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अनुसन्धान-६२
जैन दार्शनिक साहित्य
___- प्रो. सागरमल जैन जहाँ तक जैन धर्म के दार्शनिक साहित्य का प्रश्न है, उसे मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा गया है - (१) प्राकृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य (२) संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य और (३) आधुनिक युग का जैन दार्शनिक साहित्य । प्राकृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य
जैन धर्म का आधार आगम ग्रन्थ है । आगम-साहित्य के सभी ग्रन्थ तो दार्शनिक साहित्य से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते हैं, किन्तु आगमों में कुछ ग्रन्थ अवश्य ही ऐसे है, जिन्हें हम दार्शनिक साहित्य के अन्तर्गत ले सकते हैं । दार्शनिक साहित्य के तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा - ये तीन प्रमुख अङ्ग होते है । तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत सृष्टिविज्ञान एवं खगोल-भूगोल सम्बन्धी कुछ चर्चा भी आ जाती है । इस दृष्टि से यदि हम प्राकृत जैन साहित्य और उसमें भी विशेष रूप से आगमिक साहित्य की चर्चा करे तो उसमें निम्न आगमिक ग्रन्थों का समावेश हो जाता है । हम उन्हें तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं आचारमीमांसा की दृष्टि से ही वर्गीकृत करने का प्रयत्न करेंगे । जहाँ तक तत्त्वमीमांसीय आगम साहित्य का प्रश्न है, उसके अन्तर्गत प्रथम ग्रन्थ सूत्रकृताङ्ग ही आता है। यद्यपि सूत्रकृताङ्ग में जैन आचार सम्बन्धी कुछ दार्शनिक विषयों की चर्चा है, किन्तु फिर भी प्राथमिक दृष्टि से उसका प्रतिपाद्य विषय उस युग की विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा रहा है । इस आधार पर हम उसे प्राकृत एवं जैन आगम साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ कह सकते है । जहाँ तक प्रथम अङ्ग आगम आचाराङ्ग का प्रश्न है वह मुख्यतः दार्शनिक मान्यताओं के साथ-साथ जैन साधना के मूलभूत दार्शनिक सूत्रों को प्रस्तुत करता है । इसमें आत्मा के अस्तित्व एवं षट्जीवनिकाय के साथ किन-किन तत्त्वों का अस्तित्व मानना चाहिए – इसकी चर्चा है । किन्तु इसके साथ ही उसमें जैन आचार और
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