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वीर सेवा मन्दिर का मासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवोर') वर्ष ३६ : कि०१
जनवरी-मार्च १९३
क्रम
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इस अक मेंविषय
पृ० १. उपदेशी पद-कवि बनारसीदास जी २. जैनधर्म का प्राचीनत्व-डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन २ ३. महाकवि रहधूकृत रिट्ठणेमिचरिउ में सोनागिर की भट्टारकीय गद्दी का उल्लेख
-डॉ० राजाराम जैन ४. स्थानीय संग्रहालय पिछोर में सरक्षित जैन
प्रतिमाएं-श्री नरेशकुमार पाठक ५. ज्ञायक भाव-श्री बाबूलाल 'वक्ता' १.जनदर्शन में सप्तभगोवाद-थी अशोककुमार जैन १० ७.विश्वशान्ति में महावीर के सिद्धान्तो की उपादेयता
-कु० पुखराज जैन ८. विवेकी विद्वानों के लिए-श्री महाचन्द जैन १८ ६. विद्यानुवाद और कैन्सर रोग :
-श्री प्रभुदयाल कासलीवाल १०. विचारणीय प्रसंग-पद्मचन्द्र शास्त्री ११. श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा-पपचन्द्र शास्त्री २५ १२. जरा सोचिए-सम्पादकीय
२६ १३. अग्रणी साहित्यान्वेषी स्व० अगरचन्द नाहटा -डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन
आवरण २ १४... सीतलप्रसाद जन्म शता. समारोह
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन
प्रकाशक
वीर, 'सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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अग्रणी साहित्यान्वेषो स्व० अगरचन्द नाहटा
गत १२ जनवरी १९८३ को स्वनगर बीकानेर में, लगभग ७२ वर्ष की आयु में, लब्धप्रतिष्ठ साहित्यसेवी श्री अगरचन्द नाहटा का देहान्त हो गया। वह अति सादा वेषभूषा, आहार-विहार एवं आदतों वाले, धार्मिक प्रवृत्ति के सद्गृहस्थ एव सफल व्यापारी थे। शिक्षा-दीक्षा भी अति सामान्य कामचलाऊ चटसाली रही। किन्तु इस पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति से जिस बात की आशा प्राय: नही की जाती, उसे स्व० नाहटा जी ने आश्चर्यजनक रूप में करके दिखा दिया। साहित्य के क्षेत्र में जिस चाव, उत्साह, लगन और अध्यवसाय के साथ वह लगभग पचास वर्ष निरन्तर साधना करते रहे और परिणामस्वरूप जैसी और जो उपलब्धिया उन्होने प्राप्त की, उसके अन्य उदाहरण अति विरल हैं।
पुरानी हस्तलिखित प्रतियो की खोज-तपास, अपने निजी अभय जैन ग्रन्थालय एवं शकरदान कलाभवन में उनका सग्रह-सरक्षण, उन पर शोध-खोज करना तथा उसके परिणामो से विद्वज्जगत को तत्परता के साथ परिचित कराते रहना, नाहटाजी की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तिया रही । इस क्षेत्र में उन्हें श्वेताम्बर समाज का 'आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार' कहा जा सकता है। मुख्तार साहव की भांति नाहटाजी की दृष्टि भी मूलत: ऐतिहासिक रही और झुकाव तुलनात्मक अध्ययन की ओर विशेप रहा । स्वभावतः नाहटाजी का कार्यक्षेत्र मुख्यता जैन साहित्य रहा, उसमे भी विशेषरूप से देश-भाषाओ, हिन्दी, राजस्थानी आदि में रचित श्वेताम्बर साहित्य, किन्तु वह वही तक सीमित नहीं रहा। दिगम्बर साहित्य भी जब जहाँ उनके दृष्टिपथ में आया, बिना साम्प्रदायिक पक्षपात के वह भी उसी प्रकार उनकी दिलचस्पी का विषय बना । इतना ही नही, जनेतर हिन्दी एव राजस्थानी साहित्य की शोध-खोज मे भी उनका योगदान महत्त्वपूर्ण रहा । अनेक साहित्यान्वेषियों एव शोधाथियों को भी उनसे अमूल्य सहायता मिलती रही। कई साहित्यिक पत्रिकाओं, अभिनन्दन-स्मृति ग्रन्थों आदि के सम्पादन में योग देने के अतिरिक्त, नाहटाजी ने साधिक एक दर्जन पुस्तकों की रचना भी की, और जैनाजैन पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित उनके लेखों की संख्या तो लगभग चार सहस्र होगी। दूसरे लेखको की कृतियो की समीक्षा भी खरी करते थे और उनकी त्रुटियों को बिना किसी तकल्लुफ के गिना डालते थे।
हमारे तो बन्धुवर नाहटाजी के साथ लगभग चालीस वर्ष से निकट साहित्यिक-मैत्री सम्बन्ध रहते आये और उनके सैकड़ो पत्र हमें प्राप्त हुए। कई बार मतभेद भी हुए परन्तु सम्बन्धों मे कभी भी कटुता नहीं आई, वरन् सौहार्द्र मे वृद्धि ही हुई। मित्रों को लिखने को निरंतर प्रेरणा देने वालों में भी उन जैसे बहुत कम देखने में आये। साहित्य साधना में उनका जो सतत अध्यवसाय रहा वह किसी तपस्वी की तपःसाधना से कम नही, 'विद्वानेव विजानाति विद्वज्जन परिश्रमम्' । वीर सेवामन्दिर के मुखपत्र अनेकान्त पर उनकी सदैव कृपा रही और उनकी विभिन्न किरणों मे उनके दर्जनों लेख प्रकाशित हुए। वस्तुतः नाहटाजी के निधन से हिन्दी साहित्य संसार की अपूरणीय क्षति हुई है।
हम स्वयं अपनी ओर से तथा वीर सेवामन्दिर एवं जनेकान्त परिवार की बोर से दिवंगत आत्मा की शान्ति एव सद्गति की भावना करते हुए, उनके परिजनो के साथ हार्दिक संवेदना अनुभव करते हैं।
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ओम् अर्हम्
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम्॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५०८, वि० स० २०३६
वर्ष ३६ किरण १
नवरी-मार्च
१९८३
उपदेशी-पद
चेतन, तू तिहुंकाल अकेला। नदी-नाव संयोग मिले ज्यों, त्यों कुटम्ब का मेला ॥
यह संसार प्रसार रूप सब, ज्यों पटपेखन खेला।
सुख-संपति शरीर-जल-बुदबद, विनशत नाहीं बेला। मोह-मगन प्रातमगुन भूलत, परी तोहि गल-जेला। मैं मैं करत चहुंगति डोलत, बोलत जैसे छेला ॥
कहत "बनारसि" मिथ्यामति तज, होय सुगुरु का चेला। तास वचन परतीत पान जिय, होइ सहज सुरझेला ॥
xxx x चेतन, तोहि न नेक संभार । नख सिख लों विदबन्धन बेढे कौन करे निरवार।
जैसे माग पषारण काठ में, लखियन परत लगार।
मदिरा पान करत मतवारो, ताहि न कछू विचार ॥ ज्यों गजराज पखार माप तन, प्रापहि डारत छार। मापहि उगल पाट को कीरा, तनहि लपेटत तार ।।
सहज कबूतर लोटन को सो, खुले न पेच प्रपार। मौर उपाय न बने 'बनारसि', सुमिरन भजन प्रचार।
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जैनधर्म का प्राचीनत्व
॥ इति० मनीषो डॉ० ज्योति प्रसाद जैन
किसी धर्म की श्रेष्ठता एवं उपादेयता उसकी प्राची- साहित्य, कला आदि का अध्ययन प्रारम्भ किया तो उन्होंने नता अथवा अर्वाचीनता पर अनिवार्यतः निर्भर नही होती, उस आधुनिक ऐतिहासिक पद्धति को अपनाया जिसमे वर्तकिन्तु यदि कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ- मान को स्थिर बिन्दु मानकर प्रत्येक वस्तु के इतिहास को साथ सुदीर्घ कालपर्यन्त सजीव, सक्रिय एवं प्रगतिवान बनी पीछे की ओर उसके उद्गम-स्थान या उदयकाल तक खोजते रहती है और लोक के उन्नयन, नैतिक वृद्धि तथा सांस्कृ- चला जाना था। जो तथ्य प्रमाण, सिद्ध होते जाते और तिक समृद्धि में प्रबल प्रेरक एव सहायक सिद्ध हुई होती है अतीत में जितनी दूर तक निश्चित रूप से ले जाते प्रतीत तो उसकी प्राचीनता जितना अधिक होती है वह उतना ही होते, वही उनका अथवा उनकी ऐतिहासिकता का आदिअधिक उक्त धर्म के स्थायी महत्व तथा उसमे निहित सार्व. काल निश्चित कर दिया जाता। कालान्तर मे नवउपलब्ध कालिक एवं सार्वभौमिक तत्त्वों की सूचक होती है। इसके प्रमाणों के प्रकाश में उक्त अवधि को और अधिक पीछे की अतिरिक्त, किसी भी संस्कृति के उद्गम एवं विकास का ओर हटा ले जाना सम्भव होता तो वैसा करने में भी विशेष सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने तथा उसकी देनों का समुचित सकोच न होता । उन्नीसवी शती के प्राच्यविदो द्वारा पुरमूल्यांकन करने के लिए भी उसकी आधारभूत धार्मिक संस्कृत एव कार्यान्वित यह खोज-शोध पद्धति ही आज के युग परम्परा की प्राचीनता का अन्वेषण आवश्यक हो जाता की सर्वमान्य वैज्ञानिक अनुसधान पद्धति मानी जाती है।
इस परीक्षा-प्रधान बौद्धिक युग में प्रत्येक तथ्य को परीक्षा यह प्रश्न हो सकता है कि जैनधर्म की प्राचीनता में द्वारा युक्तियुक्त प्रमाणित करके ही मान्य किया जाता है। का करने की अथवा उसे
इसी पद्धति के अवलम्बन द्वारा गत डेढ़-सौ वर्षों मे जैनसिद्ध करने की आवश्यकता ही क्यों हई ? स्वय जैनों की
धर्म की ऐतिहासिकता सातवी शताब्दी ईस्वी मे बौद्धधर्म परम्परा अनुश्रुतियां तो सुदूर अतीत में, जबसे भी वह
की शाखा के रूप मे प्रगट होने वाले एक छोटे से गौण मिलनी प्रारम्भ होती है, निर्विवाद एवं सहजरूप में उसे
सम्प्रदाय की स्थिति से शन:-शनैः उठकर कम से कम वैदिक मपादीत मातीचली आतीमाहीत धर्म जितने प्राचीन तथा सुसमृद्ध संस्कृत से समन्वित एक एवं ब्राह्मणीय (हिन्दू) अनुश्रुतियाँ भी अत्यन्त प्राचीनकाल महत्त्वपूर्ण भारतीय धर्म की स्थिति को प्राप्त हो गई है। से जैनधर्म की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करती चली आती वर्तमान युग मे जैनधर्म सम्बन्धी ज्ञान के विकास की तथा हैं। इस विषय में भारत वर्ष के पुरातन आचार्यों एवं मनी- परिणामस्वरूप उसकी ऐतिहासिकता एवं आपेक्षिक प्राचीषियों ने कभी कोई विवाद नही उठाया। अतएव जैनधर्म नता के निर्णय की एक अपनी कहानी है जो रोचक होने के की प्राचीनता सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं थीं। साथ-साथ ज्ञानप्रद भी है। इस समय उसमें न जाकर जैन किन्तु आधुनिक प्राच्यविदों एवं इतिहासकारों ने भारतीय परम्परा की प्राचीनता के कतिपय प्रमुख प्रमाण प्रस्तुत इतिहास के अन्य अनेक तथ्यों की भांति उसे भी एक समस्या किये जाते है। बना दिया।
जैन परम्परा के चौबसवें एवं अन्तिम तीर्थकर निर्ग्रन्थ अठारहवीं शती ई. के अन्तिम पाद में यूरोपीय प्राच्य सातपुत्र श्रमण भगवान् यर्द्धमान महावीर का निर्वाण विक्रम विदों ने जब भारतीय इतिहास, समाज, धर्म, संस्कृति, पूर्व ४०, शकशालिवाहन पूर्व ६०५ तथा ईसा पूर्व ५२७
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जैनधर्म का प्राचीनत्व
में हुआ था। वह बौद्ध धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक शाक्य तथा अन्तिम तीर्थकर महावीर के नामोल्लेख है तथा बौदामुनि तथागत गौतम बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन थे-भगवान् चाय आर्यदेव ने अपने षट्शास्श में ऋषभदेव को भी जैनबुद्ध के निर्वाण की तिथि में अनेक मतभेद हैं, किन्तु बहु- धर्म का मूल प्रवर्तक बताया है। मान्य आधुनिक मत के अनुसार उनका परिनिर्वाण ईसा आजीविक नामक एक अन्य श्रमण सम्प्रदाय के संस्थापूर्व ४८३ में हुआ माना जाता है। बौद्धों के पालित्रिपिटक पक मक्खलि गोशाल ने, जो महावीर और बुद्ध का प्रायः नामक प्राचीनतम धर्म-प्रन्थों में भगवान् महावीर का उल्लेख समकालीन था, समस्त मानव जाति को छ: समुदायों में निगंठनातपुत्त (निर्ग्रन्थज्ञातपुत्र) नाम से हुआ है और उन्हें विभक्त किया है, जिनमें निम्रन्थों का तीसरा नम्बर है। श्रमण परम्परा में उत्पन्न उस काल के छः तीर्थंकरों (सर्व इस पर से विद्वानों का कहना है कि मानव जाति के ऐसे महान धर्ममार्ग प्रदर्शकों) मे परिगणित किया गया है। मौलिक विभाजन में किसी नवीन, गौण या थोड़े समय से बौद्ध ग्रन्थों में प्राप्त भगवान् महावीर एव जैनधर्म सम्बन्धी प्रचलित सम्प्रदाय को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं उल्लेखो से डॉ. हर्मन जेकोबी प्रभृति प्रकाण्ड प्राच्यविदों हो सकता था। ने यह फलित निकाला है कि 'इस विषय में कोई सन्देह इसके अतिरिक्त, जैसा कि डॉ. जैकोबी का कहना है, नहीं है कि महावीर और बुद्ध एक-दूसरे से स्वतन्त्र किन्तु जैनों जैसे 'एक बहसंख्यक सम्प्रदाय की लिपिबद्ध परम्परा परस्पर प्राय: समकालीन धर्मोपदेष्टा थे। प्राचीन बौद्ध- अनुश्रुति को निरर्थक एवं असत्य-पुंज मानकर अस्वीकार ग्रन्थों में जैनधर्म का एक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी धर्म के रूप में तो करने के लिए भी तो कोई उचित कारण होना चाहिये । उल्लेख किया गया है, किन्तु इस बात का कहीं कोई सकेत वे समस्त तथ्य एवं घटनायें जो जनों की अत्यन्त प्राचीनता नहीं है कि वह एक नब-स्थापित सम्प्रदाय था। इसके विप- की सूचक हैं प्राचीन जैनग्रन्थों में भरी पड़ी है और ऐती रीत, उनके उल्लेख इस प्रकार के है कि जिनसे यह सूचित वास्तविकता के साथ लिखी गई हैं कि उन्हें तब तक अमान्य होता है कि बुद्ध के समय में निग्रन्थो (जैनो) का सम्प्रदाय नहीं किया जा सकता जब तक कि उन तकों एवं युक्तियों पर्याप्त प्राचीन हो चुका था-वह बौद्धधर्म की स्थापना के से अधिक सबल प्रमाण प्रस्तुत न किये जाय जिन्हें कि जैन बहत पहले से चला आ रहा था। बौद्ध साहित्य से यह धर्म की प्राचीनता में शंका करने वाले विद्वान बहधा प्रस्तुत भी प्रतीत होता है कि बोधि प्राप्त करने के पूर्व गौतम बुद्ध करते हैं।' ने सत्य की खोज में जो विविध प्रयोग किये थे उनमें एक वस्तुतः भ० महावीर के निर्वाण से अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व जैन मुनि के रूप में रह कर जैन विधि से तपश्चरण आदि (ई० पूर्व ७७७ में) एकसौ वर्ष की आयु में सम्मेदशिखर करना भी था । इस तथ्य का समर्थन उस जैन अनुश्रुति से (बिहार राज्य के हजारी बाग जिले में स्थित पारसनाथ भी होता है जिसके अनुसार बौद्धधर्म की स्थापना एक पर्वत) से निवाण प्राप्त करने वाले काशी के राजकुमार जैन साधु द्वारा हुई थी। दोनो धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन २३वें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता में अब मे यह बात भी स्पष्ट हो चुकी है कि बौद्धधर्म पर जैनधर्म प्रायः किसी पौर्वात्य या पाश्चात्य विद्वान को सन्देह नहीं का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था और बुद्ध ने अनेक बातें जैनधर्म है। से लेकर अपने धर्म में समाविष्ट की थी।
इतना ही नहीं, जैसा कि सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. बौद्ध साहित्य में लिखा है कि वैशाली के लिच्छवि राधाकृष्णन का कहना है, 'इस बात में कोई सन्देह नहीं है निर्ग्रन्थों के प्राचीन अर्हत चैत्यों के पूजक थे। उसमे तीर्थ- कि जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथ के भी बहुत पहले से कर पार्श्व के चातुर्याम धर्म का भी उल्लेख हुआ है। इससे प्रचलित रहता आया है।' डॉ. नगेन्द्र नाथ बसु का मत है स्पष्ट है कि आध बौद्ध लोग तेईसवें तीर्थकर भ० पार्श्वनाथ कि 'भ० पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाप के उपदेशों से सम्बन्धित जैनों की महावीर पूर्व परम्परा से भ• कृष्ण के ताऊजात भाई थे। यदि हम कृष्ण की ऐतिभी अवगत थे। बौद्ध धम्मपद मे प्रथम तीर्थंकर ऋषभ हासिकता स्वीकार करते हैं तो कोई कारण नहीं कि हम
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४
३६, कि०१
अनेकान्त
उनके समकालीन २२वें तीर्थकर भ. नेमिनाथ को एक राज ऋषभ की कायोत्सर्ग-मुद्रा में ध्यानस्थ आकृतियाँ वास्तविक एवं ऐतिहासिक व्यक्ति मान्य न करें।' प्रो० मुद्रांकित पाया जाना, साथ ही जीववाद, परमाणुवाद जैसी कर्वे, कर्नल जेम्स टाड, शेजर जन० जी० जे० आर० फलांग जनों की अत्यन्त मौलिक आदिमयुगीन तात्त्विक मान्यताएं डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार, डॉ. हरिसत्य भट्टाचार्य आदि उसे न केवल एक सर्वथा स्वतन्त्र एवं शुद्ध भारतीय धार्मिक अनेक विद्वान् भ. नेमिनाथ की ऐतिहासिकता स्वीकार परम्परा सिद्ध करती हैं, वरन प्राग्वैदिककालीन भी सूचित करते हैं। यजुर्वेद आदि में तीर्थकर नेमिनाथ अपर नाम करती है। अरिष्टनेमि का उल्लेख पाया जाता है और डॉ० काशी. प्रसाद जायसवाल प्रभृत्ति कई विद्वानों का मत है कि अथर्व
अस्तु, उपरोक्त प्रमाण बाहुल्य के आधार पर अनेक वेद में उल्लिखित ब्रात्य वह व्रात्यक्षत्रिय या क्षात्रबन्धु थे
प्रख्यात विद्वान् जैन परम्परा को आपेक्षिक प्राचीनता में जिनकी निन्दा उनके अवैदिक होने के कारण वैदिक साहित्य
सन्देह नहीं करते । यदि कुछ विद्वानों के अनुसार 'यह मनुस्मृति आदि में की गई है, और जो वस्तत. जनधर्म के अहिसा प्रधान जैनधर्म, अधिक भी नहीं तो कम से कम अनुयायी थे।
वेदों और वैदिक धर्म जितना प्राचीन अवश्य है', तो कुछ प्राचीन भारतीय अनुश्रुतियों के अनुसार महाभारत मे
अन्य विद्वानों का मत है कि 'जनों और उनके धार्मिक वर्णित घटनाओं के पूर्व रामायण में वर्णित घटनाओ का साहित्य सम्म
साहित्य-सम्बन्धी वर्तमान ज्ञान के आधार पर हमारे लिये युग था । इस महाकाव्य के नायक अयोध्या के इक्ष्वाकवशी यह सिद्ध करना तनिक भी कठिन नही है कि बौद्धधर्म (सूर्यवंशी) भ० रामचन्द्र का जैन परम्परा में भी परम्परा
अथवा वैदिक धर्म की शाखा होना तो दूर की बात है, जैसा ही आदरणीय स्थान है। वह बीमवें तीर्थकर मुनि
जैनधर्म निश्चयतः भारतवर्ष का अपना एक सर्वप्राचीन धर्म सुब्रतनाथ के तीर्थ में उत्पन्न हुए थे। उसके भी पूर्वकाल
है। अत्यन्त प्राचीनकाल से ही उसका स्वतन्त्र अस्तित्व की राजा बसु तथा राजा वेन सम्बन्धी हिन्दू पौराणिक रहता आया है।' अतएव, यह बात प्राय: नि संकोच कही कथायें जैन अनुश्रुतियों से समर्थित है।
जा सकती है कि प्रागऐतिहामिक काल के प्रकृत्याश्रित
पापाण युग से ही, जब से भी भारत एवं भारतीयों का वास्तव में, जैसा कि प्रो. जयचन्द्र विद्यालंकार का
इतिवृत्त किसी न किसी रूप में मिलना प्रारम्भ हो जाता कहना है, "भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास उतना ही जैन
है, तभी से उसके साथ वर्तमान में जिसे जैनधर्म और जनहै जितना कि वह अपने आपको वेदो का अनुयायी कहने
संस्कृति के नाम से जाना जाता है उस धार्मिक परम्परा वालों का है। जैनो की मान्यता के अनुसार महावीर के
एवं तत्सम्बन्धी संस्कृति का सम्बन्ध बराबर मिलता चला पूर्व २३ और तीर्थकर हो चुके थे। इस विश्वास को सर्वथा
आता है। वस्तुतः जैनधर्म परम्परामूलक अथवा सनातन भ्रमपूर्ण और निराधार मान लेना तथा समस्त पूर्ववर्ती
है । बह बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, सिख प्रभति धर्मों की भांति तीर्थङ्करों को काल्पनिक एव अनैतिहासिक मान बैठना न
ऐतिहासिक नहीं है, जिसके कि संस्थापक और स्थापना की तो न्यायसंगत ही है और न उचित ही है । इस मान्यता मे
निश्चित तिथि और ऐतिहासिकता प्रतिपादित की जा सके, विश्वास न करने योग्य बात कुछ भी नही है।"
आदिम मानव मे जब भी धर्मभाव का जो उदय हुआ, उसी जनों की असंदिग्ध मान्यता कि प्रथम तीर्थकर भगवान
से शनैः शन. विकसित होता हुआ और एक के बाद एक ऋषभदेव (आदिनाथ) ने ही सर्वप्रथम धर्म का प्रवर्तन
तीर्थङ्करों द्वारा व्यवस्थित, आचारित एवं प्रचारित होता किया एवं कर्मयुग का सूत्रपात किया, उन्हीं ऋषभदेव का
हुआ यह मानव का स्वभावगत और भारतवर्ष का परम्परा ऋग्वेदादि में उल्लेख होना, ब्राह्मणीय पुराणों में उन्हें विष्णु
गत मौलिक धर्म है। का एक प्रारम्भिक अवतार घोषित करना तथा अर्हत (जैन) मत का प्रवर्तक-प्रचारक मानना, प्रागार्य एवं प्राग्वैदिक
-ज्योति निकुंज सिन्धु-बाटी सभ्यता के अवशेषों में उन्हीं वृषभलांछन योगि
चारबाग, लखनऊ
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महाकवि रइधू कृत रिट्ठणेमिचरिउ में सोनागिर की
भट्टारकीय गद्दी का उल्लेख
डॉ. राजाराम जैन इतिहासरस्न, श्री सोनागिरि क्षेत्र बुन्देलखण्ड के तीर्थक्षेत्रों में अपना रिट्ठणेमि चरिउ एवं अपनी अन्य रचनाओं में उन्हें विविध प्रमुख स्थान रखता है। पहाड़ी पर निर्मित भव्य एवं विशाल विविध प्रसंगों में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक कई बार स्मरण किया जिन मन्दिर, प्राकृतिक सौन्दर्य, सुन्दर निर्झर एवं वनौष- है। शुभचन्द्र का समय बि० सं० १५०६ से १५३० के धियों से मिश्रित मधुर जल वाले सरोवरों से व्याप्त यह लगभग रहा है । अत: इसी काल में कनकाद्रि पर भट्टारपुण्यभूमि बरबस ही जन-मन मोह लेती हैं।
कीय गद्दी की स्थापना की गई होगी, इसमें सन्देह नहीं। तीर्थभूमि होने के कारण उसका अपना महत्व तो रहा शुभचन्द्र नाम के कई भट्टारक साधक एवं विद्वान हुए ही किन्तु वि० स० की १५-१६वी मदी में साहित्यिक केन्द्र है, जिनके नाम साम्य के कारण उनके काल-निर्णय में बड़ी होने के कारण भी उसका विशेष महत्व रहा है। मुगलकाल उलझनें हुई है। किन्तु प्रस्तुत शुभचन्द्र भट्टारक के विषय मे राजनैतिक एवं धार्मिक उथल-पुथल होने के कारण में स्थिति अत्यन्त सुस्पष्ट है। भट्टारकों ने साहित्य लेखन तथा प्रचार-प्रसार के निमित्त यह तो ज्ञात नहीं हो पाया है कि भट्टारक शुभचन्द्र ने यत्र-तत्र अपने केन्द्र व्यवस्थित किए थे, जिन्हे भट्टारकीय कौन-कौन-सी रचनाएं लिखीं, किन्तु रइधू के उल्लेख के गहियों के नाम मे सभी जानते हैं । तोमरवशी राजाओ के आधार पर यह ज्ञात होता है कि वे परम सम्यक्त्वी, गुरु काल में भट्टारकों के कार्यकलापों का प्रमुख केन्द्र गोपाचल के प्रति अत्यन्त विनयशील, महातपस्वी, साहित्यकारों के था। नत्कालीन राजाओ ने भट्टारकों एवं जैन कवियो को लिए प्रेरणास्रोत तथा शिष्यों को अपने यहाँ आवास एवं विशेष प्रश्रय भी दिया था। राजा डूंगर सिंह के सम भोजनादि की व्यवस्था एवं अन्य सुविधाएं प्रदान करते थे, कालीन महाकवि रइधू ने सोनागिरि मे स्थापित हुई भट्टा
[वही० १।२।१४-१५] रकीय गद्दी की सर्व प्रथम सूचना दी है तथा कहा है- महाकवि रइधू को शुभचन्द्र ने अत्यन्त स्नेहवश अपने
"उत्तमक्षमा-गुण को धारण करने वाले तथा भव्य- निवास स्थान पर रखकर सभी सुविधोए प्रदान की थी जनों को संसार रूपी ससार से तारने वाले भट्टारक कमल- तथा उन्हे कुछ तात्त्विक ग्रन्थों का अध्ययन कराया था।
HT तपस्वी श्री शन्ट ने काटि में रिट्ठणेमि परिउ की रचना तो शुभचन्द्र की कृपा के बिना एक भट्टारकीय गद्दी (पट्ट) की स्थापना की।"
सम्भव ही नही थी। [वही० २४१२३।९-१२] मिचरित्र १२-१३] शुभचन्द्र काष्ठासंघ, माथुरगच्छ एवं पुष्करगण शाखा "भट्टारक शुभचन्द्र को रइधू ने अपने गुरु के रूप में के भट्टारक थे। अत: सोनागिर की भट्रारकीय गट्टी भी स्मरण किया है और कहा है कि "मैंने रिट्ठिणेमि चरिउ उसी परम्परा की थी। उसके अद्यावधि इतिहास की जानकी रचना भट्टारक शुभचन्द्र के श्री चरणो की सेवा एव कारी प्राप्त करने के लिए मैंने सोनागिर के वर्तमान भटासत्कृपावश ही की है।"
रक महोदय, गोपाचल के कुछ प्रमुख व्यक्तियों एवं ग्वालियर [वही० १४१२३।९-१२] के पुरातत्त्व-विभाग से घना पत्र-व्यवहार किया, किन्तु भद्रारक शुभचन्द्र भट्टारक कमलकीति के दो शिष्यो में कही से कोई भी उत्तर मुझे नहीं मिल सका । यदि कछ से एक अन्यतम विद्वान एवं साधक शिष्य थे। रइधू ने
(शेष पृ०७ पर)
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स्थानीय संग्रहालय पिछोर में संरक्षित जैन प्रतिमाएं
नरेश कुमार पाठक
अम्बिका का आलेखन इस कलाकृति की विशेषता है । पर्श्वनाथ-
स्थानीय संग्रहालय पिछोर (जिला ग्वालियर) की स्थापना सन् १९७६-७७ ईस्वी सन् में मध्य : देश शासन के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा जिला पुरातत्व संघ ग्वालियर के सहयोग से भूतपूर्व पिछोर रियासत के एक प्राचीन भवन में की गई। इसमे ग्वालियर एव चम्बल सम्भाग के विभिन्न स्थानों से मूर्तियाँ एकत्रित की गई है, जो धार्मिक मान्यताओ के आधार पर शैव, शाक्त, वैष्णव एवं जैन धर्म से सम्बन्धित है। जैन धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाओं का विवरण इस प्रकार है :आदिनाथ
प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ की दो उल्लेखनीय प्रतिमा संग्रहालय मे सरक्षित है। जो मालीपुर से प्राप्त हुई हैं । प्रथम प्रतिमा (सं० क्र० e ) कायोत्सर्ग मुद्रा में अपने लांछन वृषभ सहित शिल्पाकित है। दोनो ओर चावरधारी परिचारक एव चावरधारिणी का अंकन है। प्रतिमा के सिर पर कुन्तलित केशराशि लम्वे जटा एव पीछे प्रभामण्डल सुशोभित है। वितान में त्रिछत्र, दुन्दभिक व मालाधारी विद्याधरों का अंकन है। परिकर मे जिन प्रतिमा, गज, सिंह तथा मकर व्यालो का आलेखन है। पादपीठ पर धर्मचक्र जिसके दोनो ओर सिंह आकृतियाँ अकित है ।
आदिनाथ की दूसरी प्रतिमा में [सं० क्र० १० ] पद्मासन की सौम्य एवं शान्त मुद्रा मे तीर्थङ्कर आदिनाथ अपने ध्वज लांछन वृषभ सहित निर्मित है। सिर पर कुन्त लित केशराशि तथा लम्बे जटाओं एव वक्ष पर 'श्री वत्स' का आलेखन कलात्मक है। मुख्य प्रतिमा प्रभामण्डल से सुशोभित है । पार्श्व में दोनो ओर चामरधारी परिचारक खड़े है । वितान में त्रिछत्र, दुन्दभिक और परिकर में गज, सिंह व मकर व्यालों का शिल्पांकन है। आसन पर धर्मचक्र दोनों ओर सिंह आकृतियां और परिचरों का अंकन है। पादपीठ पर दायी ओर मानवीय गरुड़ के ऊपर यक्षणी चक्रेश्वरी बायी ओर सिंह पर सवार यक्षणी अम्बिका है, जो अपने दायें हाथ में लघु-पुत्र प्रियंकर को लिये है । ऊपर आम्र लुम्बी अंकित है। प्रतिमा मूर्ति विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । क्योंकि आदिनाथ के साथ यक्षणी
मालीपुर से ही प्राप्त दो प्रतिमा तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की संग्रहालय में सरक्षित है। प्रथम प्रतिमा में योगासन मुद्रा मे [स० ऋ० १] पादपीठ पर बैठे है। सिर पर कुन्त लित केशराशि ऊपर सप्तपर्ण नागमौलि की छाया है । पार्श्व में दायें-बायें चावरधारिणी एवं चावरधारियों का अंकन है । पादपीठ पर दायें-बायें यक्ष धरणेन्द्र एव यक्षणी पद्मावती अकित है । आसन पर दोनों ओर सिंह आकृति तथा मध्य में धर्मचक्र अंकित है । वितान में हाथियों द्वारा अभिषेक का दृश्य परिकर मे गज, सिंह एवं मकर व्यालों का आलेखन है ।
पार्श्वनाथ की दूसरी प्रतिमा [सं० क्र० २] में कायोमर्ग मुद्रा में खड़े हुए तीर्यकर के सिर पर कुन्तलित केशराशि, ऊपर सप्तफण नाग मौलि की छाया है । वितान में त्रिछत्र, दुन्दभिक, मालाधारी विद्याधर युगल, हाथियों द्वारा किये जा रहे अभिषेक का दृश्य अकित है । पादपीठ पर दायें यक्ष धर्णेन्द्र एवं बायें यक्षणी पद्मावती अकित है । दोनों ओर परिचारिकों का आलेखन है । लांछन विहीन तीर्थंकर -
संग्रहालय में लांछन विहीन तीर्थङ्कर की तीन पद्मासन में एवं चार कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित प्रतिमाएं संरक्षित हैं । मालीपुर-सुजवाया से प्राप्त तीर्थङ्कर प्रतिमा पद्मासन [सं० क्र० ३ ] में शिल्पांकित है। मूर्ति के सिर पर कुन्तलित केशराशि पीछे आकर्षक प्रभावली, दोनों पार्श्व में सिर विहीन चावरधारियों का अंकन है। आसन पर भग्न अस्था में यक्ष-यक्षणी, मध्य में धर्मचक्र एवं सिंह आकृतियों का अंकन है । वितान में दायें ओर अभिषेक करता हुआ हाथी व विद्याधर युगलों का अंकन है । दोनों पार्श्व में दो जिन प्रतिमा अकित है। परिकर में सिंह एवं मकरव्यालो से अलकृत है ।
पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में निर्मित दूसरी मूर्ति नरवर [सं० ० ४] प्राप्त हुई प्रतिमा के सिर पर कुन्तलित केशराशि, वक्ष पर 'श्री वत्स' का अंकत है । दोनों
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स्थानीय संग्रहालय पिछोर में संरक्षित जन प्रतिमाएं
पावं में कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन प्रतिमाओं का अकन है। प्रभामण्डल, वक्ष पर 'श्री वत्स' का अकन है। पार्श्व में वितान में छत्र व मालाधारी विद्याधरों का अकन है। दोनों ओर चावरधारियों का आलेखन है। परिकर में मकर व्याल एव पद्म कलियों से अलंकृत है। जिन प्रतिमा वितान, पादपीठ एवं सिर :___ तीसरी पद्मासन मे [सं० ऋ० ६०] प्रतिमा पिछोर से मालीपुर-सुजवाया [स. ऋ० १६] से प्राप्त जिन प्राप्त हुई है। प्रतिमा का सिर भग्न अवस्था में है । अल- प्रतिमा विनान से सम्बन्धित इस मूर्ति खण्ड में विछत्र, करण सापान्य स्तरीय है।
दुन्दभिक एवं मालाधारी विद्याधर युगलों का अंकन है। कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित तीर्थङ्करी में उल्लेखनीय नरवर से प्राप्त [सं० ऋ० १८ जिन प्रतिमा पादकलाकृति[सं० ० ५]मालीपुर-सुजवाया से प्राप्त प्रतिमा पीठ पर गज, सिंह एवं मानव आकृतियों का आलेखन है। के सिर व पैर भग्न है। पार्श्व में दोनो ओर चवरधारियों पिछोर से प्राप्त जिन प्रतिमा [सं० ऋ०६१का का आलेखन है।
दायाँ भाग शेष है, जिनमे त्रिभग मुद्रा में चॅवरधारी, मालीपुर-सुजवाया से ही प्राप्त दूसरी कायोत्सर्ग मुद्रा सेविकाओ का अकन है। तीर्थड्वर प्रतिमा का केवल पर मे स० ० ६] शिल्पाकित तीर्थडुर के सिर और पैर ही शेप है। भग्न है। पाश्व में दोनो ओर चवरधारियो का अकन है। पिछोर से ही प्राप्त जिन प्रतिमा [स. ऋ०६२/
नरवर से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित तीसरी का सिर का फीसुन्दर है। सिर पर अकित कुन्तलित [स० ० ७] प्रतिमा के सिर पर कुन्तलित केशराशि, केशराशि मनोहारी है। कर्णचाप है। पीछे अलकृत प्रभावली, वक्ष पर 'श्री वत्म' नरवर, मालीपुर-सुजवाय एव पिछार से प्राप्त ये का अकन है। पार्श्व में दोनो ओर चाउरधारियों का सभी मूतिया १०वी ११वी शती ईस्वी की है, जो मति आलेखन मनोहारी है।
कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ___ नरवर से ही प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में [स० ऋ० ८]
केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय, गूजरी शिल्पांकित तीर्थङ्कर के सिर पर कुन्तलित केशराशि, पीछे
महल, ग्वालियर, म०प्र०
(पृष्ठ ५ का शेषाश) सामग्री वहाँ से मिलती तो इस पर विशेष प्रकाश पड़ कोई भी सम्बन्ध नही रहा है। सकता था।
पिछले दशक मे सोनागिर-क्षेत्र की ऐतिहासिकता पर कुछ समय पूर्व "स्वर्णाचल माहात्म्य" नामक एक कुछ विद्वानों ने विचार किया है तथा कुछेको ने उसकी
- यन्थ प्रकाश में आया है। उसे बि० स०१८४५ प्राचीनता को सदिग्ध माना है। किन्तु उस पर ऊहापोह मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को अटेर निबासी कान्यकुब्ज कुलो
करना इस निबन्ध का विषय नही है। उसकी प्राचीनता त्पन्न श्री देवदत्त दीक्षित ने भट्टारक जितेन्द्र भूषण के आदेश
कुछ भी हो, किन्तु महाकवि रइधू के उक्त उल्लेखो से यह एव उपदेश से लिखा था। ये जितेन्द्र भूषण भट्टारक मूल- स्पष्ट हो जाता है कि १५वी सदी में कनकाद्रि अथवा संघ, बलात्कार गण, नन्दि-आम्नाय की शाखा के थे।
सोनागिरि तपोभूमि, तीर्थभूमि एव साधना-भूमि के रूप में उनका निवास एवं साधना-स्थल विश्वविख्यात पुण्यक्षेत्र
सुप्रसिद्ध एव ज्ञात था तथा साहित्यिक केन्द्र की स्थापना सूरिपुर मे था, जो यमुना के तट पर बसा था। सम्भवतः
के योग्य मानकर ही भट्टारक कमलकीति ने काष्ठासंघ किसी समय सोनागिर की यात्रा के समय वे उस पुण्यतीर्थ
एव पुष्करगण की परम्परा सम्मत एक भट्टारकीय गढ़ी से बहुत प्रभावित हो गए थे और श्रद्धाभिभूत होकर उन्होने
की वहां स्थापना की थी। -मारा (बिहार) उक्त देवदत्त दीक्षित को उक्त काव्यग्रन्थ लिखने की प्रेरणा की थी। किन्तु सोनागिर की पूर्व-स्थापित भट्टारकीय गद्दी नोट-रिट्णेमि चरिउ ग्रन्थ अप्रकाशित है-संपादन कार्य से उक्त जिनेन्द्र भूषण का सम्भवत, किसी भी प्रकार का चल रहा है।
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जायक भाव
श्री बबूलाल वक्ता विचार से रहित जव उपयोग होगा तब उस रूप वह इमी प्रकार सुनते हुए, वोलते हुए हर वक्त तीन काम हो आप है। जिस समय किसी को जान रहा है उस समय वह रहे है पर 'मैं' कौन ? कोई हाथ को काट रहा है तब एक तो ज्ञान है और जिस समय किसी को नहीं जान रहा है, उस वह बाहर की क्रिया, एक भीतर में दुख रूप परिणाम और समय भी तो ज्ञान ही है, जब वह दूसरे को जानने का एक उसका जानना, दुख रूप परिणाम तो एक समय आता काम बन्द करके केवन ज्ञानस्वरूप स्वय ही रहे तब बात है और मिट जाता है बाहर की वह क्रिया भी मिट बने । जैसे मिथी दूध में मिली हुई है तब वह उसे मीठा कर जाती है। पर ज्ञान का जाननपना अभी भी उसी रूप से रही है पर जब वह उसमे न मिले, ऐसी ही रहे तब भी तो कायम है । पहले वह शरीर को काटे जाने रूप क्रिया वह मीठी ही है, वह तो अपने स्वभाव रूप ही है, मिश्री __ को और दुख रूप परिणाम को जान रहा था अब स्वस्थ ही है उसी प्रकार चेतन सदैव चेतन रूप ही है, किसी को अवस्था को व सुख रूप परिणाम को जान रहा है। और जाने चाहे न जाने, विकल्प करे या न करे, हर हाल मे वह एक बात और है हाथ का काटा जाना ही भीतर के दु.ख चेतन रूप ही है। यह (जीव) जो विचार उठाता है वह का कारण हो ऐसा भी नही, ऐसा होता तो मुनि आदि राग है, निर्विचार बने, निर्विकल्प हो तो बात ठीक हो। इतने उपसर्ग व परीषह के समय भी कसे स्थिर होते? यदि यह मन का आश्रय लेगा तो विचार उठेंगे, उसका ये बड़े-बड़े क्रान्तिकारी हुए है जिन्होने इतनी-२ यातनाएं माश्रय न लेकर आप अपने आश्रय मे ज्ञाता बने, ज्ञायक सहर्ष झेली, उनके भीतर मे उस जाति का राग नहीं था। रूप रहे कि मैं जान रहा हू बस, लेकिन विचार करने की भगतसिंह को जिस समय फासी होने लगी तो पहले दिन इसको ऐसी आदत पड़ गई है कि यह इस बात को ही की अपेक्षा उसका बजन दो-तीन पौड बढ़ गया था। स्वीकारने को तैयार नही कि निर्विकल्पपना भी हो सकता आपने रोटी खाई तब भी तीन काम है, ज्ञान ने खाते
समयभी उसे जाना और जब वह क्रिया खत्म हो गई तब भी प्रश्न--निविकल्पता कैसे हो?
जानने रूप क्रिया हो रही है तभी तो कह रहे हो कि भोजन उत्तर-पहले तो हम इस बात को पकड़ें कि कोई स्वादिष्ट था इससे सिद्ध होता है कि कोई भीतर में ऐसा भो जीव हो भव्य हो, अभव्य हो, ज्ञानी हो, अज्ञानी हो, जानने वाला है जो उस समय भी था और अब भी मौजूद प्रत्येक के भीतर मे दो काम हो रहे है एक तो कर्म का है। रास्ते चलते हुए भी तीन काम हो रहे है, तीन मे से कार्य और एक ज्ञान का कार्य। कर्म के अनुसार शरीर मे दो काम तो बदल रहे हैं नाशवान हैं अत. कर्म के है और घाव हुआ, ज्ञान ने उसे जाना, जब घाव ठीक हो जाता है जानने का काम सतत एक रूप है, स्थाई है अत: आत्मा तो ज्ञान शरीर के उस स्वस्थ रूप को जानने लगता है। का है, हमारा है। यद्यपि वह कर्म का काम चेतना के उस घाव के होने पर भीतर में, भाव में जो सुख दुःखादि अस्तित्व मे हो रहा है फिर भी चेतना का अपना नहीं है, होते हैं ज्ञान उसे भी जानता है। आपने किसी जीव की पर-कृत है जैसे कोई बाहर के तीन-चार आदमी हमारे घर रक्षा की बाहर मे तो उसकी रक्षा की व भीतर में दया में आकर ठहर जाएं और कोई राशनकार्ड वाला आकर रूप परिणाम हुए और ज्ञान ने उन्हे जाना। हमें यह पूछे तो हम कहते हैं कि हम तो तीन है तो हैं, तो उस समय नक्की करना है कि इनमें से मेरा अपना कौन-सा काम है। आदमी घर में सात पर कहते हैं कि बाकी चार तो बाहर
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नायक भाष
के घर में हैं फिर भी घर के नहीं है, उसी प्रकार चेतमा लगाए, अतः वह कर्म का कार्य तो होता है पर उसमें कोई में पबपि भाव कर्म हो रहे हैं पर फिर भी चेतना के अपने हर्ष-विषाद वाली बात नहीं रहती क्योंकि मैं तो जानने नहीं है। उस ज्ञान के कार्य को हमने आज तक पकड़ने वाला हूं और जानने वाला मरता नहीं, बीमार होता नहीं, की चेष्टा ही नहीं की और उस कर्म के कार्य को हमने उसका हाथ कटता नहीं अत: में क्यों रोऊ और जिसका जाना कि मैं इसका करने वाला और यह मेरे करने से कटता है वह रोना जानता नहीं। इस प्रकार से शरीर हुआ है और मैं इस रूप हूं। आचार्य कहते हैं कि यह तेरी में रहते हुए इससे अलग हो जाओ। पहले तो केवल अज्ञान अवस्था है, तूने अपने को क्यों नही जाना? और एक कर्मधारा चलती थी पर अब ज्ञानधारा भी चालू हो इस कर्म के कार्य को अपना जानने से तेरे अहंकार पैदा गई और कब जो भी कार्य होता है उसे ये कहता है कि हुमा ज्ञान के कार्य में तूने अपनापन क्यों नहीं माना, तू काम तो यह कर्म का है मेंने तो उसे जाना है अतः पहले कर्म रूप नहीं, तू तो चेतना रूप है, अपने रूप ही है। मन के आश्रय से जो मिथ्या अहंकार पैदा होता था कि मैं
कर्म तो चौकी की तरह जड़ है वह अपना फल दे देता करोड़पति, मैं गरीब, मैं सुखी, मैं दुःखी वह सारा टूट गया है, अज्ञानी उसे ले लेता है,शानी उसे नहीं लेता, फल नही अब कर्म का, पुण्य पाप का उदय तो है, शरीर भी है पर लेता है तो वह कर्म फालतू हो जाता है । आचार्य कहते हैं उसमें अपनापन न होकर ज्ञान के कार्य मे अपनापन है अतः कि तू उस जानने वाले को देख जो वहाँ सतत विद्यमान कहते हैं कि अब यह शरीर का मालिक नही रहा पड़ोसी है, वही तू है। अकलंक स्वामी ने कहा कि जिसने कोध बन गया और जब मालिक ही नहीं रहा तो कैशियर के जाना उसी ने क्रोध के अभाव को भी जाना। हम भी पास कितना ही धन पड़ा रहे, उसे उसका अहंकार नहीं कभी-कभी कहते हैं कि आज हमारा मूड खराब है उसको हो सकता। आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जो किसने जाना? मूड तो खराब से ठीक हो गया परन्तु जानने केवल इस बात का अहंकार कर रहा हो कि मैं आज दो वाला वही है ? वह पहले जान रहा था मूड खराब है अब करोड़ के नोट गिनकर आया हूं। तो पहले कर्म के जान रहा है मूड ठीक है। क्रोध भीतर में चाल हआ चाहे कार्य को चेतना का योगदान मिलता था, पर अब वह बंद बाहर मे अभी प्रगट नही हा पर उस जानने वाले ने हो गया क्योंकि वह सारा योगदान जाननपने के काम को जानना शुरू कर दिया कि क्रोध शुरू हो चका है। एक मिलने लगा अंत: कर्म की ताकत घट गई। आदमी ने सुन्दर बात बताई कि क्रोध चाल हो तो उससे पहले अज्ञान अवस्था में एक और अडंगा था कहो कि पांच मिनट बाद अवि और फिर वह होगा ही भूतकाल की सोच-सोचकर दुःखी होता था और भविष्य नही। इसमें भी वही सत्व है कि जानने वाला जागरूक की सोचकर शेखचिल्ली की तरह सुखी भी हो जाता था है, जागृत है, सावधान है, उसने बान लिया कि धनी अब शामी हो गया तो उसकी समझ में आया कि अरे ! रहा है और जब जानने वाला सावधान है तो फिर वह यह पागलपन कहाँ से लाया, इसमें तेरा अपना कुछ है नहीं क्रोध कैसे रह सकता है !
