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ओगस्ट - २०१३
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के सन्देहों और उनके उत्तरों की व्याख्या प्रस्तुत करता है, उसमें स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, कर्म और कर्मफल आदि की गम्भीर चर्चा है । भाष्यसाहित्य के शेष ग्रन्थों में मुख्य रूप से जैन आचार, प्रायश्चित्त-व्यवस्था और साधना पद्धति की चर्चा की गई है । भाष्यों के पश्चात् चूर्णि साहित्य का क्रम आता है, चूर्णि साहित्य की भाषा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का मिश्रित रूप है । इनमें भी आगमों की चूर्णियो की अपेक्षा मुख्य रूप से छेदसूत्रों की चूर्णियाँ ही अधिक प्रमुख है। उनमें एक आवश्यक चूणि ही ऐसी है, जो कुछ दार्शनिक चर्चाओं को प्रस्तुत करती है। शेष चूर्णियों का सम्बन्ध आचार-शास्त्र से और उनमें भी विशेष रूप से उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की साधना से है । उसके पश्चात् लगभग आठवी शताब्दी के आगमों की व्याख्या के रूप में संस्कृत टीकाओं का प्रचलन हुआ, इनमें दार्शनिक प्रश्नो की गम्भीर चर्चा है, किन्तु इसकी विशेष चर्चा हम जैन दार्शनिक संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत ही करेगें।
यद्यपि प्राचीनकाल में कुछ दार्शनिक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में लिखे गये है । इनमें मुख्य रूप से सन्मति तर्क का स्थान सर्वोपरि है । सन्मति तर्क मूलतः तो जैनो के अनेकान्तवाद की स्थापना करने वाला ग्रन्थ है, फिर भी इसमें अनेक दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा करके अनेकान्त के माध्यम से उसमें समन्वय का प्रयत्न है । यह ग्रन्थ जहाँ एक और दार्शनिक एकान्तवादों की समीक्षा करता है, वही प्रसंगोपात्त अनेकान्तवाद की स्थापना का प्रयत्न भी करता है । दार्शनिक दृष्टि से सामान्य और विशेष की चर्चा ही प्रमुख रूप से हुई है, और यह बताया गया है कि वस्तु-तत्त्व सामान्यविशेषात्मक होता है । और इसी आधार पर वह एकान्त रूप से सामान्य या विशेष पर बल देने वाली दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा भी करता है । इसके अतिरिक्त इसमें जैन परम्परा के प्रचलित ज्ञान और दर्शन के पारस्परिक सम्बन्ध को भी सुलझाने का प्रयत्न किया गया है ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा ने जहाँ प्राकृत भाषा में अनेक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा हेतु संस्कृत भाषा को ही प्रमुखता दी है । और इसका परिणाम यह हुआ की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में दार्शनिक चर्चाओं को लेकर
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