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अनुसन्धान-६२
महोपाध्याय विनयप्रभजी से मिलकर गच्छनायक जिनोदयसूरिजी हर्षविभोर हो उठे । मिलन के हर्षातिरेक का वर्णन करते हुए लिखा है - "गो-दुग्ध में मिश्री, व्याख्यान के रस में मधुर सुभाषित की भाँति आह्लादजनक, गच्छभार निर्वाह में अपने विशिष्ट सहयोगी/सहायक, समस्त विद्या-नदियों के समुद्र (श्री विनयप्रभोपाध्याय)से संगम बहुत दिनों के बाद हुआ ।" इन उपमाओं में विनयप्रभोपाध्याय का गच्छ में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान था इसका आभास मिलता है । आचार्य जिनोदयसूरि के अत्याग्रह से विनयप्रभ भी इस संघयात्रा में सम्मिलित हुए । (पृ. २७)
शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा-पूजा करने के पश्चात् संघ गिरिनार तीर्थ की यात्रा के लिये चल पड़ा । महोपाध्याय विनयप्रभ शारीरिक दृष्टि से सशक्त न थे, अतः वे संघ के साथ गिरिनार तीर्थ न जाकर स्तम्भतीर्थ (खम्भात) चले गए । (पृ. ३१)
विनयप्रभ उपाध्याय का स्वर्गवास हो गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। परम्परागत श्रुति के अनुसार इनका स्वर्गवास खम्भात में ही हुआ था ।
____महोपाध्याय विनयप्रभ गीतार्थ एवं सर्वमान्य विद्वान् थे । इनके द्वारा सर्जित कुछ कृतियाँ प्राप्त हैं, सूची इस प्रकार है - १. नरवर्म चरित्र- संस्कृत पद्यबद्ध, श्लोक संख्या ४९४ : रचना संवत्
१४११, कार्तिक पूर्णिमा, खम्भात । श्री नाहटा बन्धुओं की सूचनानुसार उन्होंने "संवत् १४१२ वर्षे श्री विनयप्रभोपाध्यायैः श्रीस्तम्भपुरे स्थितैः सम्यक्त्वसारा चक्रे हि नरवर्म-नृपकथा" प्रशस्ति वाली १० पत्रों की तत्कालीन लिखित प्रति भावहर्षीय ज्ञान भण्डार, बालोतरा में देखी थी। इस ग्रन्थ को पं. हीरालाल हंसराज, जामनगर ने १०० वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था, पर उसमें कर्ता के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं है । गौतमरास- भाषा प्राचीन मरु गुर्जर, पद्य ४७ : रचना संवत् १४१२, कार्तिक शुक्ला १, खम्भात । कहा जाता है कि इसकी रचना उपाध्यायजी ने अपने भाई के दारिद्र्य निवारणार्थ की थी, जो कि खम्भात में ही निवास करता था ।
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