और इससे कुछ लेना-देना नहीं फिर जो शक्ति वह इस जानने वाले को पकड, वही हूं है। पंक- पहले मन द्वारा फालतू इन विकल्पों में लगा रहा था वह इना कहते हैं कि जैसा अपनापन तेरे आज तक शक्ति उसने उन सब कार्यों के आनने में लगा दी, और अव कर्म, उसके कार्य उसके फल मे आ रहा है, कोष बह उन सबको मात्र जान रहा है और स्वयं को उन रूप करने में, दया करने में आ रहा है, खान में आ रहा नहीं मान रहा है तो राग-द्वेष का कोई प्रयोजन नहीं है,शरीर के घाव में दर्द में आ रही है पैसा बंपनापन रही। मन तो एक माध्यम है, और उसे आप चाहो उस जानने वाले में आए और जब जानने वाले में अपना- ती इस्तेमाल में ले लो, अन्यथा ये तो पौद्गलिक है, पन आयेगा तो चेतना की जितनी ताकत पहले कर्म में लग जड़ है, ऐसे ही पड़ा रह जायेगा जैसे इस चस्मे की हमें रखी थी वह जाननपने में मम गई जब उसमें पोल तापात परकार होती है तभी लगा लेते हैं। अब विकल्प
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१० बर्ष ३६, कि०१
अनेकान्त
कुछ रुकने लगे और वह ज्ञाता बना पर क्योंकि अनादि पूरा जोर है तो विकल्प कोई भी नहीं रहता, विकल्पों से काल की आदत पड़ी है अतः बार-बार फिर मन का कुछ लेना-देना नहीं । यद्यपि शाता पने में पूरी सावधानी माश्रय ले लेता है फिर गल्ती समझकर फिर मन से हट है और अन्य किसी भी चीज में हेय उपादेय की भी दृष्टि कर ज्ञाता बनता है इस प्रकार से चेष्टा करते-करते नहीं है पर अभी भी यह पूरी अनुभूति की स्थिति नही उसकी मन का अवलम्बन लेने की पुरानी आदत छूटती क्योंकि बाहर का कार्य चालू है। अब इसके बाद भी जाती है, विकल्प बंद होते जाते हैं, निर्विचार होता जाता वह आगे बढ़े और जब वह सत्ता मात्र रह जाए, वह है। अभी भी थोड़ा अश उसका बाहर के काम में लगा हुआ अनुभूति की अवस्था है। नीद में व अनुभूति में मात्र है। जैसे बाहर में अभी बोलने की क्रिया हो रही है तब इतना ही अन्तर है कि नींद में मूच्छित-सी, असावधान थोड़ा उपयोग तो उसमें जा रहा है और बाकी का उपयोग अवस्था हे और अनुभूति में जाग्रत अवस्था है। उसे जान रहा है, बीच में मन का जो कार्य था इधर-उधर इन विकल्पों से क्या हानि होती है ? घूमने का, हिसाब-किताब करने का वह अब नही है। जितने विचार व विकल्प हम हैं वे पर-पदार्थ में राग अब इससे आगे बढ़े तो कदाचित् ऐसा होता है कि वह पैदा करते हैं, उतने ही सस्कार गहरे हो जाते हैं, और बाहर का काम भी बंद हो जाय और केवल वह जानने सस्कार का गहरा होना ही कर्म है। वे संस्कार इतने गहरे वाला शुद्ध ज्ञान बचा तो अनुभूति पैदा हो जाती है। अनु- हो जाते हैं कि आपको तद्रुप परिणमन करा देते हैं । आप भूति का समय कम है, देरी से होती है पर यह ज्ञातापना । बीस दफे रसगुल्ले को अपने उपयोग में याद करो तो भीतर हर समय चालू रह सकता है। मन की यदि जरूरत है मे इतनी जोर की रुचि पैदा होगी कि खाना ही पड़ेगा। कुछ सोचने-विचारने को उसका सहारा ले लो अन्यथा सही बात यह है कि पहला विकल्प आते ही तत्काल वह जरूरी नही । बाहर का काम चलने दो और उसे मात्र सावधान हो जाए कि अब दुबारा ये विकल्प नहीं जानते रहो।
उठेगा। यदि वही विकल्प बार-बार उठ जाए तो वह णमोकार मंत्र जोर-जोर से बोल रहे है तो उसे चलने इतना मजबूत हो जाता है कि हम उसके आधीन हो जाते दो उसके जानने वाले बन जाओ तो वह धीमा होता चला है। जायेगा, वह बहुत मंद हो जाता है और ज्ञातापने पर
-भक्ति-परक सभी प्रसंग सर्वाङ्गीण याथातथ्य के स्वरूप के प्रतिपादक नहीं होते। कुछ में भक्ति-अनुराग-उद्रेक जैसा कुछ और भी होता है। जैसे-'शान्तेविधाताशरणं गतानाम', 'पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः', श्रेयसे जिनवृष प्रसोद नः' इत्यादि । इन स्थलों में कर्तृत्व की स्पष्ट पुष्टि है जब कि आत्म-स्वभाव इससे बिल्कुल उल्टा। ऐसे में विवेक पूर्वक वस्तु को परखना चाहिए कि वक्ता की दृष्टि क्या है? xxxx
-तू ज्ञानी, धनी या कहीं का कोई अधिकारी है, यह सोचना महत्त्वपूर्ण नहीं । अपितु महत्त्वपूर्ण ये है-कि तूने कितनों को ज्ञानी धनी या अधिकारी बनने में कितना योग दिया:'जो अधीन को प्राप समान । कर न सो निन्दित धनवान ।'
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'जैन दर्शन में सप्तभंगीवाद'
अशोक कुमार जैन एम० ए०, शास्त्री
इस भारत भूमि में विश्व के सम्बन्ध से सत्, अमत्, कथन किया है उनमें से एक स्थल पर उन्होंने प्रवचनसार उभय और अनुमय ये चा पक्ष वैदिककाल से ही विचार- का क्रम अपनाया है, दूसरे स्थल पर पंचास्तिकाय का क्रम कोटि में रहे हैं । 'सदैव सौम्येदमग्र आसीत्' (छान्दो०६।२) अपनाया है।' 'असदेवेदमन आसीत्' (छन्दो० ३१६१) इत्यादि वाक्य दोनों जैन सम्प्रदायो मे दोनों ही क्रम प्रचलित रहे हैं। जयत के सम्बन्ध मे सत् और असत् रूप मे परस्पर विरोधी सभाष्य तत्वार्थाधिगम (अ० २३६) सूत्र और विशेषादो कल्पनाओं को स्पष्ट उपस्थित कर रहे हैं तो वही सत् वश्यकभाष्य (गा० २२२३) मे प्रथम क्रम अपनाया है किंतु
और असत् इस उभयरूपता तथा इन सबसे परे वचन- आप्तमीमांसा (का० ६४) तत्वार्थ श्लोक वार्तिक(पृ.१२८) गोचर तत्व का प्रतिपादन करने वाले पक्ष भी मौजूद थे। प्रमेयकमल मार्तण्ड (पृ०६८२) प्रमाणनयतत्वालोकालंकार बुद्ध के अव्याकृतवाद और संजय के अज्ञानवाद मे इन्ही (परि०४ सूत्र १७-१८) स्यावाद मञ्जरी (पृ० १८६) चार पक्षों के दर्शन होते हैं। उस समय का वातावरण ही सप्तभगीतरंगिणी (पृ. २) और नयोपदेश (पृ०१२) में ऐसा था कि प्रत्येक वस्तु का स्वरूप 'सत् असत् उभय दूसरा क्रम अपनाया गया है । इस तरह दार्शनिक क्षेत्र में और अनुभय' इन चार कोटियो से विचारा जाता था। दूसरा ही क्रम प्रचलित रहा है अर्थात अस्ति-नास्ति को भगवान महावीर ने अपनी विशाल और उदार तत्वदृष्टि तीमरा और अवक्तव्य को चतुर्थभङ्ग ही माना है। विधि से वस्तु के विराट रूप को देखा और बताया कि वस्तु के और प्रतिषेध की कल्पना मूलक सात भंग इस प्रकार हैअनन्त धर्ममयस्वरूप सागर में ये चार कोटियां तो क्या १. विधि कल्पना, २. प्रतिषेध कल्पना, ३. क्रम से विधि ऐसी अनन्त कोटियां लहरा रही हैं।' यह कहना ठीक नहीं प्रतिषेध कल्पना, ४. युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना, ५. है कि शब्द धान रूप से विधि का ही कथन करता है विधि कल्पना और युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना, ६. प्रति क्योंकि ऐसा कहने पर शब्द से निषेध का ज्ञान नही हो धकल्पना और युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना, ७. क्रम सकेगा । शायद कहा जाये कि शब्द गौण रूप से निषेध को और युगपद् विधिप्रतिषेध कल्पना । । भी कहता है किन्तु ऐसा कहना भी निःसार है क्योंकि श्रुतज्ञान के दो उपयोग है, एक स्याद्वाद और दूसरा सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा प्रधान रूप से जिसका कथन नही नय। प्रमाण सकलदेश रूप होता है और नय विकलाकिया जाता उसका गौण रूप से कथन करना सम्भव नही देश । ये सातों ही भंग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण है।' विधि और निषेध के विकल्प से अर्थ में शब्दों की और जब विकलादेशी होते हैं तब नय कहे जाते है। इस प्रवृति सात प्रकार की होती है, उसे ही सप्तभङ्गीं कहते तरह सप्तभंगी भी प्रमाण सप्तभगी और नय सप्तभंगी के हैं। सबसे प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के प्रथों में सातभङ्गों रूप में विभाजित हो जाती हैं । सकलादेश में प्रत्येक धर्म का नामोल्लेख मात्र मिलता है उनमे से प्रवचनसार में की अपेक्षा सप्तभंगी होती है। १. स्यात् अस्त्येव जीवः, स्थात अवक्तव्य को तीसरा भंग रखा है और स्यादस्ति- २. स्यात् नास्त्येव जीवः, ३. स्यात् अवक्तव्य एव जीवः, नास्ति को चतुर्षभंग रखा है। किन्तु पञ्चास्तिकाय में ४. स्यादस्ति च नास्ति च, ५. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यअस्तिनास्ति को तीसरा और अवक्तव्य को चतुर्थ भंग रखा श्च, ६. स्यात् नास्ति च अवक्तव्यश्च, ७. स्यात् अस्ति है। इसी तरह अकलरुदेव ने दो स्थलों पर सप्तभंगी का नास्ति व अवक्तव्यश्च । विकलादेश में भी सप्तमंगी
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१२.२०१
मनेकान्त
होती है । गुणभेदक अंशों में क्रम, यौगपद तथा क्रमयोग पद दोनों से विवक्षावश विकलादेश होते हैं। जब अस्तित्व तथा नास्तित्व आदि धर्मो की देश काल आदि के भेद से कथन की इच्छा है तब अस्तित्व आदि रूप एक ही शब्द की नास्तित्व आदि रूप अनेक धर्मों के बोधन करने में शक्ति न होने से नियत पूर्वापरभाव वा अनुक्रम से जो निरूपण है उसको 'क्रम' कहते हैं। और जब उन्ही अस्तित्व आदि धर्मों को काल आदि द्वारा अभेद से वृत्ति कही जाती है तब एक अस्तित्व आदि शब्द से भी अस्तित्व आदि रूप एक धर्म के बोधन के उपलक्षण से उस वस्तुरूपता को प्राप्त जितने धर्म हैं उनका प्रतिपादन एक समय में सम्भव है, इस प्रकार से जो वस्तु के स्वरूप का निरूपण है उसको यौगपद्य कहते हैं।" प्रथम और द्वितीय भाग में स्वतन्त्र कम, तीसरे में यौगपद्य, चौधे में संयुक्त रूप, पाँचवें और छठे भंग में स्वतन्त्र क्रम के साथ योगपद्य तथा सातवें भंग में संयुक्त क्रम और यौगपद्य है । सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थ दृष्टि से 'स्वावस्त्थेव आत्मा' यह पहला विकला देश है। इस अंग में अन्य धर्म यद्यपि वस्तु में विद्यमान हैं तो भी काजादि की अपेक्षा भेद विवक्षा होने से शब्द वाच्य स्वेन स्वीकृत नहीं है । अत न उनका विधान ही है और । न प्रतिषेध | "
एक धर्म के विधि निषेध की विवक्षा से सात ही भंग होते हैं क्योकि प्रश्न के भी सात ही प्रकार होते हैं और प्रश्नों के अनुसार ही सप्तभंगी होती है । जिज्ञासा सात प्रकार की होने से प्रश्न भी सात प्रकार के होते हैं तथा जिज्ञासा भी सात प्रकार की होती है क्योंकि संशय सात प्रकार के होते हैं ।" सप्तभंगी का विकास दार्शनिक क्षेत्र में हुआ अत: उसका उपयोग भी उसी क्षेत्र में होना स्वा: भाविक है। स्याद्वाद चूंकि विभिन्न दृष्टिकोणों को उचित रीति से समन्वयात्मक शैली में व्यवस्थित करके पूर्ण वस्तुस्वरूप का प्रकाशन करता है अतः उसका फलित सप्त भंगीवाद भी प्रयोजनका साधन है ।" स्वामी समन्तभद्र ने अपने आप्तमीमासा नामक प्रकरण में अपने समय के सदैकान्तवादी" सांख्य, असदैकान्तवादी" माध्यमिक सर्वथा उभयवादी वैशेषिक" और अवक्तव्येकान्तवादी बौद्ध का निराकरण करके आदि ४ मंगों का ही उपयोग
किया है और शेष तीन अंगों के उपयोग का सूचनामात्र मर दिया है। आप्तमीमांसा पर अष्टशती नामक भाष्य के रचयिता अकलंक देड़ ने और उनके व्याख्याकार विद्यानन्द ने शेष तीन मंगों का उपयोग करते हुए शंकर के अनिवर्चनीयवाद को सदवक्तव्य, बौद्धों के अन्यापोहवाद को असदवक्तव्य और योग के पदार्थवाद को एक सदसयवक्तव्य बतलाया है और इस तरह सप्तभंगी के सात मंगों के द्वारा दार्शनिक क्षेत्र के मन्तव्यों को संग्रहीत किया है। वचनात्मक स्याद्वाद भूत के द्वारा जीवादि की प्रत्येक पमय सम्भ रूप से जानी जाती है।" स्यात् शब्द का अर्थ कचिंत है जो एकांत का निषेध और अनेकांत का प्रकाश करता है । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य है, अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा हस्य नहीं है, स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा हम्प है और नहीं है और स्वद्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों से युगपद कहे जाने की अपेक्षा अर्थात नहीं कहा जा सकता, द्रव्य अवक्तव्य है, स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और युगपद् स्वपर अन्य क्षेत्र, काल भाड़ों की अपेक्षा ग्रम्य नहीं है और अवक्तव्य है, स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, घाव की अपेक्षा द्रव्य है और नही है तथा अवक्तव्य है ।" विधिनिषेध की मुख्यता पोणता करके यह सप्तभंगी वाणी 'स्यात्' पद रूप सत्यमंत्र से एकांन्तरूप खोटे नामरूपी विषमोह को दूर करती है।" सत्य न तो सम्मान सत्ताईस रूप है और न असन्मात्र सर्वचा अभाव रूप है, क्योंकि परस्पर निरपेक्ष सतत्व और असत्तत्व दिखाई नहीं पड़ता- किसी भी प्रमाण से उपलब्ध न होने के कारण उसका होना असम्भव है। हाँ सत्यासत्य से विभिन्त परस्परापेक्षरूप तत्व जरूर देखा जाता है और वह उपाधि के स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप तथा परद्रव्य, क्षेत्र, काल, धाव रूप विशेषणों के भेद से है अर्थात सम्पूर्ण तत्व स्यात् सत् रूप ही है । स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा स्वात् स रूप ही है पर असत् रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा, स्पातु उभयरूप ही है, स्वपररूपादि चतुष्टयद्वय के माथा की अपेक्षा स्वात् अना
रूप ही है। स्वपररूपादि चतुष्टय द्वय के सहार्पण की अपेक्षा, स्वात्सववाच्यरूप ही है स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा तथा युगपत्स्वरूपादि चतुष्टयों के कचन की नाति
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जैन दर्शन में सप्तमंग-बार की अपेक्षा स्यात् असहाच्यरूप ही है, पररूपादि चतुष्टय और मिथ्या अनेकान्त । प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु से की अपेक्षा तथा स्वपररूपादि चतुष्टयों के युगपद् कहने की एक देश को हेतु विशेष की सामर्थ्य की अपेक्षाहण अशक्ति की अपेक्षा, और स्याद-सदसदवाच्यरूप है। क्रमा करने वाला सम्यक् एकाना है और एक सर्वया पित स्वरूपादि चतुष्टय तय की अपेक्षा तथा सहार्पित उक्त अवधारण करके अन्य सब धर्मों का निराकरण करने वाला चतुष्टय दय की अपेक्षा । इस तरह तत्व सत् असत् आदि मिथ्या एकान्त है। एक वस्तु में युक्ति और आगम से विमिश्रित देखा जाता है।" स्वयंभूस्तोत्र में आचार्य अविरुद्ध प्रतिपक्षी अनेक धर्मों का निरूपण करने वाला समंतभद्र ने सुविधिनाम की स्तुति करते हुए कहा है कि सम्यक् बनेकान्त है । तत् और बत्तत्स्वभाव माली वस्तु से आपने अपने मान तेज से उस प्रमाण सिद्ध तत्व का प्रणयन शून्य काल्पनिक अनेक धर्मात्मक जो कोरा वा गार है किया है प्रोसत, असत् मावि रूप विवक्षितावक्षित स्व- वह मिथ्या अनेकान्त है । सम्यक् एकान्त को पहले है भाव को लिये हुये है और एकान्त दृष्टि का प्रतिषेधक है। बोर सम्यक् बनेकान्त को प्रमाण कहते हैं। नव कोमेक्षा सम्यक् अनुभूत तत्व का प्रतिपादक 'तदतत्स्वभाव' जैसा से एकान्त होता है क्योकि एक ही धर्म का निश्चय करने पद आपसे भिन्न मत रखने वाले दूसरे मत प्रवर्तको के की ओर उसका झुकाव होता है और प्रमाण की वोका से द्वारा प्रणीत नहीं हुआ है।" जैन शासन में वस्तु कचित् अनेकान्त होता है क्योकि यह भनेक निश्पयों का आधार सद ही है, कम्चिद् असद् ही है इस प्रकार अपेक्षाभेद है। यदि अनेकान्त को अनेकान्त रूप ही माना जाय और से वस्तु उभयात्मक और अवाच्य भी है। ना की अपेक्षा एकान्त को सर्वथा न माना जाय तो एकान्तकापाव से वस्तु सत् आदि रूप है सर्वथा नहीं।" अनेकांत में भी होने से एकान्तों के समूह रूप अनेकान्ता भी समान हो सप्तमजी अवतरित होती है ।" यथा स्यादेकान्त, स्यादने जाये जैसे शाखा, व पुष्प, मादि के अभाव में वृक्ष का कान्त, स्वादुभय, स्यादवक्तव्य, स्यादेकान्त अवक्तव्य, अभाव अनिवार्य है तथा' यदि एकान्त को ही मावाच्य स्यादवेकान्त अवक्तव्य और स्यादेकान्त अनेकान्त अव- तो अविनाभावी इतर सब धर्मों का निरूपण करने के क्तव्य । ये भज प्रमाण और नय की अपेक्षा से घटित होते कारण प्रकृत धर्म का भी लोप हो जाने से सर्वसोपा हैं। एकान्त दो प्रकार से है, सम्यक् एकान्त और मिथ्या प्रसग होता है इस कारण बनेकान्त में सप्तमली है। . एकान्त अनेकान्त भी दो प्रकार का है-सम्यक् अनेकांत
संदर्भ-सूची १.बैन रन-मो० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य पृ४६८। ६. तत्वार्थवानिक सं. प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ४२ २. तत्वार्य लोक का० सूत्र १-६ १९२८ ।
१० तत्वार्थ वार्तिक ४।४२ । ३. प्रसनक्शावकस्मिन् बस्तुन्यविरोधेन विधि प्रतिषेध ११. सप्तभङ्गी तरंगिणी-विमसदास,प्र० रायचन्द्र शास्त्र
कलमा सप्तमजी।सत्वार्थ राजवा० १-६ पृ० ३३ माला । पृ० ३३ । ४. प्रवचनसार गाथा २०१३ ।
१२. तत्वार्थ श्लोक वार्तिक पृ० १३२ । - - m antणोतलिये। १३. जैन न्याय-4. कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ. ३२५-३२६ दव्य खु सव्वंभंग आदेसबसेण संभवति । पंचास्ति० १४. आप्तमीमांसा का.९-११।
१ण. वही का० १२। ६. समागतिक पृ० ३४३, पृ० ३३॥
१६-१७. वही का० १२॥ ७. बलहवी. १२५॥
१७. तत्वार्थ वार्तिक-सं० प्रो० महेन्द्रकुमार ४२ हि. कापोली श्रुवश्य को स्यावादलयमंशितो।
पृ. ४२८ । स्याहारः सकलादेशो नयो विकलसंकथा ॥ मधी- १८. समयसार-स्यावाद अधिकार, मदिसा मन्दिर प्रधपर-३२।
सन दिल्ली पृ० ५३८ । (शेष पृ० १४ पर)
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कमागत:
विश्व शांति में म० महावीर के सिद्धान्तों को उपादेयता
कु० पुखराज न
किया जाय
में यह पृथ्वा
तक माना
भौतिक सुख सुविधाओं के बीच पलने वाला व्यक्ति और सारी ही जिनवाणी का निर्माण तीर्थंकर महावीर की संतप्त है, हताश है भौतिक सुख-सुविधायें क्षणिक हैं इस- देशना से हुआ है। इसलिए महावीर के सिद्धांतों के साथलिए प्रति समय वह व्यक्ति अपनी मौत का अनुभव कर साथ जैन धर्म के सिद्धांतों का उल्लेख आये तो वह प्रसंग रहा है लेकिन उसे इच्छा है जीने की, दौड़ने की बजाय वश होगा। कुछ पल ठहरने की, जिससे उसकी सांस न फूलने पाए यदि जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धांतों को आत्मसात जिससे वह भावी जीवन का रास्ता तय करने के लिए किया जाये तो न केवल विश्वशांति स्थापित हो सकेगी शक्ति जुटा सके । व्यक्ति को युद्ध की दुनियां से निकाल- वरन् सच्चे अर्थों में यह पृथ्वी मनुष्य के लिए जीने योग्य कर सहज सुख शान्ति के संसार में प्रतिष्ठित करते हैं बन सकेगी। राधाकृष्णन ने तो यहां तक माना कि वे महावीर के सिद्धांत । इन सिद्धांतों को जीने से व्यक्ति इतिहास के सच्चे महापुरुष थे। प्राचीन भारत के निर्माण असुरक्षित न रहकर अभय व निर्भार होता जा रहा है। में भगवान महावीर का स्थान बहुत ऊँचा था और आधु
साथ ही हताश, दिग्भ्रमित व्यक्ति को सार्थक व सुख- निक भारत व आधुनिक मानव के निर्माण में जैन सिद्धांत पूर्ण जीवन जीने की कला (मार्ग) भी महावीर के सिद्धान्त आज भी सहायक सिद्ध हो सकते । प्रश्न उठता है हमारे धर्म बताते हैं । महावीर जिन धर्म मय हैं जिन वाणी के शब्दों का स्वरूप कैसा हो? हमारा दर्शन ऐसा हो जो मानव से महावीर के अङ्गों-प्रत्यङ्गों का निर्माण हुआ है। दूसरी मात्र को सतुष्ट कर सके। उसे शांति एवं सौहार्द का (पृ. १३ का शेषांश)
अमोघ मंत्र दे सके। इसके लिए मानवीय मूल्यों की स्था
पना करनी होगी भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की १९. प्रवचनसार-प्र० रायचन्द्र जैन शास्त्र माला पृ०१६२
प्रतिष्ठा करनी होगी। २०. न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेक मात्मान्तरं सर्वनिषेध गम्यम् ।
धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो प्राणी दृष्टं विमिश्रं तदुपाधि भेदात्
मात्र को प्रभावित कर सके। एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के
बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके। ऐसा दर्शन स्वप्नेऽपि नैतत्वदृषेः, परेषाम् ॥३२
नहीं होना चाहिए जो आदमी आदमी के बीच दिवारें युक्त्यनुशासनः समन्तभद्र पृ० ३६-३७ !
खड़ी करे । धर्म एवं दर्शन को आधुनिक मूल्यों, स्वतन्त्रता २१. एकान्तदृष्टि प्रतिषेधितत्व प्रमाणसिद्धं तदतत्स्वभाव ।
समानता, विश्व बन्धुत्व तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों त्वया प्रणीतं सुविधे स्वधाम्न नैतत्समालीढ़
का विरोधी होना चाहिये। पदंत्वदन्य। स्वयम्भूस्तोत्र ॥९ पृ. ३६ ।
इन सभी तत्वों का सुन्दर समन्वय जैन धर्म एवं दर्शन २२. कञ्चिद् ते सदेवेष्टं कथंचिदसदैव तत् ।
में देखने को मिलता है। सामाजिक समता एवं एकता की तयोभयमवाच्यं च नययोगाच्च सर्वथा ॥१-१४॥
दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है। इस परम्परा आप्तमीमांसा तत्वदीपिका पृ० १४२। में मानव को मानव के रूप में देखा गया। मानव महिमा २३. तत्वावतिक पृ० ३५ ।
का जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह अन्य -बिजनौर किसी दर्शन में नहीं। भगवान महावीर ने आत्मा की स्व.
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विश्व शान्ति में भ० महावीर के सिवान्तों की उपादेयता
तन्त्रता की प्रजातंत्रात्मक घोषणा की। उन्होंने एक बहु- व्यक्ति अहिंसक अपने आप हो जाता है। अहिंसा केवल मूल्य सिद्धांत का शंखनाद किया, अस्तित्व की दृष्टि से निवृति परक साधना नहीं, यह व्यक्ति को सही रूप में सभी जीव स्वतन्त्र व आत्मशक्ति की अपेक्षा समान है। सामाजिक बनाने का अमोघ मन्त्र है। हिसा व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्म है। मानस से सीधा सम्बन्ध रखती है मानसिक हिंसा का दोष जीव अपने ही कारण से संसारी है और अपने ही कारण द्रव्य हिंसा से कम नही। हिंसा से पाशविकता का जन्म मुक्त हो जायेगा।
होता है अहिंसा से मानवीयता व सामाजिकता का । भगवान मानवतावादी थे। वे जाति को मल्य नही भीतर मे चलने व पलने वाली हिंसा बाहर की हिंसा देते थे। सम्प्रदाय व जाति से हटकर उनका धर्म राज- से कहीं अधिक भीषण व खतरनाक होती है। बाहर की मार्ग से जाता है। इस राजमार्ग पर सभी को चलने का हिंसा हमे उतना नही जलाती जितनी की भीतर की हिंसा समान रूप में अधिकार है। महावीर के धर्म को हम जोड़ने पल-पल मे तिल-तिलकर हमे जलाती है। वर्तमान में चलने वाला धर्म कहेंगे, यह विभिन्न जातियों एवं धर्मों को जोडता वाले शीत युद्ध इसलिए सबसे अधिक खतरनाक तषा है। सबको एक साथ मिलकर चलने, रहने व जीने का भीषण है कि वे हमें ही नही हमारी संस्कृति को भी धीरेअधिकार देता है। यह प्राणी मात्र का धर्म है सभी प्राणियों धीरे मिटाते जा रहे हैं, बाहर से भले ही वे क्रूर व बर्दनाक मे एक जैसे सुख-दुख की बात करने वाला धर्म है। न दिखते हो किन्तु उनमें निरन्तर हिंसा का लावा धधकता
भगवान ने समस्त जीवो पर मंत्री भाव रखने एव रहता है। समस्त ससार को समभाव से देखने का निर्देश दिया। हम नहीं जानते कि आने वाला कल कैसा होगा, उन्होने कहा जाति की कोई विशेषता नही । प्राणी मात्र किन्तु हमें यह प्रत्यक्ष रूप मे दिखलाई पड़ रहा है कि हिंसा आत्मतुल्य है इसलिये सबके प्रति मैत्री भाव रखे। यह के नित नए औजार बनते जा रहे हैं। इनके प्रयोग करने आन्तरिक समानता का धर्म है । अहिंसा धर्म का अनुयायी के तरीके बदलते जा रहे हैं, जब तक राग-द्वेष की भट्टी वही बनता है जिसके अन्तःबाह्य दोनो समता पर अब जलती रहेगी तब तक मनुष्य दमन, शोषण व अत्याचार लम्बित हो।
से विमुक्त नही हो सकता। अध्यात्म ही उसे सुख व शांति ___अखिल विश्व के पाप समूह एव अश:ति के कारणों प्रद
प्रदान कर सकता है। जिस किसी भी क्रिया के साथ राग को यदि वर्गीकरण किया जाय तो पांच होगे। हिंसा मूठ,
द्वेष मूलक आवेश होगा वहाँ नियम से प्रतिक्रिया होगी चोरी, कुशील व (अत्यधिक) परिग्रह । आज जो सर्वत्र
और प्रतिक्रिया पुन. प्रतिक्रिया को जन्म देगी। इस प्रकार अशांति व्याप्त है वह केवल इन पाच अनैतिक कारणो से हिंसा युद्ध-संघर्ष तथा अशांति से शांति व सुख मलक है। बहुमुखी पतन एवं अशाति की विभीषिका मे अहिंसादि समाधान नहीं होगा । यदि हम वास्तविक शांति चाहते हैं पांचों सिद्धांत अवश्य ही सम मार्ग का प्रदर्शन करते हैं। तो अहिंसा व साम्पभाव के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। उनके सर्वोदयी आदर्श सिद्धांत स्वस्थ समाज राष्ट्र तया जहां राग-द्वेष का भाव उत्पन्न होता है वहां हिंसा विश्व का निर्माण कर सर्वत्र शान्ति स्थापित कर सकते हैं हुए बिना नहीं रहती इसलिए यदि हम वस्तुतः समस्या का इसमें सन्देह नही ।
समाधान करना चाहते हैं तो सदा सदा के लिए यही अहिंसा:-जीन का विधानात्मक मूल्य-भगवान अभ्यास करना चाहिये कि राग-नेष किसी प्रकार उत्पन्न महावीर ने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति के चित्त को न हो। बहुत गहरे से प्रभावित किया । जब व्यक्ति सभी जीवों को अहिंसा व समता एक सिक्के के दो पहलू है मन में सम भाव से देखता है तो राग-द्वेष का विनाश हो जाता है यदि अहिंसा का भाव होगा तो जगत के सभी जीवों पर सम भाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास होने पर समदृष्टि हुए बिना न रहेगी। उसमें छोटे बोकेरका
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१६
३५, कि०१
अनेकान्त
.
अवकाश नहीं होगा। सम का अर्थ है मन की तराजू के हुए। आत्म-बोध होते ही समस्त वैभव विलास को जीणं पलड़ों का समान रहना (न रागन द्वेष, न आकर्षण न तृणवत छोड़कर बनवासी हो गये। निजी जैन धर्म प्राणी मात्र को एक आंख से देखता आज हम कितने उन्मुक्त, स्वच्छन्द व मर्यादाहीन हो है, पीटी से लेकर हाथी और देव से लेकर दानव । यहाँ गये किमी में किया । तक कि सूक्ष्म एकैन्द्रिय जीव (पृथ्वीकाय, जलकाय आदि) बड़ा कारण यही अनुशासनहीनता है। अनुशासन आत्मको भी प्राणों के विछोह के समय दुख का वेदन होता है। संयम जैन धर्म का परम आदर्श है। ब्रह्मचर्याणुव्रत का समता का यह मादर्श आज के संसार को बचाने में समर्थ पालन करने से व्यक्ति में अनुशासन व संयम का दीप है, यह शीतल जल का कार्य कर उस धधकती ज्वाला को प्रज्वलित हो सकता है। बुझा सकता है।
___ आज विश्व में अशांति का एक प्रमुख कारण परिग्रह 'परस्परोपग्रह जीवनाम्' का सन्देश हमें महावीर ने है। परिग्रह हमें अंधा बनाता है। स्वार्थी बनाकर केवल दिया। इस सन्देश में सभी जीवों के साथ उपकार करने अपने लिए धन संग्रह के लिए प्रेरित करता है। अधिको एक साथ जीवन-यापन करने की बात कही। अहिंसा काधिक संग्रह से मूल्य बढ़कर मुद्रास्फीति की समस्याएं के पौधे से सहअस्तित्व का पुष्प पल्लवित होता है आज पैदा होती है। बड़े देश छोटे देशों का शोषण करते हैं। के विश्व में जब अहिंसा की भावना ह्रास को प्राप्त हो शोषण की इस प्रवृति को; परिग्रह की इस दुर्भावना को रही है तो स्वाभाविक रूप से यह सहअस्तित्व का पुष्प अपरिग्रह अर्थात आवश्यकतानुसार परिग्रह से नष्ट किया पूर्ण विकसित नहीं हो रहा । विश्व इस पुष्प की सुवास से जा सकता है और संसार में विश्वव्यापी शांति स्थापित की बहत कुछ रीता होता जा रहा है। आज के तथाकथित जा सकती है। अहिंसक व्यक्ति अपरिग्रह वादी होता है, बडे राष्ट्रों को यह सहन नही हो पा रहा है कि छोटे राष्ट्र अहिंसा की भावना से प्रेरित व्यक्ति अपनी आवश्यकता को अधिकाधिक विकास करके उनकी लाइन में खड़े हों क्योंकि उसी सीमा तक बढ़ाता है जिसमें किसी अन्य प्राणी के इससे उनके निहित स्वार्थ टकराते हैं, छोटे राष्ट्रों पर बड़े हितों को आधात न पहुचे। केवल अधिक उत्पादन मात्र से राष्ट्रों का वह दबदबा महीं रह पाता।
हमारी सामाजिक समस्यायें नही सुलझ सकती। व्यक्ति
को अन्दर से बदलना होगा, उसकी कामनाओं, इच्छानों आज पाश्चात्य सभ्यता के मर्यादा बिहीन जीवन-मूल्य
को सी मत करना होगा । कामनाओ के नियन्त्रण की शक्ति सम्पूर्ण विश्व को सक्रामक रोग की तरह असते जा रहे हैं।
या तो धर्म मे है या शासन की कठोर व्यवस्था में । धर्म आज के व्यक्ति के लिए संयम व मर्यादा का कोई मूल्य
का अनुशासन आत्मानुशासन है, इसके प्रतिबन्ध प्रसन्नता नहीं। वह वासना के लिए नारी का भोग करता है उसे
देने वाले होते हैं । संयम परिलौकिक आनन्द के लिए नहीं, भोग सामग्री के अतिरिक्त कुछ नही समझता । यह नारी
वर्तमान जीवन को सुखी बनाने के लिए भी आवश्यक है। का परिग्रह है, परिग्रह धन का ही नहीं, मनुष्यों का भी
पाश्चात्य सभ्यता निर्वाध भोगों में रत है फिर भी वहां देखने में आता है (दासता के रूप में) और नारी का परि
जीवन में सत्रास, अविश्वास, वितृष्णा एवं कुंठामें हैं। ग्रह भोग व दहेज के रूप में होता है । दहेज कम लाने पर उसे जीवित जलाया जाता है। कामुकता व वासना की पंक स्वस्थ समाज व राष्ट्र के निर्माण के लिए पारस्परिक से निकलने के लिए जैन धर्म का ब्रह्मचर्य सहायक है । ब्रह्म स्नेह सौजन्य तथा एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझना चर्य संयम सिखाता है लेकिन उसमें नारी-प्रेम व नारी- आवश्यक है। महावीर ने नवीन विचारशैली का आवि. सम्मान गभित है। हम पुराणों को उठाकर देखें तो विदित कार किया जिसे अनेकांत कहा गया। इसे वैचारिक होगा कि महापुरुषों ने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में राज्य- अहिंसा भी नाम दिया जा सकता है। अहिंसक व्यक्ति कार्य करते हुए पंचेन्द्रिय सुख भोगे पर उनमें मोहित नही आग्रही नही होता । अनेकांत व्यक्ति के अहकार की मक
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विश्व शान्ति में भ० महाबोर के सिवान्तों की उपादेयता
झोरता है उसकी आत्यान्तिक दृष्टि के सामने प्रश्न चिन्ह विकास कर सकता है कि पामर आत्मा परमात्मा बन लगाता है। इस विचार शैली में उदारता, व्यापकता, सहि- जाता है, तीन लोक का स्वामी बनकर अनन्तकाल के लिए ष्णुता है जिससे दूसरे के दृष्टिकोण को समझा जा सके। अनन्त सुख का पान करता है। इससे समझौते की भावना उत्पन्न होगी। दूसरे के प्रति
जैन तीर्थङ्करों का इतिहास व जीवन आकाश से पृथ्वी आदर व प्रामाणिकता का भाव उत्पन्न होगा।
पर उतरने का नही अपितु पृथ्वी से ही आकाश की ओर स्यादवाद अनेकांत का समर्थक उपादान है। सत्य कथन जाने का उपक्रम है। नारायण को नर का शरीर धारण को वैज्ञानिक पद्धति है । आग्रहों के दायरों में सिमटा जो नही करना पड़ता वरन् नर ही नारायण बनता है। मानव था उसकी अंधेरी कोठरी को अनेकांतवाद ने अनन्य
महावीर ने अपनी जीवन साधना द्वारा प्रत्येक व्यक्ति लक्षण सम्पन्न सत्य प्रकाश से आलोकित किया, आग्रह एवं
को यह प्रमाण दिया कि यदि वह साधना कर सके, राग, असहिष्णुता के दरवाजों को स्याद्वाद् की चाबी ने खोल
द्वप को छोड सके तो कोई ऐसा कारण नही कि वह प्रगति दिया । यदि हम प्रजातन्त्र मे वैज्ञानिक पद्धति से सत्य का
नहीं कर सके। जब प्रत्येक व्यक्ति प्रगति कर सकता है साक्षात्कार करना चाहते हैं तो उसका साधन अनेकांत
और तत्वत. कोई किसी की प्रगति मे बाधक या साधक दृष्टि व स्याद्वाद प्रणाली होगी।
नही तो फिर सघर्ष का प्रश्न ही कहां उठता है । इस तरह जैन शाश्वत जीवन पद्धति तथा जड एव चेतन के उन्होने एक सामाजिक दर्शन दिया। रहस्यो को जानकर आत्मानुसधान की प्रक्रिया है। व्यक्ति
___व्यक्तिगत स्तर पर आचार के लिए पाच अणुव्रत, स्वयं अपने प्रयासो से ऊपर उठता है, यह एक क्रान्तिकारी
विचार के लिए अनेकात व वाणी के लिए स्याद्वाद का विचार है। इसको यदि हम आधुनिक सन्दर्भो मे व्याख्यापित कर सके तो निश्चित रूप से विश्व के ऐसे समस्त
जीवन में समावेश हो। सामाजिक स्तर पर विचार सहिप्राणी जो धर्म और दर्शन से निरन्तर दूर होते जा रहे है
ष्णुता समान अधिकार व्यक्ति स्वानाय की स्वीकृति
आतरिक मामलो मे हस्तक्षेप आवश्यक है। समाज रचना इनसे जुड़ सकते है।
ऊपर से लदनी नही चाहिए । किन्तु उमका विकास सहभगवान महावीर का दूमरा क्रान्तिकारी विचार है
योग पद्धति से सामाजिक भावना की भूमि पर होना कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु आचरण से महान बनता है
चाहिये तभी सर्वोदयी समाज की रचना हो सकती है। इस सिद्धान्त के आधार पर उन्होने मनुष्य समाज की
जब तक इन सर्वपमता मूलक अहिंमक आधारों पर समाज दीवारों को तोड फेका । आज भी मनुष्य मनुष्य के बीच
रचना का प्रयास न होगा तब तक विश्व शान्ति स्थापित दीवारी को तोड़ डालता है। इस सिद्धान्त से जातिगत
न हो सकेगी। तीर्थकर महावीर और बोधिसत्व बुद्ध के विष जिसने समाज की शान्ति मे एक विष घोल रखा है,
देश भारत मे पंचशील व गुट निरपेक्षता की नीति अपदूर हो सकता है। तीसरा महत्वपुर्ण विचार यह है कि
नायी है और इसके पीछे भावना है मानव के सम्मान व प्रत्येक व्यक्ति समान है, ऊचा उठ सकता है और परमात्मा
अहिंसा मूलक आत्मौपम्य की हार्दिक श्रद्धा । जीवन का बन सकता है। महावीर ने मानवीय महिमा का जोरदार
सामन्त्रस्य, नव समाज निर्माण और विश्व शांति का यही सपर्थन करते हुए कहा कि जिस साधक का मन धर्म में रमण करता है उसे देव भी नमस्कार करते है। इसे यदि
मूल मन्त्र है, इसका नाम लिए बिना कोई विश्व शांति आध्यत्मिक भाषा मे कहा जाए तो सम्यक दृष्टि श्रावक
की बात भी नही कर सकता । को देवताओं के राजा इन्द्र नमस्कार करते हैं, महिमावन्त
-२ घ २७, जवाहर नगर, होते हैं। व्यक्ति अपनी ही जीवन साधना द्वारा इतना
जयपुर
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अध्यात्म-ष्टि
विवेकी विद्वानों के लिए
'प्रपदेस संत मज्भ
0 महाचन्द जैन
समयसार ग्रन्थराज की पन्द्रहवीं गाथा के विषय | ही अवस्थायें पर्याय अपर्याय अपेक्षा से कहने में आती में अनेक विद्वानों के विभिन्न विचार दृष्टिगोचर हो रहे है अर्थात असंख्यात प्रदेशी और अप्रदेशी अवस्था हैं। जिन शासन के समीचीन सिद्धान्त का अपलाप न हो का पर्याय भेद ही है। प्रदेशत्व गुण की व्यजन पर्याय इसलिए इस गाथा के सम्बन्ध मे विवेकी विद्वानों के विचा- पर अपेक्षा (आकाश द्रव्य के प्रदेशो की अपेक्षा) से राथं कुछ तथ्य रख रहा हूं, आशा है इन पर अवश्य ही तो असंख्यात प्रदेशी है तथा स्वयं अपनी अपेक्षा से अप्रसर्वागीण रूप से चिन्तन किया जावेगा।
देशी है लेकिन फिर भी शुद्धात्म स्वरूप ज्ञायक स्वभाव पन्द्रहवीं गाथा वस्तुपरक न होकर प्रयोजन परक शाश्वत निरपेक्ष ही है, वह तो वही है। गाथा है तथा इसका प्रयोजन भेद कल्पना निरपेक्ष निरंश
आचार्य महाराज ने पर्याय भेदो का छठवी गाथा मे अखण्ड निज शद्वात्म स्वरूप ज्ञायक स्वभाव का अनुभव निषेध करने के पश्चात सातवे गाथा में गूण भेदो का भी करना है।
निषेध करके यह सिद्ध कर दिया कि आत्मा मे अनन्त कुछ विद्वान इस गाथा मे आये हुए अपदेस शब्द का
गुणों का भेद भी नही है तब फिर पन्द्रहवी गाथा अखण्ड अर्थ अप्रदेश करके आत्मा को अप्रदेशी सिद्ध करने में लगे
और निरश निज शुद्धात्म स्वरूप ज्ञायक स्वभाव के अनुहुए हैं तथा कुछ विद्वान आगम अनुसार आत्मा के असं
भव के लिए निर्देश है उसमें असख्यात प्रदेशी और अप्रत्यात प्रदेशी होने के कारण इसका निषेध कर रहे है, देशी अवस्था की नर्माता :
देशी अवस्था की चर्चा करना, व्यर्थ की चर्चा नहीं है तो जबकि आत्मा के अप्रदेशी अथवा असख्यात प्रदेशी होने और या है? का कथन तो वास्तव में पर्याय अपेक्षा से होता ही है। पर्याय भेद को गोण करके निज शुद्धात्म स्वरूप ज्ञायक पन्द्रहवी गाथा मे असख्यात प्रदेशी और अप्रदेशीपने स्वभाव का अनुभव करने के लिए पर्याय भेद का निषेध का कथन नही होने पर भी जो खीचतान करके जबरतो श्रीमद कुन्दकुन्दाचार्य महाराज ने छठवीं गाथा में प्रमत्त दस्ती से अपदेस शब्द का अर्थ अप्रदेश करते हैं, वह इस भी नहीं है और अप्रमत्त भी नही है कह कर किया था गाथा के तात्पर्य के साथ किस प्रकार से संगत बैठ सकती क्योंकि ये दोनो अवस्थायें पर्याय अपेक्षा से कहने में आती है, यह विचारणीय है । इस गाथा में प्रयुक्त "अप्रदेश संत है। पर्याय पर की अपेक्षा से प्रमत्त तथा स्व की अपेक्षा मज्झ" का अर्थ अप्रदेशी शान्त अंतस्तत्त्व में करने से क्षेत्र से अप्रमत कहलाती है लेकिन फिर भी शुद्धात्म स्वरूप अपेक्षा कथन हो जाता है जो कि भेद रूप विकल्पात्मक शायक स्वभाव निरपेक्ष ही है, वह तो वही है। अवस्था का ही कथन है। इसी प्रकार सत शब्द का अर्थ
इसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी और अप्रदेशी अवस्था शांत करना भी तर्क संगत नही है क्योकि सत का वास्तको भी 'छठवीं गाथा के अनुसार घटित किया जावे तो विक अर्थ तो अत सहित होता है, शात नहीं इसलिए पहा इसका तात्पर्य होता है कि आत्मा असंख्यात प्रदेशी वास्तव में या तो किसी के अन्त का अथवा किसी के अन्त भी नही है और अप्रदेशी भी नहीं है क्योंकि ये दोनों सहित विषय का विचार करना चाहिए ।
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विवेकी सिानों के लिए
"अपदेश संतमम" का अर्थ अप्रदेश के अन्त सहित पना और स्व अपेक्षा से अनन्यपना स्वयं शान स्वभाव का अन्तस्तत्व में करना भी यहां संगत नही है अतः अपदेस ही स्वपर प्रकाशक स्वभाव है अर्थात शान स्वयं को जानता शब्द में अप को देश का उपसर्ग मान कर (अपमान और हुआ भी शेयाकार को भी जानता रहता है, इसलिए शेयाअपराध शब्द के अर्थ की तरह से) देश से परे अपदेस कार रूप उपचरित पर पद (अपदेश) स्वयं मान स्वभाव समझा जाय तो अधिक युक्ति संगत होगा, तब इसका अर्थ का ही परिणमन होने पर भी ज्ञेय का उपचार अर्थात शेय (स्व क्षे-स्व स्थान-स्व पद) से परे अपदेश (पर क्षेत्र का विकल्प होने के कारण शेयाकार नाम पाता है अतः पर स्थान पर पद) के अन्त सहित अन्तस्तत्व में होता यह भेद कल्पना की अपेक्षा का ही कथन है लेकिन पंद्रहवीं है और यह अर्थ अप्रदेशी शांत अन्तस्तत्व मे अथवा अप्र- गाथा तो भेद कल्पना निरपेक्ष स्वभाव निर्देश करने वाला देश के अन्त सहित अन्तस्तत्व में की अपेक्षा निज शुद्धात्म है। उसमें द्रव्य-भेद, क्षेत्र-भेद, काल-भेद तथा भाव-भेद स्वरूप ज्ञायक स्वभाव की स्वानुभूति के अधिक निकट होने भी नहीं होना चाहिए इसलिए ऐसी भेद कल्पना निरपेक्ष से इसकी सही समझ पूर्वक अन्तस्तत्व का आगम अनुसार स्वभाव निज अन्नम्तत्व कैसा है यही यह गाथा इंगित कर युक्ति एवं तर्क सहित सही अनुमान होकर स्वानुभव की रही है। प्राप्ति हो सकती है। ___अपदेस (पर पद) के अन्त सहित निज पद (अंतस्तत्व)
अपदेश संत शब्द मज्झं (अन्तस्तत्व) का विशेषण में का विश्लेषण करने पर यह अपदेस क्या है प्रश्न उठना
होने से मज्झं का सूचक है तथा अन्तस्तत्व शब्द स्वयं भी भी स्वाभाविक ही है। इस प्रश्न का समाधान सम्यक
किसी अन्त का सूचक है। जयसेनाचार्य ने अपदेश का अनेकान्त के द्वारा किया जावे तो निज पद (अन्तस्तस्व)
स्पष्टीकरण इसी गाथा की टीका में "अपदिश्यतेअर्थो" येन रूप ज्ञायक स्वभाव पर की अपेक्षा से ज्ञेयाकार तथा स्व
स भवत्वपदेशः शब्द द्रव्यश्रुतमिति द्वारा किया है अर्थात की अपेक्षा से ज्ञानाकार रूप है। तथा ज्ञेयाकार मे ज्ञेय का
जिसके द्वारा अर्थ निर्देशित किये जायें सो अपदेश है यह विकल्प (उपचार) करने के कारण पर पद का आरोप शब्द अथात द्रव्य श्रुत ह ।
आता है अर्थात ज्ञेयाकार ज्ञान स्वय स्वभाव का परिणमन टीकाकार आचार्यों के कथन का मिलान करके उनके होने पर भी ज्ञेय का विकल्प (निक्षेप) होने के कारण इसमें अनुसार इस गाथा के अर्थ का युक्ति एवं तर्क पूर्वक अनुमान पर पद (अपदेश) का उपचार (विकल्प-निक्षेप) किया करें तो ज्ञात होता है कि शायक स्वभाव रूप भाव श्रुत जाता है। तात्पर्य यही है कि ज्ञेयाकार ज्ञान, स्वयं ज्ञान ज्ञान ही ज्ञेय अपेक्षा से शेयाकार तथा शान अपेक्षा से स्वभाव का ही परिणमन होने से वास्तव में ज्ञान स्वभाव ज्ञानाकार होने पर भी यह भेद कल्पना निरपेक्ष मावश्रुतका व्यवहार तो अवश्य है लेकिन ज्ञान स्वभाव का उपचार ज्ञान रूप निज अन्तस्तत्व का कथन नहीं बन सका क्योंकि (विकल्प-निक्षेप) नही होने के कारण वास्तविक पर पद इसके भेद करके समझाने पर प्रयोजन वश क्रमवर्ती जया(अपदेश) नही हो सकता अतः ज्ञेयाकार ज्ञान का अन्ताप कार रूप विशेष उपचरित पर पद के तिरोभाव का और अभाव नही मान कर प्रयोजन वश गोण रूप अभाव अर्थात अक्रमवर्ती ज्ञानाकाररूप निर्यम सामान्य (स्व-पद) के आविनिराभाव ही मानना चाहिए। ज्ञेयाकार ज्ञान प्रति समय भव का अनुमान तो होता है लेकिन शेयाकार रूप उपबदलते रहने से अन्य अन्य होता रहता है लेकिन ज्ञाना- चरित पर पद का ही अनुभव करते रहने से जानाकार रूप कार ज्ञान शास्वत एक रूप रहने से अनन्य ही है । निज स्व पद के स्वाद का अनुभव नहीं होता है क्योंकि शेयाकार शुद्धात्म स्वरूप ज्ञान स्वभाव का ऐसा ही शास्वत स्वभाव रूप उपचरित पर पद अर्थात ज्ञेय के विकल्प का अनुभव होने के कारण इस अन्यपना और अनन्यपना में विरोध का करने वाले के साथ ही साथ भाव धुत ज्ञान के विकल्प मा भ्रम होने पर भी इस सम्यक अनेकान्तस्वरूप ज्ञान (उपचार-निक्षेप) रूप द्रव्यश्रुत ज्ञान (अंतर्जल्प एवं बहिस्वभाव में कोई विरोध नही है क्योंकि पर अपेक्षा में अन्य जल्प रूप शन्द शान) का भी अविनाभावी निमित्त नमत्तिक
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२०पर्व ३६ कि.१
सम्बन्ध होने के कारण भ्रमवश भावश्रुत शान रूप निज निमित नैमैत्तिक सम्बन्ध वाले वास्तविक अपदेश रूप द्रव्य अन्तस्तत्व का अनुभव नहीं होकर मात्र भावश्रुत ज्ञान के श्रुत शान अर्थात जल्परूप शब्द ज्ञान (भाव श्रुत शान के विकल्प रूप द्रव्य श्रूत ज्ञान अर्थात जल्प रूप शब्द का ही विकल्प) का अन्त होकर एकमात्र अक्रमवर्ती तिर्यग सामान्य अनुभव होता रहता है कारण जल्प रूप शब्द ज्ञान का उप- रूप भावश्रुत अर्थात अन्तस्तत्व रूप निज शुद्धात्म स्वरूप चार याने विकल्प भी ज्ञेयाकार रूप उपचरित पर पद में ज्ञायक स्वभाव ही अनुभव में आता है। यह अवस्था अनिही होता है।
वृतिकरण के समय सहज ही बनती है क्योंकि बाह्य प्रवृति
और बाह्य निवृति रूप विकल्प का अन्त होने पर ही अर्थात अनादि काल से इस अविनाभावी निमित्त नैमित्तिक
उपयोग के साथ मन वचन काय की प्रवृति और निवृति के सम्बन्ध की श्रङ्खला चालू रहने पर भी ज्ञेयाकार रूप भाव
विकल्प का अन्त होने पर ही याने निश्चय त्रिगुप्ति की श्रुत शान द्रव्य श्रुत ज्ञान (जल्प रूप शब्द ज्ञान) का तथा
आंशिक शुरूआत होने पर ही स्वानुभव रूप सेवा धर्म जल्प रूप शब्द ज्ञान (द्रव्य श्रुत ज्ञान) ज्ञेयाकार रूप भाव
होता है इसलिए त्रिगुप्ति कहो या अनिवृतिकरण कहो एक थत ज्ञान का आपस मे एक दूसरे का निमित होने के
ही बात है अतः इस पन्द्रहवीं गाथा में अपदेश का वास्तकारण एक दूसरे का निर्देश तो अवश्य करते है लेकिन
विक अर्थ द्रव्य श्रुत रूप शब्द (अतर्जल्प और बहिर्जल्प रूप एक दूसरे की उत्पत्ति बिल्कुल भी नही करते अर्थात एक
शब्द) ही तर्क संगत सही है। दूसरे के गमक रूप निमित कारण तो अवश्य है लेकिन एक दूसरे के जनक रूप उपादान कारण किंचित भी नहीं है उपरोक्त विवेचन अनुसार इस गाथा का भावार्थ इसलिए शेयाकार रूप भाव श्रुत ज्ञान मे द्रव्य श्रुत (जल्प निम्न प्रकार से बनता है। जो अबद्ध स्पष्ट, अनन्य, अविरूप शब्द) का विकल्प होने पर भी द्रव्य श्रुत रूप शब्द शेष तथा उपलक्षण से नियत एवं असंयुक्त आत्मा को ज्ञान (जल्प) का अन्त रूप अभाव होने के कारण यह अन्तस्तत्व के विकल्प रूप द्रव्य श्रुत (बहिर्जल्प और अन्तर्जल्प रूप रूप भाव श्रुत ज्ञान सदा ही अपदेश के अंत सहित अर्थात शब्द) के अन्त सहित अन्तस्तत्व रूप भाब श्रुत ज्ञान में दव्य श्रत ज्ञान रूप पद के अन्त सहित याने जल्प रूप देखता है व ज्ञाता का दृष्टा होने के कारण समस्त जिन शब्द से रहित ही है लेकिन भ्रम वश इससे विपरीत शासन को देखता है क्योंकि द्वादशांग वाणी रूपी उपचरित मानता हआ जीव मिथ्यात्वी होकर स्वयं ही अनन्त के साथ जिन शासन भी भावश्रुत ज्ञान रूपी वास्तविक जिन-शासन अनबद्ध करता हुआ अर्थात अनन्तानुबंधी कषाय के कारण का ही निर्देश करने वाली है। महान आकुलित हो रहा है।
विवेकी विद्वान इस गाथा का वास्तविक अभिप्राय भावश्रत एवं द्रव्य श्रुत के भेद को पडित प्रवर श्री समझ कर इसके अर्थ का निर्णय करके विकल्प रहित अंतजयचन्द जी छाबड़ा ने समयसार के मंगलाचरण में "शब्द स्तत्व में अबद्ध, स्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, नियत और असंबह्म परब्रह्म के वाचक वाच्य नियोग" कह कर स्पष्ट युक्त आत्मा के विकल्प का भी अंत करके निज शुद्धात्म किया है। इस भेद की यथार्थ समझ होने पर जब उप- स्वरूप ज्ञायक स्वभाव का अनुभव करेंगे इसी भावना के चरित अपदेश रूप ज्ञेयाकार ज्ञान अर्थात ज्ञान के क्रमवर्ती साथ । विशेष का प्रयोजन वश तिरोभाव होता है तब अविनाभावी
-इम्फाल (मनीपुर)
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विद्यानुवाद और कैंसर रोग
-वैद्य प्रभुदयाल कासलीवाल, भिषगाचार्य
जैन साहित्य एक सर्वांग साहित्य है। अनेक महा- बढ़ता जाता है लेकिन अग्नि किरणे शमन नहीं होती काव्य जैन कवियों द्वारा लिखे हए मिलते है। ज्योतिष- क्योकि अग्नि किरणे कार्य हैं कारण नही, कारण तो वह शास्त्र मे चन्द्र प्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति जैसे महान ग्रन्थ अग्निपिण्ड है जिसका उद्गम किसी अन्य स्थान पर हुआ जेन आचार्यों द्वारा लिखे गये हैं। गणित मे तो ऊचे से है। दाहमान क्रिया के शमन हेतु प्रकृति अपनी सम्पूर्ण ऊचा साहित्य जैन आचार्यों की ही देन है। ठीक इसी तरह शक्ति लगा देती है पर रोग पर विजय नहीं मिलती। यही आयुर्वेद मे भी जैन विद्वानो द्वारा अनेक ग्रन्थों का निर्माण कारण है कि कैसर रोग की प्रन्थि बढ़ती जाती हैं और किया गया है । वाग्भट जो कि आयुर्वेद का महान् ग्रन्थकार सम्पूर्ण शरीर दुर्बल होता जाता है। अग्नि किरणें आगेहुआ है वह एक जैन विद्वान था, इसको अनेक तथ्यों द्वारा आगे और ग्रन्थि पीछे-पीछे चलती रहती है। यदि अग्निप्रमाणित किया जा सकता है । मत्र शास्त्र मे विद्यानुवाद पिण्ड का नाश हो जावे तो किरणें रुक सकती हैं अन्यथा जैसे महान् अन्थ जैन शास्त्र भण्डारों में विद्यमान है। नहीं । विद्यानुवाद में कैंसर रोग का वर्णन किया गया है,
अग्नि किरणें इतनी सूक्ष्म होती हैं कि इन्हें देखा जाना ग्रन्थकार ने कैसर रोग का नाम ज्वालागर्दभ दिया है।
भी सम्भव नही है, फिर भी बहुत सूक्ष्म अध्ययन, प्रश्नों इस रोग का विश्लेषण इस प्रकार किया है
द्वारा लक्षणों के द्वारा अग्निपिण्ड का स्थान भी मालूम
किया जा सकता है। ___ज्वाला गर्दभ मनुष्य के शरीर में प्रकट होकर मानों
ज्वाला गर्दभ आठ प्रकार का होता है :मृत्यु का आह्वान करता है। यह रोग वेगो को रोकने से,
(१) कपिल, (२) पिंगल, (३) विजय, (0) कलहप्रकृति के प्रतिकूल पदार्थों का सतत सेवन, ईर्ष्या, द्वेष,
प्रिय, (५) कुम्भकर्ण, (६) विभीषण, (७) चन्द्रहास, (0) काम, मायाचारी आदि कषायो के कारण मनःस्थिति का .
