत साहित्यना इतिहास 'मां पण प्रस्तुत स्तोत्र श्रीदेवसुन्दरसूरिजीना नामे नोंधायुं छे. स्तोत्रना अन्तिम श्लोकना चोथा चरणमां 'श्रीदेवसुन्दर' ओवा अक्षरो जोईने आ निर्णय थयो होय से सम्भवित छे. परन्तु हमणां श्रीजैनआत्मानन्द सभा - भावनगरना हस्तप्रतसङ्ग्रहमां प्रस्तुत स्तोत्रनी प्रत जोई. ते प्रतमां पुष्पिकानो पाठ आम छे : " इति श्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथ- पञ्चविंशतिका श्रीसोमसुन्दरसूरिभिरेकरजन्यां कृता ॥" (श्रीसोमसून्दरसुरिओ अक रात्रिमां रचेली स्तम्भनपार्श्वनाथपच्चीसी सम्पूर्ण थई.) आ पुष्पिका परथी त्रण वातो फलित थाय छे : १. “स्फुरत्केवलज्ञानचारुप्रकाशं” ओवी पदावलीथी प्रारम्भाती स्तम्भनपार्श्वनाथपच्चीसीना रचयिता श्रीदेवसुन्दरसूरिजी नहीं, पण तेओना शिष्य श्रीसोमसुन्दरसूरिजी छे. २. कर्ताओ गुरुभक्ति निमित्ते स्तोत्रमां पोताना गुरुभगवन्तनुं नामाचरण कर्तुं छे. ३. आवी सुन्दर रचना अक रात्रिमां करवामां आवी छे, जे वात कर्तानी अप्रतिम विद्वत्ता सूचवे छे. स्तोत्रना २३मा श्लोकनुं चोथुं चरण (प्रायः प्रतमां न होवाने लीधे ) जैनस्तोत्रसन्दोह - भाग २मां अमुरित छे. आ चरण प्रस्तुत प्रतमां नीचे मुजब छे : " त्वमिन्दूयसे वा सुदृ दृष्टिचक्रे । " For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनुसन्धान-६२ (४) श्रीसौभाग्यसागरसूरिजी विशे अनुसन्धान-६१मां पत्र-५५ 'श्रीज्ञानविमलसूरिप्रणीता प्रसादपत्री'मां श्लोक १३मां श्रीसौभाग्यसागरसूरिजी नाम छे. आ सम्बन्धे आ पत्रना परिचयमां (अनु. ६१ - पृ. 46) अम लखायुं छे के "पोते (-ज्ञानविमलसूरि) स्तम्भतीर्थमां छे, त्यारे साथे सौभाग्यसागरसूरि नामक आचार्य पण त्यां छे तेवी सूचना पद्य १३थी मळे छे." आ सम्बन्धे अक वधु माहिती मळी छे. 'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास' - खण्ड २ - प्रकरण २८, पृ. २०४ पर शोभनस्तुतिनी अक टीकानो परिचय आम अपायो छे : "आ सौभाग्यसागरसूरिनी रचना छे अने अनुं संशोधन, ज्ञानविमलसूरिओ, वि.सं. १७७८मां कर्यु छे. आ. सौभाग्यसागरसूरि आनन्दविमलसूरिना सन्तानीय ज्ञानविमलसूरिना पट्टधर थाय छे." न For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १०७ हस्तपत-सम्पादननी शिस्त विषे थोडंक दिशासूचन डॉ. कान्तिलाल बी. शाह शास्त्राध्ययन, हस्तप्रतभण्डारोनो समुद्धार, हस्तप्रतविद्यानी विशेषज्ञता अने हस्तप्रतो, संशोधन-सम्पादन - आ स्वरूपे आजीवन जेमनो ज्ञानयज्ञ चालतो रह्यो ओवा परमपूज्य आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी महाराजनुं नाम जेनी साथे जोडायुं छे ओ चन्द्रकनो स्वीकार करता सहज रीते धन्यता अने आनन्दनी अनुभूति मने थाय. पण साथेसाथे अथीये अधिक संकोच पण अनुभवी रह्यो छु. आ महात्मानी सामे, अने मारी अगाउ जे विद्वज्जनो काम करी गया छे अनी तुलनाओ हुं ने मारुं काम शी विसातमां ! परन्तु जे निर्णय लेवायो छे अने माथे चडावीने, मारी आभारनी लागणी व्यक्त करुं छु. किशोरावस्थामां माएं घडतर बे संस्थाओने आभारी छे. मेट्रिक सुधी सी.एन. विद्याविहार. त्यां सात वर्षनो छात्रावास अने विशिष्ट शिक्षण प्रणालीने लईने गांधीविचारधारानो स्पर्श अमे छात्रो पाम्या. रेंटियो, खादी, प्रार्थना, स्वावलम्बन आ बधुं छात्रजीवन साथे ओतप्रोत थयु. पछीनां चार वर्ष महावीर जैन विद्यालयनी पालडी शाखामां. त्यां रात्रे धार्मिक वर्गो फरजियात. पण्डित सुखलालजीना सम्पादनवाळो उमास्वाति वाचकनो 'तत्त्वार्थसूत्र' ग्रन्थ अभ्यासक्रममां. पद्मनाभ जैनी ओ शीखवे. ग्रन्थआरम्भनु ज सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः'. तेओ कहे 'जुओ, मोक्षमार्गः अकवचनमां छे. पण ओ मार्ग जेने कह्यो छे ओ पद 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' बहुवचनमां छे. ओटले आ त्रणेना समन्वयथी ज मोक्षमार्ग प्राप्त थाय. अकनी पण न्यूनता न चाले.' आम, अहीं जैनिझमनी किञ्चित् तत्त्वसमज प्राप्त थई. _ पछी अम.ओ. मां युनि. भाषाभवनना अध्यक्षश्री उमाशङ्कर जोशी, आरम्भिक अध्यापनकाळमां 'प्रकाश'मां आचार्य ची.ना. पटेल अने प्रा. जयन्त कोठारी, बी.डी. कोलेजमां आचार्य सन्तप्रसाद भट्ट - आ सौनां व्यक्तित्वोनो For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ संस्पर्श मारे माटे मोटी उपलब्धिरूप हतो. कॉलेजमां गुजराती विभागने माथे सांस्कृतिक प्रवृत्तिओनुं भारण विशेष रहेतुं. अनी व्यस्तता वच्चे मारे माटे ओक अणकल्पी घटना घटी. ते समयना इन्डोलोजीना डायरेक्टर अने मारा मित्र नगीनभाईओ ओक दिवस मने बोलावीने मध्यकालीन गुजरातीनी कृति 'गुणरत्नाकर छन्द'नी हस्तप्रत मारा हाथमां मूकतां कह्यु, 'आ एक सुन्दर कृति छे. ओना पर काम करवा जेवुं छे.' हुं मुंझाउं त्यारे जयंतभाईनी सलाह लउं. पण, आ काममां अमनी 'ना' शानी होय ज ! रगडदगड काम शरू कर्यु. डिग्रीनी तो कशी खेवना के कल्पना मात्र नहीं. पण काम अडधे पहोंच्युं त्यारे जयन्तभाईना आग्रहथी युनि.मां रजिस्ट्रेशन कराव्युं ने तेओ मारा अधिकृत गाईड बन्या. अवारनवार आचार्य प्रद्युम्नसूरिजी, आ. शीलचन्द्रसूरिजी भायाणीसाहेबनुं पण मार्गदर्शन मळतुं रधुं छेवटे निवृत्ति पछीना त्रीजा वर्षे पीएच. डी. नी पदवी प्राप्त थई. आ शोधनिबन्धने गुजराती साहित्य परिषदनुं प्रथम पारितोषिक प्राप्त थतां आचार्य प्रद्युम्नसूरिजीनो संदेशो आव्यो के आ कृतिने छपावो. आ शीलचन्द्रसूरिजीओ पत्र लखीने कृतिने प्रकाशित करवा जणाव्युं ने आ अंगे तमाम सहाय - सहकारनी खातरी आपी. कृति प्रकाशित थतां गुजरात साहित्य अकादमीनुं संशोधन विभागनुं प्रथम पारितोषिक अने श्री जयभिक्खु साहित्य ट्रस्टनो सुवर्णचन्द्रक प्राप्त थयां. " अनुसन्धान-६२ थोडाक समयमां प्रद्युम्नसूरिजीओ मने सोमसुन्दरसूरि रचित 'उपदेशमाला बालावबोध' नी हस्तप्रत मोकली अना सम्पादननुं काम शरू करवा