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निवेदन
संशोधन एटले प्रश्नविद्या; जिज्ञासामूलक प्रश्नोनी विद्या, अने ते द्वारा थती, समाधाननी शोधनी विद्या. संशोधन अथवा शोधखोळनी पृष्ठभूमां हमेशां कोईने कोई प्रश्नो होय छे. प्रश्नोना मूळमां होय छे जिज्ञासा. 'आ आम केम छे, आम केम नहि ?' अथवा, 'आ आमने बदले तेम होय तो वधु ठीक न गणाय ?' - आ प्रकारना प्रश्नोमांथी जे नीपजे ते ज होय छे संशोधन.
एक रीते जोईए तो शोधविद्या अने अध्यात्मविद्या समान्तरे अथवा तो लगोलग चालती विद्याओ लागे. अध्यात्मविद्याना क्षेत्रमा पण, आत्मार्थी जीवना चित्तमां, 'आ जगत् आq केम हशे ?, 'आ जगत् कायम आवं ज होय ?, 'आ जगत्नी उत्पत्ति केवी रीते अने शा माटे थई हशे ?, 'आ जगत्मां मारुं स्थान शुं ? मारुं शुं ? मारे करवानुं कर्तव्य शुं ?' - आ प्रकारना प्रश्नो सतत उद्भवता रहे छ; अने तेना परिणामरूपे जे फलित थाय छे तेनुं नाम छे 'आत्म-संशोधन.'
अने शोधविद्याना क्षेत्रमा पण, उपर जोयुं तेम, जुदा जुदा विषयो परत्वे, जुदाजुदा प्रश्नो उद्भवता रहे छे, तेना परिणामरूपे जे थाय तेनुं ज नाम छे 'संशोधन'.
आम, एक बिन्दु पर, बन्ने विद्याओ, समान अनुभूति करावी जाय छे.
सार ए के प्रश्नो जागवा जोईए. ते पण कुतूहलथी के कौतुकने खातर नहि, पण जिज्ञासाभावे-थवा जोईए. वस्तुतः जिज्ञासा ज संशोधननो पायो छे.
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