दर्दुर। सन्तुलन अधिक समय तक बिगड़ जाना अधिक धूम्रपान
१. कपिल---यह ज्वालागर्दभ स्तन या उदर में होता अथवा ऐसे पदार्थों के सेवन से जो शरीर मे अग्नि पिण्डो है। का निर्माण करते हों-सेवन से उत्पन्न होता है।
२. पिंगल-यह ज्वाला गर्दभ शिर में निकलता है। उपरोक्त कारणो से शरीर के किमी भी भाग में एक तथा इसकी चिकित्सा निम्न प्रकार हैअग्निपिण्ड का निर्माण होता है, उस अग्निपिण्ड से आक की जड, प्रियंग, नाग केसर इन तीनों दवाइयों अग्नि किरणें शरीर के उसी अग में जहाँ वह को चावल के पानी से पीमकर सेवन करे नथा इनका ही अग्निपिण्ड पैदा हुआ है, अथवा किसी अन्य स्थान पर लेप करें। अग्निपिण्ड से प्रकट होने वाली किरणें शरीर के उस २ ३. विजय-नेत्र में पैदा होने वाले ज्वाला गर्दभ को अंग को जलाने लगती हैं। अग्नि किरणें प्रतिक्षण शरीर विजय नाम से पुकारते हैं । कनेर की जड़ को चावलों के के उस अंग को जलाती रहती हैं, बम यह ही ज्वालागर्दभ पानी में पीसकर लेप करें तथा सेवन करें। नाम का रोग होता है, इन दाहमान, किरणों की क्रिया- ४. जपादि स्थानों में पैदा होने वाले ज्वाला गर्दभ शक्ति को शमन करने के लिए प्रकृति एक ग्रन्थि का निर्माण का नाम कलह प्रिया नाम से कहा गया है। करती है, दाहमान क्रिया के शमन हेतु प्रन्थि का आकार
(शेष पृ. २८ पर)
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विचारणीय-प्रसंग
पचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
जिनवाणी अनेकान्तमय है और आचार्य अमृतचन्द्र जी "संकीर्णरस:'-संकीणीः व्याप्ताः रसाः यस्मिन् सः अनेकान्त वाद के ज्ञाता और परमोपासक । यही कारण है
(एतादृशः स्वभावः) कि उनकी रचनाओं में पग-पग पर इस वाद की गहरी जिसमें रस संकीर्ण-व्याप्त है वह (ऐसा स्वभाव) मलक मिलती है। वैसे आज भी नया बहुत कुछ लिखा जा शांतरसः'-शान्ताः निर्गताः रसाः यस्मात् सः (एतादृशः रहा है-बड़े-बड़े विद्वान् प्राचीन ग्रंथों की विस्तृत टीकायें
स्वभावः) और व्याख्यायें भी कर रहे है। उनके समक्ष हम जैसे मन्दों
जिससे रस शान्त हो गए-चले गए (ऐसा स्वभाव) का कुछ लिखना हास्यास्पद ही होगा। फिर भी हमे अपने विचार देने का कोई आदेश प्राप्त हुआ है अतः मन्तव्य
-बहुव्रीहि समासान्त उक्त दोनों रूपों को समरूप से लिख रहे है-जाता हमें स्खलन से संभाल लें-हमे कोई
दोनों स्थलों में अपनाने पर अर्थ युक्ति-संगत और ठीक बैठ हठ नही।
जाता है। ऊपर की पंक्ति मे अस्तिरूप और नीचे की
पंक्ति में नास्ति रूप। 'प्रनादि रक्तस्य तवायमासीत, यः एव संकीर्णरस: स्वभावः ।
यदि हम आ० अमृतचन्द्र जी की इस अस्ति और
नास्ति दृष्टि का ध्यान न रख, दोनों पदों के समासो में मार्गावतारे हठमाजितश्री
व्यत्यय करे अर्थात् भिन्न-भिन्न समासों का प्रयोग करें तो स्त्वया कृतः शांतरसः स एव ॥"
अस्ति और नास्ति दृष्टि का लोप ही होगा। 'जैसे कि उक्त काव्य 'लधुतत्त्वस्फोट' से है। इसमें आचार्य 'सकीर्णरस.' में बहब्रीहि का प्रयोग करना और 'शान्तरसः' अमृतचन्द्र जी ने आत्मा के स्वभाव का वर्णन रसों के अस्ति मे कर्म-धारय का प्रयोग करना आदि । कुछ लोग तत्पुरुष और नास्ति दोनों पक्षों की अपेक्षा से किया है। दूसरी समास भी कर रहे हैं। पंक्ति में 'संकीर्णरसः' पद रसो के अस्ति रूप को और चौथी पंक्ति में 'शान्तरसः' पद रसो के नास्ति रूप को
हाँ, यदि शांत-रस नामक रस की भांति कोई 'संकीर्ण
र रस' नामक स्वतन्त्र रस भी होता तब दोनों पदों में कर्मदर्शा रहा है। अर्थात् जो स्वभाव अनादि से रागी होने के रस कारण अनेक भौतिक रसों से व्याप्त था वह स्वभाव केवल
धारय समास भी चल सकता था। पर, संकीर्ण नाम का
कोई रस स्वतन्त्र नही है अतः उसमें कर्म-धारय का प्रश्न शानी (रागरहित) होने पर हठ पूर्वक उन रसों से शान्त
ही नही उठता। साथ मे ऐसा समास करने से समासों की अव्याप्त-रहित हो गया ।
एकरूपता का विरोध ही होगा । तथा ऐसा करने में एक प्रस्तुत काव्य का अर्थ करते समय हमे 'संकीर्णरस' तो मोनोस और 'शान्तरस.' दोनों पदो के विग्रह की एकरूपता का को"परिमाण" की तुला से नापेंगे और 'शांतरसः' में इसको ध्यान रखना चाहिए । बिना एकरूपता के स्याद्वाद-संमत "जाति" की तुला से नापेंगे, जबकि समास-समरूपता की शुद्ध अर्थ फलित होना असम्भव है। हमारा मत है कि दष्टि से दोनों स्थानो में सम-जातीय तुला से ही नाप होना उक्त दोनों पदों का विग्रह निम्न रूप में लेना युक्ति संगत न्याय्य है। ऐसा हमारा भाव है। फलत:-उत्तम यही है
नि यदि हमें आत्मा मैं रस मानने का आग्रह ही हो तो
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विचारणीय-प्रसङ्ग
उसके विकल्पातीत चंतन्य को ही रस मान ले। हमारे दरअसल बात ऐसी है कि जैसे कोई विवाहित पुरुष स्वी मत में शुद्ध आत्मा विकल्पातीत होने से न शातरस को को दुखदायी जान उसे छोड़ने का सकल्प कर बैठा और स्पर्श करती है और ना ही अशातरस को। वह तो मात्र उसे छोडकर साधु भी बन गया। उसने व्यक्ति-रूस स्वी 'चिदेकरसनिर्भरः'-एक चैतन्य रस पूर्ण है-जो है मो को तो छोडा, पर वासनावश स्त्री-जाति का मोह न न्यान है । फलत. जहाँ भी शान्त-रस जैसा कथन हो वहा सभी सका। फलत.-वासनावश मुक्ति में ही स्त्री की मूंठी प्रकार के रस शांत हो गए ऐसा अर्थ उचित है । शाति का कल्पना कर बैठा और सुखी होने लगा । जबकि मुक्तिभाव भी शान्तनामारस नही होना चाहिए। आत्मा, रस नामा कोई स्त्री ही नही है । कोरा संकल्प और मन की जैसे लौकिक अनुभवो से अतीत-मात्र चैतन्यही है। म्रान्ति है। वैसे ही शान्तरस की स्थिति है। ये भी संसारी
एक बात और । रस के प्रसंग में 'साहित्यदर्पणकार' जीवो की वासना द्वारा कल्पित भाव है जो शुद्ध जीवों में के मत मे "विभाव, अनुभाव सचारी भावो से अभिव्यक्त- भी कल्पित किया जाने लगा। वास्तव मे उनमें इसका पुष्ट स्थायी भाव रस है, जो कि मन वालो के होता है--- कोई अस्तित्व नही। यदि मुक्ति नामक कोई स्त्री हो तो "विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा। उसे खोजा जाय । रसतामेति रत्यादि स्थायीभावः सचेतसाम् ॥ जब हम 'अजयंष्टव्यम्' प्रसग पर विचार करते हैं तब
---साहि० दर्पण ३२ हमारे रोंगटे खड़े हो जाते है और सोचते हैं कि यदि उस इसका खुलासा भाव यह भी है कि रस का मूल समय आग्रह-वश 'अज' शब्द का अप्रासंगिक अर्थ 'बकरा' आधार मन की वासना है । जिनके मन नही होता उनके न हुआ होता तो धर्म में हिमा-रूप अनर्थ का प्रवेश न वासना नहीं होती और जिनके वासना नही होती उनके हुआ होता और ना ही लोगों को वीतरागी तीर्थकर की रस का अनुभव नही होता । वे तो रस के विषय में काष्ठ सर्व-तत्त्व-ममन्वित--विधि-निषेध रहित, निर्विकल्प, अभेददीवार और पत्थर की भॉति अकिचित्कर-निष्क्रिय होते अखण्डधारामयी दिव्यध्वनि को अहिंसा जैसे एकांगी सबिहै। तथाहि
कल्प उपदेश की प्रमुखता का रूप मानना पड़ा होता'न जायते तदास्वादो विना रत्यादि वासनाम।' जो कि लोगो द्वारा तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप अपनी 'सवासनानां सम्यानां रसस्यानुभवोभवेत् । कल्पना में मानना पडा और आज तक उसी मान्यता में निर्वासनास्तुरकान्तः काष्ठकुड्याश्मसन्निभा ॥' चला आ रहा है। लोग आज भी कहते हैं-'महाबीर ने
मे आत्म जहाँ परिस्थिति को देखकर उस समय अहिंसा का प्रमुख उपदेश मन ही नही है वहाँ यदि हम किमी रस की कल्पना करते दिया'-गोया, वीतरागी महावीर उस समय जीवों की है तो वह कल्पना 'खर-विषाणवन्' मात्र कल्पना और दया के प्रति रागी और जीवों की रक्षा के प्रति बेचन अकिंचित्कर ही होगी-वास्तविक नही । फिर शुद्धात्माओ हुए हों। समझ में नही आता कि वीतरागी ने विकल्पमे शान्त-रस की पुष्टि के लिए उसके मूल कारण विभाव, प्रेरित मात्र अहिमा जैसे किसी एक जातिरूप धर्म का उपअनुभाव और सचारी भाव भी कल्पित करने पड़ेगे और देश दिया हो? उनकी दिव्यध्वनि तो सर्वतत्त्व-समुदित मन भी कल्पित करना पड़ेगा, जिनका कि श्रद्धात्माओ मे निरक्षरी थी जिसे गणधर देव ने ही भेद-रूप मे गंथा। सर्वथा अभाव है। आशा है मनीपी विचारेगे और शुद्धा- 'गान्तरस.' पद भी ऐसा ही है, यदि प्रसग के अनुसार त्माओ को बिसगतियो से दूर रखने का प्रयत्न करेंगे- इमे निरास अर्थ में न लेकर शान्त-रस या शान्ति के अर्थ मे उनको सासारिक व्यवस्थाओ मे लौटाने का नही । अन्यथा लेने का विचार किया गया तो शुद्धजीवो मे भी रस हेतु से इसके दूरगामी-(मुक्ति से पुनरावृत्ति या अवतारवाद की ही विकार कल्पित करने पड़ेगे जैसे कि लोग आज मुक्ति-स्त्री पुष्टि जैसे) अनेक विरुद्ध परिणाम सिद्ध हो सकेगे जो जैन के सबंध में प्रसिद्ध करने लगे हैं। वे कहते है कि जब आगम के मूल पर चोट ही होगे।
जैनियो के मुक्त जीवों ने स्त्री को नहीं छोड़ा है-वे मुक्ति
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२४, बर्ष ३६ कि.१
अनेकान्त
का
स्त्री के सुख में मग्न हैं, तब हमें ही स्त्री से वैराग्य का सत्त-महाधवलप्रति के अन्तर्गत ग्रन्थ रचना के आदि उपदेश क्यों दिया जाता है आदि । आत्माके प्रसंग में शान्त में 'सन्तकम्मपंजिका' है। इसके अवतरण में 'सत्त' शब्द का प्रयोग विकारों के उपशम या अभाव के लिए ही शब्द भी मेरे देखने में आया है-'पुणोतेहितो सेसट्ठारहुआ है, इस पर फिर कभी सोद्धरण लिखेगे।
साणियोगद्दाराणि सत्तकम्मे सव्वाणि परुविदाणि ।'-यह 'संत'
'संतकम्मपंजिका' ताडपत्रीय महाधवल की प्रति के २७वें
पृष्ठ पर पूर्ण हुई है और षट्खंडागम पुस्तक ३ में इसका इस शब्द के सम्बन्ध में अब हम नया क्या लिखे? वे ही
चित्र भी दिया गया है। (देखें-प्रस्तावना, पखंडागम आचार्य वाक्य हमें प्रमाण हैं जिन्हें हम लिख चुके हैं। षट्खंडागम के सातवें सूत्र में 'संतपरुवणा' पद का
पुस्तक ३ पृ० १ व ७) अतः इस उद्धरण से इस बात में प्रयोग मिलता है। इसी पुस्तक के इसी पृष्ठ १५५ पर
तनिक भी सन्देह नही रहता कि प्रसंग मे 'संत' या सत्त
शब्द सत्त्व-आत्मा के अर्थ में ही है । और मजलं का अर्थ एक टिप्पश भी मिलता है जो तत्वार्थराज वा० के मूल का कुछ अंश है-'सत्वं ह्यव्यभिचारि' इत्यादि । ऐसे ही पट्
मध्य है जो 'आत्मा को आत्मा के मध्य अर्थ ध्वनित करता खंड़ागम के आठवे सूत्र मे 'सत' पद है। यथा-सतपरुवण
हुआ आत्मा से आत्मा का एकत्वपन झलका कर आत्मा को
अन्य पदार्थों से 'असयुक्त' सिद्ध करता है: दाए""' इसके विवरण में 'सत् सत्त्वमित्यर्य.' भी मिलता है। इसी पुस्तक में पृ० १५८ पर कही से उद्धृत एक गाथा एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमगर की भी मिलती है। यथा-'अत्थित्त पुणसत अस्थित्तस्स य गाथा २६ में 'अत्तमझ' पद का और समयमार की गाथा तहेव परिमाण ।" इस गाथा के अर्थ मे लिखा हैकि- १५ मे 'संतमज्म' या 'सतज्म' का प्रयोग किया है और अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाली प्ररूपणा को सत्प्ररूपणा नियमसार की उक्त गाथा की सस्कृत छाया में अत्तमज्झं कहते हैं । यहाँ भी 'सत' शब्द सत् अर्थ मे है ।
का अर्थ 'आत्म-मध्य' किया है । इसी प्रकार 'सतमज्झ' या उक्त पूरे प्रसग से दो तथ्य सामने आते है। पहिला 'सत्तमज्झ' की सस्कृत छाया भी सत्मध्य या सत्त्वमध्य है यह कि सभी जगह 'सत' का प्रयोग 'सस्कृत के 'सत' शब्द यह सिद्ध होता है। के लिए हुआ है। यह बात भी किसी से छिपी नही कि विशेषावश्यक-भाष्यकार 'सत' का अर्थ 'सत्' कर रहे 'संतपरूपणा' मे उसी 'सत्' का वर्णन है जिसे तत्त्वाथ सूत्र- इसे भी देखि कार ने 'सत्संख्याक्षेत्र' सूत्र में दर्शाया है। यानी जिसे सस्कृत मे 'सत्' कहा वही प्राकृत मे 'सत' कहा गया है। अतः संतं ति विज्जमाणं एयस्स पयस्स जा पल्वया । सत का सत् स्त्रमावा. फलित है। दूसरा तथ्य यह कि गइयाइएस् वत्थुस संत पयपरवणा सा उ॥
र मन्त्र के भाव में है अत: सत. संत. सत्त्व. सत्त जीवस्स च जं संतं जम्हा तं तेहि तेस वा पयति । ये सभी एकार्थवाची सिद्ध होते है । पुस्तक के अन्त मे जो तो संतस्स पयाई ताई तेसु पल्वणया।' 'संतसुत्त-विवरण सम्मत्तं' आया है, उसमें भी 'संत' का
'संतस्य'-सतः पदानि तानि सत्पबानि तेषु प्ररूपणता प्रयोग सत् के लिए ही है।
सत्पवप्ररूपणतेति। संत' शब्द के प्रयोग 'सत्' अर्थ मे अन्यत्र भी उप
विशेषावश्यक भाष्य-४०७.४०८ लब्ध है । यथा---'सतकम्ममहाहियारे-जय.ध. अ. ५१२
स्मरण रहे यदि जैन मान्य शुद्धात्मस्वरूप को अन्यप्रस्तावना ध. प्र. पु. पृ. ६६ ।
मत-मान्य ईश्वर के रूपो से मेल बिठाने का प्रयत्न किया -'एसो संत-कम्मपाहुड उवएसो'-धव० पु० पृ० २१७। गया तो जैन ही लुप्त हो जायगा । -'बायरिय कहियाणं संतकम्मकसायपाहुडाणं । पृ० २२१
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श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा
0 पदमचन्द्र शास्त्री, दिल्ली
जैनाचार्यों ने श्रावकाचार का वर्णन करते हुए श्रावक 'मूलवत तान्यचा पर्वकर्माकृषिक्रियाः । की ग्यारह प्रतिमाओ का वर्णन किया है। ग्यारहवी प्रतिमा दिवानवविध ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ।।' का नाम उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है। दशवी प्रतिमा तक उद्दिष्ट परिग्रह परित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । त्याग का सर्वथा विधाम नही है और उससे आगे श्रावक तद्वानी च वदंत्येतान्येकादश यथाक्रमम् ॥' और मुनि दोनों के उद्दिष्ट का सर्वथा त्याग है ।
-कल्प ४४१८५३-८५४ । प्रारम्भिक आचार्यों में जैसे कुन्दकुन्द, उमास्वामी, इसके बाद उन्होंने ११ प्रतिमाओं के विषय में यह समन्तभद्र, सोमदेव, जिनसेन, आमतगति और पमनन्दि भी स्पष्ट किया है कि पहिली छ: प्रतिमाओं के धारक आदि ने इस प्रतिमा का सामान्य निर्देश किया है-इसका
दश किया ह-इसका गृहस्थ, सातवी से नवमी प्रतिमा तक के ब्रह्मचारी और अभेदवर्णन किया है । ग्यारहवी शताब्दी के पूर्व की रचना अन्त की दो प्रतिमाओं वाले भिक्ष कहलाते हैं। सबसे ऊपर 'प्रायश्चित चूलिका' में भी एक क्षुल्लकपद का विवेचन मिलता है । बारहवी शताब्दी मे वसुनन्दी आचार्य ने इस पडरगाहणो ज्ञयास्त्रय. स्युब ह्मचारिणः । प्रतिमा को प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक इन दो भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टौ तन. स्यात्सर्वतो यति. 1०५६।' भेदो मे विभक्त कर दिया। यह कैसे और क्यो हुआ यह
__ आदिपुगण में आचार्य जिनसेन ने ग्यारहवी प्रतिमा विचारणीय है। विचारार्थ पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों के मतव्यो ।
के सन्दर्भ मे निम्न मन्तव्य प्रकट कियाको उद्धृत किया जा रहा है
'त्यक्तागारस्य मद्दष्टे, प्रशान्तम्य गृहेटिन. । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने चारित्र पाहुड में मात्र प्रति
प्राग्दीक्षोपयिकाकालादेकशाटकधारिणः ॥३८।१५८॥ माओं के नाम दिए है
त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः । दसण-वय-सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य ।
एकशाटकधारित्व प्राग्वदीक्षामिप्यते ॥३६७७॥ वभारभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देमविरदो य ॥२२॥'
तेषां स्यादुचित लिंग स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । -दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग एकशाटक धारित्व सन्यासमरणावधिः ॥४०॥१६॥ रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रह त्याग, उक्त सभी श्लोकों में एकशाटकघारित्व रूप को पुष्ट अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग इस प्रकार ये देशविरत किया गया है जैसे कि पूर्वाचार्यों को भी इष्ट था उन्होंने श्रावक के ग्यारह भेद हैं।
भी दो वस्त्रधारी और एकवस्त्रधारी जैसे कोई दो भेद आचार्य उमा स्वामी ने प्रतिमाओ का वर्णन नहीं नहीं किए । आचार्य अमितगति और पद्मदन्दि ने भी पूर्वकिया और आचार्य समन्तभद्र ने इस प्रतिमा का वर्णन मतों की पुष्टि की और ग्यारहवी प्रतिमा के दो भेद नहीं खण्डचेल धराः' मात्र के रूप में किया है। उन्होने क्षुल्लक किए। इसके बाद ग्यारहवी शताब्दी से पूर्व की रचना व ऐलक जैसे कोई भेद नहीं किए और ना ही एक या दो 'प्रायश्चित्त चूलिका' के देखने से भी स्पष्ट प्रतिभासित वस्त्र का उल्लेख किया। आ. सोमदेव ने भी ग्यारह होता है कि उस शती तक यथावत् ग्यारहवी प्रतिमा एक प्रतिमाओं के नाम मात्र का संकेत दिया है
रूप में चलती रही। तथाहि
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२६, वर्ष ३६, कि० १
'क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्नस्थितिभोजनं । आतापनादियोगोऽपि तेषा शश्वन्निषिध्यते ।। १५५३ ।। क्षौरं कुर्याच्चलोचं वा पाणी भुंक्तेऽथ भाजने । कोपीन मात्र तंत्रोऽसी क्षुल्लक परिकीर्तितः ।। १५६ ।।' इन श्लोकों में क्षुल्लक के लिए एक वस्त्र का विधान दो बार कहा गया है और जोर देकर 'अन्यत् न' के द्वारा द्वितीय वस्त्र का निषेध किया गया है (जब कि बाद के काल में क्षुल्लक के दो वस्त्रों की परिपाटी रही है ? यह क्यों और कैसे ? यह स्पष्ट नही हो पा रहा ।) दूसरे श्लोक मे तो 'कौपीन मात्र तत्रोऽसो' में 'मात्र' पद देकर द्वितीय वस्त्र का सर्वथा ही निषेध कर दिया । इसका भाव ऐसा हुआ कि ग्यारहवी शताब्दी से पूर्व तक ग्यारहवी प्रतिमा क्षुल्लक के रूप मे ही रही और क्षुल्लक एक वस्त्रधारी ही कहे जाते रहे ।
अनेकान्त
बारहवीं शताब्दी में आचार्य वसुनन्दी ने सर्वप्रथम दो भेद किए और उन्हें प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट नाम दिए । तथाहि
'एयारसंमि ठाणं उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो । वत्थेक्कधरो पढमो कोवीण परिग्रहो विदिओ ॥ ३०९ ॥'
- ग्यारहवें स्थान अर्थात् ग्यारहवी प्रतिमा को प्राप्त उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकार के होते है - प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट । इनमें प्रथमोत्कृष्ट श्रावक एक वस्त्रधारी और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक कौपीन परिग्रहधारी होता है ।
उक्त गाथा से किसी के भी दो वस्त्र होने की स्पष्ट पुष्टि नही होती, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथमोत्कृष्ट के लिए एक वस्त्र (बड़ा--जो शरीर के कुछ भाग पर लपेटा जा सकता हो ?) का विधान हो और द्वितीयोत्कृष्ट को उसमें संकोच करके कोपीन मात्र जैसा । वस्त्र दोनो पर ही एक हो ? यहां तक भी ऐलक शब्द का व्यवहार नही हुआ-भेद भी हुए तो प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक के नाम से ।
आचार्य वसुनन्दी ने दोनों की विशेष विधि का वर्णन करते हुए निम्न गाथा दिए हैं
धम्मिल्लाणं चवणंकरेईकत्तरि छुरेण या पढमो । ठाणासु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ॥
भुंजे पाणिपत्तम्मि भायणे वा सई समुवइट्ठो । उववासं पुण णियमा चउव्विहं कुणइ पब्वे ॥ पक्खालिऊण पत्त पविसइ चरियाय पंगणें ठिच्चा । भणिऊण धम्मलाह जायइ भिक्ख सयचेव || सिग्धलाहाला हे अदीण वयणो नियतिऊण तओ । अण्णम्मि गहेवच्च दरिसइ मोणेण कायं वा ॥ जद्द अद्धव कोइबि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । मोत्तूण णिययभिक्ख तस्सण्णं भुंजए सेसं ॥
अह ण भणइ तो मिक्खं भमेज्ज णियपोट्टपूरणरमाण । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुग सलिल । जकि पि पडियभिक्ख भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । पक्खालिऊण पत्त गच्छज्जा गुरुसवासम्म । जइ एवं ण रएज्जो काउंरिसगिम्मि चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमण ता कुज्जा ॥ गंतणगुरुसमीव पच्चक्खाणं चव्विहं विहिणा | गहिकण तओ सव्व आलोचेज्जा पवत्तेण ॥' - वसु० ३०२ - ३१० ।
- प्रथमोत्कृष्ट श्रावक कैची या छुरे से हजामत करता है, प्रयत्नशील होकर उपकरण से स्थान का सशोधन करता है । हाथों अथवा पात्र में एक बार बैठकर भोजन करता है और पर्व -दिनो में नियम से उपवास करता है । पात्र को प्रक्षालन करके चर्या के लिए श्रावक के घर मे प्रवेश करता है और आगन मे ठहरकर 'धर्मलाभ' कहकर स्वयं ही भिक्षा याचन करता है। भिक्षा न मिलने पर अदीन मुख वहाँ से शीघ्र निकलकर दूसरे घर जाता है और मौन से अपने शरीर को दिखलाता है। यदि अर्धपथ मे कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घर से प्राप्त भिक्षा को खाकर, जितना पेट खाली रहे, उतना उस श्रावक के अन्न को खावे । यदि कोई भोजन के लिए न कहे तो पेट के प्रमाण भिक्षा न मिलने तक भ्रमण करे, भिक्षा प्राप्त होने पर किसी एक घर मे जाकर प्रासुक जल मागे । जो भिक्षा प्राप्त हुई हो उसे शोधकर भोजन करे और सयत्न पात्र प्रक्षालन कर गुरु के समीप जावे । यदि किसी को उक्त विधि से गोचरी न रुचे तो वह मुनियों के गोचरी कर जाने के बाद चर्या के लिए
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भावक की म्यारहवी प्रतिमा
प्रवेश करे अर्थात् एक मिक्षा के नियम वाला उत्कृष्ट श्रावक यह 'अचेलक' शब्द ऐसा है जिसे दिगम्बर व श्वेताम्बर चर्या के लिए किसी श्रावक के घर जावे । यदि इस प्रकार दोनों सम्प्रदाय मानते हैं और इसका प्रयोग मुनि के लिए भिक्षा न मिले तो उसे फिर किसी के घर न जाकर उप- करते हैं । भेद इतना है कि दिगम्बर 'अ' उपसर्ग का अर्थ वास का नियम कर लेना चाहिए। पश्चात् गुरु के समीप सर्वथा निषेध रूप में और श्वेताम्बर सर्वथा निषेध और जाकर विधि पूर्वक चतुर्विधि आहार का त्याग कर प्रत्या- अल्प स्वीकृति दोनो अर्थों में करते हैं । इसीलिए उनमें ख्यान कर पुन: प्रयत्न के साथ सर्व दोषों की आलोचना जहा चेल-वस्त्र का सर्वथा निषेध है वहां मुनि 'जिन-कल्पी' करनी चाहिए।
है और जहां अल्प चेल-स्वीकृति है वह मुनि स्थविरकल्पी' उक्त कथन से कई बातें समक्ष आती हैं
है-हैं दोनों ही मुनि । पर, यह बात दिगम्बरों को मान्य १. छुरे से हजामत करना।
नही, वे सर्वथा वस्त्र त्याग मे ही मुनि पद स्वीकारते हैं। २. उपकरण से स्थान संशोधन । ३. पात्र प्रक्षालन करके चर्या के लिए श्रावक के घर
मालूम होता है जब श्वेताम्बरों द्वारा किंचित् वस्त्र प्रवेश करना।
वाले को भी 'अचेलक' घोषित किया गया तो दिग४. भिक्षा स्वयं मांगना ।
म्बरो ने किंचित् वस्त्र वाले के लिए एक नया सम्बोधन ५. कई घरों से (भी) माँगना ।
चुन लिया और वह सम्बोधन 'ऐलक' था। इससे ईषत् ६. बैठकर भोजन करना आदि । इस प्रतिमाधारी से
अर्थ में 'अ' का प्रयोग भी मान्य हो गया और मुनि रूप द्वितीयोत्कृष्ट प्रतिमाधारी मे जो भिन्नता बनलाई है वह
के गृहण का परिहार भी। इससे यह भी ध्वनित हुआ कि इस प्रकार है
ईषत् वस्त्र वाला श्रावक ही है, मुनि नही । स्मरण रहे कि 'एमेव होइ विदिओ णवरि विसेसो कुणिज्ज णियमेण।
लाचार्य' शब्द भी प्राकृत व्याकरण के उक्त 'सूत्र' से ही लोच धरिज्ज पिच्छं भुंजिज्जो पाणिपत्तमि ॥३१॥' निष्पन्न है-अचेलकाचाय, ऐलकाचार्य, ऐलाचार्य --द्वितीयोत्कृष्ट प्रतिमाधारी भी इसी प्रकार होता है एक ही शब्द के
एक ही शब्द के विभिन्न रूप है और प्राकृत के 'कला-चपरन्तु उसमे इतनी विशेषता है कि वह नियम से लोंच ज-सद-यवां प्रायोलुक' सूत्र से बंधे हैं, तीनों ही रूप विकल्प करता है, पीछी धारण करता है और पाणिपात्र में आहार से लाप क है। करता है।
पूर्वाचार्यों के व्याख्यान से ऐसा भी ध्वनित होता है उक्त स्थिति में सर्वप्रथम विचार यह उठता है कि कि अन्य प्रतिमाओं की भांति ग्यारहवीं प्रतिमा भी एक जब पूर्वाचार्यों ने सभी प्रतिमाओ का वर्णन अभेदरूप मे एक अभेद रूप है, जो अपेक्षा भेदो से नाम भेदों में विभक्त कर एक प्रकार का ही किया है और ग्यारहवी प्रतिमा के ली गई है। इसे मुनि पद के सामीप्य और मुनिपद से नामान्तर क्षुल्लक और त्यक्तागार घोषित किए है तब छोटा-नीचा होने की अपेक्षा क्षुल्लक, घर छोड़ने की अपेक्षा ग्यारहवी प्रतिमा के पृथक्-२ दो भेद करने की आवश्यकता त्यक्तागार और ईषद् वस्त्र होने से ऐलक कहा गया है। क्यों पड़ी और ऐलक शब्द कहा से आया ?
वस्तुत: 'ऐलक' शब्द अचेलक (सर्वथा वस्त्र त्यागी) दि. विचारने पर प्रतीत होता है कि 'लक' शब्द 'अचे- मुनि का ही नामान्तर है जिसे 'अ' के ईषत् अर्थ में श्रावक लक' शब्द का प्राकृत व्याकरण प्रसिद्ध लघु रूप है। प्राकृत की ग्यारहवी प्रतिमा में स्थान देकर प्रतिमा को दो व्याकरण के सत्र क ग च ज त द प यवां प्रायो लुक' के भागों में विभक्त कर दिया गया है। अनसार दो स्वरों के मध्यवस्थित व्यंजन का विकल्प से जहा तक श्वेताम्बर परंपरा के साधुओं का प्रश्न है, अदर्शन (लोप) हो जाता है। फलत अ++एलक में वे साधारणन. श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा के रूपान्तर अ+और ए के मध्य का 'च्' लुप्त हो गया तथा अ+ए प्रतीत होते हैं, अपितु उस रूप में भी स्पष्ट शिथिलता ही को वृद्धि रूप मे ऐ होने पर ऐलक रूप बन गया। परिलक्षित होती है जैसे-ढेर से वस्त्र, ढेर से पात्र, कई
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२८, वर्ष ३६, कि०१
अनेकान्त
बार आहार आदि। हां, पात्र प्रक्षालन करके श्रावक के हिंसोंपकरण दान का सर्वथा निषेध करते है-परशुकृपाण घर प्रवेश, भिक्षायाचना, कई घरों से याचना, बैठकर खनित्र' आदि । इसी प्रकार पात्र रखना, उसे धोना आदि भोजन आदि नियम शुल्लक के नियमों से मेल खाते हैं। आडम्बर क्षुल्लक को नहीं कल्पते। ऐसा मालूम होता है ऐसा प्रतीत होता है कि श्वे. मुनि का यह रूपान्तर बारह- कि किसी समय स्पृश्य-अस्पृश्य का प्रश्न बड़ी प्रबलता से वर्षीय अकाल के प्रभाव का द्योतक है।
सामने उभरकर आया हो और पात्र आदि के रखने की छूट
दी गई हो। इसी प्रकार द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक में जो विशेषजहां तक दिगम्बर परंपरा में क्षुल्लक के नियम बत- ताएं बतलाई गई हैं वे भी इसलिए विचारणीय है कि यदि लाए गए हैं उनमे भी कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। जैसे- वे विशेषताए प्रथमोत्कृष्ट में नियमित नहीं हैं तो वह भूमि छरे से हजामत । क्या क्षुल्लक छुरा रख सकते हैं? यदि परिमार्जन किससे करता है यतः एक वस्त्र के सिवाय हां तो परिग्रह बढ़वारी के साथ हिसोपकरण रखने का ,
अन्य वस्त्र का कही भी विधान नहीं है । ऐसे में एक वस्त्रदोष भी आता है और यदि श्रावक से मांगते है तो नियमित
मागत ह ता नियमित धारी और दो वस्त्रधारी आदि भेद कैसे घटित हो गए? श्रावक उन्हें क्यों और कैसे देता है ? जबकि आ० समन्तभद्र
(क्रमश:)
(पृष्ठ २१ का शेषांश) इस गर्दभ के शमन हेतु-चन्दन की धूप का सेवन इसकी चिकित्सा निम्न प्रकार है :करें।
विजोर के बीज, प्रियंगु, हल्दी, मंजीठ, कुंकुम, खश ५-स्त्री और पुरुष के गुप्तांगों में पैदा होने वाले और
न वाले और केशर को सफेद सरसों के जल में पीस कर लेप करें। गर्दभ को कुम्भकर्ण ज्वालागर्दभ का नाम दिया गया है।
इसके लिए लिखा है कि लोंग तगर और कट को इस प्रकार यह लघु रूप में आपके सामने वर्णन किया पीस कर मिलावें तथा लेप करें। इससे पीड़ा शान्त हो है इसका विस्तृत विवरण प्रत्येक रोग का पृथक-पृथक जाती है।
किया जा सकता। ६- अण्डकोष में पैदा होने वाले ज्वाला गर्दभ को विभीषण ज्वाला गर्दभ कहते हैं ।
नोट-उक्त ग्रन्थ जैन धर्मानुयायी किसी धार्मिक विद्वान ७-हृदय में होने वाले ज्वाला गर्दभ को चन्द्रताल द्वारा रचित हो ऐसा हम नहीं मानते। ग्रन्थ में नाम की सज्ञा दी गई है।
अभक्ष्य और असेव्य के सेवन का विधान जैसे प्रसंग इसकी चिकित्सा के लिये कोले के बीजो को बकरी के जैन परम्परा के सर्वथा विरुद्ध है। ऐसे प्रसग हमने दूध मे पीस कर लेप करे एवं सेवन करे।
लेख से निकाल दिए हैं। लोग कैंसर से परिचित ___-मुख में होने वाले ज्वाला गर्दभ को दुर्दर नभ हों, इसी दृष्टि से लेख छपाया जा रहा है, अन्यथा की संज्ञा दी गई है।
न लें।
-संपादक अभिनन्दनों और अभिनन्दन-ग्रन्थों के संग्रह की होड़ समाज और धर्म को कहां ले जाएगी? यह सोचने का विषय है। सोचना ये भी है कि क्या सभी पात्र धार्मिक-आचार-विचार के आलोक में उस योग्य होते हैं ? जरा विवेक से काम लें और इन दिखावों को छोड़, आचार-विचार को ऊंचा उठाएं तभी जैन धर्म स्थिर और पुष्ट रह सकेगा।
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जरा सोचिए
१. संस्कृति क्या है ?
आत्मा में ऐसा नहीं होता-मानवता एक रूप अखण्ड है
और आत्मा भी एक रूप अखण्ड है। इनके लक्षणों-गुणों ___ संस्कृति शब्द बडे गहरे में है और इसका सम्बन्ध
में फर्क नहीं होगा ! जो फर्क दिखेगा भी वह फरक मानवस्तु की स्व-आत्मा से है। जिसे हम 'संस्कृत' कहते हैं वह
वता या आत्मत्व के लिहाज से न होकर, पर-प्रभावित संस्कार किया हुआ होता है और संस्कार किए हुए से
आधारो से स्व की असंस्कृत अवस्था में ही होगा अतः वह संस्कृति पनपती है और वह स्थायी होती है। क्योकि वह
उसके लिए असस्कृति ही होगी। स्व-गुणों के विकास का रूप होती है, निखरे गुणों का पुंज होती है। इससे उल्टी असंस्कृति-पर से प्रभावित, बहु
मानव और अमानव में स्वभाव, विभाव-स्व-परिरूपियापन से लदी होती है और बहुरूपियापन-उधार
गतिशीलता और पर-परिणतिशीलता का भेद है। जब लिया रूप-नाश होने वाला रूप होता है। उदाहरणार्थ,
कोई मानव स्व-परिणति-स्वभाव मे प्रकट होगा तब उसकी स्वर्ण का रूप निखरना उसका सस्कृत होना है और निखरे
संस्कृति मानव-सस्कृति होगी। और जब वह हिन्दू-मुसल
मान आदि पर-प्रभावित रूपो मे प्रकट होगा तब वह अमासंस्कृत रूप से प्रभावित होने वाली परम्परा स्वर्ण-सस्कृति
नव-सस्कृति से ग्रस्त होगा। क्योंकि वह उसका 'स्व' का है। ऐसे ही अन्यत्र समझना चाहिए।
अमस्कृत-विना संस्कार किया हुआ और पर-प्रेरित रूप आज जो विभिन्न मत-मतान्तरों, भाषाओं, जाति
होगा। इसी प्रकार जब आत्मा स्वभाव की ओर जाता है पंथों और प्रान्तवादों आदि से सस्कृति का नाता जोडा जाना
ना जाडा जा तब उमका सस्कृत रूप होता है और जब स्वभाव में न रहा है वह अटपटा-सा लगता है। जैसे--हिन्दू-सस्कृति,
जाकर पर-प्रेरित रूप में होता है तब उसका रूप असंस्कृत मुस्लिम-संस्कृति इत्यादि । क्योकि हिन्दू, मुस्लिम, सिख,
होता है। फलत. मानव के असली रूप से पनपने वाली बौद्ध, पारसी, ईसाई आदि किसी मूल के उभरे संस्कार
संस्कृति मानव सस्कृति होती है और आत्मा के असली रूप नही-ऊपर के वेष हैं, बाने हैं, जो समय-समय पर मत
से पनपने वाली संस्कृति आत्म-संस्कृति होती है, आदि । भेदों के प्रादुर्भाव में लादे जाते रहे है और बदलते रहे हैं, बदलते रहेंगे और कभी नष्ट भी हो जायेंगे । न जाने कब उक्त तथ्य के प्रकाश में आज हमें अपनी श्रेणी निश्चित से अब तक कितने मत-मतान्तर, प्रान्त, राष्ट्र आदि पंदा करनी होगी कि हम किस पक्ति में बैठ रहे हैं? पहले हुए और न जाने कितने अतीत में समा गए। पर, बताई गई सस्कृति की पंक्ति में या दूसरी असंस्कृत पंक्ति संस्कृति न कभी निर्मित हुई और न कभी नाश होगी। मे? हममे रत्नत्रय हैं या मिध्या-स्वादि विकृत भाव ? हम अत: यदि हम ऐसा कहें कि मानव-सस्कृति, आत्मा-सस्कृति परमेष्ठियो वत् अपने गुणों में विकास की ओर चल रहे अहिंसा-संस्कृति आदि तो ठीक बैठ जाता है क्योकि ये हैं या अविरति प्रमाद कषायादि की ओर? गुणस्थानों की सदा से हैं और सदा रहेंगे। इनके अपने रूप मे कभी अपेक्षा हम कहां हैं और हमारी गति अनेकान्त अथवा अपनों से भेद-भाव न होगा। जबकि हिन्दू का हिन्दू से, एकान्त किस विचारधारा के आश्रय में वर्तमान है? मुसलमान का मुसलमान से भेद-भाव हो जायेगा-एक आदि । पंच-सम्प्रदाय के होने पर भी उसके आधार से पनपने वाली पुरुष के विषय मे जब आचार्य कहते हैंसंस्कृति, उसके अनुयाइयों से दो भेदों में बंट जायेंगी-एक 'पुरुगुणभोगेसेदे, करेदि लोपम्मि पुरु गुणं कम्म ।
'परुगणभोगेसेदे. करेदि लोपनि हा हिन्दू की संस्कृति कुछ होगी तो दूसरे की कुछ । मानव या पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वणिो पूरिसो॥
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अनेकान्त
-जो उत्तम गुण और भोगों का सेवन और लोक में संस्कृति के उजागर तर-तम रूप हैं जो उत्तरोत्तर निर्मलता उत्तम गुण-कर्मों को करता है वह पुरुष और पुरुषार्थी है। लिए हुए हैं। अनेकान्तवाद, स्यावाद संस्कृति का दर्शन तब हम लोक में उत्तम गुणों में न रह, हिंसा करते हुए, कराने वाले हैं-आदि ! मंठ और चोरी प्रेरित जैसी आजीविका के सहारे जीते हुए इसके विपरीत आधुनिक युग का मानव जिन्हें संस्कृति बाह्याडम्बरों-जाति, सम्प्रदाय, वेश-भूषा, भाषा, प्रान्त पोषण के लिए प्रयुक्त कर रहा है और सस्कृति का नाम आदि के पक्षपात जैसे यत्रों से पुरुषत्व और पुरुषार्थ का माप देने में लगा है वे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय कर रहे हैं यानी असली पुरुषत्व और पुरुषार्थ के रूप को और योग आदि विभाव मानव और आत्मा के लिए असंविकृत-असस्कृत बनाने मे लगे हैं।
कृतियां हैं। ____ आत्मा के विषय में जब आचार्य कहते है-'भेद
उक्त सन्दर्भ में संस्कृति क्या है ? जरा सोचिए !' विज्ञानतो सिद्धा सिद्धा ये खलु केचन'–सिद्ध होने के लिए
२. जिन, जैन और जैनी जीव और पुद्गल के भेद का ज्ञान होना जरूरी है। तब लोग उस भेद-विज्ञान की दिशा, जाति-सम्प्रदाय, भेष-भूषा
वस्तु की स्वभाव मर्यादा के अनुसार वस्तु के गुणभाषा और प्रान्तवाद आदि की ओर मोड रहे हैं, आत्मा धमा का उसस पृथक् नही किया जा सकता । इस सि को पर-के रंग में रंग रहे हैं, परिग्रह की पकड़ को दृढ़
के अनुसार जिन, जैन और जैनी ये तीनों शब्द तीन होते करने में लगे है और इस तरह वे संस्कृति और आचार्यों
हुए भी एक ही व्यक्ति को इगिस करने वाले है। अतः की अवहेलना ही कर रहे है।
धर्म-धर्मी मे अभेद है और इनमें परस्पर गुण-गुणीपना है।
कर्मो पर विजय पाने वाले जिन, 'जिन का धर्म जैन और यदि हम संस्कृति को भिन्न रूपो मे देखना चाहें तो
जैन का अनुगमनकर्ता जैनी है । इसके विपरीन जो 'जिन' हम कहेंगे-मन-वचन-काय द्वाराकिसी को न सताना, याथातथ्य व्यवहार करना, पराई वस्तु का हरण न ।
नहीं, वह 'जन' नहीं, और जो 'जैन' नही, वह 'जैनी' भी करना, ब्रह्मचर्य पालन करना और इच्छा व सग्रहो के
नहीं। फलत:-उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में जैनी का त्याग की ओर लगना इन पांच नियमो पर सभी ने जोर ।
सर्वथा अभाव है। यदि जैनी बनना हो तो जिन बनना
चाहिए। दिया है किसी ने कम और किसी ने ज्यादा। ये सभी दर्जे मानवता के निखार के हैं। संसारी आत्मा को पर
जिन या जैन बनने के लिए तीर्थङ्कर ऋषभदेव से मात्मा बनने में सहायक हैं, तद्रूप हैं। अतः ये मानव
लेकर महावीर पर्यन्त और मुक्ति पाने से पूर्व सभी अरसंस्कृति या आत्म-संस्कृति कहलाएगे और इन्हें हिन्दू
हन्तों ने जो किया, वही हमें करना पड़ेगा। हमें गुप्ति, मुस्लिम जैसे फिरकों के पोषक न होने से, हिन्दू या मुस्लिम
समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह जय और चारित्र के मार्ग संस्कृति नही कहा जाएगा। यतः-इन पांचो के होने न
से जाना पड़ेगा। अणुव्रतों और महाव्रतों की सीढ़ियों पर होने से इन फिरकों के रूपों पर कोई प्रभाव नही पड़ता
चढना पड़ेगा। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र
को धारण करना पड़ेगा-इनकी पूर्णता में ही हम जिन, पांचो हों तब भी हिन्दू या मुसलमान हुआ जा सकता है
जैन और जैनी बन सकेंगे। जबकि आज हम इन सभी से और न हो तब भी हुआ जा सकता है। ऐसे ही
दूर हैं और लगातार दूर जाने के प्रयत्नों में लगे हुए हैं। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र संस्कृति हैं। दूर होने का उक्त सन्दर्भ, किसी व्यक्ति विशेष के सिद्ध दशा साक्षात् संस्कृति है और अरहंत, आचार्य, उपा- सम्बन्ध में हो ऐसा नही है, यह तो आज सभी पर लागू ध्याय, साधु के रूप संस्कृति के सूचक हैं। पहिला गुण- होता है चाहे वह किसी भी श्रेणी का क्यों न हो? आज स्थान असंस्कृति सूचक है, दूसरा संस्कृति से गिरने की श्रावक श्रावक में, श्रावक-साधु में, साधु-साधु में, धनिकसूचना देता है, तीसरा दुलमुल और आगे के गुणस्थान धनिक, धनिक-निर्धन, और निर्धन-निर्धन में परस्पर विसं
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जरा सोचिए
गतियां चल रही हैं-एक-दूसरे की आलोचना मे तत्पर आते है । जो वाणी तीर्थङ्करदेवो से प्रवाहित होती रही हैं। एक-दूसरे को हीन समझ रहा है, हर अन्य हर अन्य है वह इन्ही उपाध्यायो के क्रम से भव्य जीवों तक पहुंचती की कमजोरियां बताने मे लगा है, अपनी ओर नही देखता। रही है। यदि व्यक्ति इस प्रक्रिया मे मोड ले और दूमरो की अपेक्षा कालान्तर मे जब अंग-पूर्वो के ज्ञाता उपाध्यायों का पहिले अपने को देखे तो हर व्यक्ति जिन, जैन और जैनी विच्छेद होता गया तब उनका काम आचार्यों, और साधुहो सकता है।
गण ने मँभाला और उनकी अनुपस्थिति मे इस कार्य की जैनी बनने के प्रयत्नो मे पहिले थावक बनना जरूरी प्रति अल्प ज्ञान आर अल्प चारित्रधारी त्यागी विद्वान
करते रहे । जो विद्वान व्रत और प्रतिमाधारी नही थे वे है । जो श्रद्धा, विवेक और क्रियाशील होता है, वह श्रावक
भी थावक के स्थूल आचार का पालन करते हुए इस क्षेत्र कहलाता है। हम देखे कि हम तत्त्वो एव देव, शास्त्र,
मे गतिशील रहे। फलत. भव्य जीवो को जिनधर्म का गुरुओ में कितनी श्रद्धा रखते है ? वर्तमान में देव तो है
ज्ञान व चारित्र सम्बन्धी मूर्त-रूप फलित होता रहा । नही, शास्त्री के रहस्य को हम जाने नही और गुरुओ की निन्दा करते हो तो हम कैसे श्रावक हो सकते है ? श्रावक चुकि जैन धर्म वीतराग-धर्म है और धार्मिक प्रसंग में होने से पहले हमे अप्टमूल गुणों को समझना चाहिए और वीतराग-रूप को नमस्कार का विधान है। अत: पूर्णचारित्र उन्हें धारण करना चाहिए। हम उन्हे धारण न करे और की मुख्यता के आधार पर मूल-मत्र णमोकार मे सकलअपने को थावक घोषित करे यह सर्वथा विसगति ही है- चारित्री उपाध्याय परमेष्ठी को नमन कर उनके प्रति जैसा कि आज चल रहा है। आज कुछ लोग तो कुदेवो मे कृतज्ञता का ज्ञापन है और अल्प-चारित्री या अवती देव, कु-शास्त्रो मे शास्त्रो की कल्पना किए बैठे है, और विद्वानों को इसमे ग्रहण नही किया गया है । यद्यपि ऐसे कुछ को तो गुरु फूटी ऑखो भी नही सुहाते । गोया, छिद्रा स्थूल-चारित्रधारी विद्वान पहिले भी होते रहे है जो स्वतत्र न्वेषण एक व्यापार बन बैठा है। उपगूहन और स्थिति- आजीविका से निर्वाह कर परमार्थ रूप धर्मज्ञान देकर करण की बात ही नही होती-सुधार के नाम पर निन्दा भव्य-जीवा का उपकार करते रहे हैं। उन विद्वानो की मे इश्तिहार तक निकाले जाते है । यदि ऐमे लोग अपने को आजीविका पठन-पाठन पर आथित नही होती थी। फलतः देखे कि वे कितने गहरे में है और श्रावक के योग्य अपनी वे स्वतन्त्र और निर्भीक भी थे। वस्तुत. धर्मज्ञान क्रयक्रियाओं के प्रति कितने सावधान हे तो उन्हें सहज ही पता विक्रय का धदा नहीं है। अभी तक यह प्रकट नही हो चल जाय कि वे स्वय भी भ्रष्ट हैं । भ्रष्ट लोग भ्रष्ट को पाया कि विद्वानों में पारिश्रमिक लेकर धर्म-जान धान की भ्रष्टता से कैसे बचा सकेंगे और कैसे जिन, जैन या जी परम्परा कब से चालू हुई? हो सकता है वाहाण सभ. बन सकेगे? यह विचारणीय है ? जरा सोचिए।' दाय का प्रभाव हो। बाद के काल में तो विद्वानो मे इस
व्यवसाय-परमरा का मूल कारण विद्वानो का अर्थाभाव ३. विद्वानों की महत्ता
ही परिलक्षित होता है। णमो उवमायाणं' ये अश णमोकार मत्र के मूल पाठ जो भी हो, यह तो निर्विवाद है कि विद्वानों ने धर्मका है. जिसे प्रत्येक उपामक हृदय में सेंजोकर रखता और रक्षा और उसकी प्रभावना में कोई कोर-कसर नही छोड़ी धर्म जानने के लिए उपाध्यायो की शरण जाता रहा है। उन्होंने तन-मन का पूरा योग देकर मन्दिरो, सरस्वतीतीर्थडरो की दिव्य ध्वनि के पश्चात् उपाध्याय गणधर देव भवनो, शिक्षा संस्थानो आदि की स्थापना का मार्ग समाया भव्य जीवों को धर्ममार्ग बतलाते रहे है । उपाध्याय पूर्ण उनके निर्माण मे योग दिया, स्थान-२ पर भ्रमणी श्रत-अंग पूर्वो के पाठी होते है और वे प्रमुख उपाध्याय उनके लिए चन्दा इकट्ठा किया। उनकी व्यवस्था और हैं। उनसे कम अंग-पूर्व भाग के ज्ञाता लघु लघु श्रेणी में पठन-पाठन जैसी सभी जिम्मेदारियां उठाई। बिहानी
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३२, बर्ष ३६, कि०१
अनेकान्त पूजा-प्रतिष्ठा, विधान, संस्कार-विधियों को सुरक्षित रखा, वास्तव में ज्ञान-दान का कोई मूल्य नहीं। विद्वान् तो यद्यपि कालान्तर में ये कार्य व्यवसाय बनने से विकृत हो समाज से पोषण पाकर भी समाज के गुरु ही हैं और गए। विद्वानो ने लोगों में श्रद्धा-ज्ञान और चारित्र जगाने उनकी श्रेणी माता-पिता से भी उच्च है। जैसे लोग अशक्त के लिए जगह-जनह भ्रमण कर प्रवचन किए। शास्त्रो को माता-पिता की सेवा करते हैं, उनका भरण-पोषण करते सुरक्षित रखा। और भी जितने धार्मिक प्रसंग उपस्थित हैं वैसे ही उन्हे विद्वानों की सेवा करनी चाहिए। यदि होते रहे सभी में विद्वानों का पूर्ण योगदान रहा । विमियो समाज विद्वानो के साथ ये सब व्यवहार करे तब भी विद्वानो द्वारा आगम,मार्ग पर किए गए प्रहारों को भी विद्वानों ने के ऋण से उऋण नही हो सकता । आखिर, कोई देगा निर्मूल किया। आदि !
तो विद्वान् को कितना भौतिक धन-वैभव दे सकेगा ? जो यह कहना भी अत्युक्ति होगा कि धर्मक्षेत्रों मे विद्वानो भी वह देगा सब यही छूट जायेगा-नश्वर होगा । जबकि ने ही सब कुछ किया और दूसरों का उसमें हाथ न था। विद्वान् का दिया हुआ ज्ञान-धन जन्म-जन्मान्तरों तक वास्तविकता तो यह है कि ये सभी कार्य 'परसरोपग्रह- साथ जायगा और सद्गति में सहायक होगा । फिर जब जीवानाम्' के संदर्भ मे चलता रहा और सभी अपनी- विद्वान् ने अपना तन-मन सब कुछ समाज के लिए अर्पण अपनी योग्यतानुसार धर्म मार्ग को प्रशस्त करते रहे ज्ञान कर दिया हो तब उसके मुकाबले मे भौतिक सम्पदा अकिवाले ज्ञान और धन वाले धन देते रहे। इस मार्ग में गिरा- चन ही है। अत: समाज का कर्तव्य है कि माता-पिता वट तब आई जब विद्वान् स्वय ज्ञान-दान के लिए किसी और धर्म-उपकरण मन्दिर आदि की भांति विद्वानों का प्रकार का ठहराव करने और किसी निश्चित राशि में सरक्षण करे और विद्वान भी सदाचारी धार्मिक और बंधने लगे और अन्य लोग विद्वान् को बदला चुकाने की निर्भीक रहकर, समाज के होकर धर्म-प्रभाव मे तार बात सोचने के आदी बन गए। हो सकता है इसमे एक- रहे। दूसरे की ओर से प्रस्तुत कोई ऐसे अन्य कारण उपस्थित ध्यान रहे, विद्वद्गण समाज के ऐसे धन है जो उसकी हुए हों जिनसे दोनों को मार्ग बदलने को मजबूर होना धर्म-सम्पदा की रक्षा और वृद्धि मे सहायक होते है । पड़ा हो । काश, ये विचारा गया होता कि किसी के ऋण समाज विद्वानो के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। से कभी उऋण नही हुआ जा सकता तो ये प्रसग उपस्थित और तो और-विद्वान् हमारी मरणासन्न दशा मे भी न होता । वाद को और भी बहुत-सी विसगतिया पैदा होने हमारी समाधि करा हमारी सद्गति मे कर्णधार बनते रहे लगी। लोगो ने प्रदत्त धन या दान-द्रव्य से निर्मित उप- है। इनके अभाव मे धार्मिक जगत् मे अन्धेरा छा जायगा करणो-भवनादि मे अहम्भाव को स्थापित करना प्रारम्भ और हम भटक जाएगे। ऐसा अनर्थ न हो, अतः उद्यम कर दिया। वे त्याग कर भी इस सम्पदा को अपना और करना चाहिए कि कैसे विद्वानों की रक्षा की जाय और अपने विद्वान् को पराया समझने लगे। कुछ विद्वान् भी कैसे विद्वद्वश बढ़ाने में साधन-भूत धार्मिक संस्थाओं को दृढ़ आचार-विचार से शिथिलाचारी और समाज से निराश किया जाय? जरा सोचिए ? होते रहे । ऐसी विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए ।
-सम्पादक मोह-जो-बड़ो का अर्थ है 'मरे हुओं का स्थान'–श्मशान । लोक में श्मशान में जाने वाला अशुद्ध हो जाता है उसको शुद्धि नहा-धोकर होती है। पर, साधुगण वहाँ शुद्धि के लिए समाधिस्थ होते है। ये विरोध कैसा?
