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________________ ९८ अनुसन्धान-६२ अपूर्व । लगभग हेमचन्द्र के पूर्व तक जैन परम्परा में प्रमाण के यही चार लक्षण माने गये थे । किन्तु हेमचन्द्र इन्हें अन्य शब्दावली में प्रकट किया है, उनके अनुसार सम्यक् अर्थनिर्णय: ही प्रमाण है । यद्यपि यह ठीक है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण - लक्षण -निरूपण में नयी शब्दावली का प्रयोग किया है, किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि उन्होंने अपने पूर्व के जैनाचार्यों के प्रमाण लक्षणों को पूरी तरह से छोड़ दिया है । यद्यपि इतना अवश्य है कि हेमचन्द्र ने दिगम्बराचार्य विद्यानन्द और श्वेताम्बराचार्य अभयदेव और वादिदेवसूरि का अनुसरण करके अपने प्रमाणलक्षण में अपूर्व पद को स्थान नहीं दिया है। साथ ही पं. सुखलालजी के शब्दों में उन्होंने 'स्व' पद को, जो सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्यों की परिभाषा में था, निकाल दिया । अवभास, व्यवसाय आदि पदों का भी स्पष्ट निर्देश नहीं किया और उमास्वाति, धर्मकीर्ति, भासर्वज्ञ आदि के 'सम्यक्' पद को अपनाकर ‘सम्यगर्थनिर्णय:' प्रमाणम् के रूप में अपना प्रमाणलक्षण प्रस्तुत किया । इस परिभाषा या प्रमाण - लक्षण में सम्यक् पद किसी सीमा तक पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रयुक्त बाधविवर्जित या अविसंवादिता का ही पर्याय माना जा सकता है । 'अर्थ' शब्द का प्रयोग बौद्धों के विज्ञानवादी दृष्टिकोण का खण्डन करते हुए प्रमाण के 'पर' अर्थात् वस्तु के अवबोधक होने का सूचक है, जो जैनों के वस्तुवादी (Realistic) दृष्टिकोण क समर्थक भी है। पुनः 'निर्णय' शब्द जहाँ एक ओर अवभास, व्यवसाय आदि का सूचक है, वहीं दूसरी ओर वह प्रकारान्तर से प्रमाण के 'स्वप्रकाशक' होने का भी सूचक हैं । इस प्रकार प्रमाण- लक्षण -निरूपण में अनधिगतार्थक या अपूर्वार्थग्राहक होना ही एक ऐसा लक्षण है, जिसका हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती श्वेताम्बर आचार्यों के समान परित्याग किया हैं । वस्तुतः स्मृति को प्रमाण मानने वाले जैनाचार्यों को यह लक्षण आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ । श्वेताम्बर परम्परा ने तो उसे कभी स्वीकार ही नहीं किया । दिगम्बर परम्परा में भी अकलङ्क और माणिक्यनन्दी के पश्चात् विद्यानन्द ने इसका परित्याग कर दिया । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अपने पूर्वाचार्यों के दृष्टिकोणों का सम्मान करते हुए और उनके प्रमाण - लक्षणों को सन्निविष्ट करते हुए प्रमाणमीमांसा में 'प्रमाण' की एक विशिष्ट परिभाषा प्रस्तुत की है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520563
Book TitleAnusandhan 2013 09 SrNo 62
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages138
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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