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अनुसन्धान-६२
नथी बनतुं.
आ पछीनी गाथा १९९मां पण बादर पर्याप्ता अकेन्द्रियो, विकलेन्द्रियो अने पञ्चेन्द्रियो समुद्घात अने उत्पाद वडे सर्वलोकने स्पर्श छे अवा जीवसमासकारना कथननो, ते जीवो समुद्घात अने उत्पाद वडे लोकना असङ्ख्यातमा भागने ज व्यापे ओवा प्रज्ञापनाजीना कथन साथे विसंवाद दर्शावायो छे. परन्तु स्पर्शना अने व्याप्ति वच्चेना तफावतने ध्यानमां लईओ तो आ विसंवाद पण रहेतो नथी.
वळी, आ गाथामां बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियोने नथी नोंध्या तेनुं कारण टीकाकार मलधारीजी भगवन्त आम आपे छे : "अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियास्त्वस्य ग्रन्थस्याऽभिप्रायेण स्वस्थानेनाऽपि सर्वलोकव्यापिन एवेति तेऽपीह नोपात्ताः । प्रज्ञापनाभिप्रायतस्तु बादरापर्याप्तैकेन्द्रिया अप्युत्पादसमुद्घाताभ्यामेव लोकं व्याप्नुवन्ति, न स्वस्थानेन ।" (अपर्याप्त बादर अकेन्द्रियो आ ग्रन्थना अभिप्रायथी स्वस्थानथी पण सर्वलोकमां व्याप्त छे माटे तेमनुं ग्रहण समुद्घात - उत्पादथी व्यापिता, कथन करनारी आ गाथामां नथी). वास्तवमां आपणे जोईशुं तो जणाशे के बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियो सर्वलोकमां व्याप्त छ अर्बु विधान जीवसमास गाथा १७९मां छे त्यां मे सर्वलोकव्यापिता स्वस्थान, उत्पाद के समुद्घातथी छे ओवी विशेष चिन्ता करी ज नथी, सामान्यथी ज वात करी छे. अने विशेष चिन्ता करीओ तो समुद्घात-उत्पादथी ज आ सर्वलोकव्यापिता समजवी ओवी चोखवट टीकाकारे स्वयं त्यां करी छे : "उत्पादसमुद्घातौ त्वाश्रित्य बादरापर्याप्ता अप्येकेन्द्रियाः प्रत्येकं सर्वस्मिन्नपि लोके प्राप्यन्ते ।" (उत्पाद-समुद्घातने आश्रयीने बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियो सर्व लोकमां मळे छे, स्वस्थानथी नहि). हवे स्वस्थानथी बादर अपर्याप्त अकेन्द्रियो सर्वलोकव्यापी नथी ओम जीवसमासकारना कथननुं तात्पर्य समजावनारा (गाथा १७९) टीकाकार भगवन्त स्वयं गाथा १९९ नी टीकामां स्वस्थानथी सर्वलोकव्यापितापरक जीवसमासकारना अभिप्रायने वर्णवे अने ओ रीते प्रज्ञापनाजी साथे तेनो विसंवाद दर्शावे ते विचारणीय लागे छे.
पूज्य गुरुभगवन्त श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि म. द्वारा सम्पादित प्रस्तुत
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