विचारा जाय तो कोई विरोध नहीं । जिसने मरे हुओं की खोजबीन की—पर की खोज में लगा रहा वह अशुद्ध हुआ और जिसने श्मशान का उपयोग वैराग्य के बधन हेतु कर अपनी खोज का प्रयत्न किया वह शुद्ध हुआ।
तू सोच, कि तू उन मरे हुओं की खोज कर रहा है या अपनी? अशुद्धि की ओर जा रहा है या शुद्धि की? दिखता तो ऐसा है कि आज लोग आत्मा से भटके हैं और मात्र 'मोहं-बो-दड़ो' की खोज में लगे हैं।
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ब. सोतल प्रसाद जन्मशताब्दी समापन समारोह
इस शती के अप्रतिम जिनधर्म प्रचारक एवं समाज सुधारक पूज्य ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी का जन्म लखनऊ मे १८७८ ई० मे हुआ था और उनका देहान्त भी इसी नगर में फरवरी १९४२ में हुआ, जहां डालीगंज स्थित जैन बाग मे कृतज्ञ समाज ने उनकी समाधि का निर्माण किया । जैनधर्म के इस युग के इस सर्वोपरि मिशनरी ने समाज एवं संस्कृति की सेवा, पत्रकारिता तथा जैन वाङ्मय के अध्ययन, चिन्तन एवं प्रसार के प्रति स्वय को पूर्णतया समर्पित करने हेतु रेलवे की अच्छी-खासी नौकरी से त्यागपत्र दिया, गृहस्थ जीवन को तिलांजलि दी और अपने मिशन के अनुरूप कार्य करने के लिए परिवाजक ब्रह्मचारी का जैन शास्त्र विहित वेष धारण किया तथा उसी धुन मे सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया।
जब स्व. आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ने सरसावा मे वीर सेवामदिर की स्थापना की थी तो उन्होने इसका उद्घाटन ब्रह्मचारीजी के करकमलो द्वारा ही कराया था। ब्रह्मचारीजी उनके पत्र 'अनेकान्त' के भी सदैव बडे प्रशंसक रहे। ब्रह्मचारीजी के निधन पर मुख्तार साहब ने निम्नोक्त उद्गार व्यक्त किए थे-'ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, जैन के एक बड़े ही कर्मठ विद्वान थे। जैनधर्म और जनसमाज के प्रति उन्हे गाढ प्रेम था, लगन थी और साथ ही उनके उत्थान की चिन्ता थी-धुन थी। उसी धुन में वे दिन-रात काम किया करते थे-लिखते थे, लम्बे-लम्बे सफर करते थे, उपदेश तथा व्याख्यान देते थे और अनेक प्रकार की योजनाए बनाते थे। उन्हें जरा भी चैन नहीं था और न वे अपना थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ जाने देते थे। जहाँ जाते वहाँ शास्त्र बाँचते, अपने पब्लिक व्याख्यान की योजना कराते, अग्रेजी पढे-लिखो मे धर्म की भावना फूकते, उन्हें धर्ममार्ग पर लगाते, सभा-पाठशालादि की स्थापना कराते और कोई स्थानीय सस्था होती तो उसकी जांच-पड़ताल करते थे। साथ ही परस्पर के वैमनस्य को मिटाने और जनता मे फंसी हुई कुरीतियों को दूर कराने का भरसक प्रयत्न भी करते थे। प्रत्येक चौमासे मे अनुवादादि रूप से कोई ग्रन्थ तैयार करके छपाने के लिए प्रस्तुत कर देना और उसके छपकर प्रचार में आने की समुचित योजना कर देना तो उनके जीवन का एक साधारण-सा कम हो गया था। उनमे एक बड़ी विशेषता यह थी कि वे सहनशील थे-विरोधों, कटु आलोचनाओं, वाक्प्रहारों और उपसों तक को खुशी से सह लिया करते थे और उनकी वजह से अपने कार्यों में बाधा अथवा विरक्ति का भाव नही आन देते थे। इसी गुण और धुन के कारण, जिसका एक समाजसेवी में होना आवश्यक है, वे मरते दम तक समाज की सेवा करने में समर्थ हो सके । नि.स्सन्देह उन्होंने अपनी सेवाओं द्वारा जनसमाज के ब्रह्मचारियों एव त्यागीवर्ग के लिए कर्मठता का आदर्श उपस्थित किया।'
पूज्य ब्रह्मचारीजी के जन्म शताब्दी समारोह का प्रारभ १९७६ ई. में लखनऊ में तथा अ. भा. दि० जैन परिषद के भिण्ड अधिवेशन में किया गया था और समापन २५ अक्तूबर १९५२ को लखनऊ में उनकी समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित करके तथा श्रद्धांजलि सभा करके किया गया। परिषद के अध्यक्ष श्री डालचन्द जैन सागर आयोजन में मुख्य अतिथि थे और हम स्वागताध्यक्ष थे। समाचार भारती के अध्यक्ष श्री अक्षयकुमार जैन तथा देश के विभिन्न भागों से आये अनेकों विद्वानों एवं गणमान्य महानुभावों ने पूज्य ब्रह्मचारीजी के प्रति भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। हमने सभी समाबत बन्धुबों का स्वागत करते हए, पूज्य ब्रह्मचारीजी के जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व एवं समाजसेवाओं पर प्रकाश डाला। उपस्थित जनसमूह ने ब्रह्मचारीजी को प्रेरणाप्रद स्मृति को स्थायी बनाये रखने की कामना व्यरू की। यह समारोह परिषद के कानपुर अधिवेशन की प्रेरणा पर जैनधर्म प्रवनी सभा लखनऊ के तत्वावधान में सम्मम्ममा पा, अतएव उस सभा के अध्यक्ष श्री इन्द्रचन्द्र जैन द्वारा धन्यवाद दिये जाने के साथ समाप्त हबा किन्तु क्या पूज्य ब्रह्मचारी सीतलप्रसावजी ले बुनुल्यों के प्रति मात्र इतना कृतज्ञता ज्ञापन बलम् है?
-०ज्योति प्रसावन
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
बीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
बी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । मैगन-प्रशस्ति सग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्यों की प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित पूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं०परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... जमणध-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक अंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित। सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५... समापित और टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्ष : श्री राजकृष्ण जैन ... ध्याय-दीपिका :मा.अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रोग. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स. अनु०। १.... बैंग साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्य । हसायपाइरसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५-.. जैन निवग्य-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानातक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०० भावक संहिता :भी बरयावसिंह सोषिया बैंगलकामावली (तीन भागों में):सं.पं. बालचन्द सिदान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पचन्द्र शास्त्री, बहुचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
२-०० Jain Monoments : टी० एन० रामचन्द्रन Reality :मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद । बरे पाकार के ३०० पृ., पक्की जिल्द ८.००
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माजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.००० वार्षिक मूल्य : ६)२०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे
विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यकनहीं कि सम्पावक
मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो।
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सम्पायक परामर्श मण्डल- ज्योतिप्रसाद बैन, श्री लक्मीचन्द्र जैन, सम्पाक-श्री पवन शास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयधारोन वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बादर्स प्रिटिंग प्रेस के-१२, नबोन शाहदरा
दिल्ली-३३ मुहिता
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वीर सेवा मन्दिर का मासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर')
अप्रैल-जून १९५५
वर्ष ३६: कि०२
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इस अक में
विषय १. संबोधन २. जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता श्री भट्टाकलकदेव
-डॉ. ज्योतिप्रमाद जैन ३. रूपशतक एक अनूठी आध्यात्मिक कृति
-~-श्री कुन्दनलाल जैन ४. स्वयम् की भाषा और देशी तन्य
-~-डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर ५ भागलपुर की प्राचीन जन प्रतिमाए
-डॉ. अजयकुमार सिन्हा ६. नागौर तथा उममें स्थित भट्टारकीय दि. जैन
ग्रन्थ भडार की स्थापना एव विकाम का मक्षिप्त
इतिहास-डॉ० पी० सी० जैन ७. जनदर्शन में द्रव्याधिक और पर्यायाधिक नय __ - -श्री अशोककुमार जैन
८. जैन साहित्य में वर्णित जन-जातिया | -डॉम मुमन जैन
१. बाहर-भीतर--श्री बाबूलाल जैन |१०. विचारणीय प्रसंग-श्री पपचन्द्र शास्त्री
११. म्वाध्याय और उसकी महत्ता-कु. राका जैन १२. जरा सोचिए-सम्पादक १३. साहित्य-समीक्षा
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वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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सविनय श्रद्धांजली
ऐसा कोनसा धर्मानुरागी है जो सम्यग्दर्शन-शान-नारिव के साधक, अध्यात्म-रसिक, जैनसिद्धान्त धी जिनेन्द्र वर्णी (श्री सिद्धान्त सागर जी) से परिचित न हो? उनसे सभी परिचित हैं। जिसने एक बार उन्हें निरखा वह तृप्त हो गया। वर्णी जी के मन-वचन और काया तीनों संयम के मूर्तरूप थे। दूसरे शब्दों में वे 'मन में हो सो वचन उचरिए, वचन होय सो तन सों करिए' का पूर्ण रूपेण निर्वाह करते रहे । व्यवहार जगत में जहां लोग बड़ी से बड़ी कही जाने वाली विभूति में भी गुण-दोषों का विभाजन करते देखे जाते हैं वहां उन्हें वर्णी जी में सदा गुण ही परखने को मिलते रहे। वे वास्तव मे संतसत्पुरुष थे।
वर्णी जी का सैद्धान्तिक ज्ञान उनकी अपूर्व, अनूठी रचनाओं से ही उजागर रहा है। 'समणसुत्त', 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' और 'शान्तिपथप्रदर्शक' आदि के निर्माण उनकी ऐसी देन हैं जो 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' उनके स्मरण को बल देती रहेंगी। जो भी इन्हे पढ़ेगा, प्रचार में लाएगा अपूर्व पुण्योपार्जन का भागी होगा। हर्ष है कि उदारमना साहू श्री अशोक कुमार जैन ने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष के द्वितीय मरकरण को भारतीय ज्ञानपीठ से पुनर्मुद्रण कराने का सकल्प प्रकट किया है। जैन ग्रन्थो के प्रकाशन में भा० ज्ञानपीठ का अनूठा योगदान है।
वणी जी का त्याग सर्वथा त्याग के लिए था। यह प्रवृत्ति क्वचित् ही-कठिनता से दष्टिगोवर होती है। जहां लोग त्यागकर कुछ ग्रहण करने की भावना रखते हैं और नही तो यश-कीर्ति, पूजाप्रतिष्ठा ही सही। वहा वर्णी जी कुछ नही चाहते थे। यदि उनकी चाह थी भी तो यही कि वे त्यागत्याग और सर्वस्व त्याग की ओर बढ़े और एक दिन ऐसा आए कि निष्परिग्रही-अन्तरग व बहिरग परिग्रहों से मुक्त हो जाएँ। यही जैन दर्शन का सिद्धान्त है जहा आत्मा-आत्मा मे रह जाती है, शूधनिर्विवाल्प हो जाती है।
जीवन के अन्तिम क्षणो तक बर्णी जी ने अपने प्रण-पण का निर्वाह किया। उन्होने १२ अप्रैल १९८३ को सल्लेखना लेकर २४ मई १९८३ को समाधि-मरण प्राप्त किया। वे सदा ही अपने धर्मसाधन के प्रति जागत रहे। हमें उनकी जीवन-चर्या से बहुत कुछ सीखना है। वे हमारे गुरु थे, हमे मार्ग प्रशस्त कर गए। वीर सेवा मन्दिर परिवार उनके अमीम उपकार के लिए, उनके कृत्यों के प्रति अवाबनत होते हुए उन्हें सादर श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है।
---सुभाष जैन
महासचिव वीर रोवा मन्दिर, दरियागंज, नई दिल्ली
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ओम् अहम्
Saree
- AM
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परमागमस्य बोजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत २५०६, वि० स०२०४०
वर्ष ३६ किरण २
अप्रैल-जून १९८३
सम्बोधन
कहा परदेसी को पतियारो। मन मानं तब चल पंथ कों, सांझिगिने न सकारो। सब कुटुम्ब छोड़ि इतही, पुनि त्यागि चल तन प्यारो॥१॥ दूर वितावर चलत प्रापही, कोउ न राखन हारो। कोऊ प्रीति करो किन कोटिक, ग्रंत होयगो यारो॥२॥ धन सौ रुचि धरम सों मूलत, झलत मोह मझारो। इहि विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहि भव पारो॥३॥ सांचे सुख सौं विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतह चेत सुनह रे 'भैया' माप ही पाप संभारो॥॥
कहा परदेसी को पतियारो॥ गरब नहि कोरे एनर निपट गंवार । झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीज रे। कछिन सांझ सुहागर जोबन, के दिन जग में जीजे रे॥ बेगहि चेत बिलम्ब तजो नर, बंध बड़े थिति कीजैरे। 'भूधर' पल-पल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजरे॥
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जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता श्रीमद् भट्टाकलंकदेव
। इतिहासमनीषो डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन 'विद्यावारिषि'
प्रायः छठी शती ई. के मध्य से लेकर १२वी शती साहित्य के इस दौर के वास्तविक सस्थापक श्रीमद के अन्त पर्यन्त जैन साहित्याकाश का सर्वोपरि मखर स्वर भट्टअकलंकदेव ही थे, जिन्होने अपने प्रायः समस्त न्यायशास्त्र रहा'-सन्मति सूत्र प्रणेता सिद्धसेन दिवाकर उत्तरवर्ती लेखको को प्रभावित एव प्रेरित किया--मात्र (ल. ५५०-६०० ई०), द्वादशारनयचक्र के कर्ता मल्ल- जन विद्वानों को ही नही, ब्राह्मण एवं बौद्ध दार्शनिको को वादी (ल० ६०० ई०) त्रिलक्षण-कदर्थन के रचयिता भी प्रभावित किया। पात्रकेसरि (ल. ५७५-६०० ई.), अकलङ्कदेव महान,
यह अकलकदेव या भट्टाकलकदेव जैन परपरा में न्यायावतारकार सिद्धसेन (ल० ७००-७५० ई०), अनन्त
अकलक नाम के प्रथम ज्ञात आचार्य है। मात्र पूज्यपाद, कीर्ति प्र. (ल. ७५० ई०), याकिनीसन हरिभद्रसरि देव, देवेन्द्र, मुनीन्द्र, वादिसिंह जैसे विरुदो से भी परवर्ती (ल० ७५०-८२५ ई०), बृहद् अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र प्र०,
साहित्य में इनका कई बार उल्लेख हुआ है।' वह सर्वपरवादिमल्ल, विद्यानन्द (ल. ७७५-८२५ ई०), रवि
महान जैन नैयायिक, ताकिक एव वादी थे, और भारतीय भद्रपादोपजी िपनन्तवीर्य (ल०८००ई०), चन्द्रकीति, न्याय दर्शन की जैन शाखा के वास्तविक संस्थापक थे। अनन्तवीर्य द्वि०, नामदेव (ल.86५-७५ ई०), माइल्ल- वस्तुत , विभिना सप्रदायो के नैयायिको की दृष्टि मे जैन धवल, माणिक्यनन्दि (ल. ६६५-१०००ई०), अभयदेव
न्याय और अकलकन्याय पर्यायवाची शब्द बन गये। (ल. १००० ई०), नरेन्द्रसेन, वादिराज (ल० १०००
अकलंकदेव के कई टीकाकार भी परम उद्भट नैयायिक १०३५ ई.), महापडित प्रभाचट (लगभग १०१०- थे और वह स्वय दिगम्बर-श्वेताम्बर उभय-सम्प्रदायो के १०६०ई०), जिनेश्वरसरि (ल. १०५० ई.), वादीभ- तथा जैनेतर सम्प्रदायो के भी अनगिनत मनीषियो की सिंह अजितसेन (ल० १०५०-१०१० ई.), महासेन प्रशंसा के पात्र बने। अनेको शिलालेखो, साहित्योल्लेखो, (१०५४ ई०), देवसेन (१०६८ ई०), चन्द्रप्रभ (१०१२ एव लोकानुश्रुतियों में इन आचार्य प्रवर के प्रति परवर्ती ई०), वसुनन्दि (ल० ११००-५०ई०), लघ अनन्तवीर्य पीढियो की श्रद्धा मुखर हुई। (११०५-१७ ई.), हेमचन्द्राचार्य (११०९-७२ ई०), अकलकदेव को सुनिश्चित रूप से ज्ञात एव उपलब्ध मुनिचन्द्र, वादिदेवसूरि (१९१७-६६ ई०), शान्तिसूरि कृतियां है : (ल० ११२५ ई०, कुमुदचन्द्र, विमलदास (ल० ११५० १. उमास्वामिकृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की अत्यन्त ई०), शान्तिषेण, मल्लिषेण (११५८ ई०), रत्नप्रभ विद्वतापूर्ण विशद एव विशाल टीका, तत्वार्थ राजवातिक, ११६६ ई०), अभयचन्द्र, अजितसेन, रामचन्द्रसूरि, २. समन्तभद्राचार्य (२री शती ई०) की आप्तमीमासा देवभद्र, लघुसमन्तभद्र (ल० १२०० ई०), चन्द्रसेन, अपर नाम देवागम की ८०० पद्यो मे रचित पाडित्यपूर्ण प्रद्युम्नसूरि, चारुकीर्ति पडितदेव (ल. १२०० ई०), टीका, अष्टशती, ३. लघीयस्त्रय ४. न्यायविनिश्चय प्रभादेव सौख्यनन्दि (ल. १२०० ई०), पं० आशाधर, ५. सिद्धिविनिश्चय, ६. प्रमाण सग्रह या प्रमाणसार संग्रह प्रभृति लगभग पचास न्याय निष्णात जैन दार्शनिको ने -अकलङ्कदेव की समस्त कृतियां जैन न्याय के सवोत्कृष्ट जैन न्याय के इस तथाकथित मध्ययुगीन सम्प्रदाय का रत्न हैं और शेढ़ संस्कृत भाषा मे निबद्ध हैं । 'स्वरूपप्रोत्साह संवर्धन एवं पोषण किया। किन्तु जैन दार्शनिक संवोधन' आदि कई अन्य ग्रंथो के कृतित्व का श्रेय भी
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जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता - श्रीमद् मट्टाकलंकदेव
उन्हें दिया जाता हैं, किन्तु उनमे से जो उपलब्ध है, वे परवर्ती लेखकों की कृतियां प्रतीत होती है।
प्राचीन काल के अन्य अनेक महान आचायों की भांति अकलङ्कदेव भी स्वय अपने विषय में प्राय कोई ज्ञानव्य प्रदान नही करते — उनकी कुछ कृतियो मे उनका नामोल्लेख मात्र प्राप्त होता है, केवल तत्त्वार्थ राजवार्तिक के एक पद्य से ज्ञात होता है कि वह लघुहव्व नामक किसी नृपति के पुत्र थे । अकलङ्कष्टक-सह-अकलङ्कचरित नामक एक लघु रचना का धेय भी स्वयं अकलंकदेव को दे दिया जाता है, किन्तु अधिक सम्भावना यही है कि वह उनके किसी नातिदूर परवर्ती प्रणवक की कृति है। इसमे अकलङ्कदेव के मुख से किन्ही राजन् - माहसत्तुग की राजसभा मे बौद्धो पर प्राप्त अपनी वाद विजय का सक्षिप्त विवरण दिया गया है, और उक्त घटना की तिथि. वि०स० ७०० (अर्थात् ६४३ ई०) भी सूचित कर दी गई है। दशवी शती ई० से ही अकलहू की बीढानायों पर प्राप्त इस महत्वपूर्ण दाद विजय का उल्लेख अनेक गिनाने तथा ग्रन्थो मे प्राप्त होने लगता है विशेष कर, ११२ ई० की मल्लिपेण प्रशस्ति नामक शि० ले० मे उक्त घटना का विस्तृत वर्णन है जो अकलङ्कपरित के कपन की पुष्टि करता है, और बताता है कि उक्त शास्त्रार्थं महाराज हिमशीतल की राजसभा मे हुआ था तथा उक्त अवसर पर बौद्धाचार्यने अपनी सहायतार्थ तारादेवी का आह्वान किया था " । प्रभाचन्द्र के आराधनासत् - कथा प्रबन्ध ( ११वी शनी) के अनुसार अकलङ्क का भक्त नरेश मान्यखेट का राजा शुभतुग था, जिसका पुरुषोत्तम नामक ब्राह्मण मन्त्री ही स्वयं उनका पिता था, तथा उक्त शास्त्रार्थ कलिंग नरेश हिमशीतल के समक्ष रत्न- सचयपुर मे हुआ था" श्रीचन्द्र और ब्रह्म नेमि त के कथाकोणो मे प्राय उसी की पुनरावृत्ति है। क हिमशीतलक (१८०० ई०), राजाबलिक तथा भुवनप्रदीपिका (१८०८ ई०) भी स्थूलतया कथाकोशां के कथन का ही समर्थन करते है, किन्तु वे अकलङ्क को तामिल देशवासी या कर्णाटक का निवासी सूचित करते हैं, जबकि कथाकोशो का इति महाराष्ट्र की ओर है। माहसग के विषय में ये ग्रन्थ मौन हैं, और हिमशीतल को काञ्ची
का राजा रहा बताते हैं, जो उक्त वादविजय के परिणाम स्वरूप जैनधर्म का अनुयायी बन गया था और उसने arat का उत्पीडन किया था । भुवनप्रदीपिका के अनुसार हिमशीतल तुण्डीर देश का राजा था और घटना की तिथी कलि स० ११२५ पिंगलसवत्मर थी" । अजितसेन ने न्यायमणिदीपिका की प्रशस्ति मे सकल राजाधिराजपरमेश्वर हिमशीतल के महास्थान को बादस्थल सूचित किया है"। पीटरसन ने किसी अनुश्रुति के आधार पर अकलङ्क को राष्ट्रकूट कृष्ण प्र० (७५६-७२ ई०) का पुत्र सूचित किया" ।
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उपरोक्त तथ्यों तथा सुप्रसिद्ध जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मणीय विद्वानों के साथ जो अकलक द्वारा उल्लेखित हुए अथवा जिन्होने अकलक का प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख किया, स्वय अकलक की सममामयिकता एवं पूर्वापर के आधार पर आधुनिक युगीन विद्वानों में अकलङ्क की तिथी एवं जाति-कुलादि को लेकर गया उनके भक्त नरेशों माहमत्तुग एवं हिमशीतल की पहिचान को लेकर, पर्याप्त उहापोह एवं गद विवाद हुए है। मन जनाब्दी के प्रारंभिक दशकों में होने वाले मेसनमा सर्वप्रथम विद्वान थे जिनने उक्त आचार्य के विषय मे ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया" कल मेकेजी के उल्लेखों के आधार पर विल्सन ने यह निष्कर्ष निकाला कि 'आठवी शती ई० मे धरण बेलगोल के जैन गुरु अकलङ्क ने, जिनकी अशन शिक्षा त्रिवत्तूर के निकटस्थ पोन्नग के बौद्ध अधिष्ठान मे हुई थी, काची के अन्तिम बौद्धराजा हिमशीतल के समक्ष बौद्धो से वाद किया और उन्हें पराजित किया था। फलस्वरूप राजा ने भी जैन धर्म अपना लिया और बौद्धों को अपने राज्य से निर्वाचित करके (सिंहलद्वीप के ) कंन्डी नामक स्थान में भेज दिया या" विल्सन का अनुसरण करते हुए जान मुरडोख ने वाद की तिथी लगभग ८०० ई० अनुमानित की और राबर्ट सिवेल ने तो ठीक ७८८ ई० निर्धारित कर दी" । बी० एल० राईस ने गिवेल के मन का समर्थन तो किया, उसे इस विषय में भी कोई सन्देह नही था कि हिमशीतल काञ्ची का कोई पल्लव नरेश था, किन्तु यह भी सूचित कर दिया कि वाद की तिथि के विषय मे स्वयं जैनों का
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४बर्ष ३५ कि.२
अनेकान्त
अविस्मरणीय वाक्य सप्त शैलादि' आदि है, जिसके अनु- उल्लेख या उनके उद्धरण आदि अपने ग्रन्थों में देते पाये सार वह तिथि शक ७७७ (या ८५५ ई०) बैठती है। जाते हैं। साहसत्तुंग को चीन्हने मे उसने अपनी असमर्थता भी स्वी- जैनेतर विद्वानो मे पतञ्जलि के महाभाष्य (ईसापूर्व कार की"। तदुपरान्त प्रायः किसी भी विद्वान ने हिम- २री शती), वसुबन्धु के अभिधर्मकोष (ल. ४००ई०) शीतल की इस पहिचान पर सन्देह नहीं किया और अनेको दिङ्नाग के प्रमाण समुच्चय (३४५-४२५ ई०) और ने ७८८ ई० की तिथि को भी मान्य किया।
भर्तृहरि के वाक्यपदीय (५६०-६५० ई०) से अकला जहां तक साहसत्तुग की चीन्ह का प्रश्न है, डा० अपने ग्रन्थो मे उद्धरण देते है, उनके मतों की आलोचना पाठक ने उसका समीकरण पहले राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्र० करते है, अथवा उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत करते हैं, (७५६-७२ ई० के साथ किया था, और डा० स० च० स्वयं अकल देव के मूविदित टीकाकार हैं- अभयविद्याभूषण ने उनका समर्थन किया था। कालान्तर मे
चन्द्र (१२वी शती), प्रभाचन्द्र (६८०-१०६५ ई०), वादिपाठक ने अपने पूर्वमत मे संशोधन करके उसका समीकरण राज (१०२५ ई०), अनन्तवीर्य द्वि० (ल० ८२५ ई.) राष्ट्रकुट दन्तिदुर्ग (७४५-५६ ई०) के गाथ कर दिया। और अनन्तवीर्य प्र. (ल. ७२५-५० ई०)। इसके अतितब से इस पहिचान पर भी किसी विद्वान ने प्रश्न चिन्ह रिक्त, जिनसेनीय आदि पुराण (ल. ८३७ ई.), हरिभद्रनही लगाया-केवल डॉ. अल्तेकर एव डा. उपाध्येय ने मरि ल. ७२५-६२५ ई.) की अनेकात : उसे एक निराधार अनुमान मात्र माना"।
जिनसेन पुन्नाट के हरिवश (७८३ ई०), वीरसेनीय धवला उपरान्त काल में कई विद्वानों ने आठवी शती ई० टीका (७८० ई०) तथा सिद्धसेनगणि के तत्त्वार्थभाष्य के उत्तरार्ध वाली (७८८ ई० आदि) तिथि को सर्वथा (ल. ७५० ई०) मे अकलङ्कदेव का गुणगान, प्रशसा या अस्वीकृत कर दिया और परम्परागत तिथि वि० स० ७०० प्रत्यक्ष वा परोक्ष उल्लेख प्राप्त है"। जिनदाम गणि (ई०६४३), की एम्भवनीयता की पुष्टि करने का प्रयत्न महत्तर, जिनने अपनी नन्दिचूणि शक ५६८ (या ६७६ ई०) किया"। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने तो स्वय अकलङ्क मे पूर्ण की थी, अपनी निशीथचूणि मे अकलङ्ककृत सिद्धितथा उक्त शताब्दियों के अन्य जैन एव जैनेतर विद्वानों
विनिश्चय को एक 'प्रभावक शास्त्र कहते है। द्वारा किये गये पारस्परिक उल्लेखों आदि के आधार पर अकलङ्क देव की कृतियो का भर्तृहरि (५६०-६५० उनका पूर्वापर प्रकट करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि ई.) कमारिलभट (200-६६. f. अकलडू सातवी शत्ती ई० मे ही हुए है" । किन्तु इन मब (६३५-४० ई० की मतियो के साथ तुलनात्मक अध्ययन विद्वानों ने अकलङ्कीय अनुश्रुति के हिमशीतल एवं माह- करने से लगता है कि जैसे ये सब विद्वान प्रायः समसामसत्तंग वाले पक्षों का स्पर्श नहीं किया और न ६४३ ई. यिक एव दार्शनिक क्षेत्र में साक्षात् प्रतिद्वन्द्वी थे-वे की परम्परागत तिथि की ऐतिहासिकना पर ही कोई
परस्पर आलोचना-प्रत्यालोचना करते प्रतीत होते हैं। गदेषणा की।
अकलडू की उनके साथ अल्पाधिक समसामयिकता अवश्य इन महान आचार्य से सम्बन्धित मूल साधन स्रोतो, रही लगती है, कम से कम उनके तथा अकलङ्क के मध्य अनुश्रुतियो एवं आधुनिकयुगीन चर्चाओ के निरीक्षण- दो-एक दशको से अधिक का अन्तराल रहा नहीं लगता। परीक्षण से निम्नोक्त तथ्य उभर कर सम्मुख आते है- अकलडू की परम्परागत तिथि, वि० स० ७ ० (या
अकलङ्कदेव उमास्वामि (प्रथम शती ई०) और मम- ६४३ ई.) की मान्यता की प्राचीनता कम से कम हवी न्तभद्राचार्य (२री शती ई०) के टीकाकार सुविदित है, शती ई० मिलती है। तथा वह श्रीदत्त (ल. ४०० ई०), देवनन्दि-पूज्यपाद भुवनप्रदीपिका मे वह तिथि कलि सं० ११२५ पिंगल (४६४-५२४), सिद्धसेन दिवाकर (५५०-६०० ई०), पात्र- वर्ष के रूप में प्राप्त होती है। एक लोकानुथुति के अनुकेसरि (५७५-६२५ ई.) और मल्लवादी (६००)ई. के मार कलिसवत का प्रारम्भ प्रथम नन्द नरेश के सिंहा
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मैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता-भीमद् भट्टाकलंकवेष सनारोहण से हुआ था और हरिवंश पुराण में सुरक्षित है" । इस विषय मे अब तनिक भी सन्देह नहीं है कि इन जैन अनुश्रुति उक्त घटना की तिथि विक्रमपूर्व ४२५ सूचित 'पूज्यपाद' से अभिप्राय अकलङ्क देव का ही है"। अपनी करती हैं। अतएव ११२५ मे से ४२५ घटाने पर विक्रम धवला टीका (७५०ई०) में स्वामि वीरसेन ने भी अकवर्ष ७०० प्राप्त होता है, और उस वर्ष का संवत्सर भी लङ्कदेव का मात्र 'पूज्यपाद' नाम से ही स्मरण एवं पिंगल ही था।
_उल्लेख किया है तथा उनके ग्रन्थो से उद्धरण दिये है"। ११२८ ई० की मल्लिषेण प्रशस्ति के अनुसार अक. अकलङ्कदेव एक महान सपाचार्य थे और वह देवगण (या लकूदेव के एक कनिष्ठ सधर्मा पुष्पसेन थे। जिनके शिष्य देवसघ) से ही सम्बद्ध थे, नन्दि या देशियगण से नहीं"। महानवादी विमलचन्द्र थे जो कि 'शत्रुभयंकर' नामक उन्हे तथा उनके उत्तराधिकारियो को मुख्यतया वातापी किसी नरेश की राजसभा से सम्बद्ध थे। विमलचन्द्र के के पश्चिमी चालुक्य नरेशो का सरक्षण एवं राज्याश्रय प्रशिष्य परवादिमल्ल भी भारी वादी एवं ताकिक थे और प्राप्त था, और वे एक प्रमिद्ध ज्ञानकेन्द्र के अधिष्ठाता उनका सम्बन्ध कृष्णराज नामक एक नरेश से था"। जो रहे, जो चालुक्यो की राजधानी वातापी (बादामी) से विद्वान अकलङ्कको वी शती ई० मे हुआ मानते रहे, नातिदूर सभवतया एहोल अथवा उक्त अलक्तकनगर में उन्होंने उक्त दोनों राजाओं को भ्रमवश राष्ट्रकूट गोविन्द स्थित था। (७१३-१४ ई०) तथा राष्ट्रकूट कृष्ण द्वि० (८८४- अकलङ्कदेव का भक्त 'राजन साहसत्तुंग' चालुक्य
के साथ क्रमशः समीकृत करने का प्रयत्न नरेश पुलकेशिन द्वि० (६०६-४२ ई०) के पुत्र एवं उत्तराकिया" । उक्त परवादिमल्ल ने न्यायबिन्दु पर रचित बौद्ध धिकारी सम्राट विक्रमादित्य प्रथम (६४२-८१ ई.) से विदान धर्मोत्तर (७२५-५०ई०) के टिप्पण पर अपनी अभिन्न प्रतीत होता है-'विक्रम' शब्द 'साहस' शब्द का टीका लिखी है । और परवादिमल्ल के एक प्रशि य को पर्यायवाची है, और विक्रमांक, साहमाक, माहसोत्तुग जैसे गुजरात के राष्ट्रकूट वायसराय कर्कराज ने शक ७४३- विरुद इम वश के, विशेषत विक्रमादित्य नामधारी नरेशों ८२१ ई.) के ताम्रशासन द्वारा दान दिया था"। अतएव के साथ उस काल मे भी मास इन परवादिमल्ल से सम्बन्धित नरेश राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम कल्याणीशाखा के समय भी, प्रयुक्त हुए मिलते हैं। यह (७५८-७३ ई० ही हो सकता है। इसी प्रकार, बिब- भी एक सम्भावना है कि राष्ट्रकूट दतिदुर्ग ने, जिसका क्षित "शत्रभयंकर" गंगनरेश श्री पुरुष मुत्तरस (७२६. राज्यारभ अब ८वी शती के दूसरे दशक मे हुआ माना ७७ ई.) से अभिन्न है। अनेक गग अभिलेखा में इस जाने लगा है, और जिसने उक्त चालुक्यो को परास्त (पगनरेश का एक विरुद 'अरिभयंकर', जो 'शत्रुभयकर' का भत) करके अपना राज्य शक्ति स्थापित की ही पर्यायवाची है, प्राप्त होता है-स्वय उसके अपने उनका 'साहसत्तग' विरुद भी अपनाने का प्रयत्न किया राज्यकाल के एक अभिलेख मे जो शक ६६८ (ई० ७७६) हो, अथवा 'साहमांक' को कुछ परिवर्तित करके। में अकित हुआ था यह विरुद प्राप्त है"। इस अभिलेख इसी प्रकार अकलङ्कीय अनुश्रुति का राजा हिममें विमलचन्द्र का भी उल्लेख है और उक्त उल्लेख से शीतल भी कलिंग देश का वह नरेश जो 'त्रिकलिंगाधिप्रतीत होता है कि उक्त आचार्य आठवी शती ई० के मध्य पति' कहलाता था, और जो मूलत: बौद्ध था तथा जिसके से पूर्व हुए होने चाहिए"।
स्वय के अथवा निकट पूर्वज के समय मे चीनी यात्री ७वी तो ई० के अन्तिम चरण तथा ८वी शती के हुएनमाग ने ६४३ ई० मे कलिंग की यात्रा की थी, रहा प्रारम्भिक दशकों के कई चालुक्य अभिलेखो मे देवगण के प्रतीत होता है । कलिंग देश के हीरक-रेणु तट पर स्थित किन्ही 'पूज्यपाद के शिष्यों एवं प्रशिष्यो के उल्लेख प्राप्त रत्नपुर या रत्नसचयपुर नाम का एक नगर भी उस युग होते हैं और इन पूज्यपाद को अलक्तक नगर (वर्तमान में था। वही उक्त महाराज हिमशीतल के समक्ष अकलङ्क मल्तेम, महाराष्ट्र मे) का निवामी रहा सूचित किया गया देव का वह इतिहाम प्रसिद्ध शस्त्रार्थ बौद्ध विद्वानों के माथ
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५, वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
अविस्मरणीय वाक्य सप्त शैलाद्रि' आदि है, जिसके अनु- उल्लेख या उनके उदरण आदि अपने ग्रन्थों में देते पाये सार वह तिथि शक ७७७ (या ८५५ ई०) बैठती है। जाते हैं। साहसत्तुंग को चीन्हने में उसने अपनी असमर्थता भी स्वी- जेनेतर विद्वानों में पतञ्जलि के महाभाष्य (ईसापूर्व कार की"। तदुपरान्त प्रायः किसी भी विद्वान ने हिम- २री शती), वसुबन्धु के अभिधर्मकोष (ल. ४००६०) शीतल की इस पहिचान पर सन्देह नहीं किया और अनेको दिङ्नाग के प्रमाण समुच्चय (३४५-४२५ ई०) और ने ७८८ ई० की तिथि को भी मान्य किया।
भर्तृहरि के वाक्यपदीय (५६०-६५० ई०) से अकलङ्क जहां तक साहसत्तुग की चीन्ह का प्रश्न है. डा० अपने ग्रन्थो मे उद्धरण देते हैं, उनके मतो की आलोचना पाठक ने उसका समीकरण पहले राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्र० करते है, अथवा उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत करते हैं। (७५६-६२ ई० के साथ किया था, और डा० स० च० स्वय अकलङ्क देव के मुविदित टीकाकार हैं-अभयविद्याभषण ने उनका समर्थन किया था"। कालान्तर में चन्द्र (१२वी शती), प्रभाचन्द्र (९८०-१०६५ ई०), वादिपाठक ने अपने पूर्वमत में मशोधन करके उमका समीकरण राज (१०२५ ई०), अनन्तवीर्य द्वि० (ल० ८२५ ई.) राष्टकट दन्तिदूर्ग (७४५-५६ ई०) के माथ कर दिया"। और अनन्तवीर्य प्र. (ल. ७२५-५० ई०)। इसके अतितब से इस पहिचान पर भी किसी विद्वान ने प्रश्न चिन्ह रिक्त, जिनसेनीय आदि पुराण (ल. ५३७ ई.), हरिभद्रनहीं लगाया केवल डॉ. अल्तेकर एव डा० उपाध्येय ने सरि (ल. ७२५-८२५ ई०) की अनेकान्त जयपताका, उसे एक निराधार अनुमान मात्र माना।
जिनसेन पुन्नाट के हरिवश (७८३ ई०), वीरसेनीय धवला उपरान्त काल मे कई विद्वानो ने आठवी शती ई० टीका (७८० ई०) तथा सिद्धसेनगणि के तत्त्वार्थभाष्य के उत्तरार्ध वाली (७८८ ई० आदि) तिथि को सर्वथा (ल. ७५० ई०) मे अकलड्डूदेव का गुणगान, प्रशसा या अस्वीकृत कर दिया और परम्परागत तिथि वि० स०७०० प्रत्यक्ष वा परोक्ष उल्लेख प्राप्त है । जिनदास गणि (ई०६४३), की एम्भवनीयता की पुष्टि करने का प्रयत्न महत्तर, जिनने अपनी नन्दिचूणि शक ५६८ (या ६७६ ई.) किया"। प० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने तो स्वयं अकलङ्क मे पूर्ण की थी, अपनी निशीथणि मे अकलङ्ककृत सिद्धितथा उक्त शताब्दियो के अन्य जैन एवं जैनेतर विद्वानो विनिश्चय को एक 'प्रभावक शास्त्र कहते हैं। द्वारा किये गये पारस्परिक उल्लेखों आदि के आधार पर अकलङ्क देव की कृतियों का भर्तृहरि (५६०-६५० उनका पूर्वापर प्रकट करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि ई०), कुमारिलभट्ट (६००-६६० ई०) एव धर्मकीति अकलङ्क सातवी शती ई० मे ही हुए हैं। किन्तु इन मब (६३५-४० ई० की मृतियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन विद्वानों ने अकलवीय अनुश्रुति के हिमशीतल एवं माह- करने से लगता है कि जैसे ये सब विद्वान प्रायः समसामसत्तुंग वाले पक्षो का स्पर्श नहीं किया और न ६४३ ई०
यिक एव दार्शनिक क्षेत्र में साक्षात् प्रतिद्वन्द्वी थे-वे की परम्परागत तिथि की ऐतिहासिकता पर ही कोई परम्पर आलोचना-प्रत्यालोचना करते प्रतीत होते है। गदेषणा की।
अकलहू की उनके साथ अल्पाधिक समसामयिकता अवश्य इन महान आचार्य से सम्बन्धित मूल साधन स्रोतो, रही लगती है, कम से कम उनके तथा अकलङ्क के मध्य अनुश्रुतियों एवं आधुनिकयुगीन चर्चाओ के निरीक्षण- टोकको से अधिक परीक्षण से निम्नोक्त तथ्य उभर कर सम्मुख आते है- अकलङ्क की परम्परागत तिथि, वि० स० ७ ० (या ___अकलङ्कदेव उमास्वामि (प्रथम शती ई०) और सम- ६४३ ई.) की मान्यता की प्राचीनता कम से कम हवी न्तभद्राचार्य (२री शती ई.) के टीकाकार सुविदित है, शती ई० मिलती है। तथा वह श्रीदत्त (ल० ४०० ई०), देवनन्दि-पूज्यपाद भुवनप्रदीपिका में वह तिथि कलि सं० ११२५ पिंगल (४६४-५२४), सिद्धसेन दिवाकर (५५०-६०० ई०), पात्र- वर्ष के रूप मे प्राप्त होती है। एक लोकानुश्रुति के अनुकेसरि (५७५-६२५ ई.) और मल्लवादी (६००)ई. के सार कलिसंवत का प्रारम्भ प्रथम नन्द नरेश के सिंहा
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जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता-श्रीमद् भट्टाकलंकदेव सनारोहण से हुआ था और हरिवंश पुराण मे सुरक्षित है"। इस विषय में अब तनिक भी सन्देह नही है कि इन जैन अनुश्रुति उक्त घटना की तिषि विक्रमपूर्व ४२५ सूचित 'पूज्यपाद' से अभिप्राय अकलह देव का ही है। अपनी करती हैं। अतएव ११२५ में से ४२५ घटाने पर विक्रम धवला टीका (७८० ई.) में स्वामि वीरसेन ने भी अकवर्ष ७०० प्राप्त होता है, और उस वर्ष का संवत्सर भी लङ्कदेव का मात्र 'पूज्यपाद' नाम से ही स्मरण एवं पिंगल ही था।
उल्लेख किया है तथा उनके ग्रन्थों से उद्धरण दिये है"। ११२८ ई० की मल्लिषेण प्रशस्ति के अनुसार अक. अकलङ्कदेव एक महान सघाचार्य थे और वह देवगण (या लङ्कदेव के एक कनिष्ठ सधर्मा पुष्पसेन थे। जिनके शिष्य देवसंघ) से ही सम्बद्ध थे, नन्दि या देशियगण से नहीं। महानवादी विमलचन्द्र थे जो कि 'शत्रुभयंकर' नामक उन्हे तथा उनके उत्तराधिकारियो को मुख्यतया वातापी किसी नरेश की राजसभा से सम्बद्ध थे। विमलचन्द्र के के पश्चिमी चालुक्य नरेशो का सरक्षण एव राज्याश्रय प्रशिष्य परवादिमल्ल भी भारी वादी एवं ताकिक थे और प्राप्त था, और वे एक प्रमिद्ध ज्ञानकेन्द्र के अधिष्ठाता उनका सम्बन्ध कृष्णराज नामक एक नरेश से था"। जो रहे, जो चालुक्यो की राजधानी वातापी (बादामी) से विद्वान अकलङ्कको ८वी शती ई० में हुआ मानते रहे, नातिदूर सभवतया एहोल अथवा उक्त अलक्तकनगर में उन्होंने उक्त दोनों राजाओ को भ्रमवश राष्ट्रकूट गोविन्द स्थित था। त० (७६३-८१४ ई०) तथा राष्ट्रकूट कृष्ण द्वि० (८८४- अकलदेव का भक्त 'राजन साहसत्तुग' चालुक्य ११४ ई.) के साथ क्रमशः समीकृत करने का प्रयत्न नरेश पुलकेशिन द्वि० (६०६-४२ ई.) के पुत्र एव उत्तराकिया"। उक्त परवादिमल्ल ने न्यायबिन्दु पर रचित बौद्ध धिकारी सम्राट विक्रमादित्य प्रथम (६४२-८१ ई०) से विद्वान धर्मोत्तर (७२५-५०ई०) के टिप्पण पर अपनी अभिन्न प्रतीत होता है-'विक्रम' शब्द 'साहस' शब्द का टीका लिखी है। और परवादिमल्ल के एक प्रशि य को पर्यायवाची है, और विक्रमाक, साहमाक, माहसोत्तग जैसे गुजरात के राष्ट्रकट वायसराय ककराज ने शक ७४३. विरुद इस वश के, विशेषत विक्रमादित्य नामधारी नरेशों
२१ ई.) के ताम्रशासन द्वारा दान दिया था" | अतएव के साथ, उस काल में भी तथा उनकी उत्तरकालीन इन परवादिमल्ल से सम्बन्धित नरेश राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम कल्याणीशाखा के समय भी, प्रयुक्त हुए मिलते हैं। यह (७५५-७३ ई० ही हो सकता है"। इसी प्रकार, बिब- भी एक माता! क्षित "शत्रभयंकर" गंगनरेश श्री पुरुष मुत्तरस (७२६. राज्यारभ अब ८वी शती के दूसरे दशक मे हुआ माना ७७७०) से अभिन्न है। अनेक गग अभिलेखो में इस जाने लगा है, और जिसने उक्त चालुक्यो को परास्त (परानरेश का एक विरुद 'अरिभयंकर', जो 'शत्रुभयकर' का भूत) करके अपना राज्य एव शक्ति स्थापित की थी। ही पर्यायवाची है, प्राप्त होता है-स्वय उसके अपने उनका 'साहसत्तुग' विरुद भी अपनाने का प्रयत्न किया राज्यकाल के एक अभिलेख मे जो शक ६६८ (ई० ७७६) हो, अथवा 'साहमांक' को कुछ परिवर्तित करके। में अंकित हुआ था यह विरुद प्राप्त है"। इस अभिलेख इसी प्रकार अकलङ्कीय अनुश्रुति का गजा हिममें विमलचन्द्र का भी उल्लेख है और उक्त उल्लेख से शीतल भी कलिंग देश का वह नरेश जो 'त्रिकलिंगाधिप्रतीत होता है कि उक्त आचार्य आठवी शती ई० के मध्य पति' कहलाता था, और जो मूलत: बोद्ध था तथा जिसके से पूर्व हुए होने चाहिए"।
स्वय के अथवा निकट पूर्वज के समय में चीनी यात्री वी शती ई० के अन्तिम चरण तथा ८वी शती के हुएनमाग ने ६४३ ई० में कलिंग की यात्रा की थी, रहा प्रारम्भिक दशकों के कई चालुक्य अभिलेखो मे देवगण के प्रतीत होता है । कलिंग देश के हीरक-रेणु तट पर स्थित किन्ही 'पूज्यपाद' के शिष्यों एवं प्रशिष्यो के उल्लेख प्राप्त रत्नपुर या रत्नसचयपुर नाम का एक नगर भी उस युग होते हैं और इन पूज्यपाद को अलक्तक नगर (वर्तमान में था। वही उन महाराज हिमशीनल के समक्ष अकलह मल्तेम, महाराष्ट्र में) का निवामी रहा सूचित किया गया देव का वह इतिहास प्रसिद्ध शस्त्रार्थ बौद्ध विद्वानों के साथ
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६ वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
हा था"। वस्तुतः अकलङ्क सम्बन्धी अनुश्रुतियां, ७वी कलङ्कदेव की पूर्वावधि ६४३ ई० और उत्तरावधि अधिक शताब्दी ई. के मध्य भाग का राजनैतिक इतिहास, उस से अधिक ७२० ई० हो सकती है। वे सुनिश्चित रूप से यग की धार्मिक स्थिति तथा अन्त साम्प्रदायिक सम्बन्ध सातवी शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में सक्रिय रहे हैं। चीनी यात्री हुएनसांग का यात्रावृत्त, अभिलेखीय साध्य अकलदेव की भारतीय दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में मब का स्पष्ट सकेत यही है कि बौद्धाचार्यों के साथ अक- अप्रतिभ देन के मूल्यांकन के लिए महाकवि धनञ्जय लदेव का वह इतिहास प्रसिद्ध वाद ७वी शती ई० के (लगभग ७०० ई.) की नाममाला का प्रसिद्ध श्लोक मध्योत्तर एक-दो दशको के भीतर ही किसी समय कलिंग पर्याप्त हैदेश के रत्नसचयपुर मे हुआ था, और अपने भक्त जिस
प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । राजन् साहमत्तुग की सभा मे आचार्य ने उक्त वाद विजय
धनञ्जय-कवे. काव्य त्रिरत्नमपश्चिमम् ॥ का वर्णन सुनाया था, वह वातापी का चालुक्य सम्राट ध्यातव्य है कि इसी 'नाममाला' का एक पद्य स्वामी विक्रमादित्य प्र० (६४२.८१ ई०) ही था।
वीरसेन ने अपनी धवला टीका (७८० ई०) मे भी उद्धृत अनुथति के अनुमार अकलकदेव के गुरु का नाम किया है । इसके अतिरिक्त स्वय अकलदेव के 'प्रमाण रविगुप्त था। क्या आश्चर्य है जो वह गुरु चालुक्य पुल- सग्रह' का मंगल श्लोक आठवी शती ई० से ही शिलाकेशिन द्वि० को एहोल प्रशस्ति (६३४ ई.) के इतिहास लेखो में प्रयुक्त होने लगा और हवी आदि आगामी प्रसिद्ध कवि शिरोमणि तथा स्वय राजा के श्रद्धास्पद शताब्दिों मे तो इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि अत्यल्प रविकीति से अभिन्न हो। वह बौद्ध विद्यालय जहा अक- परिवर्तन के साथ अनेक शैवादि जैनेतर शिलालेखो में लडू ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था, चालुक्य राज्य भी प्रयुक्त हुआ पाया जाता है । आचार्य प्रवर अकलंकदेव मे ही स्थित कन्हेरी का प्रसिद्ध बौद्ध केन्द्र रहा हो सकता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व का समुज्ज्वल प्रतीक वह
अमर श्लोक है :इस प्रकार जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता, वादी- "श्रीमत् परमगंभीर स्याद्वादामोघलांछन । सिंह, देव, देवेन्द्र, पूज्यपाद आदि विरुदधारी श्रीमद् भट्टा- जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥"