सूचव्युं. धर्मदासगणि रचित ‘उपदेशमाला' परनो आ सौथी प्राचीन बालावबोध. सं. १४८५नी रचना अने मात्र चौद वर्ष पछीनी सं. १४९९ - नी हस्तप्रत. ५०० वर्ष पहेलाना आ अप्रकाशित बालावबोधना सम्पादननुं काम पूरुं थवामां हतुं त्यां गुजराती साहित्य परिषदमां डॉ. भोगीलाल सांडेसरा चेर अन्वये मध्यकाळनी कथामाला 'विनोदचोत्रीसी' ना संशोधन- सम्पादननो प्रकल्प हाथ धरवानो थयो . आ काम परिषदे आपेली बे वर्षनी मर्यादामां में पूरुं कर्यु पछी परिषदे अ कृति प्रकाशित पण करी. आम, मध्यकाळनी स्थूलिभद्र - कोशाना कथानकवाळी, चारणी छन्दोनी लयछटा दाखवी पद्यकृति 'गुणरत्नाकर छन्द', मध्यकालीन गद्यनी For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १०९ लाक्षणिकताओने जाळवतो अने नानीमोटी ८० जेटली कथाओने संघरतो बालावबोध अने जीवनबोध अर्पती हास्यरसप्रधान ३४ लौकिक कथाओनी मालासमी 'विनोदचोत्रीसी' - आ त्रण मध्यकालीन रचनाओ सौ प्रथम प्रकाशित थई. ___आ सिवाय महावीर जैन विद्यालय प्रकाशित आठेक पुस्तकोनुं सम्पादनकार्य थयु. अमांनां केटलांक प्रद्युम्नसूरिजी अने जयन्त कोठारीना सहयोगमां थयां. वचगाळे गुजराती साहित्यकोश अने विश्वकोशमां अधिकरणलेखन थयु. जयन्तभाईना आकरग्रन्थ समा 'जैन गूर्जर कविओ'ना १० भागमां जे नवसंस्करण अने 'मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश'नी प्रवृत्तिमां, अमना नाजुक स्वास्थ्यने कारणे हुं, कीर्तिदा वगेरे अमनी सहायमा रहेवाने निमित्ते संशोधनसम्पादननी शिस्त अंगे अमे घणुं शीख्या. जो आ महानुभावोनां प्रेरणा, प्रोत्साहन अने मार्गदर्शन न मळ्यां होत तो मारे हाथे जे कांई कामो थयां ओ थई शक्यां होत के केम ओ अंगे मने शङ्का छे. वळी, मुम्बईना डॉ. रमणलाल ची. शाहे जैन साहित्य समारोहो निमित्ते तेमज इन्डोलोजीना वर्तमान डायरेक्टर जितेन्द्र बी. शाह अने सर्वत्र छवाई रहेला कुमारपाळ देसाईओ हस्तप्रतविद्यानी वर्कशोप, सर्टिफिकेट कोर्स, शिबिर अने सेमिनारोने निमित्ते मने स्वाध्यायरत राख्यो छे. आ सौ प्रत्ये मारी कृतज्ञता व्यक्त करवानी तक लउं छु. मारां कुटुम्बीजनोओ पण मने रोजिंदी घरेळु जंजाळमांथी मुक्त अने नचिंत राख्यो छे अने हूंफ पूरी पाडी छे अनी पण अहीं नोंध लउं छु. पूज्य मुनिराज पुण्यविजयजी, कार्यक्षेत्र हस्तप्रतविद्यानु. अनां अनुलक्ष्यमां, हस्तप्रतसम्पादन अंगे मारा केटलाक अनुभवोने सांकळी लईने थोडीक वात करीश. ____ 'गुणरत्नाकर छन्द' कृतिना आरम्भमां सरस्वतीदेवी, गुणकीर्तन करती स्तुति आवे छे. वाचना माटे में स्वीकारेली प्रतमां पाठ हतो 'विरचित कविजनहृदये' आना अर्थान्वय बेठा नहीं. पण अन्य प्रतोमां पाठ हतो 'विचरति कविजनहृदये' (हे देवी ! तुं कविजनोना हृदयमां विचरे छे.) आ For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनुसन्धान-६२ शुद्धपाठ हतो. अटले 'विरचित' पाठ छोडीने 'विचरति' पाठ वाचनामां स्वीकारवानो थयो. आ परथी ओ शीखवां मळ्युं के जे कृतिनुं सम्पादन हाथ उपर लीधुं होय तो अनी अंक हस्तप्रत मळी जतां काम शरू करवाने बदले शक्य अटली प्रतो प्राप्त करवी जोईओ. ओक ज हस्तप्रतमां उधई के अवा कोई कारणे पाठ खवाई गयो होय, पलळी के चेराई गयो होय तो अनी अवकाशपूर्ति अन्य प्रतमांथी थई शके. भ्रष्ट पाठनी शद्धि थई शके अने पाठपसंदगीनी पण तक रहे. एकाधिक प्रतो हाथवगी थई होय तो प्रतनी प्राचीनतमता ने प्रमाणभूतताने ध्यानमा राखी वाचना माटेनी पण प्रतपसंदगीनी तक रहे छे. हस्तप्रतसूचिओने आधारे वधु हस्तप्रतोनी भाळ मेळवी शकाय. 'गुणरत्नाकर छन्द'नी मने १८ प्रतो प्राप्त थई हती अमांथी १० प्रतोने आधारे मारुं सम्पादनकार्य थयुं हतुं. अक ज कृतिनी जुदीजुदी हस्तप्रतोमा जे पाठभेदो जोवा मळे छे अमांथी केटलाक तो लेखनकारनी सरतचूकथी के विषयसन्दर्भ नहि पकडावाथी थयेला भ्रष्ट पाठो होय छे. 'गुणरत्नाकर छन्द'मां कोशाना वर्णनमां अक पंक्ति आवे छे 'भमुह-कमांणि करी तिहां ताकई तीर-कडक्ख.' (कोशा भ्रम्मररूपी कमान उपर नयन- कटाक्ष-तीर ताके छे.) पण केटलीक प्रतोमां ‘भमुहकमांणि'ने बदले 'भमुह-कामिनी' पाठ हतो जे अशुद्ध हतो. हस्तप्रत-सम्पादन माटे सम्पादकने सौ प्रथम लिपिवाचननो अभ्यास होवो जोइओ. आजना मुद्रित वर्णो करतां हस्तप्रतमां लिपिमरोड घणा वर्णोमां जुदो पडे छे. जो लिपिवाचन खोटु थाय तो लिप्यन्तरमा 'भक्षण' शब्द 'लक्षण' थई जाय, 'पाप' शब्द 'पाय' बने, अने पडिमात्रा ह्रस्व 'इ' जेवी वंचाई जतां 'हेत' शब्द 'हित' बनी जाय. ओक लिप्यन्तरित वाचना मारे हस्तप्रत साथे मेळववानी आवी. लिप्यन्तर हतुं 'भवसागर नीर तरीओ रे.' वाक्यार्थ बराबर बेसी पण जतो हतो. पण हस्तप्रत जोतां अमां पाठ हतो 'भवसागर निस्तरीओ रे'. जुओ, अहीं 'निस्तरीओ'मांना अडधा 'स'नी वच्चेनी पांख बराबर नहि ऊकलतां ओ अडधो 'स' सम्पादकने 'र' तरीके वंचायो, परिणामे मूळनो 'निस्तरीओ' पाठ 'नीर तरीओ'मां फेरवायो. आम लिपिवाचन ओ हस्तप्रत सम्पादन- प्रथम सोपान. For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १११ पण लिप्यन्तर ओ कंई ओक कागळ परथी बीजा कागळ परनो उतारो नथी. हस्तप्रतमां बधा ज अक्षरो भेगा लखाया होईने संशोधक माटे पदविभाजननी - पाठनिर्धारणनी खरी कसोटी रहे छे, अने ओ माटे भाषानुं ज्ञान अनिवार्य बने छे. जे भाषानी कति होय ओ भाषा ज जो न जाणता हो तो शब्दविभाजन कराशे ज केवी रीते ? 