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________________ ५४ अनुसन्धान-६२ शरशतमित धनु (५००) जे तनुमाना, सत्तरयणि सुन वांना । दोय रयणि अनुक्रम पहिचाना, परम१ मध्य२ लघु३ जाना रे वाला । सि० ॥४॥ तृतीय भाग पूरव तनु घटीयौ, घन अवगाहन जाता । तिहां संठाण अनित्थंस्थ सोहै, सकल लोक विख्याता रे वाला । सि० ।५।। त्रिणशत तेतीस धनुष त्रिभागा, चउ कर अंगुल सोला । एक रयणि वसु अंगुल क्रमसै, परम१ मध्य२ लघु३ तोला रे वाला । सि० ॥६।। सिद्धानंत चतुष्टय ४ धरता, ऋजु गति समयांतरता । गगन प्रदेशांतर परिहरता, धरीय लोक-ईश्वरता रे वाला । सि० ॥७॥ अननुभूत सिद्ध पर्याय उपनौ, विगम्यौ तिणहि ज समयै । भवपर्याय चेतनता ध्रवता, रूप रही तिण समयै रे वाला । सि० ।।८।। इम उतपत्ति१ विगम२ अरु ध्रुवता३, ए त्रिपदी अनुभवता । एक समयमै शिवपद पंहता, सिद्ध सदा जयवंता रे वाला । सि० ॥९॥ एक सिद्ध अवगाह क्षेत्रमै, सिद्ध अनंत अवगाढा । सम अवगाहन तिणसै असंख्या, देस प्रदेसै गाढा रे वाला । सि० ॥१०॥ काल अतीत अनागत सांप्रत, नर चक्री मुख देवा । जे निरुपम सुखकुं भोगवीयौ, ते सहु इक करकवा रे वाला । सि० ॥११।। सकल काल के समय अनंते, तिण सुख रासिनुं गुणीयै । तेह अणंत गुणो भयौ गुणतां, इम पन्नवणा भणीयै रे वाला । सि० ॥१२॥ इक इक पुंज सकल अंबरना, प्रति परदेसै धरीयै ।। धरतां धरतां सहु नभ भरीयौ, अणंत गुणौ वलि करीयै रे वाला । सि० ॥१३॥ गुण्य-गुणक जिहां सम अंक लहीयै, तदगुण वर्ग ते कहीयै । एहवै अणंत वर्गसै वर्गित, करीयै सुख पुंज वहीयै रे वाला । सि० ॥१४॥ इम उतकर्ष भयौ सुख रासी, सिध सुख सम नवि होई । इण सुखनुं जिनवर पिण जाणै, कहिणमै नावै कोई रे वाला । सि० ॥१५॥ सादि अनंतानंत काल लगि, जे सिध सुख अनुभवीयौ । ते सहु सुख एकत्र करीनै, यो विधि करीयै भवीयौ रे वाला । सि० ॥१६॥ तेह अनंत एक सिध सुखनौ, इम अपवर्तन करीयै । पूरव वर्गमूल के अनंते, भूरितरांकनि करीयै रे वाला । सि० ॥१७|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520563
Book TitleAnusandhan 2013 09 SrNo 62
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages138
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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