___सन्दर्भ-सूची १. देखिए-ज्यो० प्र० जैन जैनासोर्मेज आफ दी हिस्ट्री ६. वही, ११३८ ई० के एक शि० ले० (एपी० कर्णा..
आफ एन्सेन्ट इडिया (दिल्ली १९६४), पृ० १६३ । भा० २, न० ९७, पृ० १७) मे तो इनके विषय मे २. वही।
कहा है कि जो "जिनशासन प्रारम्भ से ही बेदाग ३. देखिए-शोभाङ्क-१ (१७ जुलाई ५८) पृ० १३-१५, रहता आया था, वह अब और अधिक निर्मल रूप
जहा हमने अकलक नाम के बीस विभिन्न गुरुओ का मे देदीप्यमान हो उठा।' परिचय दिया है तथा देखें-न्यायकुमुदचन्द्र, भा० १, ७. जीयाच्चिरमलङ्क ब्रह्मा लघुहब्व नृपति वरतनयः । प्रस्तावना पृ० २५॥
अनवरतनिखिलविद्वज्जन नुतविद्यः प्रशस्तजनहृद्य ।। ४. ज्यो० प्र० जैन, पूज्यपाद आफ दी चालुक्यन रेकार्डस' -देखिए हीरालाल, कैटे मैनुष्क्रिट्स भूमिका पृ. २६
जना एन्टीक्वेरी, भा० १६, न० १, पृ० १६ आदि। ८. देखिए, एपी० कर्णा०, भा० २, भूमिका पृ० ४८, ८४, ५. डा० स० ० विद्याभूषण, ए हिस्टरी आफ दी मेडि- फ्लीट, डायनेस्टीज आफ कनारीज डिस्ट्रिक्ट्स (प्र. वल स्कूल आफ इडियन लाजिक, तथा न्यायकुमुद- सं०), पृ० ३२-३३; आर० नरसिंहाचर, इन्स० एट चन्द्र, (भा० १ व २) अकलक ग्रथत्रय एव तत्त्वार्थ श्र० बे० गो० (द्वि० सं०), भूपिका । राजवातिक की प्रस्तावनाएं।
तिथ्यांकित पद्य
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जंन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता - श्रीमद् भट्टाकलंकदेव
विक्रमाक शकाब्दीय शतसप्त प्रमाजुषि । कालयतिनो बौद्धवादी महानभूत ॥
1
६. एम० ए० आर०, १६२३, पृ० १५ (१०वी शती), एपी० कर्णा० भा० २, न० ६४, पृ० १७ व न० ६७ आदि । प्रथकारों मे प्रभाचन्द्र श्रीचन्द्र वादिराज अजितसेन, अजित ब्रह्म, शुभचन्द्र आदि ।
१०. एपी० कर्णा० भा० २, न० ६७ पृ० २७, ६० बं० गो० इन्सीक० न० ५४ आफ ११२६ ई० । ११. हीरालाल, केट० मेनुकट्स भूमिका पृ० २६ व १९ यह कथाकोश अब भा० शा० पीठ से प्रकाशित है। १२. देखिए, राईस, मैसूर एण्ड कुर्ग, पृ० २०० - २०१
एम० ए० आर०, १६१८, पृ० ६८ । १३. प्रमस्ति सह (आरा, १९४२), १०१। १४. पीटरसन रिपोर्ट न० २, पृ० ७१. अल्लेकर, राष्ट्रकूटाज एड देवर टाइम, पृ० ४०६ ।
१५. क० मेकेजी कलेक्शन आफ मेनुस्क्रिप्ट्म (कंट०, भ० ३० ४२३-३६) ।
१६.दी मे जीवन्स भूमिका पृ० ४० १७. क्लासीफाईड कंट आफ तमिल प्रिन्टेडबुक्म १८६५ पृ. ६५-६६ ।
१८. ए स्केच आफ दी डायनेस्टीज आफ माउथ इंडिया, पृ० ७३ ।
१६. इन्स० एट ५० वे० गो० (बगनोर १८६६ ), भूमिका पृ० ४५, मैसूर इन्सक्रि० १० ५६, पप रामायण, पृ० ३ - राईम को तिथि सूचक श्लोक का कोई ऐसा पाठ प्राप्त हुआ प्रतीत होता है जिसमे मत प्रमाजुषि के स्थान मे 'सप्तरी नाद्रि' शब्द रहे । किन्तु यदि उक्त पाठ मे कुछ सत्याश है तो उसे विक्रम संवत् का वर्ष ही मानना उचित था । अर्थात् वि० स० ७७७= सन् ७२० ई०, और तब वह अकलकदेव की अन्तिम उत्तरावधि का सूचक हो सकता है २०. इस तिथि को न मान्य करने वालों में एम० के० आयगर ८५५ ई० के पक्ष मे रहे (एन्शेन्ट इंडिया पृ २६९), आर० जी० भंडारकर ७७० ई० के (रिपोर्ट १८८६, पृ० ३१), स० च० विद्याभूषण ७५० ई० के (हिस्ट० मेडि० इडि० लाजिक पृ० २६), नाथूराम
प्रेमी ५३७५६० (जन हितंची भा० १२ १०७ ८) के० बी० पाठक ७४४-८२ ई० ( एनल्स बी० ओ० आर० आई०, भाग ११, न०२, पृ० १५३), अल्लेकर ७०० ई० (राष्ट्रकूटाज पृ० ४०६), महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य (न्याय कु० च० भा० १, प्रस्ता० ) ७२०-८० ई० के पक्ष मे रहा ।
२१. डा० स० च० विद्याभूषण पूर्वोक्त पृ० २६ । २२. जर्नल भडारकर ओ०रि० इ० भा० ११, न० २, पृ० १५५ ।
सन् १९०५ मे ही मद्रास के गवर्नमेंट एपीगेपिस्ट ने रामेश्वर मन्दिर के शि० से० मे उरिचित 'साह सत्तुग' का आशय राष्ट्रकूट दन्ति दुर्ग में हो सकता है । यह सम्भावना व्यक्त की थी और यह भी कि सभयनया अकलकी अनुभूति का साहसत्तुम भी वही नरेश है (एपी रिपोर्ट, मदन सरकिल फार १९०५, पृ० ४९) इस तिथि रहित हित एवं त्रुटिन अभिलेख को जो दन्ति के समय से कम से कम दो सौ वर्ष पश्चात् अकित कराया गया था। डा० बी० ए० सालतोर ने अपना आधार बनाकर साहमतुग का समीकरण राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग के साथ कर दिया (दी एज आफ गुरु अकलक-अनंत बाम्बे हिस्टोरिकल गोमावरी ०६० १०-१३) ।
1
२३ अनेकर पूर्वक पृ० ४०६, उपाध्ये, जर्नल भडारकर ओ० नि० ई० भा० १८ पृ० १६४ ।
२४ एम० श्रीक शास्त्री ६४५ ई० - (जर्मन भंडारकर बी० वि०६० भा० १२ २०३ ०२५५), ० जुगलकिशोर मुख्तार - ६४० ई० (स्वामी समन्तभद्र, पृ० १२५) ए० एन० उपाध्येय, ७वी शती ई० का अन्तिम पाद (जर्नल भडारकर भा० १८, पृ० १६४, फु० नो०)।
२५. न्यायकुमुदचन्द्र भाग २, प्रस्तावना ।
२६. वही, तथा उसी के प्रथम भाग को, अकलक-प्रन्थत्रय की व राजवातिक की प्रस्तावनाए एस० सी० चोपाल की परीक्षामुखम् की भूमिका, पाठक एवं विद्याभूषण के पूर्वोक्त सदर्भ आदि । २७. वही। २८. बड़ी
[शेष पृ० १२ पर]
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"रूपशतक" एक अनूठी प्राध्यात्मिक कृति
I
मेरे पास 'बनारमी विलास' की एक प्राचीन हस्तलिखित पोषी है जो २२ से० मी० लम्बी १४.१/२ से० मी. चौडी है। यह तीन चरणो मे लिखी गई है अतः तीनो का लिपिकाल भिन्न-भिन्न है। प्रथम चरण मे कविवर बनारसीदास कृत "समय सार कलश नाटक" है जो कार्तिक सुदी तृतीय गुरुवार स० अर्कादागत्य त्यष्टि (सभवत. १७०० हो सष्ट नही समझ सका) को श्रीलाभवर्द्धनमुनि ने लिपि की द्वितीय चरण में अमृतचद स्वामी की समयसार की संस्कृत टीका है जो माघ सुदी रवि वार स० १७२३ मे प० परमानद ने लिपि की और तृतीय चरण मे कविवर बनारसीदास कृत सभी रचनाए 'बनारसी विलास' के नाम से अकित है जो कार्तिक सुदी १४ स० १७३२ मे प० परमानद ने लिपि की । इनकी लिपि बडी सुन्दर और सुवाच्य है, पृष्ठ मात्रा का प्रयोग किया गया है, लाल स्याही भी प्रयुक्त है। अंतिम चरण की लिपि मे प्रति पत्र ३३ पक्तिया है तथा प्रत्येक पक्ति मे २७ अक्षर है ।
इस पोथी का सबसे बड़ा महत्व यह है कि कवि बनारसीदास एव प० रूपचन्द्र जी की मृत्यु के बाद क्रमश ३२ और २६ वर्ष बाद की लिखी हुई है । अत अन्य पोथियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय कही जा सकती है। इसी पोथी के प्रथम और द्वितीय चरण के बीच खाली छूटे कुछ पत्रो मे से तीन पत्रो अर्थात पांच पृष्ठो पर प्रस्तुत "रूपपद शतक" नामक श्रेष्ठ कृति अकित है । यह कृति 'बिहारी शतक' के दोहो की भाति बड़ी गंभीर और अर्थ परक है, चूंकि 'बिहारी शृगारी रचना है अतः हिन्दी मे पर्याप्त प्रसिद्ध हो गई है और यह आध्यात्मिक रस से सराबोर है अत इसे उतनी अधिक ख्याति न मिल सकी। इसके दोहे सतसेवा के दोहरो की भाति छोटे पर अत्यधिक गंभीर और आध्या
क
C श्री कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल
त्मिक हृदय को भेदने वाले है।
यद्यपि कवि रूपचद जी ने अपने शतक मे अपना परिचय नही दिया है अतः स्पष्ट रूप से कुछ कहना कठिन है पर चूंकि 'बनारसी विलास' के बीच के पत्रों में इसे स्थान प्राप्त है और रूपचंद नाम से अलकृत है अतः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि यह कृति कविवर बनारसीदाम के गुरू प० रूपचद जी द्वारा रचित है, इस कृति को किन्ही पोथियों में 'दोहा शतक' या 'परमार्थ शनक' नाम से भो उल्लेख किया है पर 'रूप शतक' या 'रूपचद शतक' के नाम से यह पहला ही उल्लेख देखने को मिला है।
पूर्ववर्ती विद्वान स्व० पं० नाथूराम जी प्रेमी तथा श्री कस्तूरचा जी कासलीवाल रूपचंद नाम के दो विद्वान मानते है एक रूपचंद दूसरे रूपचंद पाडे । पर, परवर्ती विद्वान स्व० प० नेमीचंद जी ज्योतिषाचार्य तथा स्व ० प० परमानद जी शास्त्री इन दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं। 'अर्धकथानक के प्रकरणो से भी यही ज्ञात होता है कि दोनो एक ही है; कही उन्हे रूपचंद तथा कही उन्हें पाडे उपाधि से अलकृत रूपचद लिखा है। कही प० रूपचन्द भी लिखा है । वे स० १६६० मे आगरे पधारे थे और तिहूना के मंदिर मे ठहरे थे, वे दरियापुर (बाराबंकी) भी गये थे।
यही रूपचंद जी कविवर बनारसीदास के परम आदरणीय गुरु ये इन्हीं द्वारा गोमट्टसार के प्रवचन और उपदेश सुन बनारसीदास जी दिगम्बरस्व की ओर आकर्षित हुए थे और 'समयसार नाटक' जैसी सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति जैन हिन्दी साहित्य को समर्पित कर सके। इसके अतिरिक्त बनारसीदास जी की और बहुत सी छोटी मोटी रचनाए है जिनका संकलन सं० २००१ मे श्री जग जीवन ने 'बनारसी विलास' नाम से किया है।
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"रूपशतक" एक अनठी आध्यात्मिक कृति
कम्बित इन्द्री सुख लगे विषय विरह तुभाइ ॥३॥ विषयन सेवत हू भलं तिसना तो न बुझाइ |
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प० रूपचन्द जी का जन्म कुह देश के सलेमपुर नामक ग्राम मे स० १६४० के लगभग हुआ था, ये गर्ग गोत्रिय अग्रवाल थे इसके बाबा मामट और पिता का नाम ज्यू वारा जल पीवन बाई तिस अधिकाइ (४) भगवानदास था। भगवानदास को दो पत्निया थी जिनमे तिसना उपशम कारने विषयन सेवत आइ । से एक से ब्रह्मदास नामक पुत्र का जन्म हुआ था और मृग वपुरा प्यासनि मरे ज्यु जल धोखो खाइ |५| दूसरी से हरिराज, भूपति, अभयराज, कीर्तिचन्द और रूप- चेतन तुम भरमत भए रहे विषयसुखमानि । बंद ये पाच पुत्र उत्पन्न हुए थे यही रूपचंद जी हमारे ज्यो कपि शीत बिया मरं ताप गुजा आनि |६| 'रूप शतक' या 'रूपचंद शतक' के कर्ता है। चूंकि रूप- विपयन सेवत दुख भर्ज सुख व तिहारे जानि । चद जी जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान् थे और भट्टारकीय अस्थि चर्बानि निज रुधिर ते ज्यु सच मान स्त्रान ॥७॥ परम्परा से सबंधित अत इन्हे 'पाडे' की उपाधि से जिन ही विपयन दुख दियो तिनीला घा थे अलकृत किया गया था। इनकी मृत्यु स० १६६४ में हो गई थी। इनकी कई वनाए उपलब्ध है जो आध्यात्म रस से पगी हुई है और सैद्धान्तिक चर्चाओ की अगाध भडार है । १. रूप (पद) क (दोहा शतक परमार्थ दोहा शतक, दोहा परमार्थ इत्यादि) २. गीत परमार्थ या परमार्थी गीत ३. अध्यात्म सर्वया ४ खटोलना गीत ५. पचमगल या मंगल गीत प्रबन्ध ६. फुटकर पद ७ परमार्थ हिंडोलना ८ तत्वार्थ सूत्र भाष टीका ९ नेमिनाथ रासो १० आध्यात्मिक जकडिया ११. समवशरण पूजा पाठ १२. पंच कल्याण पूजा पाठ आदि-आदि। इनमें से अन्तिम दो कृतिया सम्कृत की सुपुष्ट रचनाए है। रूपचंद कृत समय मार भाषा का भी उल्लेख मिलता है पर यह रचना स० [१७०० की है अत यह कोई दूसरे रूपचंद होंगे क्योंकि प्रस्तुत प० रूपचंद जी का देहावसान तो म० १६६८ मे ही हो गया था । प्रस्तुत 'रूप शतक' बहुत ही सुन्दर और सरस है दोहा जैसे छोटे छद में कवि ने आध्यात्म एव निश्चय व्यवहार आदि नयो की संद्धातिक चर्चा का बडी गभीरता पूर्वक चित्रण किया है। पढ़कर मन प्रफुल्लित हो जाता है, आइए आप भी इसका रसास्वादन करें।
बोहा
अथ रूप शतक लिख्यते ।
अपनी पद न विचार हो अहो जगत के राइ । भव बन छाय कहा रहे शिवपुर सुधि बिसराई |१| भव वन चेतन बसत ही बीते काल अनादि । अब किन पर सभारि हो कित दुःख देखत यादि ॥ २ ॥ परम अतिन्द्री सुख सुन तुम गयौ सु भुलाइ।
माता मारे बाल ज्यां वह उटि पग लपटाइ || विपयन सेवन दुख बने देबहु किन जीउ जोइ । खाज खुजावत हो भलं फिर दुख दूनी होइ ॥ ६ सेवन विषय लगे भले अन्त करहि अपकार । दुरजन जन को प्रीति ज्यो जब तब होइ विकार | १०| सेवन ही मधुरे विषय करूए हीहि निशान विपफल मीठे खात ज्यु जन्न हरहि निज प्रान ॥ ११ ॥ वि विषय तुम आपुन लीयो अनर्थ विमाहि । आधि रहे ज्यांमि कोठा माहि १२० चेतन तुम डहकाइ दे विषय सुखनि बौराई । रतन लियो मिसु पास तं ज्यो कछु इक दे माइ ॥१३॥ लागत विषय सुहावने करत जु तिनमो केलि । चाहत हो तुम कुशल पो बालक पनि सौ खेलि |१४| यिन सेवन सुख नहीं कष्ट भने ही हो
चाहत हो कर चीनी निलो ॥१५॥ देखि विषय सुहावने चाहत है सुख सई जु
बालक विपफल भी बरजे पर हंस ने १६ विषयन के दुख जरत हो विषयन ही सो रग । दीपक देखि सुहावनी ज्यू हट जरत पतग । १७ चेतन तुम जु परम दुःखी तात विषय सुहात । भूख मरत ज्यु स्वाद से मूड करेला खात ॥१ विपयन मन में राखिके रहे प्रतीति भानि । घर भीतर ज्यु फनि बसे जब तब पूरी हानि ॥ १९॥ विपय भिलाव न छवि क्रिया करत मन भाइ घर ही मैं बटवा पर बाहिर राखत काय ॥२०॥ बिषयन की परनीति में सोबत कहा न चीत ।
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१०, वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त घर जु तुम्हारी लूटियो जागत काहि न मीत ॥२१॥ भाजन सगि सलिल तप ज्यों पावक आताप ३६। विषयन की मनमा किये हाथ पर कछु नांहि ।
क्षीर नीर ज्यु मिल रहे को न कहै तन और । ज्यो सेंवल सेवै सुआ उडे तूल फल माहि ॥२२॥
चेतन तुम सा मझतन ही होत मिल में चोर ।४०॥ जैसी चेतन तुम करी ऐमी कर न कोय।
भिन्न भयो भीतर रहे बाहर मिल्यो तो काइ । विषय सुखनि के कारने बैठे मर्वस खोय ॥२३॥
पर परतीति न मानिये शत्रु न चूकै दाव ।४१॥ चेतन मरकट मूढ ज्यो वाध्यो परसो मोहि ।
पर की सगति तुम गहै खोई अपनी जात । विषय गहन छूट नही मुकत बात कैसे होहि ।२४। आपा पर न पिछ, न हो रहे प्रमादनि मात ।४२। चेतन तुम जु पढ़ सुआ, लटके भवद्रुम कूलि ।
सहज प्रकृति तुम परहरी पकरी पर की वानि । विषय करहि किन छडिही कहा रहे भ्रम भूलि ।२५॥ प्रकृति फिर जब पुरुष की होइ सर्वथा हानि ।। सुख लग विषय भजी भले सुख की बात अगाध ।
जो कछु कर सो पर कर कर तुहारी छाह । काजी पिये न पूजिये सुरहि दूध की साध ।२६।
दोप तुम्हारे सिर चढ तुम कछु समझत नाहि ।४४) निज सुख छत सेवत विष चेतन यही समान ।
परमो सग कहा कियो पर सौ आथव होइ। घर पंचामृति छडिक मांगत भीख अयान ।२७।
सवर पर के परिहरै विरला बूझ कोड ।४५॥ सुख स्वाधीन जु परिहर विषयनि परि अतिराग ।
पर सजोगतै बध है पर वियोग ते मोख । कमल सरोवर छडिक घट जल पीवै काग ।२८।
चेतन पर के मिलन मे लागत है सब दोप ।४६। सेवत विपय अनादि ते तिसना तो न बुझाइ।
चेतन तुम जु सुजान हो जड सो कहा सनेह । ज्यु जलते सरिता पति ईधन सिखि अधिकाइ ।२६। जान अजानहि क्यो मिल मेरे मन सदेह ।४७॥ चेतन सहजहि सुख बिना यह तिसना न बुझाई । अपनो ही अपनो भलो और न अपनो कोइ । मेघ सलिल बिन ऊमते ग्रीषम तपति न जाइ।३०। कोकिल काग जु पोसिये काग न कोकिल होई ।४। चेतन तुमहि न बूझीए करत विदेश विहार ।
स्व पर विवेक है नही तुमे पर सो कहत जु आप । ताकै कहा अब चाहियै जार्क रतन भडार ३१॥
चेतन मति विभ्रम भई रज्जु विष जिम साप ।४६। चेतन तुमहि कहा भयो घर छाड़े बेहाल ।
चेतन तुम बेसुध भए गयो अपनपो भूलि । संग पराये फिरत हो विषय सुखनि के ख्याल ।३२। काहू तेरे सिर मनो मेली मोहन धूलि ॥५॥ बडे करे तुम धापियऊ करत नीच के काम ।
मोहे मम तुम आपको जानत हो पर दर्व । पर घर फिरत जु लघु भये बहुन धराए नाम ॥३३॥ ज्यो जनमा तू कनक को कनकहि देखे सर्व ॥५१॥ अपने ही घर सब बड़े पर घर महिमा नाहि । भ्रम तें भूल्यो अपनपो खोजत किन घट माहि। सिव के अरु भव के न रहे फेर किती इह मांहि ।३४॥ बिसरी वस्तु न कर चढे जो घर ढूढ़हि नाहि ।५२। सिव छड़े भव ही मते अब है तुहारो ग्यान ।
घट भीतर सो आप है तुमहि नही कछु यादि । राज तज भिक्षा भर्ष सो तुम कियो कहान ।३५॥ वस्तु मुठि में भूलिक इत उत खोजत वादि ।५३। चेतन तुम प्रभु जगत के रंक भए बिललात ।
पाहन माहि सुवर्न ज्यु दारु विष हुत भोज । बैठि चौक तजि चाट हो तिन सौ क्यु न लजात ।३६। त्यु तुम व्यापक घट विष देख करो किन खोज ।५४। चेतन तुम हो कहा सदी रत्न त्रय निधि दादि।
पुहुपनि विष सुवास ज्यौं तिलनि विष ज्यु तेल । रहे दीन हुइ कृपन जिम कहा वह फल सावि ॥३७॥ त्यु तुम घट में रहत हो जिन जानहु यह खेल ॥५॥ प्रथम अचेत अरु असुचि जो कर मिले में हानि । दर्शन ज्ञान चरित्र मय वस्तु बसै घट माहि । चेतन तन में बसत हो कहा भलाई जानि ॥३८॥ मूरख मरम न जानही बाहिर खोजन जाहि ॥५६॥ तन की संगति जरत हो चेतन दु:ख सो आप ।
दर्शन शान चरित्र मय वचनहि मात्र विसेस ।
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"पशतक" एक अनूठी माध्यात्मिक रुति दहन पचन अरु तपन ज्यों अगिनिहि आहि असेस १५७१ विवहार नय सुवस्तुहि छिनक अर्थ पर्याय ७५॥ दर्शन वस्तु जु देखिए अरु जानि ये मुग्यान । निश्चय नय जो वस्तु है शायक रूपी एक। चारित थिरता तहि विष तिहुं प्रगट निरबान ।५८। दर्शन शान चरित्र के व्यवहार सु अनेक ७६। रत्नत्रय समुदाय बिन, साध्य सिद्धि कहुं नाहिं । फास रहित रस रहित है गंध रहित जु रूप । अध पगु अ आलमी जुदे जरहि दी माहि ॥५६॥ अह प्रतीति जु मानिए वस्तु जु शायक रूप ७७। दर्णन ज्ञान चरित्र के गहिये वस्तु प्रमान । अमूर्तीक रवभाव के निश्चय नय सुविचार । पोगै भारी चीकनो ज्यो कचन पहिचान ।६०। मूर्तीक सौं बध ती वस्तु कह यो व्यवहार ।७८) एक ज ज्ञायक वस्तु है माधिरु साधक सोइ । लोक प्रमाण प्रदेम ते वस्तु सुनिश्चय रूप । निर विकलप दोई मोचिए सिद्धि सर्वथा होइ ।६१॥ सकुचनि पसरनि देह मम सो व्यवहार निरूप ७६। दर्शन जान चरित्र ए तीनू साधक रूप। निश्चय नय नय परभाव को कर्ता भोक्ता नाहि । झायक मात्र जु वस्तु है ताहि को जु सरूप ।६२। विवहार घट कार ज्यो मुकर भुगत ताहि ।। प्रति विषयनि प्रति मति विर्ष प्रतिभासै जो कोइ।। मुद्ध निरजन ज्ञान मे निश्चय नय जे कोइ । अद्वितीय आनदमय वस्तु प्रवानहि सोइ ।६३। प्रकृति मिल व्यवहार की गग्ग निरूपि सोइ ।। अपने रम ज्यो लो न निज्य विश्व विप चिद्रूप । निश्चय मुकत मुभाव नै वंध कह यो व्यवहार । मृद्ध बोध आनद मय जानहु वस्तु सरूप ।६४)
एवमादि नै जुगन के जानहु वस्तु विचार ।२। मोम गयो गलि मूमि में जाग्मि अवर होइ।
निश्चय नय परमत्त जो अरु अप्रमन न होइ। पुरूषाकार सुज्ञान मे वस्तु न जाने कोइ।६५॥ गून सगै व्यवहार के पावहि जान किमोर ।३। वस्तू मुद्ध चनन्य मय लिपे छिपे कह नाहि ।
नय प्रमाण निक्षेप के परखि गही निज वस्तु । जद्यपि नव नवनि मिली मिले न काहू माहि ।६६। चिन्तामनि ज्य कर च, त्य कर गई ममम्त ।८४ नन मन वचन अगम्य है इन्द्रिनने हो दूरि। जहि देखे गब देखिए जान मब जहि जान । वस्तु सु अनुभव ज्ञान के गम्य कहै जिन मूरि ६ जहि पाये सब पाईए लेहु ताहि पहिचान ।। वस्तु सुजानहु जाहि विष गुन परज सह बास ।
चेतन के परिचय बिना जप तप सवै निरस्थ । अरु जहा सतत ही रहे थिति उत्पनि बिनास ६८ कन बिन तुम खुम फटकत आवै कछू न हत्थ ।। सहभावी गुन जानिए वस्नु विधान जु कोइ। चेतन के परिचय नहीं कहा नए बनधारि । क्रमवर्ती पर्याय है वस्तु विकार जु मोइ ।६६ मालि विहून खेत की वृथा बनावन वारि ।। उपजे बिन जो ऊपज नासै बिनु जु नमाई। ना लगि सर्वस मचत है अरु सब विप कहान । जैसे कू तैमो रहै वस्तु सु प्रति पर्याय ७०। जो लग चेतन तत्व है नहीं कहू पहिचान ।। नित्य अनित्यादिक विविध धर्ममयी नर आहि । बिना नत्व परिचय लगन अपग्भाव अभिराम । झगरन विमनिनि रुपिक अध दत विधि ताई।७१। तम और रम चन है अमृन न भाम्यो जाम ।८६। नय विभाग बिनु अन्ध ते कलपन जुगत बनाइ । सुनै परचाए अनुभये बार बार परभाव । वस्तु सरूपनि जानिहिं मरत बहिर मुख धाइ।७२। कबहू भूलि न परनए जायक मृद सुभाव ।। अनेकांत नै वादिनी जिनवानी जु रमाइ।
कहां कहा मैनई तुम्हें मुर नर पद की रिद्धि। नित्य अनित्यादिक कथा नाके हिरद ममाड1७३। पर कबहू भूलिन भई चनन केबल सिद्धि । जिनवानी नै भेद के थापि जुदो इक पक्ष ।
अनादि दरमन मोह नै रही न मम्यक दृष्टि । ता बिनु मुनि जन मोह कू लख मुवम्नु अलक्ष ७॥ चेतन ताके तत्व मो भई न कवह दृष्टि ।। विजन परजे नित्य ज्यो निश्चय नय ममवाय ।
जब लगु मोह न उपमम महर्जाह कर लहिपाइ।
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१२, वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
तब लगु निरमल दिष्टि बिनु तत्व पिछान न जाइ।।३। रूपचंद सदगुरुन की जनु बलिहारी जाह। ग्रंथ पढ़ अरु तप तपै सह परीसह साहु । आपुन वे सिवपुर गए भव्यन पंथ दिखाइ।१०। केवल तत्व पिछान बिनु ही कहुं निर्वाहु ।१४। गुरु न लखाई मैं लखी वस्तु भली पर दूर । चेतन तुम जु अनादि से कर्म कर्बमहि फेटि । मन सरसी सम नाल ज्यूं सूत्र रहो भरपूर ॥१०॥ समल अमल जल ज्यो भए सहज सुभाव हि मेटि ।५।
इति रूपचंद शतक समाप्तम् । श्री। भेद ज्ञान अब कतक फल सद्गुरु दयो लखाद। ___ तीन पत्र पांच पृष्ठ । लम्बाई २३ से० मी० चौडाई चेतन निर्मल तत्व यह समल वके तक थाइ।१६) १४॥ से० मी० पक्तियां ३३ अक्षर २७ (प्रति पत्र) गुरु बिन भेद न पाइये को पर को निज वस्तु ।
कातिक सुदि तृतीय गुरुवार सं० अर्कादाकृत्यत्यष्टि गुरु बिन भव सागर विष परत गहै को हस्त ।१७। लाभवर्द्धन मुनि व्यलिखत । जो गुरु गुन भेदहि सही तो जन हो हम सिद्धि ।
त्रिद्विसप्तदशे वर्षे (१७२३) माघ सुदी रवी लिपि लोहा कंचन होइ जिम कचन रस के बिद्ध । परमानदेन । कार्तिक सुदी १४ स. १७३२ वर्षे १० गुरु माता अरु गुरु पिता गुरु बाधव गुरु मित्त । परमानन्देन लिखत -श्रुत कुटीर, ६८ कुन्ती मार्ग, हित उपदेसै कवल ज्यूं बिकसावै जन चित्त II
विश्वासनगर, शाहदरा दिल्ली-११००३२
पृ० ७ का शेषांश] २६. देखिए, न्या० कु० च०, भा० २, प्रस्तावना; मुख्नार, कार, सक्मेसर्स आफ सातवाहनाज, पृ० ३००, मेडि.
पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना पृ० ११०; जैनिज्म, पृ० ४१-४२; जना एन्टीक्वेरी भा० १३, सन्मति तर्क, प्रस्तावना, पृ० ३५-३६, जैसलमेर न० २, पृ० ३३; एम० ए० आर०, १९२१, पृ. भंडार सूची (बडोदा), पृ० १८ । सन् ६७६ ई० मे २३-२४ । ही रचित जीतकल्पणि की श्रीचन्द्रसूरि द्वारा ३८. देखिए हमारा लेख-पूज्यपाद आफ दी चालुक्यन लिखित वृत्ति में भी उक्त सदर्भ प्राप्त है।
रेकार्डम, जैना एन्टीक्वेरी, भा० १६, न० १, पृ० ३०. एपी० कर्णा०, भा० २, न० ६७, पृ० २७-२८; भाग
१६-२०, भा० २०, न० २, पृ० १-८ । ८, न० ३५, पृ० १३८-४२ ।
३६. वही। ३१.बी० ए० साल्तोर, मेडिवल जैनिज्म, पृ०३६-३७, ४०. देखिए-हरिवंश पुराण (२/३१); भंडारकर की एपी० कर्णा०, २, न० ६७, भूमिका पृ० ४८ ।
सूची, १८८६, पृ० ३१; न्यायकु० च०, भा० १ व
२ तथा अकलंक ग्रन्थत्रय की प्रस्तावनाए । ३२. विद्याभूषण, पूर्वोक्त, पृ० ३४, पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्ता० पृ० १८६; वर्णी. अभिग्रथ पृ० २०४ ।
४१. देखिये, ज्यो० प्र० जन-'दी त्रिकलिंगाधिपति आफ २३. एपी० इंडिका, भाग २१, न० २२, पृ० १३३ आदि ।
हुएनसाग्स टाइम्स एड किंग हिमशीतल आफ अकलक
ट्रेडीशन, जर्नल यू० पी० हिस्टोरिकल सोसायटी, ३४. देखिए हमारा लेख.. 'परवादि मल्ल देव और कृष्ण
भा० ३, (न्यू सीरीज), अक २, पृ०१०८-१२५ तथा राज', शोधांक-१२ (३१-८-६१) पृ० ३६-४२ । ज्ञानोदय, नवबर ५० एव जनवरी, फरवरी, मार्च ३५. एपी० कर्णा०, भा० ४, नागर ८५, पृ० १३५-३६ ५१ के चार अक। ____ तथा भूमिका पृ०६, मेडि० जैनिज्म, पृ० ८८, १५५; ४२. ज्यो० प्र. जैन, 'दी जैना सोर्सेज'-पूर्वोक्त, पृ. ३६. देखिए हमारा लेख--"विमलचन्द्रीय अनुश्रुति का १८३ ।
'शत्रुभयंकर', शोधांक ११ (१-६-६१), पृ० २-४। ४३. देखिये हमारा लेख-शोधांक ४ (१६ जुलाई ५६) ३७. इंडियन एन्टीक्वेरी, भा० १२, पृ० १६-२१; भा० पृ० १३०-१३३ । ७ पृ. ११२; भा० ३० पृ० १०६, डी० सी० सर.
॥ इति ॥
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स्वयंभू की भाषा और देशी तत्त्व
डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
देशी तत्त्व का प्रश्न, स्वयभू की भाषा का ही नहीं, सामण्ण भास छुडु सावडउ समूची भारतीय आर्य भाषा का प्रश्न है। भाषा जब क्षर जुडु आगम जुत्ति का वि घडउ ३१५० च । रूप (बोल चाल के रूप) से अक्षर रूप (लिखित रूप) मे दूसरी जगह उन्होने उसे देशी भी कहा है। आती है, तब यह प्रश्न उठता है ? लिखित रूप स्थिर सक्कय पायय-पुलिणा लकिय रहता है, जबकि बोल चाल का रूप बदलता रहता है।
देसीभाषा-उभय-नडुज्जल, लिखी गई भाषा से बोली गई भाषा, जब बहुत दूर जा मेरी रामकथा रूपी यह नदी, संस्कृत प्राकृत के पड़ती है, तो वह देशभाषा बन जाती है। भारतीय आर्य- पुलिनो से अलकृत है तथा इसके दोनों किनारे देशीभाषा भाषा का उद्गम, जिस बोली से हुआ, वह भारतमूलक (अपभ्रण) से उज्जवल हैं। म्बयभू ने यह भी कहा है कि आर्यों की अपनी बोली थी, आवजक आर्यों की भाषा मेरे वचन ग्राम्य प्रयोगो से रहित हो। इस प्रकार उनके भारत ईरानी की टहनी थी, यह विवाद यहा अप्रासगिक सामने आर्यभाषा का पूरा प्रवाह क्रम था, संस्कृत प्राकृत है। वह जो भी रही हो, उसका पहला लिखित रूप अपभ्र श (देशी)। ग्राम्य वचनो से उनका अभिप्राय उन ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा है। पाणिनि ने जिस भाषा जनपद-बोलियो से था जो अस्तित्व में आ चकी थी. का व्याकरण लिखा, उसे उन्होने वेदभाषा की तुलना में वस्तुत. ये भापाए विद्यापति के शब्दों में देशी वचन हैं. लोकभाषा कहा है। लोकभाषा यानी देशभाषा, लेकिन जो सबको मीठे लगते हैं। अपभ्रश और देशी वचन के वह क्षेत्रीय दृष्टि से अविभाजित भाषा है। बोल चाल की बीच 'अपहट्ठ' की स्थिति थी। तात्पर्य यह है. कि 'देशी भाषा बदलती है, बदलते-बदलते लिखित भाषा से दूर जा तत्त्व' आर्यभाषा का स्थायी या स्थिर तत्व नही, बल्कि पड़ती है, तो वह फिर देशी भाषा बनती है, लिखित रूप उसके निरतर विकास की स्थितियों का सूचक तत्व है। ग्रहण करने पर, वह प्राकृत कहलाती है और पुरानी मस्कृत प्राकृत और अपभ्र श, इसी देशी तत्व से अस्तित्व लिखित भाषा संस्कृत । 'कृत' (की गई) भाषाए दोनो में आई मानम भापाए है ! म्वयभू की भाषा मे 'देशीहैं। एक संस्कारो से बधी हुई, दुमरी बोलने वालो के नच' का यही अर्थ होना चाहिए। नीचे, कुछ शब्दों की सहज वचन व्यापार के अधीन । प्राकृत क्षेत्रीय रूप से व्युत्पनिया दी जा रही है, उनसे स्पष्ट होगा कि किम विभक्त होती है, शौरसेनी प्राकृत, अर्धमागधी और प्रकार काल और क्षेत्र के दबाव से परिवर्तन के सांचे में मागधी, उसकी ये तीन क्षेत्रीय इकाइया हैं। लिखित रूप ढहा कर शब्द क्षर से अक्षर, और अक्षर से क्षर बनते में प्राकृतें स्थिर होती हैं तब बोलचाल की प्रक्रिया में वे हुए, आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओ नक चले आए हैं। नए देशी रूप ग्रहण करती है, जिनका एक लिखित मानक पाहवा-अतिथि के अर्थ मे, यह शब्द हिन्दी प्रदेश के रूप अपभ्रश है, अपभ्रंश का अर्थ है और आगे विकमित अलावा, पजाबी गुजराती मराठी आदि भाषाओ मे आज या बढ़ी हुई भाषा । संस्कृत प्राकृत और अपभ्र श की यह भी प्रयुक्त है, जो सस्कृत प्राघूर्णक से विकमित है। पहचान, श्रमणो ब्राह्मणो के सकुचित दृष्टिकोण से परे, प्राघूर्णक-पाहुण्णअ पाहुण-पाहुन । स्वयंभू ने इसका एक विशुद्ध भाषा वैज्ञानिक पहचान है। स्वयंभू ने इस प्रयोग किया है। भाषा को सामान्य भाषा कहा है :
रयणउर हो आइउ पाहणउ । १० च १०१६
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अनेकान्त
रत्नपुर से पाहुना आया।
आत्म समर्पण की विधि बता रहा है :पंज-आधुनिक हिंदी में पंज प्रचलन में नही है.
"दसन गहहु तृण कंठ कुठारी, मध्ययुगीन हिंदी में इसका प्रयोग अधिक था।
परिजन संग सहित निज नारी ॥ व्युत्पत्ति होगी-प्रतिज्ञा-पइज्ज-पेज ।
सादर जनक सुता करि आगे पइज करेवि गउ दस लोयणु (प० च)
एहि विधि चलहु सब भय त्यागे" रावण प्रतिज्ञा कर चला गया।
रावण, तुम दांतों मे तिनका लो, और कठ मे कुठारी, 'चितउर चली पैज के दूती', पदमावत तथा अरिजनो के साथ अपनी नारी (पत्नी) लो। फिर दूती प्रतिज्ञा कर, चित्तौड़ के लिए चली !
आदर पूर्वक जनक पुत्री सीता को आगे करो सब प्रकार वाति-दाति शब्द का प्रयोग कबीर ने किया है। का भय छोड़कर इस प्रकार चलो। स्वयभू और तुलसी"सतगुरु सान को सगा
दास के बीच लगभग ७०० वर्ष का अन्तर है, फिर भी, सोधी सईन दाति,"
दोनो के मुहावरो मे समानता है। कुठार का अर्थ कुठार टीका कार, दाति का दाता अर्थ करते हुए लिखते हैं- है, पग्गइ या कुछ और अर्थ करना ठीक नही। मध्य युग सद्गुरु के समान कोई सगा नही है, और सोधी यानी ईश्वर में अपनी हार मानने की यही विधि थी! के खोजी के समान कोई दाता नही है। प्रश्न है ईश्वर अहिबात का अर्थ, हिंदी टीकाओ मे सौभाग्य का खोजी दाता कैसे हुआ ? दाता तो ईश्वर ही हो सकता मिलता है। प्रश्न है यह अर्थ कैसे हुआ-चिरु अहिवात, है 'वास्तव में दानि' संस्कृत दातृता से बनी भाव वाचक असीस हमारी"। वस्तुतः अहिवात के मूल मे अविधसज्ञा है। स्वयंभू के प० च० में उल्लेख है 'णं दत्ति वात्व शब्द है। अविधवात्व-अइहवत्त-अहिवत्तविवज्जिउ किविण धणु' मानो दान से रहित कजूस का अहिवात्त अहिबाता । अहिबाता, यानी तुम्हारा पति धन हो। व्युत्पत्ति-दातृता-दत्तिआ–दत्ति-दाति। हमेशा बना रहे । इसी प्रकार शोधि शुद्धि का तद्भव है। अत: कबीर की जौहर करना-जौहर करना और जौहर दिखाना उक्त अर्धाली का अर्थ होगा सद्गुरु के समान कोई सगा दो अलग-अलग मुहाबरे हैं, हिंदी मे इनके बारे में नही है, और शोध (ईश्वर की खोज) के समान कोई भ्रम है। पहले मूल में संस्कृत जतुगृह शब्द है, जबकि दाति, देने या समर्पण का भाव नही है।
दूसरे में फारसी जौहर (साहस, रत्न) शब्द है । जतुगृह कंठ कुठार-'कंठ कुठार' के विचित्र अर्थ मानम की यानी लाक्षा गृह । प्राचीन भारत मे शत्रु को धोखे से मारने टीकाओ मे मिलते है । स्वयभू का अवतरण है :- के लिए जतुगृह का उपयोग होता था जो विभिन्न रासा'दंत तिणणे कठ कुठारें
यनिक द्रव्यो से बना होता था। महाभारत और स्वयभू णमिउ णराहिउ विणयाचारे
के रिट्ठणेमि-चरिउ मे इसका विस्तृत वर्णन है । व्युत्पत्ति
इस प्रकार है, जतुगृह-जउहर-जोहर-जौहर । हउं तुहारा एवहिं किंकरू
जोहर करना-सामूहिक अग्निदाह करना। सपरिवार सकलत्तु सपुत्तउ' रि०० च
बरात और जनतराजा विराट युधिष्ठिर के मामने आत्मसमर्पण कर
मध्ययुगीन कविता मे 'बरात' और जनत दोनों शब्दो रहा है । अर्थ है :
का प्रयोग है, जो क्रमश: वरयात्रा और यज्ञ यात्रा के जिसमे तिनके का अगला भाग दांतो में है, कंठ मे
तद्भव हैं । हिंदी मे बरात प्रयुक्त है। स्वयभू ने वर आत्त कुठार है ऐसे विनय-आचरण मे राजा विराट झुक गया और जण्णत्त शब्दो का प्रयोग इसी अर्थ मे किया है। (और बोला) मैं अब अपने परिवार कलत्र और पुत्र भारतीय परम्परा में विवाह भी एक यज्ञ है। मानस सहित, तुम्हारा अनुचर है।
मे वरि आता और 'जनेत' शब्दों का प्रयोग है। 'रामचरित मानम' में अंगद रावण को राम के सामने
(शेष पृ० १५ पर)
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भागलपुर की प्राचीन जैन प्रतिमाएं
0 डॉ० प्रजयकुमार सिन्हा
ए
.
भागलपुर', प्राचीन चमापुर, जैन धर्मावलम्बियों के मे वर्णन हम पाते हैं। चीनी यात्री हुएनसाग' ने भी लिए एक महत्वपूर्ण नगर है। प्राचीन जैन साहित्य में इस नगर (चेन पो) की समृद्धता का वर्णन किया है। इसका उल्लेख प्रमुख रूप से मिलता है। यहां बारहवें औपपातिक सूत्र में इस नगर के द्वार, प्रासाद, उद्यान एवं तीर्थकर भगवान वासुपुज्य' जी का जन्म तथा निर्वाण तालाबों का उल्लेख है। हा था। इसी कारण तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ' जी वासूनन्दि' का मत है कि ऐसे सभी स्थान, जहां एव अतिम तीर्थकर भगवान महावीर' इम नगर में पधारे तीर्थकर ने जन्म लिया, दीक्षा ली अथवा निर्वाण की थे। प्रमुख जैन ग्रय आचारांग सूत्र मे इस क्षेत्र की राज- प्राप्ति किया जैन मन्दिर के लिए उपयुक्त हैं। भुवनदेव' नैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक अवस्था का विस्तृत रूप ने अपने ग्रंथ अपराजितपच्छा में लिखा है कि जैन मदिर (पृ० १४ का शेषाश)
नगर के भीतर ही बनना चाहिए। चूकि भागलपुर अर्थात बरयात्रा-बरआत्त-वरात्त-बरात । यज्ञ यात्रा- प्राचीन चम्पापुर मे बारहवे तीर्थकर भगवान वासुपुज्य जण्ण आत्त-जण्णत्त-जन्नत्त-जनेत ।
पचकल्याण को प्राप्त हुए, अतएव यह जैनियों का एक पजाबी में बरात के लिए 'जज' राजस्थानी और महान तीर्थ बन गया। छठी शताब्दी ई० पू० मे ही इस गुजराती में 'जान' शब्द आता है। जो यज्ञ से बने शब्द नगर में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा को दन्तपुर नरेश है। यज्ञ -जण्ण----जाण - जान । पजाबी मे यज्ञ-जज करन्दक ने स्थापित किया था।" यहां भगवान महावीर ---जज । बाराती की जानी और जाजी कहते है । इसी के शिष्य मुधर्मन के समय मे एक समृद्ध जैन बिहार था। प्रकार दूल्हा पील सवार, दहेज डोर आदि सैकडो शब्द जो पूर्णभद्र यक्ष चत्य" के नाम से विख्यात था। तब से है, जो आर्यभाषा की देशी प्रवृत्ति से आधुनिक भारतीय निरन्तर जैन धर्म इग नगर में फैलता गया। जिसका आर्यभाषाओं में प्रयुक्त है, जिन्हें हिंदी के कुछ अति प्रमाण यहा के अनेक जैन मदिरो में सकलित प्राचीन जैन उत्साही समन्वयवादी विद्वान् विदेशी मान रहे है, शब्द प्रतिमाए है जो प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वही नहीं, उन्हे, अपभ्र श, उसकी तुकात शैली, दूहा, रड्डा- पूर्ण है। बद्ध काव्य शैली या पद्धडिया बध में विदेशी प्रभाव सबसे प्राचीन प्रतिमा भगवान आदिनाथ" की है। (फारसी प्रभाव) दिखाई देना है। मौभाग्य से स्वयभू तीर्थकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े है । इसका वृतबंध जटाजूट
और पुष्पदत का साहित्य प्राचीन और आधुनिक के बीच, अत्यन्त प्रभावशाली है जो हमे गुप्तकाल का आभास देता एक प्रामाणिक कड़ी उपलब्ध है। यदि यह न होती, तो है। इनके सीना पर अकित श्रीवत्स चिह, कधे तक लटये सब शब्द विदेशी करार दे दिए गए होते, हम उन कते हुए लम्बे कान, तथा कुचित केशवल्लि, अधखुली कवियों के अनुगृहीत तो है ही, परन्तु उनके भी अनुगृहीत आखे, मस्तक पर दोनो भौहो के मध्य में गोल टीका तथा हैं जिन्होने उन्हें सजन की प्रेरणा दी और उनके साहित्य इसका नग्न रूप सब एक साथ मिलकर एक महापुरुष के को सुरक्षित रखा।
लक्षण को दर्शाते हैं। भगवान आदिनाथ एक साधारण शाति निवास ११० उपा नगर आसन पर खड़े हैं जिसके मध्य मे धर्मचक्र चिह्न अति
इदौर ४५२००६ सुन्दरता से अकित है। इनका लाछन बैल (वृषभ) है
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१६, वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
जो चरणचौकी पर बायी ओर मुख किये बैठा है। यह भगवान आदिनाथ की एक चौबीसी भी कम महत्व. प्रतिमा ९६.५४४८.३ सेंटीमीटर का है तथा हल्के ग्रेनाइट पूर्ण नही है। जिन पद्मासन मुद्रा में एक कमल आसन पत्थर मे खुदा हुआ है। यह प्रतिमा निस्संदेह पाचवी- पर आसीन हैं । चरण चौकी के मध्य में धर्मचक्र के स्थान छठी शताब्दी की है। इस प्रतिमा मे यक्ष-यक्षिणी का पर शासन देवी चक्रेश्वरी स्वयम् एक शिशु को गोद में अकन नही हुआ है।
लिये बैठी है । जिनके एक ओर लांछन बल तथा दूसरी दूसरी जैन प्रतिमा भी भगवान आदिनाथ की है जो
ओर एक हाथी है। भगवान आदिनाथ के अगल-बगल में कायोत्सर्ग मुद्रा में है। इनके मस्तक के ऊपर त्रिछत्र
दो चामरधारी सेवक खडे हैं। भगवान का धुंधुराला केश सुशोभित है जो चैत्यद्रुम से आच्छादित है इनका केश
भगवान बुद्ध के उष्णीष की भांति है। श्रीवत्स चिह्न विन्यास माधारण है। जिनके लम्बे कान उनके कधे पर
नही दीख पडता है। जिनके मस्तक के दोनों ओर दो लटक रहे है । उनका आजानबाहु तथा श्रीवत्स चिह्न जैन
विद्याधर लबे पुष्पहार लिए हुए है । चैत्यद्रुम से आच्छाप्रतिमा विज्ञान के अनुरूप है । इनके दोनो ओर छह छोटी
दित त्रिछत्र जिनके मस्तक पर सुशोभित है तैइस अन्य छोटी प्रतिमाए अकित है जिनमे ऊपर मे दायी ओर शासन
तीर्थकर पद्मासन मुद्रा में भगवान आदिनाथ के चारों देवी चक्रेश्वरी तथा बायी ओर यक्ष गोमुख है । ये दोनो
ओर अत्यन्त सुदरता से अकित किये गये है। जिनके लाछण कमल पर समपर्यकासन मुद्रा में बैठे है। इनके नीचे स्पष्ट है। यह प्रतिमा काले बसाल्ट पत्थर में उत्कीर्ण दोनों ओर सम्भवतः जिनके माता-पिता हैं । चरण चौकी कप
र किया गया है तथा इसका माप ६०४३६ सेंटीमीटर है। के मध्य में धर्मचक्र है जिनके दोनो ओर भगवान आदि
भागलपुर के जैन मूर्तिकारों ने परम्परागत 'युगलिया' नाथ का लाछन बैल अकित है। यह प्रतिमा काले तियानोभी किया। 'गालिया' जिनको बसाल्ट पत्थर की है जिसका २५.४४ १५.३ सेटीमीटर विद्वानो ने युग गोमेध तथा शासनदेवी चक्रेश्वरी की संज्ञा माप है इसे सातवी सदी का माना जा सकता है।
दी है" पूर्ण विकसित कमल पर ललितासन मे विराजमान भगवान आदिनाथ की पद्मासन मुद्रा मे बैठी प्रतिमा है। इन्होने सुन्दर मुकुट आभूषण आदि को धारण किया अत्यन्त आकर्षक है। जैन ग्रथ विवेक विलास" मे वणित है। इनके दाहिने हाथो मे एक-एक फल तथा बायें हाथ से विधान के अनुरूप इस प्रतिमा का अकन किया गया है। पकड़े गोद में बिठाये एक-एक बालक है। इनके नीचे चार भगवान आदिनाथ अतिसुन्दर त्रिछत्र के नीचे ध्यानमुद्रा में अन्य बालक तथा बगल में एक बालक बैठा है। इनके बैठे है। इनके वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अकित है। इस ऊपर चैत्यद्रुम के ऊपर कमलदल पर एक राजसिंहासन प्रतिमा मे जिनके शासन देवी तथा यक्ष की अनुपस्थित रखा हुआ है जिसपर भगवान आदिनाथ पद्मासन मुद्रा में महत्वपूर्ण है। भगवान आदिनाथ की वतबंध जटाजट कधे आसीन हैं । जिनके मप्तक के पीछे एक अलंकृत प्रभामण्डल तक लटकते लम्बे कान तथा घंघराले केशवल्लि प्रतिमा- है जिसमें अतिसुन्दर छत्र अकित हैं। कुछ विद्वान जिनके शास्त्र के विधानों के अनुरूप है। भगवान आदिनाथ नीचे मे आसीन युगलजोड़ी को उनका माता-पिता मानते मस्तक के ठीक ऊपर दोनो ओर शासन देवी चक्रेश्वरी तथा हैं।" ऐसी प्रतिमा बिहार तथा बगाल प्रदेश में कम यक्ष गोमुख कमलदल पर आसीन हैं। यह बिहार के जैन संख्या मे मिलती हैं। यह प्रतिमा काले बसाल्ट पत्थर मे प्रतिमा विज्ञान मे एक अद्भुत कलाकृति है। यह प्रतिमा उत्कीर्ण है । इसकी सजीवता हमें अत्यन्त आकर्षित करती काले बसाल्ट पत्थर में अकित है तथा इसका मार हैं। बिहार प्रान्त में अब तक प्रकाशित यह प्रथम युगलिया ६५ सेंटीमीटर है। यह प्रतिमा आठवीं शताब्दी की है। है। इसका माप ३०.५४५.३ सेंटीमीटर है। चरण चौकी के मध्य में धर्मचक्र तथा उनके दोनों ओर दो सोलहवें तीर्थकर भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा बैल, जो जिनके लक्षण है सुन्दरता पूर्वक अंकित हैं। कलात्मक दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह काला
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भागलपुर की प्राचीन जैन प्रतिमाएं
बसाल्ट पत्थर मे उत्कीर्ण है तथा इसका माप ६१४३०.५ सेंटीमीटर है। भगवान शांतिनाथ पद्मासन मुद्रा में पूर्ण पुष्पित कमल पर आसीन हैं। कमलासन दो सिंहों के पीठ पर स्थिर है। जिसके मध्य में एक धर्मचक्र अकित है । धर्मचक्र के ठीक नीचे भगवान शांतिनाथ का लांछन मृग अतिसुन्दरता पूर्वक बनाया गया है। मृग के दोनों ओर दो उपासक दर्शाये गये हैं । भगवान शातिनाथ के ऊपर त्रिछत्र तथा उसके दोनों ओर मालाधारी विद्याधरों का अंकन बडा सजीब है। भगवान के मस्तक के पीछे चित्रित प्रभामण्डल प्रभावशाली है । इस प्रतिमा को अत्यन्त महत्वपूर्ण बनाता है ज्योतिष्क देवों का (जिन के दोनों ओर) चित्रण । ज्योतिष्क देव हिन्दू प्रतिमा विज्ञान के नवग्रह हैं। इस प्रतिमा में सिर्फ आठ ज्योतिष देवों-सूर्य, सोम, मगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, शनि एव राहु को दर्शाया गया है । बिहार प्रात में अब तक ज्ञात जैन प्रतिमाओ मे यह प्रतिमा अद्वितीय है ।
उपर्युक्त सभी प्रस्तर प्रतिमाये भागलपुर के श्री
संदर्भ-संकेत
१. राय चौधरी, पी० सी० - बिहार डिस्ट्रीक्ट गजेटियर - भागलपुर : ( पटना-- १६६२) पू० ५६६
( कलकत्ता - १९१४) पृ० ७३
८. प्रतिष्ठासार संग्रह - ३.३-४
१७
चम्पापुर दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र मंदिर, नाथ नगर में सकलित है। ये प्रतिमाएं सन् १९१४५ ई० में चम्पानगर के एक सुखे तालाब (सम्भवतः रानी भग्गर छठी सदी ई० पू० द्वारा खुदवाए गए तालाब) से प्राप्त हुई थी तथा १९३४ ई० के भयानक भूकम्प में जब इनके लिए बना मंदिर ध्वस्त हो गया तब नाथनगर के प्रमुख दिगम्बर जैनियों के प्रयास से उपर्युक्त मंदिर मे संकलित किया गया ।" इसके लेखक ने उपर्युक्त मंदिर के सचिव श्री रतन लाल जैन बिनायक्या, जिनके सप्रयास से भागलपुर की जैन संस्कृति का दिन दूना रात चौगुना विकास हो रहा है के सहयोग र अनुमति से इसे विद्वानों तथा श्रद्धालु भक्तो के समक्ष रखने का प्रयास किया है। भागलपुर में जैन धर्म जो छठी सदी ई० पू० में ही अपनी जड़ डाल चुका था अभी भी विकसित अवस्था में है ।
- बिहार शिक्षा सेवा
हटिया रोड, मोहल्ला : तिलका माझी, भागलपुर ( बिहार )
६. अपराजित पृच्छा - १७६.१४
१०. चटर्जी, ए० के० - कम्प्रीहेन्सिभ हिस्ट्री ऑफ जैनिज्म, ( कलकत्ता - १६८, पृ० ७८
११. औपपातिक उपाग पृ० १०
१२. यह प्रतिमा उत्तर गुप्त कालीन है। । १३. विवेक विलास - १.१२८-३०
१४. शर्मा, बी० एन० – जैन प्रतिमायें, (नई दिल्ली१६७९), पृ० ५२
१५. उपरिवत् पृ० ३०
२. समवायाग- पृ० ६७
३. भगवती सूत्र -- पृ० २२३=
.४ लाहा वी० सी० - महावीर : हिज लाइफ एण्ड टिचीग्रस ( लंदन - १९२७), पृ० ३२-३३
५. मिश्र, यु० कि० – सोसियो — इकानामिक एण्ड पोलिटीकल हिस्ट्री ऑफ इस्टर्न, (दिल्ली - १९७७ ) पृ० ४
६. बील० एस० – बुद्धिष्ट रिकॉडस ऑफ दी बेस्टर्न १६. भट्टाचार्य, बी० सी० - दी जैन आइकनोग्राफी, (नई वर्ल्ड, खण्ड १, पृ० १६१-६२ दिल्ली - १९७८, नवीन संस्करण) पृ० ११६
७. लाहा बी० सी० समन जैन कैनोनिकल सूत्राज,
१७. पाटिल, डी० आर०—दी एण्टिक्यूरियन रिमेन्स इन बिहार, ( पटना - १९६३) पृ० १७८ १८. उपरिवत्
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नागौर तथा उसमें स्थित भट्टारकीय दि० जैन ग्रंथ भंडार की स्थापना एवं विकास का संक्षिप्त इतिहास
0 डॉ० पी० सी० जैन नागौर का ऐतिहासिक परिचय
अणहिलपुर पाटन (गुजरात) के शासक सिद्धराज वर्तमान मे नागौर राजस्थान प्रदेश का एक प्रान्त जयसिंह ने १२वी शताब्दी में इस क्षेत्र पर अपना अधिहै जो उसके मध्य में स्थित है। पहिले यह जोधपुर का
कार कर लिया। जो भीमदेव के समय तक बना रहा। प्रमुख भाग था । नागौर इस जिले का प्रमुख नगर है तथा
महाराजा कुमारपाल के गुरू प्रसिद्ध जैनाचार्य कलिकाल यहाँ की भूमि अर्द्ध रेगिस्तानी है।
सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरि का पट्टाभिषेक सम्वत् ११६६ की
बैसाख सुदी ३ को यही पर हुआ था। रामायण कालीन अनुश्रुति के अनुसार पहिले यहाँ
इसके बाद यह नगर तथा क्षेत्र वापिस चौहानो के पर समुद्र था। लेकिन रामचन्द्र जी ने अग्नि बाण चला
मे चला गया। प्राचीन समय से ही यहाँ पर छोटा गढ कर उस समुद्र को सुखा दिया। महाभारत के अनुसार
बना हुआ था। जिसके खडहर आज भी उपलब्ध होते है, इस प्रदेश का नाम कुरू-जागल देश था । मौर्य वश का
चौहानो ने अपने मध्य में होने के कारण तथा लाहौर से शासन भी इस क्षेत्र पर रहा । विक्रम की दूसरी शताब्दी
अजमेर जाने के रास्ते में पड़ने के कारण यहा पर दुर्ग से पांचवी शदी तक यह नागौर का अधिकांश क्षेत्र नाग
बनाना आवश्यक समझा क्योंकि उस समय तक महमूद वशी राजाओ के अधीन रहा। उसी समय से नागौर
गजनवी के कई बार आक्रमण हो च के थे। नगर मे नागपुर, नागपट्टन, अहिपुर, भुजगनगर, अहिछत्रपुर आदि
विशाल दुर्ग का निर्माण वि० स० १२११ मे पृथ्वीराज विभिन्न नामो से समय-समय पर जाना जाता रहा ।
तृतीय के पिता सोमेश्वर के शासन काल मे बनना प्रारम्भ कुछ समय के लिए इस प्रदेश पर गौड़ राजपूतों का शासन
हआ था जिसका शिलालेख दरवाजे पर आज भी सुरक्षित रहा । गौड़ राजपूत कुचामन, नावां, मारोठ की ओर चले गए इसलिए वह पूरा प्रदेश गौड़वाटी के नाम से जाना
सन् १९९३ मे पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) की हार के जाने लगा।
बाद यहां पर दिल्ली के सुल्तानो का अधिकार हो गया। बिक्रम की ७वी शताब्दी मे यहां पर चौहानों का उसी समय यहा पर प्रसिद्ध मुस्लिम सन्त तारकीन हुआ शासन हुआ। चौहानों की राजधानी शाकम्भरी (सांभर) जो अजमेर वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का शिष्य था। थी। इनके शासनकाल में यह क्षेत्र सपादलक्ष के नाम से इसकी दरगाह पर परकोटे के बाहर गिनाणी तालाब के प्रसिद्ध हआ । यही कारण है कि आज भी स्थानीय लोग पीछे की तरफ बनी हुई है। इनका उर्स के अवसर पर इसे सवालक्ष कहते है।
अजमेर के मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह से चादर कब ____ इसी बीच कुछ समय के लिए यह नगर प्रतिहारो के पर ओढ़ने के लिए आती है। इसी समय से नागौर अधीन आ गया । जयसिंह सूरि के धर्मोपदेश की प्रशस्ति मुस्लिम धर्म का भी केन्द्र बन गया। मे मिहिरभोज प्रतिहार का उल्लेख मिलता है। जयसिंह सन् १३२३ के एक शिलालेख के अनुसार इस क्षेत्र सूरि ने नागौर में ११५ वि० स० मे इस ग्रन्थ की रचना पर देहली के शासक फिरोजशाह तुगलक का शासन था। की।
फिरोजशाह के शासन में ही दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के
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नागौर तथा उसमें स्थित भट्टारकीय वि० मैन अन्य भगार की स्थापना एवं विकास का संक्षिप्त इतिहास
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भट्टारक द्वारा संवत् १३९० पोश सुदी १५.को दिल्ली में उपलब्ध होती हैं। पं० मेधावी ने नागौर मे ही रह कर वस्त्र धारण करने की प्रथा का श्री गणेश हुआ। उसके संवत् १५४१ में धर्मसंग्रह श्रावकाचार की रचना की थी।' पूर्व वे सब नग्न रहते थे। इन भट्टारकों का मुस्लिम इसमें फिरोजखान की न्यायप्रियता, बीरता और उदारता शासकों (बादशाहो) पर अच्छा प्रभाव था इसलिए उन्हें
की प्रशंसा की है। मेघावी भट्रारक जिनचन्द्र के शिष्य बिहार एवं धर्म प्रचार की पूरी सुविधा थी। यही नहीं थे । इस ग्रन्थ की प्रतियां भारत के सभी जैन ग्रन्थ भंडारों मुस्लिम बादशाहो ने इनकी सुरक्षा के लिए समय-समय मे प्रायः पायी जाती है। इसी वश के नागौरीखां नवाब पर कितने ही फरमान निकाले थे। उसी समय से दिल्ली के दीवान परबतशाह पाटनी हुए थे जिनका शिलालेख श्री गादी के भट्टारक नागौर आते रहे और संवत् १५७२ मे दिगम्बर जैन बीस पन्थी मन्दिर मे लगा हुआ है। इन नागौर मे एक स्वतन्त्ररूप में भट्टारक गादी की स्थापना परबतशाह पाटनी ने एक बेदी बनवाई तथा उसकी प्रतिष्ठा की गयी।
बडी धूमधाम से करायी थी ऐसा शिलालेख में लिखा है। ___ सन् १४०० ई० के बाद नागौर को स्वतन्त्र रियासत चूने की पुताई हो जाने से पूरा लेख पढने मे नही आता स्थापित हुई जिसका सुल्तान' फिरोजखान प्रथम सुल्तान है। था जो गुजरात के राजवश' से सम्बन्धित था। जिसका सुल्तानों के शासन के पतन के पश्चात् नागौर पर प्रथम शिलालेख १४१८ ए० डी० का मिलता है। सुल्तान मुगल सम्राट अकबर का अधिकार हो गया। स्वय अकबर फिरोजखान के समय मे मेवाड के महाराजा मोकल ने भी नागौर आया था। उसने गिनाणी तालाब के किनारे नागौर पर आक्रमण किया तथा डीडवाना तक के प्रदेश दो मीनारो वाली मस्जिद बनवाई जो आज भी अकबरी पर अपना अधिकार कर लिया। मोकल के लौटने पर मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध है। इसमे अकबर के समय का शम्मखा के पुत्र मुजाहिदखां ने इस क्षेत्र पर अपना अधि- फारसी भाषा का शिलालेख लगा हुआ है। कार कर लिया। शम्मखा ने शम्स तालाब बनवाया। जोधपुर नरेश महाराजा गजमिह के दो पुत्र थे-बड़े शम्स तालाब के किनारे अपने गुरू की दरगाह तथा अमरसिंह तथा छोटे जसवन्तसिंह । अमरसिंह बड़े अक्खड मस्जिद बनवाई। इसी दरगाह के प्रांगण मे ही शम्सखां निर्भीक और वीर थे। जोधपुर के सरदार अमरसिंह से तथा उनके वंशजो की कब्र बनी हुई हैं। इस तालाब के नाराज हो गये। उन्होंने महाराजा से मिलकर अमरसिंह चारों ओर परकोटा बना हुआ है।
को देश निकाला दिला दिया। अमरसिंह शाहजहाँ के महाराजा कुम्भा ने भी एक बार नागौर पर आक्र