'उपदेशमाला बालावबोध' अने देवचन्द्रजीनी स्तवनचोवीशीना स्वोपज्ञ बालावबोधना सम्पादनमां मने भाषानी मुश्केली नडी हती. बन्ने बालावबोधो जूनी गुजरातीमां, पण उपदेशमालानी मूळ गाथाओ प्राकृतमां, तेमज स्तवन-चोवीशीना बालावबोधमां आवतां विविध धर्मग्रन्थोमांनां उद्धरणोअवतरणो प्राकृतमां. ओ माटे अन्योनुं मार्गदर्शन अनिवार्य बन्युं हतुं. अटले अनुभवे कही शकुं के मध्यकाळनी जैन गुजराती रचनाना सम्पादके प्राकृत भाषानो जरूरी परिचय केळवी लेवो जोई. _ 'गुणरत्नाकर छन्द'मां कोशाविरहना वर्णनमां अक पछी अेक आवती पंक्तिओमां अकसरखो वर्णक्रम जोवा मळ्यो. जेमके 'मेखल मेखल परि संतावइ'. प्रथम दृष्टिपाते तो लाग्युं के कविओ बधे शब्दोनी द्विरुक्ति करी छे. पण आ शब्दद्विरुक्ति नहोती. पण काव्यसौन्दर्यविभूषित यमक प्रयोगो हता. अने पदविभाजन आम थतुं हतुं : 'मेखल मे खल परि संतावइ'. (कोशानो विरहोद्गार छे के हे स्थूलिभद्र ! तारा विरहमां मारी कटिमेखला मने खलनी जेम संतापे छे.) बीजो यमकप्रयोग जुओ - ___ हुँ यौवनभरि तइं कां टाली, लागइ सेज हवे कांटाली'. अहीं कांटाली वर्णक्रमनी द्विरुक्ति छे पण शब्दो जुदा छे. प्रथम चरणमां कोशा कहे छे 'हे स्वामी ! भरयुवान मेवी मने तें कां टाळी ? शाने तरछोडी ?' बीजा चरणमां कहे छे 'हवे मने आ शय्या कांटाळी लागे छे.' अहीं जो पाठनिर्णय खोटो थाय तो पंक्तिनुं समग्र काव्यसौन्दर्य अळपाई जाय. 'विनोदचोत्रीसी'मां अक कडी आम हती - 'सजनीयां सपनंतरिउं मुझ आवी मिलीयांह, है है नयणां पापियां, जागी नीगमीयांह.' छेल्ला भेगा लखायेला अक्षरो मारा मनमां आम ज गोठवाया : 'जागीने For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान-६२ गमीयां - गम्यां'. पण 'पापी नयणां'नी साथे 'गम्यां'नो मेळ केम बेसे ! पण पछी धीमेधीमे पाठ बेठो. ओ हतो 'जागी नीगमीयांह' काव्यनायक कहे छे, "प्रियजन स्वप्नमां आवीने मने मळ्यां. पण हे पापी नयनो ! तमे जागी जतां स्वप्नमां आवेल प्रियजन दूर थइ गया." आम पाठनिर्धारण हस्तप्रत-सम्पादन- बीजुं सोपान. सम्पादन- त्रीजुं सोपान छे अर्थनिर्णयनु. जोके आ 'सोपान' शब्द तो सगवड माटे वापरेलो छे. हकीकते पाठनिर्धारण अने अर्थनिर्णयनी प्रक्रिया समांतरे ज चालती होय छे. जो मनमां अर्थसन्दर्भ बेसी गयो होय तो पाठ आपोआप गोठवाई जाय. अने जो पाठनिर्णय साचो थयो होय तो अर्थ पण सरळताथी ऊकली आवे. छतां केटलांक स्थानोमां साचो पाठ बेसाड्या पछी पण अर्थ अस्पष्ट रहेतो होय छे. 'विनोदचोत्रीसी'मां अक विरहोद्गार आम हतो - "तेरे विरह मूं देह दही, जिउ वन बूंघचीयाइं, आधे जल भई कोईला, आधे लोही-मांस." पाठ निर्धारण तो बराबर ज हतुं, पण 'चूंघचीयाइ'नो अर्थ समजाय नहीं. पछी हिन्दी शब्दकोशमांथी अनो अर्थ 'चणोठी' मळ्यो. जे अर्थ मळतां आखुंये भावचित्र अलङ्कारमण्डित बनी गयु. चणोठी अडधी लाल ने अडधी काळी होय. नायिका कहे छे के "तारा विरहमां मारो देह चणोठीनी जेम अडधो बळीने कोलसा जेवो काळो थयो ने अडधो रक्तरंगी लोही-मांस बनी रह्यो." क्यारेक लिपिवाचन अने पाठनिर्णय बन्ने साचां होय, प्रत्येक शब्दनो अर्थ पण स्पष्ट होय छतां वाक्यनो अर्थान्वय ज न पकडाय अq पण बने. कोशानो परिचय आपतां कवि सहजसुन्दर कहे छ 'रजनी- ओक लक्ष.' शब्दो स्पष्ट हता, पण वाक्यार्थ बेसाडवानी गडमथल. शीलचन्द्रसूरिजीने मळीने अर्थ पूछ्यो. तरत कहे, 'अरे, आ तो तद्दन स्पष्ट छे. पाटलीपुत्रना राजदरबारीओ कोशाने आंगणे आवे त्यारे कोशा ओक रात्रिना अक लाख सोनैया वसूलती. ओ सन्दर्भ अहीं छे.' For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ११३ शीलचन्द्रसूरिजीओ 'अनुसन्धान'नी ओक प्रस्तावनामां स्वाध्यायने संशोधननो गुण कह्यो छे. स्वाध्याय जेटलो सुदृढ अटलुं संशोधन सत्यनी नजीक. विषयनी जाणकारीनो अभाव संशोधन-सम्पादनमां अन्तराय सर्जे छे. मध्यकालीन घणी कृतिओमां दृष्टान्तकथानो केवळ निर्देश होय. पण बने अर्बु के से निर्दिष्ट कथा आपणे जाणता ज नथी होता. मारो अनुभव कहुं. 'गुणरत्नाकर छन्द'मां अक पाठ हतो. 'आगि परजालई चुलणी.' अर्थात् चुलणी आग प्रजळावे छे. पण आ 'चुलणी' शुं ? जयन्तभाई प्रमाणो शोधे ने हुं तुक्का लडा. अहीं आग प्रजळाववानी वात छे अटले चुलणीनो अर्थ नानो चूलो थतो हशे ? के पछी चूलो पेटाववानी भुंगळी हशे ? ओवामां अक दिवस श्रीमहाबोधिविजय गणिने मळवा- थयु. चुलणीनो अर्थ पूछयो. कहे चुलणी ओ तो ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीनी मातानुं नाम छे. पछी तो अनी आखी कथा जाणी. विधवा चुलणी राणीओ पडोशी राजा साथेना आडा सम्बन्धोने कारणे सगीर पुत्रनी हत्या करवा लाक्षागृहमां आग लगाडी हती, ओ सन्दर्भ अहीं हतो. वात शी हती ने केवा अनुमाने चडी जवायुं हतुं ! ओटली स्वाध्यायनी अधूरप. तात्पर्य से छे के संशोधनमां तथ्योनी जाळवणी महत्त्वनी बने छे. - वळी, मध्यकालीन जैन कृतिओमां आवता जैन पारिभाषिक शब्दोना विशिष्ट अर्थसन्दर्भो होय छे. ओ न समजातां विषयने यथातथ ग्रहण करी शकातो नथी. जेमके समिति, गुप्ति, जयणा, सद्दहणा, आवश्यक, अतिशय, लेश्या, पच्चक्खाण जेवा शब्दो अना विशेष अर्थोमां प्रयोजाय छे. ____ में अहीं मारा अनुभवोनां केटलांक उदाहरणो टांकीने हस्तप्रतसंशोधन विशे केटलीक वात करी. हजी अनां पाठान्तरो, पाठपसंदगी, अना आधारो, कृतिना कर्तृत्व अने रचनासमयना कोयडाओ, प्रक्षिप्त गाथाओ, तत्कालीन भाषास्वरूपनी जाळवणी, जोडणीनी अतन्त्रता वगेरे विशे घणुं कही शकाय अम छे पण समयमर्यादाने लइने अहीं अटकुं. जोई शकाशे के आ हस्तप्रत-सम्पादननी प्रक्रिया अेक चोक्कस शिस्त मागी ले छे. हस्तप्रत-संशोधके पोताना काम द्वारा वाचकने सर्जकनी मूळ रचनानी निकटतम पहोंचाडवानो छे. ओमां क्षति जेटली वधारे अटलुं ते वाचकने रचनाथी दूर लई जाय छे. केमके सरेराश वाचक तो प्रकाशित For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनुसन्धान-६२ सामग्रीने स्वीकारीने ज चालशे. अ प्रकाशित रचनाने मूळ हस्तप्रत साथे मेळववा जवानो नथी. __ अहीं उपस्थित युवान मित्रोने कहीश के मित्रो ! जेटलुं प्रकाशित थयुं छे अनाथी अप्रकाशितनुं प्रमाण घणुं वधारे छे. ज्ञानभण्डारोनां पोटलां ने दाबडाओमां बद्ध रहेली आ हस्तप्रतो प्रकाशमां आववा आपणी राह जुओ छे. ओ पडकार आप सौओ झीलवानो छे. आ भार केवळ श्रमणसमुदायसंतसमुदायने खभे मूकीने आपणे अळगा थइ जवू शोभशे नहीं. ___ आगमप्रभाकर