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ओगस्ट - २०१३
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है कि किसी शब्द के अर्थ का घटन किस प्रकार से किया जा सकता है । उसी प्रकार नय का सिद्धान्त वाक्य या कथन के अर्थघटन की प्रक्रिया को समझाता है । अनुयोगद्वार किस विषय की किस-किस दृष्टि से विवेचना की जा सकती है, इसे स्पष्ट करता है । अतः यह जैन दार्शनिक साहित्य का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जा सकता है। जहा तक आवश्यकसूत्र का प्रश्न है, वह मूलतः जैन साधना का ग्रन्थ है । इस प्रकार जैन आगमिक साहित्य में मुख्य रूप से दार्शनिक विषयों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है, कि वे जैन धर्म की साधना विधि के साथ भी जुड सके । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णक साहित्य को भी मानती है । प्रकीर्णकों का मुख्य विषय दार्शनिक विवेचना न होकर साधना सम्बन्धी विवेचना है। फिर भी वे सभी प्रायः जैन साधना एवं आचार से सम्बन्धित माने जा सकते है । क्योंकि लगभग ६-७ प्रकीर्णकों का विषय तो समाधिमरण की साधना है।
जैन प्राकृत साहित्य के अन्तर्गत श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य अनेक ग्रन्थ भी आते है । इन ग्रन्थों के विशेषता यह है कि ये सभी ग्रन्थ मूलतः जैन दार्शनिक साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । इनमें सर्वप्रथम कसायपाहुड और षटखण्डागम का क्रम आता है । जहाँ कसायपाहुड जैन कर्म सिद्धान्त के कर्मबन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करता है, तो वही षट्खण्डागम जैन कर्मसिद्धान्त की मार्गणास्थान, गुणस्थान एवं जीवस्थान सम्बन्धी अवधारणाओं की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करता है । इनके अतिरिक्त मूलाचार नामक जो प्राचीन ग्रन्थ है, वह भी मुख्य रूप से जैन आचार और विशेष रूप से मुनि आचार की विवेचना करता है । भगवती आराधना में भी मुख्य रूप से जैन साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना का विवेचन है । इसके अतिरिक्त जैन दर्शन साहित्य के रूप में कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकायसार और अष्टप्राभृत, दशभक्ति आदि ग्रन्थ प्रमुख है । इनमें समयसार में मुख्य रूप से तो आत्म तत्त्व के स्वरूप की विवेचना है, किन्तु प्रासङ्गिक रूप से आत्मा के कर्म-आश्रव बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की
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