दरबार में गये, शाहजहाँ ने उनकी वीरता पर खुश होकर मण किया था। जिसका शिलालेख गोठ मांगलोद के माता
नागौर का प्रदेश इनको जागीर में दे दिया। जी के मन्दिर मे लगा हुआ है। महाराजा कुम्भा ने राज्य अमरसिंह के पश्चातू शाहजहाँ ने इन्दरसिंह को को वापस पुराने सुल्तान को ही सौंप दिया। इसी वश में नागौर का राजा बना दिया । इन्दरसिंह ने शहर मे अपने मुजाहिदखाँ, फिरोजखा, जफरखां, नागौरीखा आदि सुल्तान रहने के लिए महल बनवाया जिसका उल्लेख महल के हुए । ये सुल्तान मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू तथा जैनधर्म दरवाजे पर स्थित लेख में मिलता है। के विरोधी नही थे। इनके राज्यकाल मे दिगम्बर जैन सैकड़ों वर्षों तक मुस्लिम शासन में रहने के कारण भट्टारक तथा साधुओ का बिहार निर्बाध गति के साथ धर्मान्ध शासको ने यहां के हिन्दू एव जैन मन्दिरो को खूब होता था । उस समय जैनधन के बहुत से ग्रन्थो की रच- ध्वस्त किया। मन्दिरो को मस्जिदो में परिवर्तित किया नायें एव लिपि करने का कार्य सफल हुआ। तत्कालीन गया फिर भी नागौर जैन संस्कृति का एक प्रमुख नगर प्रसिद्ध भट्टारक जिनचन्द्र (संवत् १५०७ से १५७१) का माना जाता रहा । सिद्धसेन सूरि (१२वीं शताब्दी) ने भी यहाँ आगमन हुआ था जिनके द्वारा १५६४ मे प्रति- इसका प्रमुख तीर्थ के रूप में उल्लेख किया है। जैनाचार्य ष्ठित सैकड़ो मूर्तियाँ सम्पूर्ण देश के बड़े जैन मन्दिरो मे हेमचन्द्र सूरि के पट्टाभिषेक के समय यहाँ के घनद नाम
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भानुकोति
२०, वर्ष ३६, कि०२ के श्रेष्ठि ने अपनी अपार सम्पत्ति का उपयोग किया था। भट्टारक परम्परा:१३वी शताब्दी में पेथडशाह ने यहां एक जिन मन्दिर का नागौर की परम्परा में निम्न भट्टारक हुएनिर्माण कराया था। तपागच्छ की एक शाखा नागपुरिया १. भट्टारक रत्नकीर्ति संवत् १५८१ का उद्गम भी इसी नगर से माना जाता है। १५वीं
, भुवनकोति
॥ १५८६ १६वी शताब्दी में यहाँ कितनी ही श्वेताम्बर मूर्तियों की
धर्मकीति
, १५६० प्रतिष्ठाएं हुई। उपदेशगच्छ के कक्कसूरि ने ही यहाँ शीतल
विशालकीति नाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई थी।
५. , लक्ष्मीचन्द भट्टारकीय वि० जन शास्त्र भण्डार की स्थापना एवं विकास- ६. , सहस्रकीर्ति १६३१ संवत् १५८१, श्रावण शुक्ला पचमी को भट्टारक रत्न
नेमिचन्द्र
१६५० कीति ने यहाँ भट्टारकीय गादी के साथ ही एक बृहद् ज्ञान
यशःकीति १६७२ भण्डार की स्थापना की। जिनचन्द्र के शिष्य भट्टारक
११६० रत्नकीर्ति के पश्चात् यहाँ एक के बाद दूसरे भट्टारक होते १०. ॥ श्रीभूषण
१७०५ रहे । इन भट्टारको के कारण ही नागौर मे जैन धर्भ एवं ११. , धर्मचन्द्र
१७१२ साहित्य का अच्छा प्रचार प्रसार होता रहा। मागौर का १२. , देवेन्द्रकीर्ति १७२७ ग्रन्थ भण्डार सारे राजस्थान में विशाल एव समृद्ध है। १३. सुरेन्द्रकीर्ति
१७३८ पाण्डुलिपियो का ऐसा विशाल संग्रह राजस्थान में कही नही १४. , रत्नकीति द्वितीय , मिलता है। यहाँ करीब २० हजार पाण्डुलिपियों का संग्रह १५. ज्ञानभूषण है जिनमें दो हजार से अधिक गुटके है। यदि गुटकों में
चन्द्रकीर्ति संग्रहीत ग्रन्थों की संख्या कम की जावे तो इनकी संख्या
पद्मनन्दि भी १०,००० से कम नही होगी। भण्डार में मुख्यतः
सकलभूषण प्राकृत, अपभ्रश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में
सहस्रकीर्ति निबद्ध कृतियां सर्वाधिक संख्या में है। अधिकांश पाण्डु
अनन्तकीर्ति लिपियाँ १४वी शताब्दी से १९वी शताब्दी तक की हैं २१. , हर्षकीर्ति जिससे पता चलता है कि गत १५० वर्षों से यहां ग्रन्थ २२. , विद्याभूषण संग्रह की ओर कोई ध्यान नही दिया गया। इससे पूर्व २३. , हेमकीर्ति यहाँ ग्रन्थ लेखन का कार्य पूर्ण वेग से होता था। सम्पूर्ण २४. सेमेन्द्रकीर्ति भारतवर्ष के शस्त्रागारों में सैकड़ों ऐसे ग्रन्थ हैं जिनकी २५. , मुनीन्द्रकीर्ति पाण्डुलिपियाँ नागौर में ही हुई थी। प्राकृत भाषा के ग्रंथों २६. , कनककीर्ति में आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की यहाँ सन् १३०३ २७. , देवेन्द्रकीर्ति की पाण्डुलिपि है, इसी तरह मूलाचार की सन् १३३८ भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति नागौर गादी के अन्तिम भट्टारक की पाण्डुलिपि उपलब्ध होती है। कुछ अनुपलब्ध ग्रन्थों थे। नागौर गादी का नागपुर, अमरावती, अजमेर आदि में वराग-चरिउ (तेजपाल) वसुधीर चरिउ (श्री भूषण), नगरों में भी सम्बन्ध रहा है तथा महाराष्ट्र के अन्य नगरों सम्यक्त्व कौमुदी (हरिसिंह) णेमिणाह चरिउ (दामोदर), मे जहाँ मारवाड़ी व्यापारी रहते थे वहां भी वे जाया जगरूपविलास (जगरूप कवि) कृपणपच्चीसी (कल्ह) करते थे। भट्टारुक देवेन्द्रकीर्ति के पश्चात् नागौर ग्रन्थ सरस्वती लक्ष्मी सवाद (श्रीभूषण) क्रियाकोश (सुखदेव) भण्डार बन्द पड़ा रहा। अनेक वर्षों के बाद पं० सतीशके नाम उल्लेखनीय है।
(शेष पृ० २५ पर)
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जैनदर्शन में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय
0 अशोक कुमार जैन एम० ए०, शास्त्री
अनेकान्तदृष्टि जैवतत्वदर्शियों की अहिंसा का ही एक है और विवक्षित नय की अपेक्षा एकान्त है । अतः नय के रूप है जो विरोधी विचारों का वस्तु स्थिति के आधार बिना अनेकान्त सम्भव नहीं है।' सकलादेश प्रमाण का पर सत्यानुगामी समीकरण करती है और उमी अनेकान्त विषय है, विकला देश नय का विषय है प्रमाण समन को दृष्टि का फलितवाद नयवाद है। प्रमाण और नय से विषय करता है तथा उससे ही नय प्ररूपणा की उत्पत्ति जीवादि पदार्थों का अधिगम ज्ञान होता है। प्रमाण वस्तु हुई है। सकलादेश क्या है ? कथञ्चिद् घट है, कथञ्चिद् के पूर्णरूप को ग्रहण करता है और नय प्रमाण के द्वारा घट नही है, कथञ्चिद् घट अवक्तव्य है, कथञ्चिद् घट है जानी गई वस्तु के एक अश को जानता है। वस्तु अनन्त- नही है, कथञ्चिद् घट है और अवक्तव्य है, कथञ्चिद् घट धर्म वाली हैं । प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ को नही है और अवक्तव्य है, कथञ्चिद् घट नही है और एकदंश मे वस्तु का निश्चय कराने वाले ज्ञान को नय अवक्तव्य है इस प्रकार ये सातों भग सकलादेश कहे जाते कहते हैं । ज्ञाता के अभिप्राय का नाम नय है।' प्रमाण के हैं।" विकलादेश क्या है ? घट है ही, घट नहीं ही है, घट द्वारा प्रकाशित अनेक धर्मात्मक पदार्थ के धर्मविशेष को अवक्तव्य रूप ही है घट है ही और नही ही है, घट है तो ग्रहण करने वाला ज्ञान नय है।' आचार्य समन्तभद्र ने और अवक्तव्य ही है, घट नही ही है और अवक्तव्य ही है, स्याद्वाद से गृहीत अर्थ के नित्यत्व विशेषधर्म के व्यञ्जक घट है ही, नही है और अवक्तव्यरूप ही है इस प्रकार यह को नय कहा है। नय' प्रमाण से उत्पन्न होता है अत: विकलादेश है। सातों वाक्य एक धर्म विशिष्ट वस्तु का प्रमाणात्मक होकर भी अशग्राही होने के कारण पूर्ण प्रमाण ही प्रतिपादन करते हैं इसलिए ये विकलादेश रूप है।" नहीं कहा जा सकता। अत. जैसे घड़े का जल समुद्रैकदेश जैसे शास्त्रों का मूल अकारादि वर्ण है, तप आदि गुणों के है उसी तरह नय भी प्रमाणकदेश है अप्रमाण नही । वस्तु भण्डार साधु में सम्यक्त्व है। धातुवाद में पारा है वैसे ही के अनेक धर्मात्मक होने पर भी ज्ञाता किसी एक धर्म की अनेकान्त का मूल नय है।" जो नय दृष्टि से विहीन हैं मुख्यता से ही वस्तु को ग्रहण करता है जैसे व्यक्ति मे उन्हे वस्तु के स्वरूप का ज्ञान नही हो सकता और वस्तु अनेक सम्बन्धो के होते हुए भी प्रत्येक सम्बन्धी अपनी के स्वरूप को न जानने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते दृष्टि से ही उसे पुकारता है। अनेकान्त का मूल नय है। हैं।" अध्यात्मशास्त्र मे नयो के निश्चय और व्यवहार ये नय का विषय एकान्त है इसलिए नय को एकान्त भो दो भेद प्रसिद्ध है। निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार कहते हैं और एकान्तों के समूह का नाम अनेकान्त है। नय को अभूतार्थ कहा गया है।" इसी बात को माइल्ल अतः एकान्त के बिना अनेकान्त सम्भव नहीं है । जो वस्तु धवल ने भी कहा है कि निश्चय नय और व्यवहार नय प्रमाण की दृष्टि मे अनेकान्तरूप है वही वस्तु नय की सब नयो के मूल भेद है।" निश्चय के साधन मे कारण दृष्टि मे एकान्त स्वरूप है। यदि एकान्त न हो तो जैसे पर्यायाथिक और द्रव्याधिक जानो। जैन अध्यात्म का एक बिना अनेक नही वैसे ही एकान्त के बिना अनेकान्त निश्चय नय वास्तविक स्थिति को उपादान के आधार से नही। अतः जब सभी अनेकान्त रूप है तो अनेकान्त पकडता है वह अन्य पदार्थों के अस्तित्व का निषेध नही एकान्तरूप कैसे हो सकता है। प्रमाण और नय के द्वारा करता जब कि वेदान्त या विज्ञानाद्वैत का परमार्थ अन्य अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है। प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त पदार्थों के अस्तित्व को ही समाप्त कर देता है। बुद्ध की
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२२,वर्ष ३६, कि० २
अनेकान्त
धर्मदेशना को भी परमार्थ सत्य और लोकसंवृतिसत्य इन याथिक को मिलाने से नौ नय हैं तथा तीन उपनय हैं वे दो रूप" से घटाने का प्रयत्न हुआ है। जो नय आत्मा हैं सद्भुत, असद्भुत और उपचरित ।" शब्द की अपेक्षा को बंध रहित और पर के स्पर्श रहित, अन्यत्वरहित, नयों के एक से लेकर असंख्यात विकल्प होते हैं। मध्यम चलाचलता रहित विशेष रहित अन्य के संयोग रहित ऐसे रुचि शिष्यों की अपेक्षा ७ भेद भट्टाकलङ्क देव ने बताये पांच भाव रूप अवलोकन करता है उसे शुद्धनय जानो।" हैं।" जो उन-उन पर्यायो को प्राप्त होता है या उन-उन व्यवहार नय तो ऐा कहता है कि जीव और देह एक ही पर्यायो के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य है।" स्व है और निश्चय नय का कहना है कि जीव और देह ये और पर कारणो से होने वाली उत्पाद और व्ययरूप दोनों तो कभी एक पदार्थ नहीं हो सकते ।" स्वसमयी पर्यायों को जो प्राप्त हो तथा पर्यायों से जो प्राप्त होता व्यक्ति दोनों नयों के वक्तव्य को जानता है पर किसी एक हो वह द्रव्य है।" जो सत् है वह द्रव्य है।" वह सत् नय का तिरस्कार करके दूसरे नय के पक्ष को ग्रहण नही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। * गुणपर्याय वाला करता। वह एक नय को द्वितीय सापेक्ष रूप से ही ग्रहण द्रव्य होता है।" उत्पाद एवं नाशरूप पर्यायों से रहित करता है। जिस पदार्थ में जितने शब्दों का प्रयोग होता द्रव्य नही होता और द्रव्य अर्थात् ध्र वांश से रहित पर्याय है उममें उतनी ही वाच्य शक्तियां होती हैं तथा वह जितने नही होते क्योंकि उत्पाद नाश, स्थिति ये तीनो द्रव्य सत् प्रकार के ज्ञानो का विषय होता है उसमें उतनी ही ज्ञेय का लक्षण है । जो नहीं छोड़े हुए अपने अस्तित्व स्वभाव शक्तियां होती हैं। शब्द प्रयोग का अर्थ है प्रतिपादन से उत्पाद-व्यय तथा ध्रौव्य से युक्त है और अनन्त गुणाक्रिया । उसके साधन दोनों ही हैं शब्द और अर्थ । एक ही त्मक है, पर्याय सहित है उसे द्रव्य कहते हैं।" अकलङ्क घट मे घट पार्थिव, मातिक, सत्, ज्ञेय, नया, बड़ा आदि देव ने नय के दो मूल भेद माने हैं द्रव्यास्तिक और पर्याअनेकों शब्दों का प्रयोग होता है तथा इन अनेक ज्ञानो का यास्तिक । द्रव्यमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करने वाला विषय होता है । अत: जैसे घड़ा अनेकान्तरूप है उसी तरह द्रव्यास्तिक और पर्यायमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करने आत्मा भी अनेक धर्मात्मक है।" अनेकान्तात्मक जीव का वाला पर्यायास्तिक है । अथवा द्रव्य हो जिसका अर्थ हैकथन शब्दों से दो रूप में होता है एक क्रमिक और दूसरा गुण और कर्म आदि द्रव्यरूप ही है वह द्रव्याथिक ओर योगपद्य रूप से । तीसरा कोई प्रकार नहीं है जब अस्तित्व पर्याय ही जिसका अर्थ है वह पर्यायाथिक । पर्यायाथिक आदि अनेक धर्म कालादि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित का विचार है कि अतीत और अनागत चुकि विनष्ट और होते हैं उस समय एक शब्द मे अनेक अर्थों के प्रतिपादन अनुत्पन्न है। अतः उनसे कोई व्यवहार सिद्ध नही हो की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है इसे सकता और वर्तमान मात्र पर्याय ही सत् है। द्रव्याथिक विकलादेश कहते है परन्तु जब उन्ही अस्तित्वादि धर्मों की का विचार है कि अन्वयविज्ञान अनुमताकार वचन और कालादिक की दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक भी अनुगत धर्मों का लोप नही किया जा सकता अतः द्रव्य ही शब्द के धर्ममुखेन तादाम्यरूप से एकत्व को प्राप्त अखण्ड । अर्थ है।" माइल्लधवल ने भी जो पर्याय को गौण करके भाव से युगपद कथन हो जाता है और यह सकलादेश द्रव्य का ग्रहण करता है उसे द्रव्याथिक नय कहते हैं और कहलाता है।" समन्तभद्र ने नय के साथ उपनय का भी जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है उसे प्रयोग किया है।" अकलङ्क देव ने लिखा है सग्रह आदि पर्यायाथिक नय कहते हैं। जो कर्मों के मध्य में स्थित नय हैं और उसकी शाखा प्रशाखायें उपनय है।" द्रव्या- अर्थात् कर्मों से लिप्त जीव को सिद्धों के समान शुद्ध ग्रहण थिक और पर्यायाथिक ये दो ही मूल नय कहें गये हैं अन्य करता है उसे कर्मोपाधि निरपेक्ष शुख द्रव्याधिक नय कहते असंख्यात संख्या को लिए हुए उन दोनो के ही भेद जानने हैं। उत्पाद और व्ययको गौण करके जो केवल सत्ता को चाहिए । नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समधि- ग्रहण करता है उसे आगम से सत्ता ग्रहण शुद्ध द्रव्याथिक रूढ़ और एवंभूत इन सात नयों में द्रव्याथिक और पर्या- नय कहते हैं । गुण गुणी आदि चतुष्क रूप अर्थ में जो भेद
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जैनदर्शन में द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नये
I
नही करता वह भेद विकल्प निरपेक्षशुद्ध द्रव्याषिक नय है जो सब रागादि भावो को जीव कहता है या रागादि भावो को जीव कहना है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है । जो नय उत्पाद व्यय के साथ मिली हुई सत्ता को ग्रहण करके द्रव्य को एक समय में उत्पाद-व्यय धौम्यरूप कहता है वह अशुद्ध द्रव्याधिकनय है। समस्त स्वभावो मे जो यह द्रव्य है इस प्रकार अन्वय रूप से जो द्रव्य की स्थापना करता है वह अन्वय द्रव्याधिक नय है जो स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव मे वर्तमान द्रव्य को ग्रहण करता है वह स्वद्रव्याविग्राहक द्रव्याथिक नय है और जो परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव मे असत् द्रव्य को ग्रहण करता है वह परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यापिक नय है। जो अशुद्ध शुद्ध और उपचरित स्वभाव से रहित परम स्वभाव को ग्रहण करता है वह परमभावप्राही द्रव्याषिक नम है उसे मोक्ष के अभिलाषी को जानना चाहिए जो अकमिक और अनिधन अर्थात् अनादि अनंत चन्द्रमासूर्य आदि पर्यायों को ग्रहण करता है उसे जिन भगवान ने अनादि नित्य पर्यायायिक नय कहा है जो पर्याय कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि है अत विनाश का कारण न होने से अविनाशी है। ऐसी सादि नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला सादि नित्य पर्यायाधिक नय है । जो सत्ता को गौण करके उत्पाद-व्यय को ग्रहण करता है उसे अनित्य स्वभाव को ग्रहण करने वाला शुद्ध पर्यायाथिक नय कहते हैं। जो एक समय मे उत्पादव्यय और धौम्य से युक्त पर्याय को ग्रहण करता है वह स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायायिक नय है जो चार गतियों के जीवो की अनित्य अशुद्ध पर्याय का कथन करता है वह विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायायिक नय है।" योग मुख्य दिक्षा से परस्पर सापेक्ष होकर ये नय सम्यग्दर्शन के कारण होते हैं और पुरुषार्थं क्रिया मे समर्थ और पुरुषार्थ क्रिया मे समर्थ होते हैं।" नयों के मूलभेद मानने में भी मतभेद है आचार्य सिद्धसेन अभेदग्राही नंगम का सग्रह में तथा भेदग्राही नैगम का व्यवहार नय मे अन्तर्भाव करके नयों के छह भेद ही मानते है।" षट्खण्डागम मे नैगमादि शब्दान्त ५ भेद नयों के गिनाये हैं पर कषायपाहुड़ में मूल ५ भेद गिनाकर शब्द नय के ३ भेद कर
२३
दिए हैं और नैगम नय के संग्रहिक और असग्रहिक दो भेद भी किए है। इस तरह सात नय मानना प्राय सर्वसम्मत है ऐसा प्रो० महेन्द्रकुमार जी ने लिखा है।" द्रव्याधिक नय तीन प्रकार का है संग्रह, व्यवहार और नैगम । इन तीनों में से जो पर्यायकलक से रहित होता हुआ अनेक भेदरूप सग्रह नय है वह गुड द्रव्याधिक है और जो पर्यायकलक से युक्त द्रव्य को विषय करने वाला व्यवहार नय है वह अशुद्ध द्रव्याधिक है जो सत् है वह दोनों अर्थात् भेद और अभेद को छोड़कर नही रहता है इस प्रकार जो केवल एक को अर्थात् अभेद या भेद को ही प्राप्त नही होता है किन्तु मुख्य और गौणभाव से भेदाभेद दोनो को ग्रहण करता है उसे नंगम नय कहते है। शब्दशील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, सहचार, मान, मेय, उन्मेष, भूत, भविष्यत् और वर्तमान इत्यादिक का आधय लेकर आश्रय होने वाला उपचार नैगम नय का विषय है ।" पर्यायार्थिक नय ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूड, एवम्भूत के भेद से ४ प्रकार है इनमें जो तीन काल विषयक अपूर्व पर्यायों को छोड़कर वर्तमान कालविषयक पर्याय को ग्रहण करता है वह मूत्रनय है।" जो पति अर्थात् अर्थ को बुलाता है या उसका ज्ञान कराता है वह शब्दनय है यह नय लिंग, वचन, कारक पुरुष और उपग्रह के व्यनिवार को दूर करने वाला है ।" शब्दभेद से जो नाना अर्थों में रूह हो अर्थात् जो शब्द के भेद से अर्थ के भेद को स्वीकार करना है वह समभिरूढ़ न है ।" जैसे इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यो व सोम रूप क्रिया के सयोग से इन्द्र, सकन क्रिया के सयोग से शक और पुरो के विभाग करने रूप किया के सयोग से पुरन्दर इस प्रकार एक अर्थ का एक शब्द से परिज्ञान होने से अथवा अन्यर्थक शब्द का उस अर्थ मे सामर्थ्य न होने से पर्याय शब्दो प्रयोग व्यर्थ है इसलिए नाना अर्थी को छोड़कर एक अर्थ मे ही शब्द का रूद्र होना इस नय की दृष्टि मे उचित है।" जो शब्द गत वर्गों के भेद से अर्थ का और गो आदि अर्थ के भेद से गो आदि शब्द का भेदक है वह एक भूतनय है किया का भेद होने पर एवम्भूत नव अर्थ का भेदक नहीं है क्योंकि शब्द नय के अन्तर्गत एवं भूत नय के अर्थ नय का विरोध है ।"
जैनदर्शन में ये नय वस्तु को सम्य रूप से समझने
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२४, वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
की कुंजी है। तत्वज्ञान के निरूपण की दिशा वस्तु तत्व एक आचार्य की भी विभिन्न प्रकरणों में क्या विवक्षा है के विश्लेषण पूर्वक वर्णन की होती है। अतः हमें आचार्यों यह सम्यक् प्रतीति करके ही सर्वनय समूह साध्य अनेकान्त की विभिन्न नय दृष्टियों का यथावत् परिज्ञान करके तथा
-निकट दि० जैन मन्दिर, तीर्थ की व्याख्या में प्रवृत होना चाहिए ।
बिजनौर
सन्दर्भ-सूची १. कषायपाहुड़ भाग १ प्रस्तावना पृ० १०६ प्र० भारत- १५. ववहारो भूयत्योऽभूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। वर्षीय दि. जैन संघ, मथुरा।
भूदत्यमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। २. प्रमाणनयरधिगम तत्वार्थ सूत्र १-६ ।
-समयसार कुन्दकुदाचार्य गाथा ११, अहिंसा म० दिल्ली ३. धवला स० पृ०७३।
१६ द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र माइल्लधवल विरचित ४. नयोज्ञातुरभिमाय-लघीयस्त्रय-अकलकदेब श्लोक ५२ गाथा १८२ । ५. प्रमाणप्रकाशिनार्थविशेषप्ररूपको नय १-३३ १७ द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धाना धर्मदेशना । तत्वार्थ राजवानिक।
लोकसवृतिसत्य च सत्य च परमार्थत ॥ ६. स्याद्वादप्रविभक्तार्थ विशेषव्यञ्जको नय । आप्त
--माध्यमिक कारिका आर्य सत्य परीक्षा श्लोक ८ मीमांसा श्लोक १०
१८. जो पस्सदि अप्पाण अबद्धपुठ्ठ अणण्णय णियद । ७. सिद्धि विनिश्चय १०३ ।
अविसेसमसजुत त सुद्धणय वियाणीहि ।।
-समयसार १४ ८. नाय वस्तु न चा वस्तु वस्त्वश कथ्यते यतः ।
१६. ववहारणयो भामदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को। नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ।
ण दुणिच्छयस्स जीवो देहो य कयावि एकट्ठो।। -त० श्लोकवार्तिक ११६
-समयसार २७ ६. अनेकान्तोऽप्यनेकान्त प्रमाण नय साधन ।
२०. दोण्हवि णयाण भणिय जाणइ णवरिं तु समय पडिबडो। अनेकान्त प्रमाणान्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ।।
णदु णयपक्ख गिण्हदि किञ्चवि णयपक्वपरिहीणो ।। -वृ० स्वयभूः समन्तभद्र १०३ ।
-समयसार गाथा १४३ १०. सकलादेश. प्रमाणाधीनः, विकलादेशो नयाधीन । २१. तत्वार्थ राजवार्तिक ४-४२ हिन्दी सार पृ० ४२० । -सर्वार्थसिद्धि. पूज्यपाद १०६ २२.
४-४२ , पृ. ४२१ । ११. स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्य. स्यादस्ति च २३. आप्तमीमासा कारिका १०७।
नास्ति च स्यादस्ति चा वक्तव्यश्च स्यादस्ति च नास्ति २४. अष्टशती कारिका १५। चावक्तत्यश्च घट इति सप्तापि सकलादेशः । २५. दो चेव य मूलणया....'जाणतिविह पि ॥
-कषायपाहुड़ भाग १, पृ.२०१-२०२ -द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र माइ० धवल गा७१८३-१८७ १२. कषाय पाहुड़ भाग १, पृ० २०३ ।
२६. तत्वार्थवातिक ११३३ । १३. जह सत्थाणं माई सम्मत्त जह तवाइगुणणिलए ।
२७. द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायान्, द्रूयते गभ्यते तैस्तैः धाउवाए रसो तहणयमूल अणेयंते ॥
पर्यायैरिति वा द्रव्यम् -कषायपाहुड़ भाग १, पृ० २११ -द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नय चक्र। माइल्लधवल १७५
२८. स्वपरप्रत्ययोत्पाद विगमपर्याय द्रूयन्ते गभ्यते पर्यायै
रिति वा द्रव्यम् । -तत्वार्थवातिक श२ १४. जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धि ।
२६. तत्वार्थसूत्र ५-२६ । वत्थुसहाव विहूणा सम्मादिट्ठी हवइ जीवो॥
३०.
५.३०। मयचक्र : द्रव्यस्वभाव प्रकाशक माइल्लधवल १८१ ३१. ५-३१ ।
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नदर्शन में व्यापक और पर्यायानिक नय
३२. दव्वं पज्जव विउयं दव्व विउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पाद्दिभंगा हृदि दबिय लक्खणं एवं ॥ -सन्मति प्रकरण १।१२
३३. अपरिचत सहावेणुप्पादम्बय धुवत्वसयुत । गुणवं च सपज्जायं जं जं दव्वंति वुच्चति ॥
प्रवचनसार अ० २।३
३४. तत्वार्थं वार्तिक ११३३ ।
३५. द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र : माइल्लघवल संपादक कैलाशचन्द्र शास्त्री गाथा १६९ से २०४ । ३६. तत्वार्थवार्तिक हिन्दी सार : स० प्रो० महेन्द्रकुमार स० [प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य हिन्दी सार पृ० ३३४ ।
चन्द्र तथा यतीन्द्र कुमार शास्त्री ने ग्रन्थ सूची निर्माण एवं प्रकाशन का कार्य अपने हाथ में लिया था परन्तु किन्ही कारणों से वे इसे पूरा नही कर पाये । तत्पश्चात् मन् १६७७ मे लेखक ने इस ग्रन्थ भण्डार के वर्तमान मे उपलब्ध ग्रन्थों की सूची के निर्माण एव उसके प्रकाशन का कार्य हाथ मे लिया। लेखक के समक्ष शास्त्र भण्डार की व्यवस्था सम्बन्धी सीमाएं हैं जिनके
( पृ० २० का शेषांश)
३७. सन्मति प्रकरण १।४।५ ।
३८. सिद्धिविनिश्चय टीका प्र० भाग–सम्पादक पंडित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य प्रस्तावना पृ० १४४ ।
१. Jainism in Rajasthan by K. C. Jain p. 153 २. History of Gujrat Page 68.
१. Epigraphika Indomuslima 1623-24 & 26. ४. राजस्थान के ग्रंथ भण्डारों की सूची भाग प्र० पृ० ७६ ५. सपादलक्षेविषयेति सुंदरे, भियांपुरं नागपुरं समस्तितत्। फेरोजखाना] नृपति प्रयायिन्यायेन होयेंज रिपुन्निति च ॥ ६. Dr. P. C. Jain, Granth Bhandar in Jaipnr and Nagpur, P. 118.
७९. नागौर ग्रंथ भण्डार मे उपलब्ध भट्टारक पट्टावली के
२५
३६. कषायपाहुड भाग १, नयपस्वर्ण भाग १, वाचा १३१४, पृ० २२१ ।
४०. षट्खण्डागम : वेदनाखण्ड कृति अनुयोग द्वार खण्ड ४, भाग १, पुस्तक ६, पृ० १७१ ।
४१. तत्वार्थ राजवार्तिक १।३३ ।
४२. सर्वार्थसिद्धि १३३ ० ० ० १ ५० ४३. जयधवत पृ० २७० ॥
४४. ष० ख० पु० १, पृ० ६०; जयधवला १, पृ० २४२ ।
सन्दर्भ-सूची
कारण वे इसे शीघ्रतर पूरा नही कर पा रहे हैं। फिर भी अब तक सूची के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं, अगला भाग प्रेस में दिया जा रहा है। ग्रंथ भण्डार की सम्पूर्ण सूची का पाव भागों मे प्रकाशित करने का लेखक का अपना संकल्प है ।
जैन अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ।
आधार पर। ब-डा० जोहरापुरकर भट्टारक सम्प्रदाय पृ० १२४-२५ ।
८. डा० कासलीवाल ने शाकम्भरी प्रदेश के सांस्कृतिक विकास में जैनधर्म का योगदान में 'भुवनकीर्ति' नाम दिया है। मोट—जैन सिद्धान्त भास्कर किरण ४ भाग १ अप्रेल से जून तक १९१३ में पृ० ८० पर हवें भट्टारक का नाम भुवनकीर्ति तथा १३वें में अमरेन्द्रकीर्ति दिया गया है। और डा० कासलीवाल ने भी 'वीर शासन के प्रभावक आचार्य' मे इनका 'अमरेन्द्रकीति' नाम दिया है ।
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जैन साहित्य में वणित जन-जातियां
0 डा. प्रेम सुमन जैन, उदयपुर
भारतीय समाज में जातियों का विभाजन प्रायः नाम से जाना जाता है, उन्हें पहले शूद्र के अन्तर्गत गिना चतुर्वर्ण जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत हुआ है । ब्राह्मण, जाता था। मोठे तौर पर जो जातियां किसी भी कारण क्षत्रिय, वैश्य एव शूद्र इन चार जातियो के अन्तर्गत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अन्तर्गत नही आ पाती थी। विभिन्न जातियो को सम्मिलित किया जाता रहा है। किंतु उन्हे शूद्र जाति के अन्तर्गत गिना जाता था। कृषक, नीति शास्त्रों में वर्णित इन चारों जातियों के कार्य एव शिल्पी. अन्त्यज और मलेच्छ कही जाने वाली जातियां प्रतिष्ठा समय-समय पर बदलती रही है। भारत के शूद्र के अन्तर्गत थी । यद्यपि आगे चलकर पूर्व-मध्य युग में प्राचीन साहित्य एव इतिहास की सामग्री में जातियों के ये जातियां क्रमशः अपनी स्थिति में सुधार कर रही थी। इस विकास-क्रम के उल्लेख प्राप्त है । जैन साहित्य ईसा आर्थिक सम्पन्नता के कारण इन्हें कुछ सम्मान प्राप्त हो की प्रथम शताब्दी से वर्तमान युग तक लिखा जा रहा रहा था, किन्तु इनकी सामाजिक और धार्मिक स्थिति है।' इस विशाल साहित्य का सम्बन्ध जन-जीवन तथा अच्छी नही थी। लोक-जीवन से अधिक रहा है ।' अन. जैन साहित्य मे जैन साहित्य मे जातियो का बिभाजन यद्यपि परपराजन-जातियों को सस्कृति का पर्याप्त वर्णन हुआ है। अभो गत ढग से इन चार वर्षों में हुआ है-ब्राह्मण, क्षत्रिय, इस दृष्टि से जैन-साहित्य का अध्ययन नही हुआ है । अत. वैश्य और शूद्र । किन्तु इनको प्रमुख रूप से दो वर्गों मे जन-जातियों के प्रारम्भिक जीवन के अध्ययन की दष्टि से विभक्त किया गया है-(१) आर्य जातिया और (२) जैन साहित्य मे शोध कार्य की अधिक सभावनाएं हैं।
अनार्य जातिया । प्रज्ञापना (१.६७-७१) नामक प्राकृत भगवान महावीर के उपदेशो का संग्रह प्राकृत भाषा
आगम मे वणित है कि आर्यों के छह भेद थे-क्षेत्र आर्य, के आगम साहित्य मे हुआ है। यह आगम साहित्य लग जाताच पुल,
जाति-आर्य, कुल,आर्य, कर्म-आर्य, भाषा-आर्य और शिल्पीभग एक हजार वर्ष की भारतीय संस्कृति को अपने मे आर्य । इनमे जाति आर्य मे छह जातिया थी--अम्बठ, समेटे हुए है । इसका आधारभूत अध्ययन डा. जगदीश
- कलिन्द, विदेह, वेदग, हरित और चुचुण । इनमे से अंबट्ठ चन्द्र ने अपने प्रथ "जैन आगम साहित्य में भारतीय
माता
आर।
और विदेह निम्न जातिया थी। कर्म-आर्यों मे कुम्हार समाज" मे प्रस्तुत किया है। इसी तरह के अन्य अध्ययनो (कोलालिय) और पालक
(कौलालिय) और पालकी ढोने वाले (परवाहणिय) निम्न की भी नितात आवश्यकता है। प्राकृत के कुछ स्वतन्त्र जातिय
न जातिया थी। शिल्प-आर्यों में मशक बनाने वाले देयड़, कथाग्रंथो का भी सामाजिक एव सास्कृनिक अध्ययन
रस्सा बटने वाले वरुड़, चटाई बुनने वाले छबिय आदि विद्वानो ने प्रस्तुत किया है। उससे भी प्राकृत साहित्य में निम्न जाति के कर्मकार थे। रामायण एव बौद्ध साहित्य बणित भारतीय समाज का चित्र उजागर होता है। इन मे भी इनमे से कुछ जातियों का उल्लेख है। अध्ययनो से तथा जैन साहित्य के अन्य ग्रन्थो से भारत की अनार्य जाति के लोग आयो के अधीन रहते थे और जन-जातियो आदि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत प्रायः ये कृष्ण वर्ण के होते थे।"प्राकृत के प्रति कथाकार निबन्ध मे संक्षेप मे कुछ जन-जातियो का वितरण प्रस्तुत हरिभद्रसूरि ने" उन जातियो को जो आचार-विचार किया गया है, जिसे आधुनिक समाज शास्त्रीय दृष्टि से से भ्रष्ट हों तथा जिन्हें धर्म-कर्म का कुछ विवेक न हों, जांचा-परखा जा सकता है।
अनार्य या म्लेच्छ कहा है। उद्योतनसूरि ने भी कुवलय. प्राचीन भारत मे शूद्रों की स्थिति के सम्बन्ध में मालाकहा मे अनार्यों को पापी, प्रचण्ड और धर्म, अर्थ, विद्वानो ने विशेष अध्ययन किये है । उसके आधार पर काम, पुरुषार्थ से रहित कहा है। उन्होने लगभग ४० वर्तमान मे जिन्हे हरिजन, अनुसूचित जन-जाति आदि के प्रकार की अनार्य जातियों का उल्लेख किया है, जिनकी + अ०भा० आर० सी० एच० आर६ सेमिनार, जनवरी २३, उदयपुर में पठित निबन्ध ।
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बैन साहित्य में चित जनजातियां
म्लेग्छ, अन्त्यज, कर्मकार एवं विदेशी इन चार जातियों में जन-जाति न होकर कोई विदेशी जाति रहीं होगी। प्रमुख रूप से विभक्त किया जा सकता है।"
मारण्य : जंगल में निवास करने के कारण जनप्राकृत आगम के प्रसिड ग्रंथ निशीयसूत्र (१६.२६ जाति का एक नाम आरण्य भी था। यह धनुर्धर एवं वीर आदि) में पांच प्रकार की अनार्य जातियों का उल्लेख जाति थी। आरण्य जाति के लोग शिकार करते थे। वे है-विरूव, दसू, अणांरिय, मिलक्खू और पच्चंतिय। जंगली जडी-बूटियोंको एकत्रकर उन्हें नगरों में बेचते थे। अनेक वेष धारण करने वाले और विभिन्न जन-भाषाओं बरट : म्लेच्छ जातियों में चरट नामक जाति भी को बोलने वाले लोग विरूव कहलाते थे। इस निरूव का थी। उसे आरण्यचर भी कहते हैं। जो उसके जंगल में आधुनिक शब्द वैरवा हो सकता है। राजस्थान मे वैरवा विचरण करने का द्योतक है। जाति प्रचलित है। क्रोधी और दांत से काट खा जाने
गोंड : यह भी एक जन-जाति थी, जिसे अनार्य कहा वाले जगली लोग दसू (दस्यु) कहलाते थे । आर्यभाषा को
गया है। नर्मदा तथा कृष्णा नदी के बीच में स्थित प्रदेश न ममझने वाले, हिंसा आदि मे रत लोग अनार्य कहे जाते
में इनका निवास बताया गया है।" मध्यप्रदेश में आज थे। अव्यक्त वाणी बोलने वाले आदिवासी म्लेच्छ कहे जाते
मी गोंड नामक जनजाति है, जो जंगल की वस्तुओं से ही थे। तथा गांव या नगर की सीमा के बाहर निवास करने
अपनी जीविका चलाती है। वाले निवासी पच्चतिय (प्रत्यतिक) कहे जाते थे।"प्राकृत
किरात : यह जाति प्राचीन भारत में प्रचलित जंगली के इस विवरण से यह प्रतीत होता है कि उस समय की
जाति है। म्लेच्छ जाति की यह एक उपजाति थी। जन-जातियों के विशेष लक्षण इस प्रकार थे-विचित्र
किरातार्जुनीयम् नामक संस्कृत काव्य से किरातों की वेशवेप-भूषा, ग्रामीण बोली, हिंसक प्रवृत्ति, कुरूपता और
भूषा स्पष्ट हो जाती है।" कुवलयमाला, यशस्तिलकचम्पू एकांतवास । ये प्रवृत्तिया थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ
मे किरात को शिकारी जाति के रूप मे गिना है। किरात आज भी जन-जातियो मे मिल जायेंगी।
का दूसरा नाम चिलान भी मिलता है। किसी वन मे जैन साहित्य में मुख्यरूप से आर्य संस्कृति के विपरीत
किरातों का राज्य होता था।" आचरण करने वालो को म्लेच्छ कहा गया है। आठवीं शताब्दी तक इन म्लेच्छो का रहन-सहन अलग था । अतः
शाबर : अनार्य जातियों में शबरों का प्रमुख स्थान इनके संगठन भी बन गए थे।" प्रश्नव्याकरण सूत्र तथा
था । जैन-साहित्य में शबर को असभ्य और जंगली जाति कुवलयमाला मे कई म्लेच्छ जातियों के उल्लेख हैं। उनमें
माना गया है। शबर जाति के लोग दरिद्री होते थे। मे कुछ जातियों का परिचय इस प्रकार है:
ठंड में भी उनके पास कपड़े नही होते थे। समेराइचकहा
में भिल्ल और शवर जाति को एक माना है।"शबरों की औडर : औड्ड की आधुनिक पहचान उडीसा की
अलग पाल्लि (गांव) होती थी। जिसका एक मुखिया होता पिछडी जातियों से की जा सकती है । हुएनसांग ने इनको
था शबर जंगल से गुजरने वाले पथिकों एवं सार्थों को लूट औड कहा है, जो काले रंग के असभ्य लोग थे।"
लेते थे। शबर चण्डिका देवी की आराधना करते थे। चंच्य : यह जाति भारत के सीमा प्रदेशो में निवास
जंगल की जड़ी-बूटियों का इन्हें ज्ञान था। अत: शबर करती थी। वर्तमान में दक्षिण भारत की चेच्चुस नामक
रोगों का उपचार भी करते थे। दक्षिण भारत की पहाड़ी जाति से इसकी पहिचान की जा सकती है।"
जाति के रूप में शबर प्रसिद्ध थे। शबर कुछ विद्याओं के मुर: प्राकृत के अतिरिक्त भी अन्य भारतीय जानकार थे। उनकी शाबरी-विद्या शबर-वेष धारण करके साहित्य में इसके उल्लेख हैं । इतिहास से ज्ञात होता है ही सीखी जा सकती थी।" कि समुद्रगुप्त ने शक और मुरुडो को हराया था।" किन्तु पलिन्द : प्राचीन साहित्य में पुलिन्दों का पर्याप्त बाद में इस जाति के उल्लेख नहीं मिलते । अतः मुरुड उल्लेख है। पुलिन्द भी भीलों की ही एक जाति थी।
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२८ वर्ष ३६, कि० २
किंतु पुलिन्दों ने अपना सामर्थ्य बढ़ाकर अधिपति बनना प्रारम्भ कर दिया था । कुवलयमाला में पुलिन्द राजकुमार का भी उल्लेख है । किन्तु उसे राज्यसभा में पर्याप्त आदर प्राप्त नहीं था ।" पुलिन्दी दासियां भी राजदरबार में रखी जाती थीं।"
अनेकान्त
भील : प्राचीन जन-जातियों में भील जाति के भी उल्लेख हैं । शबर, पुलिन्द भिल्ल इन तीन के नाम प्रायः एक साथ मिलते हैं। तीनों ही जंगली जातियां थी। इनमें थोडा अन्तर रहा होगा । कुवलयमाला में भिल्ल जाति की दो पल्लियों (गांवों) का वर्णन किया गया है, जिससे उनके क्रिया-कलापों और रहन-सहन का पता चलता है। भिल्लपति एक राजा के समान अपना शासन चलाता था । सह्य पर्वत में चिन्तामणिपल्लि थी, जो कुछ सभ्य भीलों का निवास स्थान थी । किन्तु विन्ध्य पर्वत की म्लेच्छपल्लि असभ्य और जंगली भीलों की बस्ती थी ।" प्राकृत साहित्य से ज्ञात होता है कि भील शिव के परम भक्त होते थे।" शबर और भिल्ल जाति के लोग सेना में काम करते थे । युद्ध में उनकी सेना सबसे आगे रहती थी ।"
इनके अतिरिक्त वनेचर, मातंग आदि भी जंगली जन-जातियां थी ।" इन सभी जन-जातियों का वर्तमान
१. घुर्ये, कास्ट एण्ड रेस इन इण्डिया । २. शास्त्री, नेमिचन्द्र, प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, वाराणसी ।
सन्दर्भ-सूची
३. द्रष्टव्य, लेखक का निबन्ध - " प्राकृत साहित्य और लोक संस्कृति" पं. चैनसुखदास अभिनन्दन ग्रंथ जयपुर ४. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग १ - ३ ५. जैन जे० सी० जैन लाइफ इन ऍशियेन्ट इण्डिया, ऐज डिफिक्टेड इन जैन कैनन्स, बम्बई ।
६. ( क ) चन्द्रा, के० आर०, ए क्रिटीकल स्टडी आफ पउमचरियं ।
सन्दर्भ में अध्ययन किया जा सकता है। जैन साहित्य के इस प्रकार के उल्लेखों को ध्यान में रखकर भारतीय जनजातियों के इतिहास और विकासक्रम को प्रस्तुत किया जा सकता है।
(ख) शास्त्री, नेमिचन्द्र, हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य आलोचनात्मक परिशीलन, वैशाली । (ग) जैन, प्रेम सुमन, कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन |
प्राकृत साहित्य के मध्ययुगीन साहित्य में भी इन जातियों का उल्लेख है । कुछ अन्य नई जातियां भी इसमें सम्मिलित हुई हैं । यदि इस साहित्य का सूक्ष्म दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो भारतीय समाज की विभिन्न जातियों के उद्भव और विकास का पता चल सकता है । प्राकृत साहित्य की दृष्टि जन-सामान्य के जीवन की ओर रही है । अतः उसने सूक्ष्मता से मनुष्य के जीवन को आंका है। समाज के किसी भी वर्ग के चित्रण मे इस साहित्य ने संकोच नहीं किया अतः इसमे भारतीय समाज का सही प्रतिबिम्ब प्राप्त हो सकता है। समाज शास्त्रियों और इतिहास वेत्ताओं का ध्यान प्राकृत साहित्य की ओर आकृष्ट करने के लिए प्राकृत की इस प्रकार की बहुमूल्य सामग्री को आधुनिक ढंग से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति प्राकृत के विद्वान कर सकते हैं ।
00
७. शर्मा दशरथ, राजस्थान थू दि एजेज, बीकानेर पृ० ४२७ ॥
८. बुद्धप्रकाश, आस्पेक्ट्स आफ इंडियन हिस्ट्री एण्ड सिविल इजेशन, पृ० २५५ ।
E. (क) रामायण (२.८३-१२ आदि) ।
(ख) दीर्घनिकाय १, सामंयफलसुत्त ( पृ० ४४) । १०. सेनार्ट, कास्ट इन इण्डिया, पृ० १२२ आदि । ११. समराइच्चकहा, पृ० ३४८ एवं ६०५ आदि । १२. विस्तार के लिए देखें - लेखक की पुस्तक - कुव० सा० अ० पृ० १०८ आदि ।
१३. निशीच भाष्य, १६२७-२८ चूर्णी ।
१४. शर्मा राजस्थान यू दि एजेज, पृ० ४४३, पृ० ४२६१ १५. प्राचीन भारतीय स्थलकोश प्रयाग, पृ० २४१ (शेष पृ० ३० पर)
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बाहर-भीतर
श्री बाबूलाल जैन देखने के दो तरीके हैं बाहर से देखना अथवा भीतर के हो रहे हैं जैसा पहले वाले ने किया है परन्तु दोनों में की तरफ से देखना। एक वृक्ष से एक पत्ता गिर गया बड़ा फर्क है एक शारीरिक परिवर्तन है और एक आत्मीक और नया पत्ता आ गया बाहर से देखने वाला परिवर्तन है। एक आत्मीक क्रांती है जो पूरे जीवन को देखता है कि पुराना पत्ता गिरने से नया पत्ता आया बदल देती है। है। उसका कहना जैसा बाहर से दिखाई देता है इसी को कहते है केवल व्यवहार का उपदेश जो पहले उसी पर आधारित है परन्तु भीतर से देखने वाला वाला है। और एक है निश्चयपूर्वक व्यवहार जो दूसरा कहता है कि नया पत्ता आने के सन्मुख हुआ तो पुराने है। असली बात तो निश्चयपूर्वक व्यवहार है परन्तु जो पत्ते ने जगह खाली कर दी। अब अपने को समझना है देखा जाता है कि अभी इसकी पात्रता नही है तो मात्र कि सही बात क्या है। यह सही है कि दोनों अवस्थाओ व्यवहार का याने बाहर का उपदेश देते हैं यह समझकर में पुराना पत्ता गिरा है परन्तु देखना है कि पुराना पत्ता कि कम से कम इसमे लगा रहेगा उतना ही ठीक है फिर गिरना कारण है कि कार्य है। बाहर से देखने वालो को कभी असलियत को समझने का उपाय करेगा। कारण दिखाई देता है अतर से देखने वालो को कार्य याने एक और तीसरा व्यक्ति है जो अतर को तो जाना (reaction) दिखाई देता है।
नही अतर दृष्टि हुई नही परन्तु किसी से अथवा ग्रन्थों से आत्मकल्याण के कार्य मे भी ऐसे दो प्रकार से दिखाई उसका कथन जान कर बना हुआ शानी है वह आत्मदेता है। बाहर से देखने वाला समझता है इतना त्याग
क्रांति को तो प्राप्त हुआ है ? इसलिए बाहर में परिवर्तन करने से-इतना काया कष्ट करने से. इतना व्रत उप- आता नहीं और पहले वाले खाली व्यवहार को गलत बासादि करने से ऐसी वीतरागता प्राप्त हो जाती है और समझ बैठा और फल यह निकला कि बाहर में स्वच्छन्दता वह वैसा करने का पुरुषार्थ करता है परन्तु जलब्धि को प्राप्त हो जाता है। प्राप्त नही होती । जैसे बाहर के पत्तं कच्चे तोड़कर फैक इसी प्रकार बाहर से देखने वाला सेमलता है कि देने से नया पत्ता नही आता परन्तु भीतर से देखने वाला फलाने आदमी ने गाली निकाली इसने मुझे क्रोध करा देखता है कि अगर मैं भीतर में निज आत्मस्वभाव का दिया। उसने ऐमा किया इसलिए मेरे को राग हो गया। अवलम्बन कर-और ज्ञाता-दृप्टा वने रहने का पुरुषार्थ उसका सुख-दुःख सब पर के अधीन हो जाता है। रास्ते करू तो स्वालम्बन बढ़कर परालम्बन छूटता चला जायेगा। चलते किसी भीख मांगने वाले ने बाबू जी कह दिया तो फिर बाहर में त्याग नहीं करना पड़ेगा परन्तु बाहर में सुख हो गया और चलबे ! बाबू जी तेरे जैसे बहुत देखे हैं, उसकी जरूरत ही नहीं रहेगी। बाहर से देखने वाले को कह दिया तो दुखी हो गया। असल में विचारा जावे तो कायाकष्ट मालूम देता है परन्तु वह तो गर्मी सर्दी में हमारा दुःख-सुख एक भिखमंगे के आधीन है। यह है रहते हुए भी दुख नहीं भोग रहा है परन्तु अपने स्वभाव हमारी आत्मा की पराधीनता का नमूना । हमें विचारना का भोग कर रहा है वहां गर्मी सर्दी मालूम ही नही हो होगा कि दुख पा करने वाला वह भिखमंगा था कि रही है। निज आनन्द में लगा हुआ है भूख और प्याम कुछ और था। की जरूरत ही नही। बाहर में कार्य तो मभी उसी प्रकार ग्रन्थकार कहते हैं कि बोला गया शब्द तो यह कहता
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भनेकान्त
नहीं कि तू मेरे को सुन और कान में जाकर वह आपको हमारा पैमाना है और यही वह फार्मूला है। सवाल है दुखी बना दे ऐसा भी नहीं परन्तु उस शब्द को तुमने ही बाहर से भीतर नहीं परन्तु भीतर से बाहर की तरफ। हर सुनने की चेष्टा की है और तुमने ही उसको उस रूप से बात को इसी पैमाने पर नापना है। ग्रहण किया है जिससे दुखी हुआ है। तूने उस शब्द के इसी प्रकार एक बीज जब बोया जाता है और जब साथ सम्बन्ध जोडा है तू अपने से सम्बन्ध जोड़े रहता वह अंकुरित होने के सम्मुख होता है तो फट जाता है तो कुछ होता नही । अपने से हटकर शब्दों से और शब्दों और जैसे-जैसे आगे बढ़ता है ऊपर की चट्टाने रास्ता देने के कहने वाले से जैसा सम्बन्ध जोड़ा वैसा दुखी-सुखी तू लगती है और ऊपर की जमीन फट जाती है। ऊपर की हो गया । इसलिए भीतर से देखने वाला समझदार है कि जमीन फटना बता रही है कि अब बीज पौधा बनने लग दुख-सुख का कारण शब्द नही वह व्यक्ति नही परन्तु मैं गया है परन्तु बाहर से देखने वाले कितनी ही जमीन को हं जिससे उससे सम्बन्ध जोड़ा है । वह अपनी गलती भीतर क्यो न फाड़े परन्तु पौधा नहीं निकल सकता।। समझ कर कालांतर मे फिर पर से सम्बन्ध नहीं जोडने एक तो फल पकता है गाच्छ पर और एक पकाया का अथवा अपने से सम्बन्ध बनाये रखने का पुरुषार्थ जाता है कारवाइड गैस देकर। जो कारबाइड गैस देकर करता है जबकि पहले वाला गाली निकालने वाले व्यक्ति पकाया जाता है वह ऊपर ऊपर से, बाहर से तो पका को दुख का कारण समझकर उससे द्वेष और सुख का दिखाई देता है परन्तु भीतर में मिठास नहीं होता और कारण समझकर उससे राग करता है।
उसकी पक.स अन्तस तक नही जाती परन्तु जो गाछ का पहली परालम्बन दृष्टि है दूमरी स्वालम्बन दृष्टि है। पका होता है वह भीतर से पकता है और उसकी पक्कस पहली बात हमें बाहर की तरफ, पर की तरफ ले जाती भीतर से बाहर की तरफ आती है, उसकी मिठास का है दूसरी हमें बाहर से भीतर लाती है। आत्मकल्याण क्या कहना। यही बात आत्मा के बारे में है भीतर जब बाहर से, पर से, भीतर आने मे है भीतर ही रहने में है। आत्म परिवर्तन होता है तब आत्मदर्शन होता है तो बाहर संसार मार्ग भीतर से बाहर में पर मे जाने में है। जो मे उसी के अनुकूल मिठास आती है। फल में परिवर्तन शब्द, जो मूर्ति, जो स्तोत्र जो पूजा हमें बाहर से भीतर आता है परन्तु बाहर का परिवर्तन करने मात्र से भीतर ले जाने में प्रेरक है वह उपयोगी है जो हमें भीतर से में मिठास नहीं पैदा होती। बाहर की तरफ प्रेरणा करती है वह उपयोगी नही है यही
-सन्मति बिहार, नई दिल्ली
(पृ. २८ का शेषांश) १६. जामखेडकर, कुवलयमाला ए कलचरल स्टडी, २७. समराइच्चकहा, ७, पृ० ६८८
पृ० २४२। १७. फ्लीट, भाग ३ पृ०८
२८. वही ६, पृ० ५२६ १८. आदि पुराण (जिनसेन) १६-१६१
२६. जैन प्रेम सुमन, कुवलयमाला का सां० अ० पृ० १६. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० १५५
२४१-४२ २०. समराइच्चकहा, ४ पृ० ३४९
३०. वही, पृ० ३१६ २१. आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश ।
३१. ज्ञाताधर्म कथा, प्रथम अध्ययन । २२. समराइच्चकहा, १, पृ०५५
३२. कुवलयमाला का सां० अ०, पृ०७७-७८ २३. किराता०, सर्ग १२, श्लोक ४०-४३
३३. दशवकालिक (हरिभद्रवृत्ति), पृ० २०८ २४. ज्ञाताधर्म कथा, अ०२ २५. यशस्तिलकचम्पू पृ०२०३ (उत्तरा०)
३४. वर्धमान चरितं, सोलापुर, ३-३८ २६. यादव, समराइच्चकहा का सांस्कृतिक अध्ययन ३५. जैन, गोकुल चन्द्र, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
पृ० १०५।
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विचारणीय प्रसंग
(धात्मा पीर शान्तरस एक विसंगति)
तस्वार्थ सूत्र 'जैन आगम का महत्वपूर्ण सूत्र-ग्रन्थ है और जैन के सभी सम्प्रदायों में आबाल-वृद्ध बड़ी श्रद्धा से पढ़ा सुना जाता है। इसकी पवित्रता का सहज अनुमान इसी से होता है कि इसका एक बार पाठ करने से वाचक और धोता दोनों को बिना ही उपवास किए, एक उपवास का फल -लाभ हो जाता है। इसमे सात तत्त्वों के क्रम मे समस्त पदार्थों के मूल प्रवाहों और स्थितियों का दिग्दर्शन कराया गया है। इसके दूसरे अध्याय के प्रथम सूत्र मे जीव के भावों का वर्णन है। आचार्य ने जीव के भावो को पाँच विभागो में बाटा है तथाहि श्रपशमिकाको भावी मिश्रश्च जीवस्य स्व-सत्त्वमौदधिक पारिणामिको च' अर्थात् औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक श्रवधिक और पारिणामिक भाव जीव के स्व-तत्त्व हैं। ये सभी भाव जीव की अपेक्षा से हैं, शुद्ध आत्मा के परिप्रेक्ष्य मे नही ।
उक्त पाच भावों मे शुद्धात्माओं में औरशमिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भावो का अभाव तो सष्ट परिलक्षित होता है । औदयिक भाव के लक्षग मे तो यह भी कहा गया है कि द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणा फलप्राप्तिरुदयः' अर्थात् द्रव्य आदि के निमित्त वश से कर्मों की फलप्राप्ति उदय है और कर्म के उदय में होने वाला भाव औदयिक भाव है। जैसे साता वेदनीय के उदय में मानसिक-शारीरिक शान्ति या असातावेदनीय के उदय मे मानसिक-शारीरिक अशान्ति । यदि शान्तरस साता का ही नाम है तो वह कर्मोदयजन्य-संसारी होने से शुद्धात्मा मे नही बनता तथा सुखदुख भीतरपोपहारच' और 'कम्मशरीरमच भासानामपामह नुक्ल जीवनमरोह नायन्या समयसार प्रकरण टीका - देवनन्दाचार्य २०२, पृ० १२ के अनुसार सुख-दुखादि शरीरकृत उपकार भी हैं और शरीर भी नामकर्मोदयजन्य
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पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
है । फलतः शुद्ध आत्माओं में नामकर्म व शरीर तथा वेदनीयकर्म तीनों के अभाव मे सुख-शान्ति या शान्तरस की मम्भावना असंभव ठहरती है ।
इसके सिवाय जिन भव्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व को पारिणामिक भाव कहा है, यह कहना भी उपचार है। यतः भव्य, अभब्य दो भाव ऐसे हैं जो मुक्त होने और संसार मे सदा काल रहने की योग्यता शक्ति के परिप्रेक्ष्य मे है आत्मा के त्रैकालिक स्वभाव की अपेक्षा मे नही । तीसरा जीवत्य भाव भी आत्मा में सदाकाल रहने वाला भाव नहीं प्राणो पर अपेक्षित है और उपचार ही है। अत आचार्य ने इस भाव को भी औदयिक घोषित कर पर-निरपेक्ष चैतन्य मात्र को ही पारिणामिक मानने की घोषणा की है। तथाहि
'सिद्धा न जीवा जीविन्या इदि सिद्धाणं पि जीव फिल्म इन्डिजये ? ण, उपचारस्स सभ्यताभावायो । सिद्धेसु पाणाभावण्णहाणुबबत्तीवो जीवसं न पारिणामियं, किंतु कम्मविवागजं ...। तत्तो जीवभावो ओवइओ सि सिद्धं तच जीवभावत्स पारिणामियत्तं पविवं तं पाण धारण पटुच्च ण परुचिरं किंतु चेदमगुणमवलंबिय तत्थ परूवणा कबा । ' - षटम्खडागम, धवला पु० १४, ५।६।१६ पृ० १३
सिद्ध जीन नहीं है, जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं। शका सिद्धो के भी जीवत्व स्वीकार क्यों नहीं किया जाता ?
