________________
ओगस्ट - २०१३ .
१०३
कायजोग-आणपाणूणं च गहणं पवत्तति गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए" - भगवती-१३.४.४८१ टीका- "पोग्गलत्थिकाए णं । इहौदारिकादिशरीराणां श्रोत्रेन्द्रियादीनां मनोयोगान्तानामानप्राणानां च ग्रहणं प्रवर्तते इति वाक्यार्थः, पुद्गलमयत्वादौदारिकादीनामिति ॥
आ शास्त्र-उल्लेखोनो सार अटलो ज छे के परस्पर जोडाण मात्र पुद्गलोमां ज शक्य छे; तेमज जीव द्वारा औदारिक व. शरीर वडे के इन्द्रियो वडे ग्राह्य फक्त पुद्गलो ज बनी शके छे. पुद्गलगत आ परस्पर सम्बन्ध के आत्मा द्वारा ग्रहण थवानी योग्यता ज अत्रे 'ग्रहण' शब्दथी विवक्षित छे. आ ग्राह्यता पुद्गलनो आगवो धर्म छे, बीजा कोई द्रव्यमां आवी ग्राह्यता संभवती नथी, तेथी ते पुद्गलनुं लक्षण बनी शके छे, अने तेथी ज भगवतीजीमां "गहण-लक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए" अम कां छे. वळी, पुद्गलो, ग्रहण थतुं होय के ना. थतुं होय, तद्गत ग्राह्यता- ग्रहणयोग्यता तो टकी ज रहे छे, माटे आ यावद्रव्यभावी ग्राह्यता पुद्गलनो गुण पण बनी शके छे.
ध्यान आपवा जेवी वात ए छे के 'ग्रहण'नो अर्थ 'बहिरिन्द्रियथी जेनुं ग्रहण थाय ते' ओम व्युत्पत्ति करीने वर्णादिपरक करी शकाय तेम छे, पण अवो अर्थ अस्वाभाविक लागे छे. तेने बदले 'गहणगुणे'नो 'ग्रहण थर्बु ओ ज गुण' ओम करवो स्वाभाविक लागे छे. भगवतीजी - २.१०.११७नी टीकामां पण वर्णादिने 'ग्रहणगुण' नथी कह्या, पण जे वर्णादिने लीधे पुद्गलोमां आवती ग्राह्यताने ज 'ग्रहण' तरीके ओळखावी छे.
-X
___ (२) श्रीविजयानन्दसूरि(-आत्मारामजी)विरचित
सत्तरभेदी पूजा, रचनावर्ष : वि.सं. १९१९ के १९३९ ? हमणां आ. श्रीकीर्तियशसूरि द्वारा सम्पादित श्रीआत्मारामजी म. विरचित
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org