मुनिराज पुण्यविजयजीनु पुनित स्मरण आप सौने सत्यशोधनी आ केडीओ डग मांडवा प्रेरी रहो ओ ज अभ्यर्थना. पुनः पूज्य गुरुभगवन्तोने वंदन करुं छु अने चन्द्रक-समिति, गुजरात विश्वकोश ट्रस्ट, तेमज अत्रे उपस्थित रही मने प्रोत्साहित करवा बदल सौ विद्वज्जनो, स्वजनो, स्नेहीजनोनो आभार मानी विरमुं छु. [ता. १७-२-२०१३ना रोज गुजरात विश्वकोश भवन, अमदावाद खाते, आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी महाराज स्मृति-चन्द्रक प्रदान प्रसङ्गे प्रत्युत्तररूपे अपायेलुं वक्तव्य] न For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ११५ श्रीहेमचन्दाचार्यचदक-प्रदान-समारोह : हेवाल ['श्रीहेमचन्द्राचार्य निधि'ना उपक्रमे, लगभग दर बे वर्षे योजातो श्रीहेमचन्द्राचार्यचन्द्रक-प्रदाननो समारोह, ता. ३० जून, २०१३ना रविवारे, अमदावाद-शेठ हठीसिंह केसरीसिंहनी वाडीमां, आ. श्रीविजयहेमचन्द्रसूरिजी तथा आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीनी निश्रामां योजवामां आवनार हतो. आ वखतनो चन्द्रक, अमरेलीना वतनी, संस्कृतना तथा तर्कशास्त्रना प्रकाण्ड पण्डित डॉ. वसंतभाई परीखने, अर्पण करवानो हतो. तेमनी सम्मति पण मळी हती. अमना जीवन परिचय-पत्र सहित आमन्त्रणपत्रिका पण प्रगट थई गई हती. आपणा वयोवृद्ध विद्वान् मनीषी श्री कनुभाई जानीना वरद हस्ते ते अर्पण थनार हतो. परन्तु, विधिनिर्मित काईक जुदुं ज हशे. डॉ. परीखने गाये पछाडतां तेमने गम्भीर इजा थई, दवाखाने दाखल थवानुं आव्यु, अने पछी तो हार्टनी तकलीफ पण थई आवी. आ स्थितिमां, ३० जूने अमदावाद आववानु तेमना माटे शक्य न हतुं. आथी, आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीए तथा ट्रस्टीमण्डले मळीने नक्की कर्यु के चन्द्रक प्रदाननो विधि, ३० मी जूने ज, अमरेली - डॉ. परीखना घेर जईने, ट्रस्टीओए करी लेवो, अने समय साचववो. तदनुसार, ट्रस्टना ट्रस्टीओ,-श्रीबिपिनभाई माणेकलाल शाह, श्रीपंकजभाई सुधाकरभाई शेठ, श्रीसंदीपभाई जवेरी, श्रीअशोकभाई गांधी तथा श्रीअतुल कापडिया, अमदावादथी अमरेली गया. त्यां अमरेलीना तेमज अन्य गामोना साहित्यिक विद्वानो पण पधार्या, अने ते सहुए मळीने डॉ. परीखने 'श्रीहेमचन्द्राचार्य चन्द्रक' एनायत को. ते साथे ७५ हजारनो चेक, शाल, सरस्वती-प्रतिमा, प्रशस्तिपत्र, माळा, श्रीफळ पण अर्पण करवामां आव्या हता. ते प्रसंगनो ढूंको हेवाल डॉ. निरंजन राज्यगुरुए मोकल्यो छे, ते अत्रे आपवामां आवेल छे. समारोहर्नु संचालन डॉ. राज्यगुरु तेमज युवान कविमित्र श्रीप्रणव पण्ड्याए कयुं हतुं.] For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनुसन्धान-६२ अमरेलीमा योजाई गयो संस्कृत भाषा-साहित्यमां मूर्धन्य साहित्यकार पण्डितश्री वसन्तभाई परीखसाहेबने हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक अर्पण करवानो समारोह कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य जेवी विश्ववन्दनीय विभूतिना नाम अने काम साथे सम्बन्ध धरावता अने पूज्यपाद स्व. तेजोमूर्ति गच्छाधिपति आचार्यश्री विजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजसाहेबनी प्रेरणाथी स्थपायेला तथा आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहेबनी निश्रामां कार्य करता ट्रस्ट 'कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि'ना उपक्रमे, पूज्यश्रीना मार्गदर्शनानुसार चाली रहेली विविध ज्ञानवर्धक प्रवृत्तिओमांनी अक प्रवृत्ति ते आपणा साहित्य अने संस्कृतिनी अमूल्य सेवा करनार विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न विद्वानोने 'श्रीहेमचन्द्राचार्य चन्द्रक' अर्पण करीने तेमनुं बहुमान करवानी प्रवृत्ति छे. ___ भूतकाळमां आपणा मूर्धन्य विद्वानो पं. श्रीदलसुखभाई मालवणिया, डॉ. श्रीहरिवल्लभ भायाणी, श्रीशान्तिभाई शाह, श्रीउमाकान्त शाह, श्रीनगीनभाई शाह, श्री के.आर.चन्द्रा, श्रीसत्यरन्जन बेनरजी, श्रीजयंत कोठारी, श्रीमधुसुदन ढांकी, श्रीलक्ष्मणभाई भोजक, श्रीकनुभाई जानी, श्रीलाभशंकर पुरोहित अने डॉ. श्रीहसुभाई याज्ञिक वगेरे भारतीय कक्षाना विद्वानोने आ चन्द्रक अर्पण थयो छे. ते शृङ्खलामां आगळ वधतां ता. ३०-६-२०१३ ज्येष्ठ वदी ८ रविवार वि.सं. २०६९ना रोज अमरेली खाते संस्कृत भाषा-साहित्यना पण्डितश्री वसन्तभाई परीखने 'हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक' अर्पण करवा योजायेलो चन्द्रकप्रदान समारोह ओ साचा अर्थमां 'ज्ञान भक्ति-महोत्सव' बनी रह्यो, अने ते सौने माटे संतृप्ति आपनारो नीवड्यो. प्रसङ्गे जामजोधपुरथी भारतीय सन्तसाहित्यना अभ्यासी डॉ. मनोज रावल, जेतपुरथी संतसाहित्य संशोधक डॉ. रवजी रोकड, जेतपुरना साहित्यप्रेमी उद्योगपति गुणवंत धोरडा अने समाजसेवक पंकज धामी, जूनागढथी 'गुजरातनी पीरपरम्परा' पुस्तकना संशोधक-लेखक अने सरकारी वकीलश्री डॉ. मुकुन्दचन्द्र नागर, आनन्द आश्रम-घोघावदरथी डॉ. निरंजन राज्यगुरु, अमरेलीना विद्वान For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ११७ पूर्व अध्यापको श्रीकिशोरचन्द्र पाठक अने विनुभाई पण्ड्या, कवि अने उद्योगपति श्रीहर्षद चन्दाराणा, कवि अने उद्घोषक श्रीप्रणव पंड्या, 'संशोधन' सामयिकना तन्त्रीश्री डॉ. हसमुख व्यास, 'छालक'ना तन्त्री श्री गणपतभाई उपाध्याय, कविश्री हरजीवन दाफडा वगेरे साहित्य उपासको, पत्रकारो अने विविध टी.वी. चेनल्सना प्रतिनिधिओ उपस्थित हता. आवा साहित्यकार विद्वानो अने प्राध्यापकोनी हाजरीने लीधे लीधे वसन्तभाईना निवासस्थाने विद्वानोना मेळा जेवू वातावरण रचायेखें. मुम्बई तथा अमदावादना जैन संघना श्रेष्ठिवर्यो अने 'कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि ट्रस्ट'ना ट्रस्टीओनी अतिथिविशेष रूपे हाजरी सोनु अने सुगन्धना सुभग समन्वय समी हती. आ मङ्गल प्रसंगे स्वागत प्रवचन करतां ट्रस्टना अने शेठश्री हठीभाईनी वाडीना प्रतिनिधि ट्रस्टी श्रीपंकजभाई शेठे ट्रस्टनी विविध प्रवृत्तिओनो ख्याल आपीने जणाव्युं के चोवीश वर्ष पूर्वे गच्छाधिपति आचार्यश्री विजयसूर्योदयसूरिजी म.