समाधान- नही, सिद्धों में जीवत्व उपचार से ( कहा ) है (और) उपचार को सत्य मानना ठीक नही । सिद्धों में प्राणो का अभाव अन्यथा मन नही सकता इसलिए 'जीवत्व' पारिणामिक भाव नहीं है, किन्तु कर्मोदय जन्य है इसलिए 'जीव' (थ) भाव औधिक है ऐसा सिद्ध है । त० सूत्र में जो 'जीवन' को पारिणामिक कहा है
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१२, वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
वह प्राण धारण की अपेक्षा से प्ररूपित नही किया किन्तु ४. 'शान्तं-सर्वोपाधि जितम्। चेतनगुण के अवलंबन से वहां प्ररूपणा की गई है।
-पयनंदिपच० (टोका ४१) इसके सिवाय रहे क्षायिक भाव : सो जहा क्षायिक ५. 'विकल्पोमिभरत्यक्तः - शान्तः ।' भावों को कर्मों के क्षय से उत्पन्न भाव कहा गया है वहां
-पधनंदिपंच० ४।२६ भी क्षय का अर्थ प्रध्वसाभाव है, अत्यताभाव नहीं। क्योंकि ६. 'विकल्पोजिमतं परं शान्तं ।'
१५४ किसी द्रव्य का पर्यायरूप से ही नाश होता है, द्रव्यरूप से इसके सिवाय 'लघुतत्त्वस्फोट' में भी निम्नस्थलो पर नहीं। यतः-ज्ञानावरणादि रूप जो कर्मपर्याय है उसके आत्मा के सम्बन्ध में जहां रस शब्द का प्रसग आया है
मोती जीव की वहां भाषाकार ने रस से चैतन्य, ज्ञायक या आत्म-रस को अपनी चैतन्य ज्ञानादि रूप पर्याय निर्मित नही होती। लिया है, शान्त-रस जैसे भाव को नहीं। तथाहि
१. एकरमप्रभाव'-चैतन्यरस के एक प्रवाह स्वरूप । एक बात और है । वह यह कि जिस समय जीव की "
-स्तुति १०, श्लोक ३ केवल ज्ञानादि पर्यायें प्रकट होती हैं उस समय तो ज्ञाना
२. 'भिन्नरस स्वभाव:'-विभाव परिणति से भिन्न रस वरणादि कर्मों का अभाव ही है और अभाव को कार्यो
वाला यह स्वभाव । --स्तुति १०, श्लो०६ त्पति में कारण माना नहीं जा सकता। अन्यथा खर
३. 'एवंकरसस्वभाव:'-एक ज्ञायक स्वभाव से सहित । विषाण को या शून्य से कुसुम उत्पत्ति को भी वैध मानना
स्तुति १०, श्लोक १३ पडेगा। फलतः निष्कर्ष ऐसा है कि ये भाव कर्मों की
४. 'स्वरसेन'-आत्म रस से। - स्तुति १०, श्लोक १४ विच्छेद दशा मे आत्मा में प्रकट होते है। इसी कर्म. " विच्छेद यानी विकार-निरास को आचार्यों ने क्षय नाम से ५. 'चिदेकरसनिर्भर.'-एक चैतन्य रस से परिपूर्ण । कहा है और इसी क्षय या विकार-निरास को 'शान्त'
-स्तुति १२, श्लोक २३ शब्द से भी इगित किया है-शान्त रस जैसे किसी पाठक यह भी विचारे जब आचार्यों ने पारिणामिक लौकिक-अलौकिक रस की उत्पत्ति होने को नही। जैसे
नाम से प्रसिद्ध 'जीवत्व' जैसे भाव को भी उपचरित होने लोक में भी किसी के मरने (पर्याय बदलने) पर प्रायः
के कारण शुद्ध आत्मा का स्वाभाविक भाव मानने से कह देते हैं कि – 'अमुक' शान्त हो गया-समाप्त हो
निषेधकर, मात्र चैतन्य को ही स्वाभाविक भाव माना, गया, आदि।
तब शान्त-रस जैसा कल्पित, औदयिक (क्षायिक ?) भाव, ___ 'शान्त' शब्द से विकार-निरास को इंगित करना
जो लोक व्यवहाराश्रित है-शुद्ध आत्मा का स्वभाव कैसे निम्न शब्दो से भी स्पष्ट होता है-उपशमत्व, क्रोधादि
हो सकता है ? अर्थात् नही हो सकता। आत्मा का शुद्ध अभाव, व्याधिविजित, विकल्पोज्झित आदि इन सभी
स्वभाव तो "चिदेकरसनिर्भर ही आचार्य सम्मत हैएक भाव द्योतक शब्दो को 'शान्त' शब्द से इंगित किया
अन्य नही।
___कई मनीषियों का विचार है कि दो विरोधी धर्मों गया है-शृंगारादि रसों जैसे किसी शान्त-रस के सद्भाव
मे से एक का रह जाना अवश्यंभावी है, एतावता जब को इंगित करने के भाव में नहीं । तथाहि
आत्मा मे अशान्त रस नही, तो शान्तरस अवश्य होगा। १. 'शान्तरसे'-शान्तः उपशमत्वं स एव रस. ।
ऐसे विचारको से हमारा निवेदन है कि-पहिले तो निर-परमाध्या० त० कलश ३२ पेक्ष वस्तुस्वरूप में द्वित्व या विरोध का प्रश्न ही मही। २. 'शान्तमहः'-किं भूतं महः शान्तं क्रोधादेरभावात् ।' फिर, यह भी आवश्यक नहीं कि विरोधी दो में से एक शेष
-परमाध्या० त० कलश १२३ रह ही जाय । यदि एक विरोधी धर्म को शेष मानमा ३. 'परं शान्तं-सर्वव्याधिवजितम् ।'
अवश्यंभावी माना जायगा तो आचार्यों के कथनानुसार -पपनन्दि पंच० १११८ जो सिद्ध भगवान जीव संज्ञा में नहीं हैं, उन्हें क्या 'जीव'
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विचारणीय प्रसंग
मान लिया जायगा? हमारी दृष्टि में तो ऐसा सर्वथा ही इसी भांति के पाठ 'सत कम्म' रूप में देखेंनही है। शुद्ध आत्मा को हम तो ऐसा मानते हैं-किये 'मूलुतर पगइगयं बउब्विहं 'संत कम्म' वि नेयं न जीव है और ना ही अजीव हैं, न अशान्त हैं और ना -कम्मपयडि. सत्तापगरण गाथा १ और टीकाही शान्त हैं, वे तो पर-निरपेक्ष 'चिदेकरसनिर्भरः' जो है ""पुनरेकैकं चतुर्विधं तद्यथा-प्रकृति सत्कर्म, स्थिति सो हैं-वचन अगोचर । जीव के जो प्रचलित भेद संसारी सत्कर्म, अनुभाग सत्कर्म प्रदेश सत्कर्म च (मलयगिरि)। और मुक्त बतलाए गए हैं वे भी बंध और अबंध दशा को संपुन्नगुणिय कम्मो पएस उक्कस्स 'संतसामी उ' लक्ष्यकर हृदयगम कराने की व्यवहार दृष्टि से ही बत
-कम्म पयडि, सत्ता पगरण गाथा २७ लाए गए हैं-शुद्ध आत्मस्वभाव की दृष्टि से नही । शुद्ध
टीका-सस्सेव यति रइय चरमसमये वट्टमाणस्स आत्मा की दृष्टि से तो वे केवल 'चिदेकरसनिर्भर' ही हैं
सामण्णेणं सव्वकम्माणं उक्कोसं 'पदेससंत कम्मं भवति ।' शान्तरस आदि जैसा कोई अन्य विकल्प नहीं।
खुलासा अर्थ-'उत्कृष्ट प्रदेश सत् कर्म स्वामी संपूर्ण 'संत'
गुणित कर्माश. सप्तम्यां पृथिव्यां नारक परम समये वर्त'पदेससंतकम्म' और 'पदेससंतमज' उक्त दोनो मानः प्राय: सर्वासामपि प्रकृतीनामवगन्तव्यः (मलयगिरि) पदी मे अन्त के शब्द 'कम्म' और 'मज्झ' का भेद है । जब इसी प्रकार इसी ग्रन्थ की मूलगाथा २८ से ३१की आचार्य ने पूर्व पद का अर्थ 'प्रदेश सत्कर्म किया है तो चूणि में 'उक्किस्स (उक्कोस ?) पदेससंत' पद बारम्बार, उत्तर पद का अर्थ 'प्रदेश सत्मध्य' स्वाभाविक फलित होता उत्कृष्टतया कर्म प्रदेशो की सत्ता को बतलाने को कहा है। और यदि इन्ही दोनो पदों के पूर्व मे 'अ' उपसर्ग जोड गया है-शान्त या शान्त-रस जैसा अर्थ बतलाने के कर इन्हें 'अपदेस संत कम्मं और 'अपदेस संत ममं कर लिए नहीं। दें तो इनका अर्थ क्रमशः 'अप्रदेश सत्कर्म' और 'अप्रदेश ऐसे ही 'उबसंत मोह' गुणस्थान में 'संत' शब्द को सत्मध्य' (अखड सत् (सत्त्व) के मध्य) फलित होता है। ये मोह के प्रभावहीन होने के भाव में भी देखा जा सकता तो हम पहिले भी लिख चुके हैं कि आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। वहां यही कहा गया है कि इस गुण स्थान में मोह दब और अखड है : अप्रदेशी (प्रदेश रहित या एक प्रदेशी) नही। गया है-शान्त या प्रभावहीन हो गया है. आदि । यदि (तीर्थकर मई ८३, टा० ३, क्षु० जिनेन्द्र वर्णीजी को भी पढ़े) वहा 'उब-सत मोह मे से 'उव' उपसर्ग को हटा कर संत आश्चर्य न करें 'कषाय पाहुडसुत्त चणि मे इस 'पदेस
मोह का अर्थ लें तो वह भी दब जाने-प्रभावहीन हो
जाने के भाव में ही होगा। यानी मोह का शमन होगया सत कम्म' पद का उल्लेख है और यति वृषभाचार्य को प्रामाणिक मानने वालो के लिए यह श्रद्धा का विषय
ऐसा कहेंगे । यदि हम ऐसा न कह 'संत' का अर्थ 'शान्त
रस' लेंगे (जैसा कि उपक्रम किया जा रहा है) तो अर्थ है । वहा इस पद का अर्थ 'प्रदेश सत्कर्म किया गया है
होगा कि इस गुणस्थान में मोह शान्तरसी-शान्त रस'प्रदेश शांतकर्म' जैसा अर्थ नहीं । अब पाठक देखें कि वे 'अप्रदेश सत्कर्म और 'अप्रदेश सत् मध्य' अर्थ लेंगे या उन्हें
बाला मोह, हो गया है। इसका भाव ऐसा फलित होगा इनके अर्थ क्रमशः 'अप्रदेश शान्त कर्म' और 'अप्रदेश शान्त
कि जिन लोगों को शुद्ध आत्मा में शान्त रस इष्ट है, उनके मध्य' ठीक ऊंचेंगे? हम उन्ही पर छोड़ते हैं । देखें, वे अब
मत में मोह के सद्भाव में ही इष्ट-(शान्त रस) की 'संत' का अर्थ सत् (सत्व) लेते हैं या शान्त ? देखिए--
पूर्ति हो जाने से मुक्ति के लिए मोह आय का उपक्रम न
करना पड़ेगा-यतः मोह शान्त रसी होकर-सत्ता में सम्मामिग्छत्तस्सजहण्णय 'पदेस सन्त कम्म' कस्स? ते सिदों में शांत-रस का संचार करता रहेगा।
-कषायपाहुड, पदेसविहत्ती स्वामित्व गा० २२ सूत्र इस प्रकार बारहवें, तेरहवें गुण स्थान और अशरीरी होने ३१ और वहीं पद गाथा २२ सूत्र ५, ६-२० ३१, ३२, के उपक्रमों से भी छुटकारा मिल जाएगा और मोह क्षब ३५, ३०,४,४६, ५४,८०, ११७-२९० में। की आवश्यकता भी न पड़ेगी। ऐसे में दो बनविर भी
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३४, ३६, कि०२
अनेकान्त जब कभी [सप्ततिर्मोहनीयस्य मोहनीय के उदय में आने कोषकारों ने प्रायः जो अर्थ दिए हैं वे निम्न भांति हैंपर हितबदिया लीलावश अवतार ले सकेगा; लोक का मंत-मा प्रा निर्माण कर सकेगा, कर्मफल दे सकेगा और वह सर्वव्या
-वृहत् हिन्दी कोष (ज्ञानमण्डल) पक भी हो सकेगा जैसा कि काफी समय से प्रच्छन्न उपक्रम संत-सन्यासी, सत्संगी पुरुष, सज्जन, परमधार्मिक, है। क्या यही ईश्वर जैन-दर्शन-मान्य ईश्वर होगा ? जरा पति,(ऊपर की भांति अन्य अयों मे भी)-मानक हिंदी कोष । सोचें और जैन-दर्शन-मान्य आत्मा को 'न शून्यं न जडं -संस्कृत में 'संत' शब्द है या नही हम नही जानते । नोचिच्छान्तमेवेदमाततम्' जैसी घुसपैठ से रोकें। नहीं तो
यह भी तथ्य है कि आचार्यों ने 'संत' को 'सत्त्व' भाव इसके परिणाम जैन-तत्त्व विध्वंसक होंगे । सदियों बाद
में भी लिया है । यथा-'अप्पदरसंतविभत्तिओ . कहा जायगा कि-जैन-मान्य-आत्मा भी न शून्य है न जड़ है और न चैतन्य है-वह तो शान्त और सर्वव्यापक है। (कषायपाहुड चूणि गाथा २२ सूत्र १२४)
हमारा निश्चित मत है कि आचार्यों द्वारा 'अपदेस' दसरी बात । मौह के शान्तरसी मानने पर शान्तरस 'संत' और 'मज्ज्ञ' तीनों शब्दों के अर्थ अनेकों बार दिए और मोह में गुण-गणीपना मानना पड़ेगा अर्थात् शान्तरस गए हैं जो आगमों मे यत्र-तत्र उपलब्ध हैं । अतः यह गुण और मोह गुणी ठहरेगा । एक के अभाव में दूसरे का कहना कि टीकाकारों ने गलत या उलझनपूर्ण जो जैसा चला भी अभाव होगा । यदि मोह (गुणी) का अभाव किया आ रहा था वैसा ही मान लिया, आचापों का अपमान है। जायगा तो शान्त रस (गुण) उसके साथ ही जायगा। हां, अब तो यह भी सोचना पड़ेगा कि आचार्यों को मान्य और इस भांति 'शान्त रस' मानने वालों के सिद्धांत में करने की दिशा में "संत' के अर्थ में यतिवृषभाचार्य और मोह-क्षय करना सर्वथा निषिद्ध हो जायगा । जो जैन-दर्शन प्रबलाकार आदि जैसे - को इष्ट नही।
वरीयता दी जाय या नही : अस्तु ! अब तो कोई-कोई यह भी कहने लगे है कि-'संत' हमारी भावना है कि आगम तद्वस्थ और अपरिवर्तित शब्द देसी हिन्दी भाषा में भी है और शान्त अर्थ में है। रहे इसी भावना को लक्ष्य में रख हमने प्राचीन उद्धरणों पर, जहां तक हमने देखा है 'संत' शब्द श्रेष्ठ जैसे अन्य को संकलित किया है। हमारे भाव तदनुकूल और स्पष्ट अनेक अर्थों में है, शान्त अर्थ में नही । संत का तत्समरूप हैं-पाठक विचारें। इस विषय में हम पहले भी काफी सत् भी है-संत पुरुष को सत्पुरुष भी कहते हैं । हिन्दी स्पष्टीकरण दे चुके हैं। हमारा अपना कुछ नहीं।
'छमस्थ-लौकिक पुरुष चाहे कितने भी प्रसिद्ध विद्वान क्यों न हों ? उन सभी के सभी लेख, वार्तालाप सैद्धान्तिक-प्रसंगों में जिनागम का रहस्योद्घाटन नहीं करते-उनमें कुछ और भी हो सकता है। प्रतः ज्ञानी पुरुष प्रमाण और नय की कसौटी पर परखकर ही उनकी हेयोपादेयता का निर्णय करते हैं। वे उनके मंतव्यों को प्रचारित भी तभी करते हैं।'
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स्वाध्याय और उसकी महत्ता
'सुष्ठु सम्यक् प्रकारेण अधीयत् इति स्वाध्यायः ।' भले प्रकार मन, वचन और काय की शुद्धता से अर्थ के चिन्तवन सहित विनायम का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है।' अथवा 'शोभनोऽध्यायः इति स्वाध्यायः' अर्थात् कालमुद्धिपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करने या कराने को स्वाध्याय कहते हैं। जो निर्दोष हो, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और और परिग्रह इन पांच पापों को नाश करने वाला हो, जो प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण से सहित हो एवम् सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान द्वारा कहा गया हो वही सच्चा शास्त्र है ।' सर्वज्ञ कथित सच्चा जिनागम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग से चार भेद वाला है। इन चारों के शास्त्रों को यथार्थ रूप से पढने पढ़ाने को ही स्वाध्याय कहते हैं। इसे प्राकृत मे "सज्झाय" कहते हैं। इस प्रकार भुत के अध्ययन पाठ को स्वाध्याय कहा जाता है ।"
जिस प्रकार बिना प्रकाश के अन्धकार में रखे पदार्थों का पूर्ण ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार विना श्रेष्ठ शास्त्रों के पढ़े ज्ञान सम्भव नहीं । ज्ञान के अभाव मे मनुष्य प्रगति के पथ पर नहीं पहुंच सकता अतः ज्ञान-मानव-जीवन का सार है ।' ज्ञान नेत्र का उद्घाटन शास्त्र स्वाध्याय द्वारा ही सम्भव है। बिना शास्त्र ज्ञान के चक्षु होने पर भी मनुष्य अन्धा ही कहा जाएगा। जो पदार्थ चक्षु द्वारा प्रतीत नही होता उसे प्रकाशित करने के लिए शास्त्र ही सक्षम हैं । यह शास्त्र ज्ञान मानव का तीसरा नेत्र है ।"
सम्यक् ज्ञान के लिए स्वाध्याय आवश्यक है । स्वाध्याय के माध्यम से अज्ञान दीप बुझकर पुनः ज्ञान दीप ज्वलित होता है । जैन धर्म मे श्रावक के षट्कर्म बताए गए हैं जिनमें स्वाध्याय भी समाहित है यथा
"देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्याय: संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानाम् षट्कर्माणि दिने दिने ।' मानव जन्म-मरण के बन्धनों से आकांत है जिसके
6] कु० राका मंग
फलस्वरूप वह दुःखों का वहन करता है यह दुःख वस्तुतः अज्ञान ही है । स्वाध्याय के द्वारा मनुष्य दुःखों से दूर रहता है।' अत सम्यग्ज्ञान अर्जित करने के लिए स्वाध्याय आवश्यक है, यहां सम्यग्ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है।" स्वाध्याय मोक्ष प्राप्ति का एक सोपान है।
तप के द्वारा अभीष्ट (मोक्ष) की प्राप्ति सम्भव हैऐसा भारतीय संस्कृति में मान्य है । जैस-धर्म में बारह प्रकार के तप बताए गए हैं।" उनमें से एक तप स्वाध्याय भी है । यह तप के आभ्यन्तर रूप में समाहित है । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश, ये पांच प्रकार के स्वाध्याय माने गए हैं।" स्वाध्याय का अर्थ विद्याभ्यास करना है।" पढ़ना, पढ़ाना, शुद्ध-पाठ उच्चारण करना, धर्म सम्बन्धी उपदेश करना अथवा तत्वों का चिन्तवन करना, ये सभी बातें विद्याभ्यास में ही गमित है।"
१. वाचना- निर्दोष ग्रन्थ का अर्थ सहित अध्ययन करना वाचना स्वाध्याय कहा जाता है।"
२. पृच्छना - जो वाचना द्वारा अध्ययन किया जाता है उसे दृढ़ बनाने के लिये विशेष विद्वान् से उस विषय में प्रश्न करना पृच्छना है ।"
प्रश्न करना अध्ययन नही कहा जा सकता अतः इसे स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता अतः इसे स्वाध्याय में समाहित नहीं करना चाहिए किन्तु प्रश्न करना अध्ययन की प्रवृत्ति में सहायक है अतः उसको भी स्वाध्याय कहना असंगत न होगा। पृच्छना को पढ़ना भी कह सकते हैं । "
३. अनुप्रेक्षा --- जो अध्ययन किया है उसका बार-बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय कहलाता है। बारह भावनाओं का भाना भी अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है ।"
४. आम्नाय पढ़े हुये पाठ को शुद्ध उच्चारणपूर्वक पढ़ना आम्नाय स्वाध्याय कहलाता है ।"
५. धमोंपदेश - पूर्व पुरुषों के चरित्र अथवा विषयों का स्वरूप बतलाना धर्मोपदेश कहलाता है । अथवा त्रेसठ
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१६ वर्ष कि०२
अनेकान्त शलाका के पुरुषों का चरित्र कहना धमोंपदेश है।" ज्ञान और परित्र में प्रवृत्त होती है। स्वाध्याय से ही मैत्री
इस प्रकार पाच प्रकार का स्वाध्याय विधि पूर्वक बढ़ती है। करना चाहिये, इससे कर्म क्षय होता है, वैराग्य की बखि स्वाध्याय करने से तर्क शक्ति, बुद्धि की प्रकर्षता. होती है और अन्ततोगत्वा मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। परमागम की स्थिति, वस्तु का यथार्थ ज्ञान एवं निर्णय,
धर्म-प्रभावना करने की शक्ति आदि गुणों का विकास स्वाध्याय करने से यावत् वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होता है यथाहोता है। मानसिक व्यापार अशुभ प्रवृत्ति से हटकर 'प्रजातिशय: प्रशस्ताध्यवसायाध्यर्थ स्वाध्यायः।' शुभ प्रवृत्ति की ओर आकृष्ट होता है । आत्मा से राग-द्वेष इस प्रकार स्वाध्याय सांसारिक बन्धनों से मुक्त दूर होकर मात्मा बिशुद्ध हो जाती है । स्वाध्याय के करने होकर विजय लक्ष्मी (श्रेयस) प्राप्त करने का पहलू है तथा से राग, कोष, मान, माया, लोभादिक पापों से आत्मा जो सम्यग्ज्ञान के लिए आवश्यक है। पराङ्मुख होती है। आत्मा मोक्ष के मार्ग सम्यग्दर्शन,
- अलीगंज (एटा) सन्दर्भ-सूची १. विद्वज्जन बोधक, पृ० ४६५ ।
"वाचना पृच्छनाम्नायस्तथा धर्मस्य देशना । २. पूर्वापर विरोधादि हिंसादिनाशनम् ।
अनुप्रेक्षा च निर्दिष्टः स्वाध्याय. पंचधा जिनः ॥ प्रमाणद्वय संबादिशास्त्रं सर्वज्ञभाषितम्
तत्त्वार्थसार ६.१६ पृ० ३६३ । -स्वामी समन्त भद्राचार्य विरचित रत्नकरण्डश्राव- 'वाचना पृच्छनाऽनुप्रेक्षाऽम्नाय धर्मोपदेशाः।' काचार २०६८)
-तत्वार्थ सूत्र ६२५॥ ३. चतुर्णामनुयोगानां जिनोक्तानां यथार्थतः ।
१३. शुद्ध धावक धर्म प्रकाश -श्री जैन समाज मारौठ अध्यापनमधीतिर्वा स्वाध्यायः कथ्यते हि सः ।।
(राज.) पृ० २६२ । -संस्कृत भाब संग्रह, श्लोक सं ५६६, पृ० २१०।
१४. निरवद्यग्रन्थार्थोभय प्रदानं वाचना।' ४. शुद्ध श्रावक धर्म प्रकाश-स्वाध्याय प्रकरण, जैन
-राजवार्तिक १, पृ. ३४७ । समाज मरोठ (राज.) पृ० २५६ ।
१५. पृच्छनं संशयोच्छित्यै निश्चीति दृढ़नाय वा । ५. अनगार धर्मामृत-पं खूबचन्द्रकृत, भाषाटीका, पृ०७६४
प्रश्नोऽत्रीति प्रवृर्त्यर्थ त्वादर्थ्य विरसावपि ॥ ६. 'गार्ण गरस्स सारो।'
-तत्त्वार्थ सार १४ -३१, दर्शन पाहुड़।
१६. भाषा टीका तत्त्वार्थ सार, पृ० ३८३ । ७. अलोचन गोचरे ह्यर्थे शास्त्रं तृतीयं पुरुषाणाम।' १७. अनुप्रेक्षा द्वादशानुप्रेक्षानित्यत्वादेश्चिन्तनम।' -नीतिवाक्यामृतम् ।
-आचारवृत्ति, पृ० ३०६ । ८. पचनन्दि श्रावकाचार।
१५. धर्मकथा धर्मोपदेश संस्तुति मंगला।' ६. 'सज्झाए वा निउत्तेण, सव्व दुःक्ख विमोक्खणे।'
-आचार वृत्ति, पृ० ३०६ । १९. 'पठणाई सज्झायं वे एग णिवन्धणं कुणई विहिगा।
-उत्तराध्ययन २६।१०।। १०. सम्यग्दर्शन शान चारित्राणि मोक्षमार्ग: - तत्त्वार्थ ११
समायं कुठवतो पंचेदियं सं वुडोति गुत्तोय । ११. प्रायश्चितविनययावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्त
हवदि ए अग्गणो विणएण समाहि ओभिक्खू ।' रम्।-श्रीउमास्वामि विरचित 'तत्वार्थ सूत्र' २० ।
-मूलाचार पूर्वार्द्ध २१३, पृ० ३२१ ।
१९० २०. विनेयवद्विनेतृणामपि स्वाध्यायशालया।' १२. से कि तं सज्झाए पंचविहे पण्णते तं।
-अनगारधर्मामृतमू पृ० ५२१ जहा वायणा पडिपुग्छण परिपट्टण धम्यकहा सेतं
"विना विमर्शशून्यषीदंष्टेऽप्यन्धायतेऽध्वनि।' सज्झाए। -भगवती शतक ७३।०२।
--सागारधर्मामृतम् पृ०४।
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जरा-सोचिए
१. 'सव्वसाहूणं' में साथ कौन! भमर, मिय, धरणि, जलरुह, रवि पवण समो अतो समणो॥' णमो लोए सव्व साहूणं'-लोक अर्थात् काई द्वीप में
उक्त परिप्रेक्ष्य मे विचारना है कि आज देखा-येबी, विद्यमान सर्व साधुओं को नमस्कार हो।
चाहे जो हो, जैसा हो, अपने से तनिक भी श्रेष्ठ होउक्त पद से क्या लोक के सभी-सच्चे और वेश या
चाहे आडम्बर परिग्रह का पुंज ही क्यों न हो? सभी को नामधारी दिखावटी साधुओं को नमस्कार करने का भाव
___ गुरु मानकर नमस्कार करने की जो परिपाटी चल रही प्रगट नहीं होता? यह प्रश्न कई लोगों द्वारा पूछा जाता
है, वह कहां तक उचित और णमोकार मंत्र सम्मत है। रहा है। इस विषय में आगम का अभिमत क्या है, इस
जरा सोचिए ! परिप्रेक्ष्य में विचारना चाहिए । आगम मे 'साधु' की २. "मिथ्यादृष्टि' का अनावित्व ! व्याख्या इस प्रकार दी है
वस्तुतत्व का निरूपण जुदी प्रक्रिया है और प्रमाद"जो अनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की कषायादि भावो वश बस्तु का कथन या विचार करना साधना करते हैं। उन्हें साधु कहते हैं । जो पांच महा- जुदी बात है। तीर्थंकरो की दिव्यध्वनि के प्रमाण नयव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियो से सुरक्षित हैं, गभित और प्रमाद-कषायादि रहित होने से उसमें केवल अठारह हजार शील के भेदो को धारण करते है और वस्तु-तत्व का विवेचन है और उसमें पुण्यात्मा-पापी चौरासी लाख उत्तर गुणों का पालन करते हैं, वे साधु सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि आदि जैसी दृष्टियों के स्वरूप परमेष्ठी होते हैं।"
कथनों का समरूप मे समावेश है। वहां प्रमादादि का "सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभि- अभाव होने से भाव या द्रव्य रूप जैसी हिंसा की सम्भा. मानी या उन्नत, बल के समान भद्र प्रकृति, मग के वना नही । इसके विपरीत-जब किसी को कषाय या समान सरल, पश के समान निरीह गोचरी वृत्ति करने प्रमादवश होकर या तिरस्कार की भावना से पापी, वाले, पवन के समान नि.संग या सब जगह बिना रुकावट हिमक, झूठा, चोर, व्यभिचारी, मिध्यादृष्टि आदि कहा के विचरने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्वों जाय तब वहां हिंसा का दोष है और इस दोष में प्रवृत्ति के प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागर के समान गंभीर, मद- करना जैन या जैन धर्म को अमान्य है। राचल अर्थात् सुमेरु पर्वत के समान अकम्प रहने वाले, यतः-जैन-आगम के अनुसार यह संसार अनादि है। चन्द्र के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, मोक्ष भी अनादि है और इनके मार्ग और अनुगमनकर्ता पृथ्वी के समान बाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान भी अनादि हैं। आचार्यों ने सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि अनियत आश्रय-वसतिका में निवास करने वाले, आकाश को मोक्ष का मार्ग और इन मार्गों के अनुसरणकर्ताओं को के समान निरालम्बी या निर्लेप, सदाकाल मोक्ष का अन्वे- सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी और सम्यक्चारित्री कहा है। षण करने वाले साधु होते हैं।" (षटखं० १-१-१) इसमे विपरीत यानी मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्या
"मूलमंत्र में सर्वगुण सम्पन्न सभी साधुओं के ग्रहण चारित्र को संसार मार्ग और इन मागों के अनुसरणके भाव में 'सव्व' पद है। सर्व शब्द से अर्हत्-मत मान्य कर्ताओं को मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री साधुओं मात्र का ग्रहण है, बुद्धमत आदि के साधुओं का कहा है। इस प्रसग को यदि विशदरूप में जानना चाहें ग्रहण नहीं है। जिनसे सब जीवो का हित हो, जो अरहत तो कह सकते हैं कि उत्सर्ग-अपवाद, विधि-निषेध, अस्तिकी माशानुसार प्रबर्त, दुर्नयो का निराकरण करें वे सर्व नास्ति, सम्यक-मिथ्या जैमी दो विरोधी विचार-धारायें साधु हैं।" मंत्र में उन्ही को नमस्कार किया गया है और अनादि-निधन है-जब एक का विकल्प है तब दूसरी का होना उन्हीं के विषय में कहा गया है। (षट्, भाग १-१-१) अनिवार्य है। बिना ऐसा माने, अनेकान्त की भी सिद्धि नहीं 'उरग-गिरि-जलण-सागर-नहतल-नरुगणसमो अ जो होई। है । फलतः चूकि सम्यग्दृष्टि आदि व्यवहार अनादि हैं
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३८पर्व ३६, कि०२
अतः वस्तुस्थिति के परिप्रेक्ष्य में उससे उल्टे मिथ्या दृष्टि संमत अनादि तथ्य है-नवीन नहीं। इसमें जैनी को कैसे आदि व्यवहार भी अनादि हैं।
बर्तना चाहिए ? जरा सोचिए! आठों कमों में मोहनीय कर्म को सबसे बलवान बत- ३. शोध-पत्रिकाएं कैसी हों! लाया है और उसका साक्षात् सम्बन्ध आत्मा के भावों से
भौतिक शोध (रिसर्च) का जोर है और लोगों का है। मूलतः उसकी दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय ये
___ध्यान पर्याप्त मात्रा में उधर ही है। उस दिन एक सज्जन
. दो प्रकृतियां हैं और कोके अनादि होने से ये प्रकृतियां भी बोले-समाज में शुद्ध मायने में शोध-पत्रिकाएं होनी अनादि हैं। दर्शन मोहनीय प्रकृति के उदय का फल ।
चाहिएँ। हमने सोचा बात तो ठीक है। टीका-टिप्पणी मिथ्यात्व भाव भी है और जिसे इस मिथ्यात्व का उदय
और आलोचना-प्रत्यालोचना के प्रसंगो से तो अनेकों पत्र होता है वह मिथ्या दृष्टि है।
भरे रहते हैं। पर, प्रश्न यह उठता है कि शोध करने से सम्पदृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों भावों और शब्दो
तात्पर्य क्या है ? मात्र जड़ की या चेतन की भी ? तथा व्यक्तित्वों का अस्तित्व भगवान ऋषभदेव के समय
अनादि काल से यह जीव पर की खोज में रहा मे भी था। उस युग में जो ३६३ मिथ्या-मत कहे गए
उसने सिद्धान्त को और अपने को नही खोजा। यदि हैं-वे मिघ्यावृष्टियों के ही थे। तीर्थकर महावीर के
अपने को खोजे और खोजकर अपना निखार करे तो खोज समय में भी ऐसे जीव विद्यमान थे । वाद के प्राचीनतम
सार्थक हो। आज जो लोग खोज की बातें या खोज के आचार्यों ने भी मिथ्यादृष्टि शब्द को स्थान दिया है।
कार्य करते हैं उनमें कितने ऐसे हैं जिनका ध्यान सिद्धान्त तपाहि
और आचार-विचार के प्रसंगों की ओर हो या जो जिन'मिच्छाइट्ठी णियमा उवइ→ पवयणं ण सद्दहदि ।'
मार्ग में प्रवृत्ति करते-कराते हों । यतः सिद्धान्त ज्ञान और -गुणधराचार्य कसायपाहुड १०८
आचार-विचार के बिना इन भौतिक मिट्टी-पाषाणो, -~-गोम्मटसार जीवकाण्ड
साहित्य, इतिहास एवं पाण्डुलिपियों के संग्रह मात्र में धर्म 'ओषेण अस्थि मिन्छाइट्ठी
का उतना लाभ नही। ऐसी-ऐसी खोजें तो आज तक -षट्खंडागम १-१-६
बहुत हो चुकीं और उनसे जैनधर्म का उतना ठोस प्रचार नहीं इसी प्रकार गुणस्थानों में प्रथम गुणस्थान का नाम
हो सका। ठोस सिद्धान्त ज्ञान और आचार-विचार के 'मिथ्यात्व है और वह अनादि से है और उस गुणस्थान
बिना धर्म का आचरण में ह्रास ही हुआ है। वर्ती अनन्तजीव हैं, उन सभी को 'मिथ्यादृष्टि' नाम दिया
इस प्रसंग में अनेकान्त के जन्म का इतिहास जब गया है। उक्त वर्णन में हिंसा-अहिंसा का प्रश्न छुए बिना
हमारी दृष्टि में आया तब हमने पढ़ामात्र वस्तु-तत्त्व वर्णन को प्रमुखता दी गई है। एतावता ऐसा मानना कि 'मिथ्यादृष्टि' हिंसक, झूठा, चोर आदि
"जैन समाज में एक अच्छे साहित्यिक तथा ऐतिजैसे शब्दों में 'वैचारिक हिंसा' का दोष आता है-अतः ये
हासिक पत्र की जरूरत बराबर महसूस हो रही है, और जैन आगमिक शब्द नहीं हैं या वाद के प्रचलन है आदि
सिद्धान्तविषयक पत्र की जरूरत तो उससे पहिले से चली कहना सर्वथा निर्मूल है। पुण्यात्मा-पापात्मा, हिंसक
आती है। इन दोनों जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, अहिंसक, सत्यवादी-झूठा आदि सभी विरोधी धर्मों के
समंतभद्राश्रम ने अपनी उद्देश्य सिद्धि और लोकहित की विकल्प और सभी विरोधी धर्म अनादि हैं। भावों की
साधना के लिए सबसे पहिले 'अनेकान्त' नामक पत्र को
निकालने का महत्त्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में लिया है।' संभाल (उत्तमता) से इनके कथन में अहिंसा है और भावों की कलुषता में हिंसा है। समताभाव से यथार्ष
अनेकान्त वर्ष १, किरण एक, वी. नि. २४५६ । वस्तु-स्वरूप का वर्णन करना पाप नहीं । मिथ्या को मिघ्या उक्त नीति के आधार पर 'वीर सेवा मन्दिर' की और मिथ्या मानने वाले को मिथ्यादृष्टि कहना आगम नियमावलि में प्रकाशित निम्न पैरा भी मननीय है
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जरा-सोचिए
'अनेकान्त पत्रादि द्वारा जनता के आचार-विचार को ऊंचा उठाने का सुदृढ़ प्रयत्न (करना) - नियम ३ (घ)
उक्त सन्दर्भ में 'अनेकान्त' आज तक खरा उतरता आया है इसमें प्रारम्भ से ही शोध-पूर्ण, सैद्धान्तिक, आचारविचार सम्बन्धी सभी प्रकार के लेखों, कविताओ कथाओ आदि का समावेश होता रहा है ।
आज स्थिति ऐसी हैं कि युग के अनुरूप धर्म को चलाने का प्रयत्न किया जा रहा है और धर्म के अनुरूप युग को चलाने में उपेक्षा भाव दिखाया जा रहा है । फलतः --- युगानुरूप – सिद्धान्त ज्ञानहीन या भीरु कुछ लोग अण्डे जैसे अभक्ष्य को निरामिष घोषित कर धर्म मे खीचना चाह रहे हैं, कुछ शुद्ध खान-पान को छोड़ होटलों में जाने और उनमें विवाह शादी आदि रचाने में लगे हैं और कुछ समूाहिक रात्रि भोजन आदि की परम्पराएं बना रहे हैं तथा जिन्हें मन्दिर शास्त्र और गुरुओ से लगाव नहीं रह गया है उनमें कितने ही धर्म के प्रमुख बनने की दौड़ धूप में भी लग रहे है। यदि उन्हें सिद्धान्त का ज्ञान और आगम-विहित आचार-विचार का ज्ञान कराकर धर्म के अनुरूप युग को बदलने की प्रेरणा दी जाय तो धर्म के हास का स्थान धर्म का उत्थान ले सकेगा । बिना आचार-विचार के सब सूना है। हमारे पाक्षिक मासिक, द्वि या त्रैमासिक पत्र इस ओर प्रमुख ध्यान दें, तो कैसा रहेगा ? जरा सोचिए !
४. व्यसन मुक्ति प्रांदोलन !
जैन देखे, जैन समाज देखा। इसके सदस्य, पंच, पंचायतें और नेता भी देखे। हमने महाव्रती मुनि और अणुव्रती तथा अव्रती श्रावकों के समागम के अवसर भी पाए। कभी यह सब ऐसा ही रहा। पर, आज सब स्थिति बदली हुई है। अब न वैसे जैन हैं, न जैन समाज । सदस्य, पंच, पंचायत और नेता भी वैसे नही है । सब बदल गया है। जो कुछ दिख रहा है, अधिकांश बनावटी - अर्थ और यशअर्जन की दिशा में मुड़ा हुआ है।
अब तो न जाने कितनेक व्यसनी अपने को जैन लिखते हैं, कितनेक जैन समाज हैं, कितने सदस्य और कितनी ही पंचायतें हैं। और नेताओं का तो कहना ही क्या ?
१८
उनमें कितनेक राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक धरोहर का लाभ उठाने की धुन में हैं और कितनेक कोरी प्रतिष्ठा और यश-अर्जन के चक्कर मे है ?
जैन संस्थाओं-मन्दिरों, विद्यालयों, महाविद्यालयो और सरस्वती भवनों के हाल भी प्रायः डगमगाए हुए है । मन्दिरो में दर्शन-पूजा करने वालों को जबर्दस्ती हाँकना पड़ता है। कही कही तो पूजा का कार्य वेतन देकर पुजारियों से कराया जाता है। विद्यालयों, महाविद्यालयों के विद्यार्थी धर्म-शिक्षा का ग्रहण मजबूरी में ही करते हैं- वे भी कालेजों की शिक्षा-सुविधा को ही प्रमुखता देते हैं । हमारे पूर्वजों ने सरस्वती भवनों की स्थापनाएं कीं । खोज २ कर दुर्लभ-ग्रंथों के संग्रह किए— उन्हे आज पढ़ने वाले नही । इन सब बातों मे, अनेक कारणों में एक कारण लोगों का व्यसनों से लगाव भी है। अतः व्यसनो से मुक्ति आवश्यक है।
जैन को सबसे पहले व्यसन मुक्त होना चाहिए और आज की पीढ़ी मे इसका ह्रास है। जब तक एकजुट होकर इन व्यसनों से मुक्ति नही पाई जाती, तब तक सुधार असम्भव है।
हाल ही में कोल्हापुर मे घटित समाचारो को पढ़कर कुछ आशा की किरणे चमकती जैसी लगी हैं। वहाँ के वीरो ने मुनि श्री विद्यानन्द जी के आशीर्वाद मे 'व्यसनमुक्ति आंदोलन' पद्धति को अपनाया है। म० गाधी की भाति इसमे भी डगर-डगर, नगर-नगर, ग्राम-ग्राम और गली-मुहल्लों में पैदल मार्च होता होगा और लोगों को व्यसन मुक्त रहने का संदेश दिया जाता होउगा ।
हमे स्मरण रखना चाहिए कि मुनि श्री पिछले दशकों मे, व्यवहारतः - धर्म प्रचार के विधि-विधान निर्मित एवं उनको सफलतापूर्वक संचालित करने मे सफल हुए हैं। उन्होंने आबाल-वृद्ध - विशेषकर नवयुवकों को व्यवहार धर्म की दिशा में जागृत किया है। धर्म चक्र, मंगलकलश, धार्मिक रिकार्ड्स निर्माण, गोम्मटगिरि पर भ० बाहुबली महामस्तकाभिषेक का बड़े पैमाने पर आयोजन आदि सब मुनि श्री के आशीर्वाद फल हैं।
इस प्रकार के व्यसन मुक्ति आंदोलन को अपनानासभी के हित में है ऐसा हम सोचते हैं । जरा आप भी सोचिए !
