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________________ ओगस्ट - २०१३ महातापं छित्त्वा निविडतरकर्मोघजनितं, महानन्दानन्दातुलविपुलशैत्यं स भजते ॥४२॥ (युग्मम्) मुदोपाध्यायेनेत्थमिति शिवचन्द्रादि गणिना, स्तुतिस्रक् संधार्या वरनिगरणे भव्यमतिभिः । सदौदार्य्यस्फूर्जद्विविधवरवर्णावलिलसत्स्वयम्भूस[च्च? ]ञ्चचद्गुणमणिगणैः संविरचिता ।। कृपाम्भोधेायाक्षितिसुहलपार्वेशितुरियंस्तुतस्यासंख्येयैविविधविबुधेन्द्रैः क्रमनतैः ॥४३।। षट्पदं काव्यम् कलश भवसिन्धुवर्द्धनचन्द्रिकोपम-कुमतितापसुचन्दनः, समभक्तिभर-निर्भरपुरन्दर-निकर-विरचितवन्दनः । घनकुशलकारी दुरितदारी सकलजगदभिनन्दनः, स भवतु भविनां भक्तिमनसां जननिवामानन्दनः ॥४४॥ इति श्रीपार्श्वेश्वरजिनेन्द्रस्तुतिगर्भिता अध्यात्म-चत्वारिंशिका कृता उपाध्याय-श्रीशिवचन्द्रगणिना आत्मनो वाचनाय । (३) सिद्धपद-वृद्ध-स्तवन नेम जिणंद जयकारी रे लाला नेम जिणंद जयकारी हां हो रे बाला वारी जाउं वार हजारी रे लाल ॥ नेमि० ॥ ए चाल ॥ सिद्ध परम पद वंदो रे वाला सिद्ध परम पद वंदो । हां हो रे वाला वंदीनै चिर नंदो रे ॥ सिद्ध० ॥ आंकणी ॥ ए पद परम मंगल सुख कंदौ, दुरित ताप हरि चंदौ । लोकालोक मगन वर चंदौ, प्रणमी करम निकंदौ रे वाला । सि० ॥१॥ अगम अगोचर अंतरजामी, विमल अनंत गुण धामी । विजित अनंतानंत-रविधामी, सकल जंतु हितकारी रे वाला । सि० ॥२॥ अलख निरंजन अक्षयरूपी, अव्याबाध अरूपी । शिव वनितानन अनुभव चुंपी, समतामृतरस-कूपी रे वाला । सि० ॥३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520563
Book TitleAnusandhan 2013 09 SrNo 62
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages138
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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