सा.नी प्रेरणाथी ट्रस्टनी स्थापना थई, अने परिसंवादो, सेमिनार, संगोष्ठिओ, ग्रन्थ प्रकाशनो तथा हेमचन्द्राचार्य चन्द्रकना अर्पण समारम्भो थता रह्या छे, जेने देश-परदेशना विद्वानो द्वारा सहकार मळतो रह्यो छे. आजे संस्कृत भाषाना अक मूर्धन्य संशोधक, बहुमान करवानो मङ्गल प्रसंग योजायो छे अमां उपस्थित सौनुं हार्दिक स्वागत छे. पछीथी वसन्तभाई परीख-कुटुंब वती प्रा. कालिन्दी परीखे सौनुं पुष्पगुच्छ तथा शब्दोथी स्वागत कर्यु हतुं. स्वागत प्रवचन बाद आ कार्यक्रमनी भूमिका बांधतां डॉ. निरंजन राज्यगुरुओ जणाव्यु के - 'आपणे त्यां गुजरातमां साहित्य, शिक्षण, संस्कार, सेवा, स्वाध्याय अने संशोधनमां कार्यरत अनेक संस्थाओ पोतपोतानी रीते काम करे छे. दरेकना उद्देशो, कार्यप्रणाली, अभिगमो विभिन्न होय जे स्वाभाविक छे. परन्तु भाषा-साहित्यना अणीशुद्ध उत्कर्ष माटे मथनारी संस्थाओ अने सम्पूर्ण सात्त्विक व्यवहारो धरावनारी व्यक्तिओ ओछी थती जाय छे ओ हकीकत छे. आजे अक अद्भुत योगानुयोग छे के गुजराती भाषानो पिण्ड जे बे सत्पुरुषो द्वारा बंधायो छे ते कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यजी अने भक्तकवि For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनुसन्धान-६२ नरसिंह महेता, ओ बन्नेना नामथी ट्रस्टो चाले छे, अने साहित्यना क्षेत्रमा अपूर्व योगदान कर्यु होय अवा सर्जको-संशोधकोने आ ट्रस्टो द्वारा नवाजवामां आवे छे. बेउ ट्रस्ट साधुजनोना शुभ संकल्पोनुं परिणाम छे. आजे बेउ ट्रस्टना प्रतिनिधिओ हाजर छे. अमरेलीना ज कविश्री हर्षदभाई चंदाराणा नरसिंह महेता स्मारक निधिना मेनेजिंग ट्रस्टी छे, वळी हाथीनी अंबाडीओ 'सिद्धहैमग्रन्थ' पछी अमरेलीमां कविश्री रमेश पारेखने नरसिंह अवोर्ड मळी गयेलो. 'हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक' आजे अक अमरेलीवासी गुर्जर सरस्वती आराधकने अर्पण थवा जई रह्यो छे. आजे जेमनुं बहुमान थशे संस्कृत भाषा-साहित्यना विद्वान महानुभाव श्री वसन्तभाई परीखसाहेब अनेक भाषाओ जाणे छे, शब्दना अनुशासनमां रहेनारा छे, शब्दविवेकने पूरेपूरो पिछाणनारा छे. पूज्य आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजसाहेब द्वारा साहित्य अने संशोधनना क्षेत्रमा अक अति महत्त्व- कार्य ए थई रह्यं छे के, गुजराती भाषासाहित्यना संशोधन/अध्ययन/अध्यापन साथे जोडायेला नवी पेढीना सर्जकोसंशोधकोने आपणी प्राचीन जैन-जैनेतर साहित्यनी दिशामा दोरीने रस लेता करवा. गोधरा, महुवा, सुरत, तगडी अने अमदावादमां आ पहेला योजायेला परिसंवादो तथा साहित्यगोष्ठिओ अने पूज्यश्री शीलचन्द्रजी महाराजसाहेबना विद्यातपथी पुष्ट थता जता 'अनुसन्धान' सामयिक द्वारा केटलीये निष्क्रिय कलमोने फरी चेतनवंती बनाववानुं कार्य थतुं रडुं छे. संशोधनक्षेत्रनी अत्यारनी परिस्थिति अने विद्वानोनी कारमी अछतना समये आजना संसारत्यागी युवान साधु-साध्वीजीओ द्वारा सम्पूर्ण प्रमाणभूत अने वैज्ञानिक ढंगथी थई रहेला संशोधन/अध्ययन/सम्पादन अने प्रकाशनो जोतां आशास्पद अने उज्ज्वळ भविष्यनी अंधाणी जेम महाराजसाहेबने देखाणी छे अनी प्रतीति समग्र विद्याजगतने थवामां हवे झाझी वार नथी.' आटली भूमिका पछी श्री वसन्तभाई परीखनो परिचय आपता डो. हसमुख व्यासे जणाव्यु के- 'वसन्तभाई अटले सहज, सरळ, निर्दम्भ, निस्पृह छतां जीवता जागता ज्ञानकोश. आधुनिकता-अनुआधुनिकताना पूर्व-पश्चिमना तमाम साहित्यनो, आपणा संस्कृतना शिष्ट-प्रशिष्ट साहित्यनो परिचय होवा छतां लोकधर्मी साहित्यकार तरीके गुजरातना परम्परित साहित्य, संस्कार, कलाओ, For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ ११९ विद्याओना पूरा जाणकार श्री वसन्तभाई नम्रतानी साथे पोते जे माने छे तेनी प्रतीति सौने कराववा पूरा कटिबद्ध होय छे. अकली विद्या सन्मानने पात्र बनावती नथी परन्तु अमां ज्ञान, क्रिया, तप, साधना भळ्यां होय तो ज मुक्ति प्राप्त थाय. ओ पछी निरंजन राज्यगुरु द्वारा आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजसाहेब द्वारा श्री वसन्तभाईने उद्देशीने लखायेला पत्रनुं वांचन करवामां आव्युं, स्यारबाद प्रशस्तिपत्रनुं वांचन किशोरभाई पाठक द्वारा थयुं अने श्री वसन्तभाईनुं सन्मान डॉ. मनोजभाई रावल तथा ट्रस्टीओ श्री अशोकभाई गान्धी, अतुलभाई कापडिया, बिपीनभाई शाह, संदीपभाई शेठ द्वारा तिलक, माला, श्रीफळ, शाल, सरस्वतीनी प्रतिमा, प्रशस्तिपत्र तथा पंचोतेर हजारनी राशिना चेक साथे हेमचन्द्राचार्य चन्द्रकनी अर्पण प्रदान विधि ताळीओना गडगडाट वच्चे करवामां आव्यु. श्रीप्रणव पण्ड्याओ आ प्रसङ्गे आवेला शुभेच्छासन्देशाओगें वांचन कर्यु त्यारबाद श्रीवसंतभाई परीखे सन्मानप्रतिभाव आपतां जणावेलुं के, 'महाकवि कालिदासनुं ओक वाक्य छे के - 'बहु क्लेश होय, अत्यन्त पीडा थती होय अमां अचानक सुफळ प्राप्त थई जाय तो वेदना ओछी के अदृश्य थई जाय. ओक सन्तनी कृपाथी आप बधा कोई सुफळरूपे मारे त्यां पधार्या अटली मारी शारीरिक पीडा हळवी थई गई छे. अकस्माते हुं अमदावाद न आवी शक्यो अने आपने अहीं आवq पड्युं बदल सतत अपराधभाव अनुभववा छतां ओक रीते जोईओ तो हुं राजी थयो छु. सारा प्रताप गाय माताना के जेना कारणे समग्र भूमण्डळने पोताना तप, ज्ञान, चारित्र, धर्म अने श्रद्धानां अजवाळांथी झळहळतुं करनारा कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी जेवी महान विभूतिना नामे आटला बधा सारस्वतो अने श्रेष्ठिओ मारे त्यां आव्या. आप सौमां हुं अनां किरणावलीनां तेज जोउं छु. आ मारुं सद्भाग्य छे. मारुं जीवन तो धन्य बन्यु पण माएं मरण पण आप सौओ सुधारी दीधुं छे. गुजराती भाषानो बीजनिक्षेप जेमना हाथे थयो. अनुं साहित्य, तर्क, योग, धर्म अने जीवननां तमाम क्षेत्रोमां जेमर्नु अद्वितीय प्रदान छे ओवा सन्तना नाम साथे जोडायेलुं आ बहुमान मारा जीवननी सन्ध्याना आकाशमां हमेशां शुक्रकणिकानी माफक चमक्या करशे. For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनुसन्धान-६२ आजे मारामां ओटली क्षमता के मारी वाणीमां कौवत नथी के हुं हेमचन्द्राचार्यजीनां कार्योनुं वर्णन करी शकुं, अने महाराजसाहेब सहित आप सौनो आभार मानी शकुं. जैन धर्ममां निर्मळ, प्रभावक दर्शन, ज्ञान अने चारित्र्यनो महिमा छे. आ तमाम सन्तोनुं ज्ञान अमना आचरणथी पुष्ट थयेलुं छे, त्यारे आ मङ्गल प्रसंगे मारा पर प्रेम वरसाववा बदल सन्तो अने अमना प्रतिनिधि तरीके आवेला आप सौनो हृदयपूर्वक आभारी छु.' चन्द्रक अर्पणविधि सम्पन्न थया बाद ट्रस्टीओना निमन्त्रणने मान आपी वसन्तभाईना कुटुम्बीजनो अने आ समारम्भमां हाजर रहेला तमाम महानुभावोओ प्राकृतिक-नैसर्गिक वातावरणमा वर्षाझरमर साथे मिष्ट भोजननो ल्हावो लीधो हतो...... ना For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १२१ माहिती सादर प्रकाशनार्थ प्राकृत भाषा के विकास हेतु केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत सुझाव प्रो. फूलचन्द्र जैन प्रेमी संस्कृत/प्राकृत/पाली भाषा के विकास हेतु दिनाङ्क २२-०१-२०१३ को मानव संसाधन विकास मन्त्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा गठित "राष्ट्रीय संस्कृत परिषद्' की बैठक केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मन्त्री माननीय श्री एम.एम.पल्लं राजुजी की अध्यक्षता में शास्त्री भवन में आयोजित हुई । जिसमें देशख्यातिलब्ध भाषाविद्, देश के सभी संस्कृत विश्वविद्यालयों के माननीय कुलपति एवं सभी संस्कृत अकादमियों के सचिव, उच्च शिक्षा सचिव तथा अन्य अधिकारी सम्मिलित हुए । इस परिषद् में प्राकृत भाषा की ओर से नामित सदस्य प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी (निदेशक, बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली) एवं पालि भाषा की ओर से प्रो. भागचन्द जैन भास्कर, नागपुर सम्मिलित हुए। सर्वप्रथम इस परिषद के सदस्य सचिव एवं राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के मा. कुलपति प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस परिषद की पूर्व आयोजित बैठक तथा अन्य प्रगति रिपोर्ट के साथ ही राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान एवं उसके दस परिसरों की प्रगति आख्या आदि का विवरण प्रस्तुत किया । कुछ माननीय सदस्यों ने संस्कृत भाषा के विकास एवं उसके व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु अपने सुझाव एवं नई योजनायें केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत की । ____प्राकृत भाषा और साहित्य के विकास हेतु प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी द्वारा प्रस्तुत किये गये सुझावों को मा. मन्त्री महोदय एवं सम्पूर्ण परिषद्ने गम्भीरता से सुना, विचार किया और परिषद् की कार्यवाही में सम्मिलित किया गया । अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रमुख छह सुझाव इस प्रकार हैं - For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनुसन्धान-६२ १. प्राकृत भाषा प्राचीन काल में जनभाषा के रूप में एक समृद्ध राजभाषा रही है। वर्तमान में इसका विशाल साहित्य उपलब्ध है। किन्तु सरकार की ओर से इसके व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु अभी तक अत्यल्प ही प्रयास हुए हैं । अतः भारत सरकार द्वारा भाषाओं की मान्य आठवीं अनुसूची में प्राकृत भाषा को भी सम्मिलित किया जाये, ताकि इसकी चरणबद्ध रूप में निरन्तर प्रगति होती रहे । राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से सम्बद्ध अनेक आदर्श संस्कृत महाविद्यालय एवं कुछ आदर्श संस्कृत शोध-संस्थान सम्पूर्ण देश में संचालित हो रहे हैं । अत: आरम्भिक चरण में कम से कम एक प्राकृत महाविद्यालय एवं एक प्राकृत शोध संस्थान को आदर्श योजना के अन्तर्गत गृहीत करके राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के अन्तर्गत स्थापित किया जाए । जयपुर, वाराणसी, मुम्बई, लखनऊ एवं भोपाल – इन शहरों में से किसी एक में इनकी स्थापना से प्राकृत भाषा के अध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी एवं शोध छात्र सहज रूप में बहुतायत उपलब्ध हो सकते हैं। ३. केन्द्र सरकार द्वारा स्थापित देश के किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों एवं अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में प्राकृत भाषा एवं साहित्य के अध्ययन हेतु स्वतन्त्र विभाग नहीं हैं । अतः आरम्भ में इनमें से कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयों में स्वतन्त्र प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग की स्थापना की जाये । ४. सी.बी.एस.ई. तथा देश के अन्य सभी माध्यमिक (१०+१२) की परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में निर्धारित भाषाओं के स्थान पर वैकल्पिक रूप में प्राकृत भाषा के पाठ्यक्रम के अध्ययन का प्रावधान किया जाये। इससे सब तक प्राकृत में उच्च शिक्षा प्राप्त शताधिक युवा विद्वानों को रोजगार के अवसर भी प्राप्त हो सकेंगे, साथ ही माध्यमिक कक्षाओं से ही प्राकृत भाषा के अध्ययन के प्रति छात्रों में आकर्षण बढ़ेगा और इससे प्राकृत भाषा के व्यापक प्रचार-प्रसार एवं अध्ययन को भी अधिक बढ़ावा मिलेगा । ५. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के दस परिस्में में से किसी भी परिसर में For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ १२३ 1 1 स्वतन्त्र विभाग के रूप में प्राकृत विभाग नहीं है । इससे प्राकृत भाषा और साहित्य के अध्ययन के इच्छुक छात्र वंचित रह जाते हैं । अत: प्रारम्भिक चरण में किसी एक उपयुक्त परिसर में स्वतन्त्र प्राकृत विभाग की स्थापना की जाये । I अभी तक प्राकृत एवं पालि भाषा के विद्वानों में से बारी-बारी से प्रतिवर्ष किसी एक भाषा के विद्वान् को क्रमशः राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया जाता है । अत: प्राकृत एवं पालि दोनों के अलग-अलग विद्वानों को प्रतिवर्ष राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया जाये । साथ ही पुरस्कार की सम्मानित राशि भी संस्कृत भाषा के पुरस्कार की तरह प्रदान की जाये । विशेष अनुरोध जैन इण्टर कालेज के प्रबन्धको से प्राकृत भाषा और साहित्य के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु सरकारी स्तर पर जो थोड़े-बहुत प्रयास जब होंगे, तब होंगे, किन्तु यदि हम स्वयं इसकी पहल करना चाहते हैं तो विशेषकर देश के सभी जैन इण्टर कालेजो और उच्च माध्यमिक विद्यालयों के प्रबन्धक मण्डल से अनुरोध है कि वे सर्व प्रथम अपने यहाँ एक भाषा या एक विषय के रूप में प्राकृत की पढ़ाई शुरु करने के बाद इस विद्या की मान्यता हेतु सरकारी स्तर से प्रयास करें । बौद्धों ने पालि भाषा की मान्यता इसी तरह प्राप्त की, जो आज इण्टर कक्षा से लेकर आई. ए. एस. की प्रतियोगी परीक्षाओं में स्वीकृत है और हजारों छात्र इन परीक्षाओं में प्रतिवर्ष पालि विषय लेकर परीक्षा देते हैं । विशेष जानकारी के लिए निम्नलिखित पते पर सम्पर्क कर सकते हैं I G - निदेशक, बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, विजय वल्लभ स्मारक जैन मन्दिर कॉम्प्लेक्स, जी. टी. करनाल रोड, पोस्ट अलीपुर, दिल्ली- ११००३६ फोन : ०११-२७२०२०६५ मो. ०९८६८८८३६४८ इमेल director@blinstitute.org For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आ वेदना छे, विरोध नहि शी. ता. २९ जून '१३ना वर्तमानपत्रोमा एक समाचार छपाया हता, जेनुं शीर्षक (Heading) आ प्रमाणे हतुं : " एल. डी. इन्डोलोजीमां संग्रहीत ६१६ वर्ष प्राचीन 'शान्तिनाथ चरित्र 'नी हस्तप्रतने युनेस्कोए वैश्विक सम्पत्ति जाहेर करी". पेटाशीर्षक आ प्रमाणे छे : " चांदीनी शाहीथी लखायेली हस्तप्रत ई.स. १९६१मां मुनि पुण्यविजयजीए एल. डी. इन्डोलोजीने भेटमां आपी हती : हस्तप्रत ज्ञानोत्सव कार्यक्रम बाद जाहेर जनता माटे दर्शनार्थे रखाशे." आ वृत्तान्तनी वधु विगतो तेमां आपेल छे, जेमां एक विगत आम छे : "युनेस्को द्वारा विश्वनां राष्ट्रो पासेथी दुर्लभ दस्तावेजोनी माहिती मंगाववामां आवे छे, जेने 'मेमरी ऑफ वर्ल्ड प्रोग्राम' तरीके ओळखाय छे. आ प्रक्रिया दर बे वर्षे एकवार थाय छे. वर्ष २०१२मां भारत सरकारना सांस्कृतिक मन्त्रालये एल. डी. इन्डोलोजी खातेनी विक्रम संवत् १४५३नी शान्तिनाथ चरित्रनी आ हस्तप्रत मोकली हती. भारत सरकार द्वारा आ हस्तप्रत उपरांत अन्य त्रण कृतिओ ऋग्वेद, छिति - उपनिषद् अने तुझुक- ए- असफिया एम कुल चार कृतिओ मोकली हती. तेमांथी संस्कृत भाषामां रचायेला आ ग्रन्थने मेमरी ऑफ वर्ल्ड तरीके जाहेर करी. ( गुजरात समाचार, २९ जून, २०१३) 11 अनुसन्धान- ६२ पहेली नजरे ज हरख उपजावे तेवा आ समाचार छे. जैन आचार्यनी एक जैन रचना, तेनी जैन भण्डारगत हस्तप्रति, ते पण सचित्र, तेनुं आवुं गौरव विश्व- कक्षाए थाय, तो तेनो हर्ष कोईने पण थाय, थवो जोईए. आ बहाने आ प्रतिने अने हस्तप्रतलेखनविद्या साथे संकळायेली विविध बाबतोने लोको जाणवा मथशे, जाणतां थशे. आ प्रत आज लगी बंध तिजोरीमां पूराई रहेती, तेनां दर्शन करवानो आपणने पण लाभ मळशे. आ प्रतनी सुरक्षा तथा आनुषङ्गिक अभ्यास वगेरे माटे हवे L. D. ना संचालको ज नहि, परन्तु भारत सरकार तेमज युनेस्को (तेनी हेरिटेज कमिटी) पण ध्यान आपशे, अनुदान आपशे. ए रीते, आ प्रतना मिषे L. D. ना समग्र संग्रहने पण For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ १२५ रक्षण प्राप्त थशे. L.D.ना संगृहीत प्राचीन साहित्य तरफ सौनुं ध्यान आकर्षित थशे. आम, एक प्रतने 'वैश्विक वारसो' जाहेर करवाथी अनेक कार्य थशे. आ बधुं, एकान्त अहोभावथी व्याप्त कोई पण हैयाने, आनन्द आपनारुं ज छे. जो के सिक्कानी बीजी बाजु पण छे. केटलाक सवालो पण, आ मुद्दे, जागे छे. जेमके, आ प्रत वैश्विक वारसा माटे युनेस्को पर मोकलवा जेवी छे, ते कोणे अने केवी रीते-कया मापदण्डथी नक्की कर्यु हशे ? एल.डी.मां तो आ प्रतथीये वधु पुराणी अने वधु महत्त्वपूर्ण अनेक प्रतो तथा अन्य सामग्री छे, तो पण आ ज प्रत उपर पसंदगी केम ? आ अथवा आवी प्रत/सामग्री जोवा माटे जो रजूआत थाय तो तेमां भाग्ये ज सफलता मळती होय छे; ट्रस्ट बोर्ड, ठराव, स्ट्रोंगरूम, चावीओ इत्यादि अनेक कारणोनी आड धरवामां आवती होय छे; अने हवे, आ प्रतने वैश्विक वारसो जाहेर करवामां आवतां, ते जाहेर दर्शनार्थे प्रदर्शित करवामां आवनार छे; सम्भवतः कायमी धोरणे. तो आनी पाछळ कोनो आदेश के मार्गदर्शन के नियम काम करता हशे ? आजे आ एक प्रतने वैश्विक वारसो बनावी, आवता समयमां क्रमशः बीजी प्रतोने पण आज रीते युनेस्कोमा लई जई वैश्विक सम्पत्ति जाहेर कराववानो इरादो हशे ? आ प्रत पुण्यविजयजीनी हती, ते तेमणे L.D. ना ज्ञानभण्डारमा मूकी, हवे तेना मालिक ज युनेस्को लई जवानुं नक्की करी शके. आपणा अन्य अनेक भण्डारोमां आ प्रकारनी अनेक पोथीओ वगेरे छे: आ एक अनभव पछी, तेना गौरव तेमज तेनाथी प्राप्त थता फायदा विषे जाण्या पछी, ते ते भण्डारोना वहीवटदारो के मालिकोने, पोताना भण्डारनी ते ते सामग्रीने, हेरिटेजमां लई जवानी अपेक्षा नहि जागे ? एवी अपेक्षा राखवामां तथा तेम करवामां गौरव वधे, अनुदान-संरक्षण मळे, बधा अनुमोदना करे - एम त्रिविध लाभ थता होय तो तेम थवानुं ज. छेल्ले, आ रीते प्रतने हेरिटेजमां लई जवानो फायदो शो ? आ अने आवा अगणित सवालो जागे छे, जेना अधिकृत तेमज समुचित जवाब मळवानी आशा - ते विफल रहेवानी खातरी होवा छतां - राखवी गमे छे. For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनुसन्धान-६२ मुनि पुण्यविजयजी ए एक वीतरागी जैन साधु हता. तेमणे जीवनभर ज्ञाननी उपासना तथा ज्ञानोद्धारनां कार्यो कर्यां छे. ते पोते नामनानी तथा परिग्रहनी स्पृहा-वासनाथी मुक्त साधु हता, तेथी तेमणे पोताना नामनो के मालिकीनो जुदो ज्ञानभण्डार न करतां, श्रीसङ्घने ते सोंपी दीधो. शेठ कस्तूरभाई लालभाई ते दिवसोमां जैन श्रावकसङ्घना प्रमुख पुरुष हता. तेमना हाथमां सोंप्यु ते श्रीसङ्घने सोंप्युं गणाय, एवी ऊंडी समजणथी तेमणे पोतानो ग्रन्थसंग्रह तो सोंप्यो, उपरांत अनेक गामोना सङ्घोना तेमज विविध साधुओना ग्रन्थोना संग्रह पण सोप्या-हता. कस्तूरभाईए ते माटे विशाळ भवन बनाव्युं, तेना संचालन माटे ट्रस्ट बनाव्युं. ट्रस्ट ला.द. परिवार- ज बनेलं, अने ते परिवार एटले नगरशेठ शान्तिदास जेवा महान सुश्रावकनो परिवार; तेनी धर्मभावना तथा श्रद्धा विषे जरासरखोये अंदेशो न ज होय; एटले ते ट्रस्टना वहीवटने ते मुनिराजे पण प्रमाण्यो. जैन सङ्घ पण, पोतानो अमूल्य वारसो, योग्य हाथोमां सलामत छे एम मानीने विश्वस्त-आश्वस्त बनी रह्यो. वखतना वहेवा साथे परिवर्तन आवतुं गयु. जैन सङ्घनी आर्थिक क्षमता अने उदारता प्रत्येना अनाश्वासने लीधे के गमे ते कारणे, सरकारनी ग्रान्ट लेवानुं तथा सो टका करमुक्तिनुं गोठवायुं. तेना परिणामे संस्था अर्धसरकारी गणातां तेनी स्वायत्तता जोखमाई. सरकारी हस्तक्षेप कायमी बन्यो. पहेला जैन सङ्घना नियमानुसार चालती आ संस्था हवे सरकारी धाराधोरणो मुजब चालवा मांडी. अगाऊ जे वारसो/खजानो जैन मुनिओ माटे निर्बाधपणे खुल्लो रहेतो, तेमां फेर पडवा मांड्यो. ग्रान्ट न लेवा माटे अने जरूरी फण्ड जैनो करी आपे ते माटे ट्रस्टना मोवडीने मौखिक-लेखित समजाववामां आव्या छतां, अने आ वारसानुं स्वामित्व श्री जैन सङ्घनु होवानो निर्णय जाहेर करवानुं सूचववामां आव्या छतां, ते वातोनी अवगणना थई. सरकारी नियमोना वातावरणनो अनुभव आजे तो थाय छे, परन्तु आवतीकाले, जन्मना जैन एवी व्यक्तिओ आ संचालनमां नहि होय त्यारे (अने ए दिवसो बहु दूर नथी एम लागवा मांड्युं छे), सरकारी धोरणोसर आ संचालन कोना/केवा हाथमां जशे ते सवाल भारे तीव्रताथी सतावी रह्यो छे. एवामां, आ कोई एक प्रतने वैश्विक वारसा तरीके जाहेर करवानी वात घणा सवालो जगाडी जाय छे. For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट २०१३ - जैन ग्रन्थागारोमां सचवायेली हस्तप्रतिओ ते मूळभूत रीते जैन मुनिओनी मालिकीनी सम्पत्ति छे. तेमां समायेला ग्रन्थो तथा कृतिओ जैन मुनिओए रच्या छे; तेमणे ज लख्या अथवा लखाव्या छे; सैकाओ सुधी तेमणे ज साचव्या छे; नष्ट थवा आवेला ग्रन्थोनी समयान्तरे नकलो पण तेमणे करी - करावी छे. वळी, ते ग्रन्थोनुं अध्ययन-अध्यापन युगोथी तेओए कर्तुं छे. ते ग्रन्थो भणवावांचवा माटे, कोई पण योग्य होय तेवी जैन के अजैन व्यक्तिने जोईए त्यारे तेमणे पूरा पाड्या छे. श्रीपुण्यविजयजीए केटलाये देशी-परदेशी विद्वानोने तथा अनेक मुनिओने प्रतो, ग्रन्थो संशोधनार्थे पूरा पाड्या छे; अनेक विद्वानो ते माटे तेमनो ऋणस्वीकार करे छे. अने आ बधा ग्रन्थोनो विश्वनी कोई पण व्यक्ति उपयोग करी शके तेवा शुभ आशयथी ज, तेमणे कस्तूरभाई द्वारा ला.द. विद्यामन्दिरनी स्थापना करी छे. ओ रीते तो ए आखोये ग्रन्थागार वैश्विक वारसो जगणी शकाय तेम छे. जोके पाछला केटलाक समयथी, जैन मुनिओ माटे, तेनो उपयोग करवो अघरो बनतो जाय छे. घणा, घणी रीतना प्रयत्नो पछी कशीक सामग्री मळे तो मळे, अने आवनारा समयमां तो ते वधु ने वधु विकट बनशे, तेम धारी शकाय तेम छे. १२७ आस्थितिमां, 'वैश्विक वारसा' मां प्रतने लई जवानी प्रवृत्ति, जो कोई सवालो जगाडे, तो तेने 'विरोध' तरीके खपावीने तेनी अवगणना न थवी जोईए. सरकारी ग्रान्ट जो संस्थानी स्वायत्तता जोखमावी शके अने सरकारी हस्तक्षेपने नोतरी शके तो, वैश्विक वारसा माटेनी आ प्रवृत्ति, प्रत / प्रतोने भारत सरकारने अने परम्पराए युनेस्कोने आयत्त करती होवानुं कोई समजे, तो तेमां तेने विरोधी के प्रत्याघाती गणीने हसी काढवा न जोईए, बल्के तेनी दूरदर्शी दृष्टिनो आदर करवो जोईए. For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनुसन्धान-६२ नवां प्रकाशनो • सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहद्वृत्ति-दुण्ढिका (भाग ४ अने ५) सं. मुनि विमलकीर्तिविजयजी, प्र. - क.स. हेमचन्द्रचार्य न.जन्मश. स्मृ. संस्कार शिक्षणनिधि - अमदावाद. व्याकरणना अभ्यासीओ माटे उपयोगी प्रकाशन. • पर्युषणपर्वकल्पप्रभा अने पर्युषणपर्वकल्पलता कर्ता - आ. श्रीविजयदर्शनसूरिजी, प्र. - जैनग्रन्थप्रकाशनसमिति - खम्भात. पर्युषणपर्वनी आराधना कई रीते करवी तेनुं सुन्दर निरूपण करता बे ग्रन्थोनुं पुनः सम्पादन - प्रकाशन. आगामी प्रकाशनो • सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहद्वृत्ति-दुण्ढिका (भाग ६) - सं. मुनि विमलकीर्तिविजयजी आर्हत आगमोनुं अवलोकन - भाग १ हीरालाल रसिकदास कापडिया सुभाषितसङ्ग्रहसमुच्चय - भाग-२ सं. डॉ. नीलाञ्जना शाह For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगस्ट - २०१३ विज्ञप्तिपत्रोनो रसथाळ - अनुसन्धान-६० विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ RSTARSAnalyte huye ---"TENT . HELFARE Koc ratist अनुसन्धान-६१ विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ utarti-NCR For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOLalan मा समळीविहारतीर्थ तथा अश्वावबोधना प्रसंगोने कंडारतुं प्राचीन शिल्प (खम्भात-जैन मन्दिर)