-सम्पादक
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साहित्य-समीक्षा
( हिन्दी का ऐतिहासिक दस्तावेज) दिवंगत हिन्दी सेवी
लेखक : आचार्य श्री क्षेमचन्द्र 'सुमन' ।
प्रकाशक : शकुन प्रकाशन ३६२५ सुभाष मार्ग, नई दिल्ली। साइज डबल क्राउन, पृष्ठ ८५२, मूल्य ३००रु० ।
दिनांक २२ जून ८३ को जब हमने राष्ट्रपति भवन पर भारतीय भाषा - हिन्दी के प्रति महामहिम राष्ट्रपति के विचार सुने, हमारा मन राष्ट्र और हिन्दी-गौरव के प्रति नम्रीभूत हो उठा। राष्ट्रपति महोदय 'शकुन प्रकाशन' के उत्तम प्रकाशन 'दिवगत हिन्दी सेवी' के दूसरे खण्ड का उद्घाटन कर रहे थे । प्रस्तुत कृति आचार्य श्री क्षेमचन्द्र 'सुमन' के पुण्य संकल्पों और अथक परिश्रमों से खिला द्वितीय पुष्प है। इसके प्रथम खण्ड का उद्घाटन सन् ८१ में प्रधान मन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाधी ने किया था ।
महामहिम राष्ट्रपति ने कहा-हिन्दी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जो समूचे देश को एक कड़ी में पिरोती है । हिन्दी यदि कमजोर होती है तो देश कमजोर होता है। अगर हिन्दी मजबूत हुई तो देश मजबूत होगा। देश की एकता मजबूत होगी ।
उन्होने कहा कि हिन्दी भाषा को कई सौ वर्षों से कमजोर बनाने के प्रयत्न होते रहे हैं फिर भी बिना किसी राजकीय सहयोग के हिन्दी देश के कोने-कोने मे बोली और दमझी जाती रही। इसके सीचने मे हमारे ऋषियों, मुनियों एवं साधुओं ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । आजादी की लड़ाई में हमारे नेता महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू आदि ने हिन्दी के जरिये जगे आजादी में कमाल का काम किया। जब मैं राष्ट्रपति बन कर यहां आया तो हिन्दी, उर्दू और गुरुमुखी का अखबार पढ़ने की इच्छा हुई लेकिन मुझे ये अखबार नही मिले। मुझसे कहा गया कि राष्ट्रपति भवन में सिर्फ अंग्रेजी के अखबार आते हैं। मुझे बहुत तकलीफ हुई। आजाद भारत में राष्ट्रपति भवन में जब देश को जोड़ने वाली भाषा के अखवार न आते हों तब देश की एकता कैसे रह सकती है। हालांकि
अब वह कमी दूर हो गई और अब हिन्दी के अखबार आते हैं। हिन्दी की किसी भाषा से दुश्मनी नही है । हिन्दी तो सभी भाषाओं को साथ लेकर चलती है। मैं हिन्दी वालों से अनुरोध करूंगा कि वे सरल हिन्दी का प्रचार करें। जब लोग सरल हिन्दी पढने के आदी हो जायेंगे तब गूढ़ हिन्दी भी समझने लगेंगे ।
विगत हिन्दी सेवी का सपूर्ण प्रकाशन दस खण्डों में पूर्ण होगा और इसमें हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने में श्रेय प्राप्त तमिलनाडु, बगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, पंजाब आदि प्रांतो के और सभी धर्मों के सन् १८०० के बाद के विगत हिन्दी सेवियों का परिचय रहेगा। प्रथम खण्ड में ८८९ और द्वितीय खण्ड मे ८६३ परिचयो का समावेश हो चुका है । दोनों खण्डों में लगभग - ५० जैननक्षत्रो पर भी हमारी दृष्टि पड़ी। देश की आजादी की लडाई, शासन - अनुशासन और भारत-भारती की सेवा आदि सभी क्षेत्रों मे जंनी सदा आगे रहे हैं। उक्त ग्रन्थ के प्रकाशन का कार्य भी तदनुरूप है। 'ग्रन्थ प्रकाशन' में आने वाली कठिनाइयों का जिक्र करते हुए श्री सुभाष जैन ने प्रारम्भिक स्वागत भाषण में कहा कि हिन्दी के प्रति समर्पित भाव के कारण ही उनमे ग्रन्थ को प्रकाशित करने का साहस हुआ ।
लेखक व प्रकाशक की सूझ, प्रयत्न, साहस और सामग्री सजोने की कला को जितना सराहा जाय, थोड़ा है। उनका सकल्प - लोगों को हिन्दी सेवी पूर्वजों की स्मृति करा, उन्हें श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का अवसर देना है। इससे बड़ा उपकार कोई क्या होगा ।
हम जैन बन्धुओं से अपेक्षा करेंगे कि वे अपनी प्रतियां सुरक्षित करें और दिवंगत हिन्दी सेवी जैनोंके परिचय लेखक या प्रकाशक के पास अधिकाधिक संख्या में भेजें ताकि वे ग्रन्थ में उनका समावेश कर सकें ।
सम्पादक
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वीर सेवा मन्दिर के वर्तमान पदाधिकारी
तथा कार्यकारिणी समिति के सदस्य १. माहू श्री अशोककुमार जैन
अध्यक्ष
६, गरदार पटेल मार्ग नई दिल्ली २. न्यायमूर्ति श्री मागीलाल जैन उपाध्यक्ष ३०. गुगलक मोमेण्ट, नई दिल्ली ३. श्री गोकुलप्रसाद जैन
उपाध्यक्ष
३, रामनगर पहाडगंज ४ थी सुभाष जैन
महामचिव १६, दरिपागज ५. श्री रत्नत्रयधारी जैन
गचित्र
", अल्वा जनपथ लन ६. श्री नन्हेमल जैन
कोपाध्यक्ष 11३५, दरियागज :. श्री प्रेमचन्द जैन
'/२५. अमारी रोड, दरियागज, नई दिनी ८. श्री दिग्दर्शन चरण जैन
१६६२/२१, दरियागज, ६ श्री देवकुमार जैन
एम-७१, ग्रेटर कैलाश I, , ५०. श्री मल्लिनाथ जैन
१. बरियागज, न दिल्ली ११. श्री हरीचन्द जैन
२/२६. दारयगज, नई दिल्ली १२. श्री इन्दर सैन जैन
मदस्य
४. अनानी गेड, दरियागज, नई दिसती १३. श्री ओमप्रकाश जैन एडवोकेट
४५४१,२३, दरियागज, नई दिल्ली १४. श्री अजिनप्रसाद जैन ठकेदार मदम्य
1-110८, दरियागज , १५. थी भारतभूषण जैन एडवोकेट
१, दरियागज, नई दिली १६. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन
बी-४५,४७, कनॉट प्रेम, नई दिल्ली। १७. श्री बाबूलाल जैन
२/१०, दग्यिा गम, नई दिल्ली १८. श्री विमलप्रमाद जैन (डेसू) . १६. श्री चक्रेशकुमार जैन २०. श्री अनिलकुमार जैन
२७७०. कुतुब गे:... २१. श्री अजितप्रमाद जैन
२१-१, दरियाना, नई दिनी
"यदि हम अपने सिद्धान्न पर प्रारुद हो जायें-उनी के अनुसार पनो मब प्रवृत्ति करने लगे तो अन्य लोग हमारे सिद्धान्त को अच्छी तरह हदयंगम कर लगे। परन्तु हम लोग अपने गिद्धान्तों को अपने प्राचरण या प्रवत्ति से तो दिखाते नहीं, केवल शब्दों द्वाग बनलाने का प्रयत्न करते हैं-उसका प्रभावलोगों पर नहीं पड़ता।"
--वणी जो, मेरो जीवन गाथा)
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
" hd
समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना मे पुक्क, सजिल्द । अनन्य-प्रशस्ति सग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित पर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक मायि.
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... अंगाब-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशिरा ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह
सकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों महित। सं. प. परमानन्द शास्त्री। मजिल्द। १५... समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दो टीका महित भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्य : श्री राजकृष्ण जैन ... ग्याय-नीपिका :मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो०टा० दरबारीलाल जी न्यायाचार्य द्वागगन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, मजिस्म । सायपाहामुत्त: मूल अन्य की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री मुगधराचार्य ने की, जिम पर श्री
यतिवषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण यूणिमूत्र लिखे । सम्पादक हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १०००से भी अधिक पाठों में। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५.०० बन निवन्य-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (प्यानस्तव सहित) संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२.०० भावक धर्म संहिता: श्री दरयावसिंह सोषिया बन लक्षणावली (तीन भागों में):सं.पं.बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, बहुचचित सात विषयो पर शास्त्रीय प्रमाण युक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
२-०० Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन Reality :मा. पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद । बजे प्राकार के ३००१., पक्की जिल्ब ...
७.००
५.००
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० १० वार्षिक मूल्य : ६) १०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे
विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पारक
मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो।
-
सम्पादक परामर्श मण्डल-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-बी पचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयबारी जेन बीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बाद प्रिटिंग प्रेस के-१२, नवीन बाद
दिल्ली-३२ से मुद्रिता
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वोर सेवा मन्दिर का रैमासिक
अनकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगबोर') वर्ष ३६ : कि०५
जुला-सितम्बर १९८३
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मन्दिर एवं मानस्तंभ, देवगढ़
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ बरियागंज, नई दिल्ली-२
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इस अंक मेंक्रम विषय
पृ० क्रम विषय १. सीख
१ ७. निमित्ताधीन दृष्टि-श्री बाबूलाल जैन वक्ता २३ २. सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी शोध-खोज
८. भट्टारक पट्टावली-डा० पी० सी० जैन -डा. ज्योतिप्रसाद जैन
२ ६ . "भाव संग्रह" की लिपि प्रशस्ति ३. नव वर्ष दिवस-रमाकान्त जैन
६ -कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल ४. पर्युषण-कल्प-डा. ज्योति प्रसाद जैन
१०. आचार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को देन ५. डिग्गी (राज.) के दि० जैन मन्दिर में उपलब्ध
- डा. लालचन्द जैन, वैशाली हिन्दी का प्रथम पद्म पुराण-डा. कस्तूरचन्द
११. विचारणीय-प्रसंग-श्री पपचन्द्र शास्त्री कासलीवाल
१० १२. जरा-सोचिए-सम्पादक ६. बिहार मे जैन धर्म : अतीत एवं वर्तमान-प्रो० १३. साहित्य-समीक्षा
आ. पृ. ३ डा० राजाराम जैन, आरा
१३
स्वर्गस्थ सरसेठ भागचन्द जी सोनी के प्रति श्रद्धाञ्जलि
जैन शासन के अनन्य सेवक, देव-गुरु-शास्त्र के निष्ठावान आराधक, जैन-रत्न, सर ऐठ कैप्टिन भागचन्दजी सोनी का निधन समूचे जैन समाज की ऐसी क्षति है, जिसकी पूर्ति निकट भविष्य में सम्भव नही लगती।
जिन वाणी के प्रसार में, जैन तीर्थों के सरक्षण में और समाज संगठन के क्षेत्र में दीर्घ अवधि तक अपनी बहुमूल्य सेवायें समर्पित करके श्री भागचन्दजी सोनी ने जैन इतिहास में अपने अमिट हस्ताक्षर अंकित किये है। साधुसेवा और शास्त्र स्वाध्याय के द्वारा उन्होंने अपने जीवन को साधनामय बनाकर एक आदर्श श्रावक का उदाहरण प्रस्तुत किया । उनके व्यक्तित्व में सात्विकता, सहृदयता, विद्वत्ता और सरलता आदि अनेक विशेषतायें थी। उनके निधन से समाज की अपूरणीय क्षति हुई है। वे एक मानवता प्रेमी व्यक्ति थे और समाज कल्याण के कार्यों में उनकी गहरी । अभिरुचि थी।
बीर सेवा मन्दिर सोसाइटी की कार्यकारणी की दिनांक ८-८-८३ की बैठक में स्वर्गीय आत्मा की सद्गति एवं सुखशान्ति के लिए खडे होकर दो मिनट का मौन रखा गया और उनके परिवार-जनो के प्रति सवेदना प्रकट की गई।
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वर्ष ३६ ।
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धासन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५०६, वि० स० २०४०
वर्ष ३६
बार-सवा मन्दिर, २ वारियागंज, नई दिल्ली-२ (जुलाई-सितम्बर
जुलाई-सितम्बर
१९८३
सीख
जिया तोहि समुझायो सौ-सौ बार। देख-सुगुरु की पर-हित में रति हित-उपदेशनायो सौ-सौ बार। विषय भजंग सेय दुख पायो, प्रनि तिनि सों लपटायो। स्व-पद बिमार रच्यो पर-पद में, मद-रत ज्यों बौरायो। ताधन स्वजन नहीं हैं तेरे, नाहक नेह लगायो। क्यों न त भ्रम, चाख समामृत, जो नित संत सुहायो॥ प्रबहं समुझि कठिन यह नर-भव, जिन-वृष बिना गमायो। ते बिलख मनि डार उदधि में, 'दौलत' को पछतायो।
मन्तर उज्जल करना रे भाई। कपट कृपान तज नहि तबलों, करनी काजन सरना रे।। जप-तप तीरथ जज्ञ व्रतादिक, प्रागम अर्थ उचरना रे। विषय कषाय कोच नहिं बोयो, यों ही पचिपचि मरना रे॥ बाहिर भेष क्रिया उर शुचि सों, कोये पार उतरना रे। नाहीं है सब लोक-रजना, ऐसे वेदन बरना रे॥ कामाविक मल सों मन मैला, भजन किये क्या तिरनारे। 'भूपर'नील बसन पर कैसे, केसर रंग उछलना रे॥
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सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी शोधखोज
० विद्यावारिधि
ज्योतिप्रसाद जैन
जन परम्परा, विशेषकर दिगम्बर जैन परम्परा मे चिन्ह लगाया था और डा. राजकुमार जी के अनुमान बहु प्रचलित एव लोकप्रिय कथाग्रन्थ सम्यक्त्व-कौमुदी का को स्वीकार करने में हिचकिचाहट व्यक्त की थी, किन्तु सर्वप्रथम ज्ञात एव उपलब्ध मुद्रित प्रकाशित सस्करण प० विरोध में कोई पुष्ट प्रमाण अथवा तर्क भी नही दिया था। उदयलाल कासलीवाल द्वारा संपादित, प० तुलसीराम काव्य तदनन्तर १९७५ ई० में शान्तिवीरनगर श्री महावीर तीर्थ द्वारा अनुदित और १९१५ ई० मे हिन्दी जैन साहित्य जी से आचार्य शिवसागर-ग्रन्यमाला के अन्तर्गत मुनि श्री प्रसारक कार्यालय बम्बई द्वारा प्रकाशित है। तदनंतर पं. अजित सागर जी द्वारा सपादित तथा प० पन्नालाल जी नाथूराम प्रेमी ने अपने जैनग्रथ कार्यालय बबई से १९२८ साहित्याचार्य द्वारा अनूदित सम्यक्त्व-कौमुदी प्रकाशित ई० में और सेठ मूलचन्द्र किसनदास कापड़िया ने अपने हुई, जिसमे रचयिता अज्ञात सूचित किया गया। तथापि दिगम्बर जैन पुस्तकालय सूरत से १६३६ ई० में उसी का अपनी प्रस्तावना मे प० पन्नालाल जी ने डा० राजकुमार प्रकाशन किया। भारतीय ज्ञानपीठ काशी से १९४८ ई० मे जी के वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ वाले लेख का बहुभाग उद्धृत प्रकाशित नागदेव-कृत सस्कृत मदनपराजय के स्वसपादित करते हुए उनके मत को ही मान्य कर लिया प्रतीत होता है। संस्करण की प्रस्तावना (द्वि० सस्करण, १९६४ ई०, पृ. हमने अपने लेख 'सम्यक्त्व-कौमुदी-कथा और उसके ५७-५८) मे डॉ. राजकुमार जैन साहित्याचार्य ने मदन- कर्ता' (जैन सिद्धान्त भास्कर, भा० ३४ अ० २ दिस० पराजय के कर्ता नागदेव को ही अज्ञातकतृक सम्यक्त्व- ८१, पृ०१-८) में ग्रन्थ के १९१५ ई० में प्रकाशित कौमुदी का कर्ता अनुमानित किया, और सम्यक्त्व-कौमुदी सस्करण, जो हमें उपलब्ध था, के आथार से ग्रंथ का की ही उन्हे ज्ञात प्राचीनतम प्रति (ए. बेबर द्वारा उल्ले- परिचय दिया, जिनदेव अपरनाम नागदेव को उसका कर्ता खित १४३३ ई. की) के आधार से नागदेव का समय तथा उसकी १४०३ ई० की प्राचीनतम ज्ञात प्रति के वि. स. की १४वी शती का पूर्वार्ध प्रतिपादित किया। आधार से लमभग १३५० ई० उसका रचनाकाल अनुतदनन्तर उन्होने १९४६ ई० मे सागर से प्रकाशित वर्णी- मानित किया। हम भी सम्यक्त्व-कौमुदी और मदनपराअभिनदन-ग्रन्थ मे प्रकाशित अपने लेख में 'सम्यक्त्व-कौमुदी जय को अभिन्नकत क मान्य करते है। अपने एक अन्य के कर्ता' (पृ० ३७५-३७६) मे शैलीसाम्य, भाषासाम्य, लेख 'सम्यक्त्व-कौमुदी नामक रचनाए' (अनेकान्त व. उदधत पद्यसाम्य, अतकक्षसाम्य और प्रकरणसाम्य के ३४ कि०२-३, अप्रैल-सितम्बर ५१,१० २-६) मे हमने आधार पर मदनपराजय तथा सम्यक्त्व-कौमुदी के तुल- दिगम्बर एव श्वेताम्बर उभय परम्पराओ तथा संस्कृत, नात्मक परीक्षण द्वारा दोनो रचनाओ को अभिन्न-कर्तृक अपभ्रंश, कन्नड, हिन्दी, गुजराती आदि विभिन्न भाषाओं सिद्ध करने का सफल प्रयास किया। डा० राजकुमार जी मे रचित १६ रचनाओ का, जिनमे १२ दिगम्बर विद्वानों के सम्मुख सम्यक्त्व-कोमुदी का १९२८ ई० का जैनग्रन्थ- द्वारा तथा ४ श्वेताम्बर विद्वानो द्वारा रचित हैं, विवरण रत्नाकर कार्यालय बम्बई से प्रकाशित सस्करण था। दिया था। हमारे उक्त दोनो लेखों को देखकर स्व० अगरमदनपराजय के प्रथम संस्करण (१९४८ ई०) के ग्रंथमाला- चन्द्र नाहटा ने अपने लेख 'सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी अन्य सपादकीय-निवेदन में प० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने रचनाए' (अनेकान्त व० ३४, कि० ४, अक्तूबर-दिस. अवश्य ही उन दोनों रचनाओं के अभिन्न कर्तृत्व पर प्रश्न ८१, पृ० ११-१२) मे मल्लिभूषण, यशःकीति, यश:सेन
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सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी शोधलोज
कवि, वादिभूषण और श्रुतसागर द्वारा रचित सम्यक्त्व- नामक धर्मकथा-ग्रन्थ पाठकों एव श्रोताओं में सम्यक्त्व गुण कौमुदी नामक ५ रचनाबो का, जो सब दिगम्बर प्रणीत को अकुरित एव पुष्ट करने के उद्देश से १३५० ई० के तथा संभवतया यशकीति की कृति को छोडकर सस्कृत मे ___ लगभग रचा गया था और जो १९१५, १९२८, १९३६ रचित प्रतीत होती है, उल्लेख किया है। एक श्वेताम्बर तथा १९७५ ई० के पूर्वोक्त मद्रित-प्रकाशित स संस्कृत रचना तथा उसी परम्परा की १७वी से १८वी प्रप्त है, वही इस नाम की सर्वप्रथम रचना है। शती मे रचित ६ राजस्थानी रचनाओ का सूचन किया २. उसकी जितनी हस्तलिखित प्रतियो का उल्लेख है। अपने एक अन्य लेख 'सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी अन्य हमने अपने पूर्वोक्त लेखो मे किया है, ऐसा प्रतीत होता है रचनाएं एव विशेष ज्ञातव्य' (अनेकान्त वर्ष ३५, कि० २, कि देश के विभिन्न छोटे-बडे शस्त्रभण्डारो मे उनसे कहीं
-जन ८२, १०८) में स्व० नाहटा जी ने पाश्वनाथ अधिक संख्या में प्रतिया विद्यमान हैं। विद्याश्रम वाराणसी से प्रकाशित 'जैन साहित्य का वृहद
३. ऐसा लगता है कि ग्रन्थ के दो रूप भी पर्याप्त इतिहास', भाग ७ के आधार से दयासागर (दयाभूषण),
समय से प्रचलित रहते आये है-एक बृहद् रूप और एक महीचन्द्र, देवेन्द्रकीति और क. भ.निटवें द्वारा मराठी
सक्षिप्त रूप । सन् १९७५ वाले सस्करण में वृहद रूप भाषा मे लिखित चार रचनाओं का उल्लेख किया है, जो
प्राप्त होता है । जिसमे उद्धृत सूक्तियो-श्लोको आदि की सब दिगम्बरकृत है। नाहटा जी ने श्वेताम्बर जिनहर्ष
सख्या ५४० के लगभग है, गद्याश भी कही-कही अधिक गणि द्वारा १४३० ई० में संस्कृत में रचित सम्यक्त्व
या विस्तृत है, जबकि १६१५ आदि के उसके पूर्ववर्ती कौमुदी का तथा १९१७ ई० मे प्रकाशित उसके गुजराती
संस्करणो मे सक्षिप्त रूप प्राप्त होता है जिसमे उद्धरणों अनुवाद का भी उल्लेख किया है। शोधांक ४८ (६ मई
की सख्या लगभग २१० है। जैसा कि प. पन्नालाल जी ८२, पृ० ३०२-३०३) मे प्रकाशित अपने लेख 'सम्यक्त्व
ने अपनी प्रस्तावना (पृ. ६) में लिखा है, "इसके बृहद् कौमुदी के मबन्ध में हमने विद्वद्वय नाहटा जी का उनकी
और सक्षिप्त दो रूप कैसे हो गये यह भी विचारणीय है। अतिरिक्त सूचनाओं के लिए आधार मानते हुए उनकी
ऐसा लगता है कि इसके बृहद् रूप को ही परिमाजित कर कतिपय सदिग्ध सूचनाओं की समीक्षा भी की है और
सक्षिप्त रूप निर्मित कर दिया गया है। सुभाषितों की अपने मूल प्रश्न पर बल दिया है कि क्या जिनदेव अपर
अधिक भरमार हो जाने से कथा की रोचकता मद हो नाम नागदेव कृत सस्कृत सम्यक्त्व कौमुदी ही तन्नाम
जाती है। जिस प्रकार बहुत अधिक आभूषणो से सुसज्जित मूल अथवा सर्वप्रथम रचना नही है ?
स्त्री की स्वाभाविक सुन्दरता समाप्त हो जाती है, उसी उपरोक्त लेखो को लिखते समय हमारे सामने तथा प्रकार बहुत भारी सुभाषितो अथवा अलकारो से कथा की संभवतया श्री नाहटा जी के सामने भी, पं० पन्नालाल जी स्वाभाविक रोचकता समाप्त हो जाती है। इसी अभिसाहित्याचार्य द्वारा सपादित-अनूदित तथा १९७५ ई० मे प्राय से किसी विद्वान ने इसका मक्षिप्त रूप निमित किया शान्तिवीरनगर श्री महावीर जी से प्रकाशित सस्करण है। कथा वही रही है, भाषा भी प्राय वही है, परन्तु नही था। इस संस्करण की पंडित जी द्वारा लिखित सुभाषितों का मकलन कम किया गया है। कही पात्रों के प्रस्तावना से तथा सम्यक्त्व-कौमुदी के इस पाठ के साथ नामादिक मे भी कुछ परिवर्तन किया गया है। इन दोनो १९१५ वाले संस्करण के पाठ का तुलनात्मक दृष्टि से के कर्ता हमारे लिए अज्ञात है।" बहद रूप के उपोद्घात अवलोकन करने पर कई अन्य रोचक एवं महत्वपूर्ण तथ्य मे सम्यक्त्व के स्वरूप एव माहात्म्य का मुन्दर व्याख्यान है उजागर हुऐ :
जो सक्षिप्त रूप में नहीं है। अन्य भाग तथा अन्यत्र भौ १. अधुना ज्ञात एवं उपलब्ध स्रोतो से विदित है कि सक्षेप-विस्तार के अतर हैं। पूर्ववर्ती विविध साहित्य से उद्धृत प्रसगोपयुक्त सूक्तियों से ४. इसी ग्रन्थ का एक तीमरा प श्री पं० रतनभरपूर सरल संस्कृत गद्य मे निबद्ध जो सम्यक्त्व-कौमुदी लाल जी कटारिया केकटी के मग्रह में प्राप्त है, जिसमे
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४,पर्व ३६, कि०३
अनेकान्त उनके अनुसार मुद्रित प्रति से बहुत विशेषता है-कई एवौषधदानमपि दातव्यं ।' जबकि १९७५ के संस्करण में श्लोक अधिक हैं और कितने ही गद्य-खण्ड विभिन्न प्रकार द्वारवत्या वासुदेवेन औषधदानं भट्टारकस्य दत्तं तेनौषधके हैं। उसकी पत्र संख्या ७५, आकार १x६", प्रत्येक दान फलेन तीर्थकर नामकमोपाजितमत एवोषधदानमपि पृष्ठ पर १३ पंक्तियां और प्रत्येक पक्ति मे ३५ के लगभग दातव्यम्' पाठ है। मूलपथ में इन दोनों में से कौन सा अक्षर हैं। इस प्रति तथा मुद्रित प्रति के मगलाचरण पाठ रहा, यह समस्या है। मूल अथ और उसके कर्ता संबन्धी प्रलोको मे भी पाठ भेद है, आगे भी पर्याप्त पाठ- दिगम्बर आम्नाय के है, यह सुनिश्चित है। हरिवशपुराण भेद होने की संभावना है। इस प्रति के पाठ में एक विशे- आदि मे द्वारिका नगरी मे बासुदेव कृष्ण द्वारा एक मुनि षता यह है कि इसमे छठी कथा तक का भाग पूर्णया को औषधदान करने का प्रसग है, उसका बड़ा महात्म्य पद्य रूप में ही दिया गया है, गद्य में बिल्कुल नही, मानवी भी बताया गया है, और नारायण कृष्ण द्वारा तीर्थकरव आठवी कथा गद्य में दी गई है। अन्य पप्पिका है - नामकर्म का बध करने की बात भी है। किन्तु रेवती 'इतिश्री सम्यक्त्वविपये अर्हद्दामकथाया मम्यन्य- नामक धाविका द्वारा भगवान महावीर को औषधदान कौमुदीग्रंथ समाप्त । ग्रथाग्र २३६८ श्लोक।' यह प्रति दिए जाने का दिगम्बर साहित्य मे कही कोई सकेत नही मूलसंघ-मरस्वतीगच्छवलात्कारगण श्रीकृन्दकन्दाचार्यान्वय है। दिगम्बर आम्नाय की सैद्धान्तिक मान्यता के अनुसार के भट्टारक सकलकोनि की परम्परा के भ० पमनदि के तो तीर्शकर को रोगादि शारीरिक व्याधि ही नही होती, शिष्य ब्रह्मकल्याण के प्रशिण्य ब्रह्मश्री भीमजी ने फाल्गुन अतएव उनके लिए औषधिदान दिए जाने का प्रपन ही वदि १४ भौमवार स० १७७४ (मन् ? १७ ई.) में नहीं होता । केवलीभगवान तो कवलाहारी भी नहीं होते। उदयपुर में लिखवाई था (देखिए १९७५ के मरकरण की दूसरी ओर, श्वेताम्बरागम भगवतीसूत्र (१५/५५७) आदि पं० पन्नालाल जी की प्रस्तावना, पृ० ८-५) । इस प्रकार में भगवान महावीर की केवलीचर्या के १५वें वर्ष मे ग्रंथ के तीन रूप तो अभी प्राप्त है। उगकी ममग्न ज्ञात मक्खलिगोशाल द्वारा तेजोलेश्या छोड़े जाने से भगवान के एवं उपलब्ध प्रतियों के निरीक्षण से कतिपय अन्य का भी शरीर में रक्तातिसार एवं दाहजन्य अत्यन्त पीड़ा होने, उस प्रकट हो सकते है। यह कहना कठिन है कि क्या मूल रोग के शमनार्थ स्वय अपने एक शिष्य को भेजकर मैढ़िया लेखक ने ही रचना को कई रूपो मे लिखा था, अथवा ग्राम निवासिनी गाथा पत्नी रेवती के घर से बिजौराउसके द्वारा रचित रूप में उनमे से कोई एक था और था पाक मगवाने, उसके सेवन से रोग का उपशमन होने, तो कौन था। सभावना है कि कथा की उपादेयता एव और उक्त औषधिदान के फलस्वरूप उस रेवती श्राविका लोकप्रियता से प्रभावित होकर किन्ही परवर्ती विद्वानों द्वारा तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किए जाने के वर्णन है या प्रतिलेखको को उक्त विभिन्न पो का श्रेय है। कि तु (देखें-आ. हस्तीमल कृत 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' मूल लेखक के विषय मे तो कुछ माधार अनुमान भी है प्रथम भाग, जयपुर १९७१ पृ० ४२५-४२७)। श्वे. कि वह संस्कृत मदनपराजय के कर्ता जिनदेव आग्नाम साहित्य मे कृ ण द्वारा मुनि को औषधिदान देने का दिग। नागदेव से अभिन्न है, जबकि इन परवर्ती पा सरकारी अनुश्रुति जैमा कोई उल्लेख तो नहीं है किन्तु भ० नेमिके सबन्ध मे कुछ ज्ञात नहीं है।
नाथ द्वारा वासुदेव कृष्ण को भावी चौबीसी मे बारहवां ५. पं० कटारिया जी की प्रति को छोडकर जो दो तीर्थंकर होने की भविष्यवाणी की गई बताई है (देखें वही रूप एव पाठ उपलब्ध है, उनमें भी कम से कम एक पाठ- पृ० २२४ तथा अतगड़दश सूत्र)। इस प्रसग में यह भेद अति दिलचरप है--१९१५ आदि के मम्करणो मे ध्यातव्य है कि मम्यक्त्व-कौमुदी के उक्त दोनो सस्करणो चौथी कथा मे (पृ० ६५ पर) औषधिदान के दृष्टान्तरूप मे उपरोक्त रेवती-वासुदेव विषयक कथन से आगे और से कथन है कि 'रेवनीश्राविकाया श्री वीरस्योषधदानं पीछे के पाठ सर्वथा समान हैं। अतएव स्पष्ट है कि यह दत्तम । तेनोपधदान फलेन तीर्थकर नाम कर्मोपाजिनमत पाठभेद किसी श्वे० विद्वान या प्रतिलेखक की साम्प्रदायिक
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सम्यक्त्व कौमुदी सम्बन्धी शोधलोन मनोवृत्ति का परिणाम है, जिसने वासुदेव विषयक कथन आबालवृद्ध स्त्री-पुरुषों के लिए एक शिक्षाप्रद रोचक एवं के स्थान में रेवती विषयक प्रसग यहां डाल दिया। ग्रथ पठनीय शास्त्र रहता आया है। मूल कथा में विवेकपूर्ण की समस्त उपलब्ध प्रतियो एव सस्करणो का सूक्ष्म धार्मिकता एवं नीतिमत्तता तथा उदारमयता पर विशेष निरीक्षण करने पर सभव है कि इस प्रकार के कुछ अन्य बल है और साम्प्रदायिक अभिनिवेष अत्यल्प हैं, इसी से पाठभेद, परिवर्तन, हस्तक्षेप आदि भी प्रकाश में आ वह सर्वग्राह्य हुई । जाय।
___अब प्रश्न यह है कि सम्यक्त्व-कौमुदी परम्परा का ६. सन् १३५० ई० के लगभग जिनदेव (नागदेव) मूलाधार या स्रोत क्या है ? क्या १३५० ई० के लगभग द्वारा संस्कृत मे विरचित उपरोक्त सम्यक्त्व-कौमुदी के जिनदेव अपरनाम नागदेव द्वारा रचित सस्कृत गद्यपद्यमयी अतिरिक्त उसी या उमसे मिलते-जुलते नाम की तथा उसी सम्यक्त्वकौमुदी ही वह मूलाधार या स्रोत है, अथवा के आधार से कालान्तर मे रचित तीस-पैतीस रचनाओ उसकी पूर्ववर्ती कोई अन्य रचना या ग्रथ है ? यदि जिनका पता चलता है। इसमे से १४०० ई० मे पूर्व की कोई देव कृत सम्यक्त्वकौमुदी ही इस परम्परा का मूलग्रथ है रचना नही है, दो तीन ही १५वी शती की है, शेष १६वी तो उसका प्रकृत रूप और आकार-प्रकार क्या था? स्वयं से १६वी शती पर्यन्त की है। ये रचनायें सस्कृत, अपभ्र श, उसकी सभी विभिन्न प्रतियो के तुलनात्मक सूक्ष्म परीक्षण कन्नड, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि कई से उसके जो स्पान्तर कालान्तर मे हुए उनका स्वरूप भाषाओं में विभिन्न लेखको द्वारा कभी-कभी विभिन्न निर्धारण तथा वे कबकब और किस-किस की कृपा से हुए, शैलियों में भी लिखी गई है। सम्यक्त्व-कौमुदी-चौपाई, इस विषय पर भी प्रकाश पड सकता है । विभिन्न लेखको समकित राम आदि विभिन्न नामरूप उागेत तथ्य के ही द्वारा रचित इम परम्परा की विभिन्न रचनाओ के तुलपोषक हैं। पं० पन्नालाल जी (वही प्रस्तावना पृ० ८) नात्मक अध्ययन में उसके विकास-क्रम पर तथा अतरों की सूचनानुमार सम्यक्त्व-कौमुदी की कथाओ का एक परिवर्तनो, सशोधनों, परिवर्धनी आदि पर प्रकाश डाला रूपान्तर हिन्दी पद्य मे विरचित सम्यक्त्वलीलाविलाम के जा सकता है । सम्यक्त्व-कौमुदी की कथाओ के बीजों को नाम से प्राप्त है, जिसकी हस्तलिखित प्रतिया यत्र-तत्र पूर्ववर्ती दिगम्बर एव श्वेताम्बर तथा जैनेतर लोककथा कई शस्त्र-भडारों मे मिलती है-एक प्रति गोराबाई जैन साहित्य में भी खोजने की आवश्यकता है। ग्रन्थ मे उदमन्दिर कटरा सागर के सरस्वती भवन मे भी विद्यमान धृत सूक्तियो, सुभापितो आदि के मूल स्रोतो को खोज है। उसके कर्ता का नामादि कुछ सूचित नहीं किया गया। निकालना भी उपयोगी होगा। जैन कथा-साहित्य मे, रचना अभी अप्रकाशित है। शास्त्र-भडागे की खोज करने भारतीय कथा-साहित्य मे तथा विश्वकथा-साहित्य में इस से सम्यक्त्व-कौमुदी विषयक और भी कई रचनाये प्रकाश कथाग्रथ का मूल्याकन करके स्थान निर्धारण करना एक में आ सकती हैं। प्रत्येक रचना की सभी प्राप्त पाडु- रोचक अध्ययन होगा। और इस कथाअथ अथवा सम्यक्त्व. लिपियों का निरीक्षण करने से उनमे परम्पर तथा अन्य कोमुदी परम्परा की समस्त रचनाओ का तुलनात्मक कतक रचनाओं के माथ रहे पाठभेदो, अन्तगें, विशेषताओं सांस्कृतिक अध्ययन भी आनन्दवर्द्धक होगा। आदि का भी पता चल सकता हैं।
वस्तुतः, मम्यक्त्व-कौमुदी साहित्य एक उत्तम गवे. इस प्रकार विभिन्न समयो, विभिन्न क्षेत्रों, विभिन्न षणीय अन्वेषणीय विषय है जिस पर एक अनुसंधित्सु भाषाओं एवं शैलियो में उभय मम्प्रदायो के विभिन्न शोधार्थी, श्रमपूर्वक सम्यक शोध-खोज करके किसी भी लेखकों द्वारा विरचित सम्क्त्वकौमुदी विषयक साहित्य की विश्वविद्यालय की पी-एच. डी० उपाधि के लिए उत्तम प्रचुरता एव विविधता को देखते हुए इस कथाग्रन्थ की शोधप्रबध प्रस्तुत कर सकता है और जैन विद्या के अध्ययन लोकप्रियता एव प्रचार-प्रसार मे कोई सन्देह नहीं रहता। की प्रगति मे सराहनीय योग दे सकता है। गत लगभग ६०० वर्ष से यह कथा अखिल जैनजगत में
ज्योति निकुंज, चार बाग, लखनऊ
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नव वर्ष दिवस
D रमाकान्त जैन, बो. ए०, सा० रत्न, तमिल कोविद हमारे देश भारत मे नव वर्ष-दिवस वर्ष में अनेक बार, पाटियां रही हैं। इनमे मुख्य दो हैं-एक सूर्य को आधार अनेक प्रकार से मनाया जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय कलैण्डर बनाकर और दूसरी चन्द्रमा को आधार बनाकर । मोटे (ग्रेगोरियल कलैण्डर) के अनुसार अब यदि अधिकतर तौर से सूर्य को आधार बनाकर की गई काल-गणना "सौरलोगों द्वारा नव-वर्ष दिवस पहली जनवरी को मनाया जाता वर्षीय" और चन्द्रमा को आधार बनाकर की गई कालहै तो दक्षिण भारत मे तमिलनाडु में नव वर्ष मकर- गणना 'चन्द्रवर्षीय' कहलाती है। सौर वर्ष की भी गणना संक्रान्ति (१४ जनवरी) को मनाया जाता है। भारत के दो प्रकार से की जाती है-एक सायन विधि से और वर्तमान राष्ट्रीय पचाग (कलैण्डर) के अनुसार नववर्ष का दूसरी निरयण विधि से । इन दोनो गणनाओ मे थोडा आरम्भ चैत्र मास की प्रथम तिथि (२२) मार्च को होता अन्तर होता है। भारत सरकार द्वारा अपनाये गए है। सरकार अपना वित्तीय वर्ष पहली अप्रैल (मूर्ख दिवस) राष्ट्रीय पांग मे सायन सौर वर्ष को ही आधार बनाया से आरम्भ करती है, तो भारत का कुछ व्यापारी वर्ग गया है जिसमें वर्ष मे ३६५-१/४ दिन माने गए है । ग्रेगोराम-नवमी से नया वर्ष मान अपने बहीखाते बदलता है रियल कलैण्डर भी इसी सायन सौर वर्ष पर आधारित और अधिकांश व्यापारी दशहरे से अथवा दीपावलि को है। काल-गणितज्ञो के अनुसार वर्तमान में सायन सौर-वर्ष लक्ष्मी-पूजन के उपरान्त कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से अपना ओर निरूपण सौर-वर्ष मे साढ़े-तेइस दिन को अन्तर है। नया व्यापारिक वर्ष आरम्भ करते हैं। शिक्षण-सस्थाओ अतः जबकि राष्ट्रीय पचाग मे चैत्र प्रतिपदा २२ मार्च को में नया वर्ष या नया सत्र प्रायः जुलाई में आरम्भ होता मानी गई, निरयण सौर वर्ष के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिहै। वर्ष-वर्ष दिवसों की सूची यही पर समाप्त नहीं हो पदा १४ अप्रैल को, अर्थात् २३ दिन बाद, पड़ रही है। जाती। इनका सम्यक् लेखा देना सरल नही है। इन भारत में अनेक पचाग ऐसे है, जो चान्द्र वर्षीय कालविभिन्न नव-वर्षों के मध्य इस वर्ष (१९८३ ई० की) १४ गणना पर आधारित हैं । मुसलमानो की कालगणना और अप्रैल को आरम्भ होने वाला नव-वर्ष क्या है और उसका उनके हिजरी सन् का आधार भी चन्द्र मास है। क्या ऐतिहासिक महत्त्व है, उसकी समीक्षा करने का यहां भारत के वर्तमान राष्ट्रीय पंचाग के लिए जो संवत् प्रयास किया जा रहा है।
अपनाया गया है वह है ईस्वी सन् ७८ मे आरम्भ हुआ यह नव-वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता शक-सवत् । जैसा कि इस सवत् के नाम से स्पष्ट है इसके है। यहां यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय पचाग का नव- प्रवर्तक विदेशी शक थे। ईस्वी सन् का आरम्भ यदि ईसावर्ष भी चैत्र माम की प्रतिपदा से आरम्भ होता है, जो मसीह के जन्म से किया गया तो हिजरी सन् का पैगम्बर २२ मार्च को पड़ चुकी है। होली का त्यौहार चैत्र कृष्ण हजरत मुहम्मद के मक्का से मदीने जाने की घटना की प्रतिपदा, २६ मार्च को हो चुका है और बगला पंचांग के याद मे । भारत मे तो सवत् और सन् आरम्भ करने अनुसार चैत्र मास का आरम्भ इस वर्ष १५ मार्च को ही अर्थात् कालगणना करने हेतु मील के पत्थर गाड़ने की हो चुका था। अत. चैत्र मास की इन विभिन्न तिथियों परम्परा बहुत प्राचीन है । प्रायः सभी भारतीय धार्मिक की गणनाओं का समाधान भी आवश्यक है।
परम्पराओं में अपनी-अपनी कालगणना है जो कही-कही प्राचीन काल से ही काल गणना की विभिन्न परि- इतिहास काल का भी अतिक्रमण कर गई है । यदि तीर्थकर
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नव वर्ष दिवस
वर्द्धमान महावीर के अनुयायियो ने उनके निर्वाण की घटना एक साथ प्रयोग किया गया है। वर्ष ४८१ से वर्ष ६३६ को अपनी कालगणना का आधार बनाया तो महात्मा बुद्ध के बीच के लेखों में निम्न लिखित कुछ अपवादों को छोड़के अनुयायियों ने भी उनके परिनिर्वाण से अपनी काल- कर इसे 'मालव' या 'मालवगण' सवत् नाम दिया गया गणना आरम्भ की । कही कालगणना किसी व्यक्ति विशेष है। वर्ष ७७० के दो लेखों में इसे न तो 'कृत' नाम दिया के जन्म से आरम्भ हुई तो कही किसी के अभ्युदय से अथवा गया और न मालव' अपितु मात्र 'सवत्सर' कहा गया है निधन से । राजनैतिक इतिहास में अनेक ऐसे दृष्टान्त हैं जो वर्ष, संवत् या सन् का पर्यायवाची है। वर्ष ७९४ का जब पराक्रमी व महात्वाकाक्षी नरेशों द्वारा अपने जन्म, एक शिलालेख पहला उपलब्ध अभिलेख है जिसमे इसे राज्यारोहण या विजय की स्मृति मे नया संवत् या काल- 'विक्रम संवत्सर नाम से अभिहित किया गया है । वर्ष गणना प्रारम्भ की गई । किसी गण, जाति या वश के ८६८ के एक लेख मे इसे 'विक्रमाख्य काल' काल कहा सना में आने पर उसकी स्मृति स्वरूप भी सवत् का प्रव- गया। वर्ष १.२८ और उसके बाद आज तक इस सवत तन हआ । इतिहास काल की इस हजारो वर्षों की अवधि में जो विभिन्न अभिलेख आदि है उनमें इसका उल्लेख मे भारत मे कालगणता के इन आधारो ने कितनी बार 'विकन सवत' मे रूप में मिलता है। नये-नये सवतो के रूप में जन्म लिया और उनमे से कितने साहित्य मे यद्यपि इस सवत् का प्रयोग कुछ देर से कालकवलित हो गए कहना कठिन है। फिर भी जो आरम्भ हुआ इसे 'विक्रम सवत्' का ही नाम दिया गया। भारतीय धर्मनिरपेक्ष सवत आज तक देश के बहुभाग में सातवी-आठवी शती ईस्वी के जैन ग्रन्थो--दिगम्बर नन्दि सर्वाधिक प्रचलित चले आ रहे हैं वे दो है-विक्रम संवत् सघ और श्वेताम्बर तपागच्छ की पट्टावलियों में और और शक-संवत् । यद्यपि शक सवत् को हम राष्ट्रीय पचाग आचार्य हरिभद्र की 'आवश्यकवृत्ति' मे तीर्थकर महावीर मे अपना चके हैं । विक्रम-सवत् भारतीय जन-मानस को की तिथि निर्धारण हेतु अपनी परम्पराओ का विवेचन उससे अधिक प्रिय है।
करते हुए विक्रम संवत् की चर्चा की गई थी। कदाचित पचांग के अनुसार इस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (१४ अप्रैल आठवी शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध मे हुए आचार्य बीरसेन १९८३) को विक्रम संवत् को आरम्भ हुए २०४० वर्ष सर्वप्रथम विद्वान लेखक थे जिन्होंने विक्रम सवत मे तिथि हो जायेगे अर्थात् यह सवत् (२०४०-१९८३) ईस्वी सन् अकित को थी। दसवी-ग्यारहवी शती ईस्वी में हुए से ५७ वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ माना जाता है। इस काल- अनेक जैन विद्वानो द्वारा अपने ग्रन्थो मे विक्रम संवत गणना का आरम्भ पश्चिम भारत मे उज्जयिनी मे मालव मे तिथि अकन को अपनाया गया और तदनन्तर इस जाति अपने पराक्रमो नेता विक्रम के नेतृत्व में वहा पर सवत् का साहित्य में व्यवहार करने की परिपाटी चल कब्जा कर रहे विदेशी शकों को परास्त कर उन्हें वहा से पड़ी। निकाल देने की घटना की स्मृति में हुआ बताया जाता उत्कीर्ण लेखो, शिलालेखो और अभिलेखो आदि में है। यह उनकी विदेशी आक्रान्ताओ पर विजय का स्मृति इस सवत् के कृत, मालव और विक्रम जो तीन नाम क्रमशः चिह्न है। जैन परम्परा के अनुसार यह घटना महाबीर मिलते है वे इस सवत् के नामकरण की क्रमिक कहानी निर्वाण सवत् ४७० मे घटित हुई थी।
बताते है। जब यह कालगणना आरम्भ की गई उस उपलब्ध प्राचीन उत्कीर्ण लेखों, शिलालेखो, अभि- समय उससे पूर्व के जो सवत् अधिक प्रचलन प्राप्त थे; लेखों आदि का अध्ययन करने से विदित होता है कि इस जैसे-महावीर निर्वाण सवत् और शकों द्वारा उज्जयिनी नई कालगणना के वर्ष २८२ से ४८१ तक के जो अभि- पर अपनी विजय की स्मृति में लागू किया गया शक संवत, लेख अभी तक मिले है, उनमे इसका नाम 'कृत सवत्' जो उपयुक्त मालवगण की विजय की घटना से मात्र वर्ष दिया है । वर्ष ४६१ के लेखों और वर्ष ४८१ के एक लेख पूर्व महावीर निर्वाण संवत् ४६१ में आरम्भ हुआ था, वे में इस संवत् के लिए 'मालवगण' और 'कृत' शब्दों का
(थेष पृष्ठ पर)
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पर्युषण-कल्प
विद्यावारि घio ज्योतिप्रसाद जैन
उत्तम क्षमादि दशविध आत्मधर्मों की आराधना का इस सूत्र की नियुक्ति के अनुसार पर्युपण, परिवसना पर्युपपावन पर्व दशलाक्षणिक' वर्ष मे तीन बार, भाद्रपद, माघ शमना, वर्षावास, प्रथम समवशरण, ज्येष्ठ ग्रह सब शब्द तया चैत्र मामों के शुक्ल पक्ष की पचमी से चतुर्दशी पर्यन्त पर्यायवाची है । अतएव वहा भी पर्युषण से मूलत वर्षाचलता है। इनमे भी भाद्रपद की दणलक्षणी अनेक कारणा वाम का ही आशय है। से सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय है। उमे दिगम्बर
भगवान महावीर का प्रथम समवसरण तथा समाज मे भी सामान्यतया 'पापण पर्व' कहा जाने लगा है, खलनात परत परत प्रथम कावासाजी यद्यपि प्राचीन साहित्य अथवा शिलालेखो मे भाद्रपद की में व्यतीत हुआ, इग कारण पर्युपण का अर्थ 'प्रथम समवइस दशलाक्षणी के लिए 'पर्युषण पर्व' शब्द प्रयुक्त हुआ सरण भी किया जाने लगा। सभव है कि उक्त प्रथम प्राप्त नहीं होता। हाँ, श्वेताम्बर परम्परा मे भाद्रपद समवसरण की पावन स्मृति के सरक्षणार्थ ही पर्युषण पर्व शुक्ल चतुर्थी या पचमी को पूरे होने वाले आठ दिवसीय मनाने की प्रथा ने जन्म लिया हो। इसके अतिरिक्त, जैन पर्व के लिए पर्युषण शब्द प्रायः रूढ हो गया है। परन्तु परम्परा मे साधु-साध्वियो के लिए नित्य, पाक्षिक, मासिक मलतः पर्युषण का अभिप्राय कुछ विशेष रहा प्रतीत होता तथा वार्षिक प्रतिक्रमण करने आवश्यक होते है। दिगम्बर
मुनि आदि इम चातुर्मास के मध्य ही अपना वार्षिक या शिवायंकृत भगवती आराधना की विजयोदया एव सावत्मरिक प्रतिक्रमण करते है। श्वेताम्बर साधुओ के मूलाराधना नाम्नी टीकाओ के अनुसार वर्षाकाल के लिए इस प्रतिक्रमण की तिथि प्रारम्भ मे भाद्रपद शुक्ल चार मासो में अन्यत्र गमनागमन न करके एक ही स्थान पचमी निश्चित की गई थी जिसे कालान्तर में एक में निवास करना जैन मुनियो का 'पर्युषण' नामक दसवा आचार्य ने चतुर्थी कर दिया। प्रारम्भ मे यह सावत्सरिक 'स्थितिकल्प' है-'पज्जोममणकणो अथवा 'पज्जोसवणा- प्रतिक्रमण (सवत्सरी) साधुजन ही करते थे, शन. शनै. कप्पो' नाम 'दशमः स्थितिकल्प.' । इस ऋतु मे पानी, उसमे श्रावक गमाज भी सम्मिलित होने लगा। इस अवकीचड़, घास-पात कटकादि तथा त्रस जीव-जन्तुओ की यत्र सर पर सवत्सरी के आठ दिन पूर्व से नित्य पर्दूषण कल्प तर बहुलता हो जाने से हिंसा एव आशातना की आशका अपरनाम कल्पसूत्र में निबद्ध महावीरचरित का पाठ करने और सभावना निरन्तर बनी रहती है। इसी कारण मुनि, की प्रथा भी देवद्धिगणी क्षमाश्रमण (५वी शती ई०) के आयिका, ऐलक, क्षुल्लक आदि गृहत्यागी सत गमनागमन समय से चल पड़ी। का परित्याग करके एक ही स्थान मे बर्षायोग या चतुर्मा- एक बात और है, अनादि कालगणना मे वर्ष का सिक योग धारण करके निवास करते है। यह वर्षावास आरम्भ थावण कृष्ण प्रतिपदा से होता है। तीसरे काल आषाढ़ शुक्ल १५ से कार्तिक शुक्ल १५ पर्यन्त १२० दिन (सुखमा-दुखमा) के अन्त होने मे जब पल्य का आठवा का होता है। यही पर्युषणकल्प है और इसी के कारण वह भाग शेष रह गया था तो ज्योतिराग जाति के कल्पवृक्षों पूरा चातुर्मासिक वर्षाकाल 'प!पण' कहलाता है। श्वेता- की आभा क्षीण हो गई, और आकाश मे सूर्यास्त एव चन्द्रोम्बर पराम्परा मे मान्य दशाश्रुतस्कंध नामक छेदसूत्र के दय एक साथ दृष्टिगोचर हुए । कुलकर प्रतिश्रुति ने मध्ययन का नाम भी 'पाजोसणाकप्प' (पर्युषणकल्प) है। तत्कालीन भोगभूमियां जनो का समाधान किया तथा अगले
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पर्युषण कल्प
दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग भाद्र कृ. ४ को पूरे होते है । अतएव पहली बार भाद्र आदि व्यवहारकाल की गणना प्रारम्भ (स्थापित) की। शु० ५ के दिन वे लोग विजयाद्ध की गुफाओ में से बाहर इसी गणना के अनुसार अवसर्पिणी के छठे (दुखमा-सुखमा) निकलते है और परस्पर मिलते हैं। उस समय उनकी काल के अंत मे ४६ दिन पर्यन्त (ज्येष्ठ कृ० ११ से कषाय अति मन्द होती हैं । इसी उपलक्ष्य मे उस दिन से आषाढ़ शु० १५ तक) भयकर प्रलय होती है । सवर्तक चतुर्दशी पर्यन्न उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्मों का विशेषनामक प्रलय पवन चलती है, सात-सात दिन सात प्रकार रूप से चिन्तन, मनन व आराधना करने के लिए उस भीषण कुवृष्टियाँ होती हैं । परिणाम स्वरूप भयकर विध्वस पुनीत पर्व की प्रवृत्ति चली आ रही है। पर्युषण शब्द के होता है, अधिकांश मनुष्य व जीवजन्तु नष्ट हो जाते है। पर्युषण, पर्युरवास, पर्युपासना, पर्यपशमन आदि जो विभिन्न उस कुसमय में देवादिक की कृपा से कुछ एक प्राणी रूप प्राप्त होते है, उन सबके वाच्यार्थों से भी यही सष्ट विजयार्द्ध पर्वत की गुफाओ मे आश्रय पाते है । श्रावण होता है कि भाद्रपद का यह दशलक्षण अपर नाम पर्युपण कृ. १ से सात सप्ताह तक सात प्रकार की सुवृष्टिया पर्व आत्ममाधना, आत्मालोचन, आत्मनिरीक्षण, आत्माहोती है, जिससे प्रलयकाल की प्रचण्डता कुछ शान्त होती नुशासन, आत्मजागृति एव आत्मोपलब्धि का महान है और पृथ्वी फिर से रहने के योग्य होती है। ये ४६ दिन पर्व है।
( पृष्ठ ७ का शेष) कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होते का स्वतन्त्र अस्तित्व लोा हो चुका था और गणो का थे। अत. यह नई कालगणना भी कार्तिक शुक्ल एकम् से स्थान राजा ले चुके थे। इस परिवर्तित स्थिति में इस आरम्भ की गई और इस नये सवत् को 'कृ' अर्थात' सवत् का प्रपनन करने वाले नायक, जो तत्कालीन विचारकार्तिकादि संवत् नाम दिया गया। बाद में लगभग ५वी धारा के अनुमार कोई महान नरेश ही हो सकता था, की शताब्दि ईस्वी के प्रारम्भ में जब चैत्र मास से प्रारम्भ खोज अनुश्रुनियो में की गई । सयोगसे अनुश्रुतियो में होने वाले कुछ परवर्ती सवत्, यथा-शक सवत् जो इम मालवगण के उम नायक का नाम विक्रम मिला अतः ८वी सवत् के १३५ वर्ष पश्चात् महावीर निर्वाण सवत् ६०५ से १०वी शती ईम्बी के मध्य के लेखो में 'मालवगण' नाम अर्थात् ईस्वी सन् ७८ मे आरम्भ हुआ था, कल्चुरि या क्रमश 'मालववशकीति', 'मालवे', 'विक्रम' और 'राजा चेदि सवत, गुप्त या वल्लभी सवत् अधिक प्रचलन प्राप्त विक्रमादिन्य' नामो में परिवर्तित होता चला गया। उत्तर हुए तो उसकी देखादेखी उत्तर भारत में विक्रम सवत् के और दक्षिण भारत के अनेक पराक्रमी महान राजाओं ने मानने वालो ने उसे भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्म अपने नाम के आगे 'विक्रमादित्य' विरुद लगाकर विक्रमानना शुरू कर दिया यद्यपि दक्षिण भारत मे उसे अब मादित्य नाम को पहले ही काफी विख्यात कर दिया था। भी कार्तिकादि सवत् मानते है। इस परिवर्तन के फल- अत: अनुश्रुतियों में इस सवत् के प्रवर्तक का नाम विक्रम स्वरूप इस सवत् का नाम 'कृत सवत्' निरर्थक हो गया। पाते ही इम सवत को 'विक्रम संवत्' के नाम से प्रख्यात उस समय मालव जाति का स्वतन्त्र अस्तित्व बना हुआ कर दिया गया और आज तक इसी नाम से जाना जाता था। अत: मालवगण की प्राचीन कीति को उजागर करने है। विक्रम संवत् के विषय मे विस्तृत विवेचन इतिहास के उद्देश्य से इसे 'मालव' या 'मालवगण' सवत् नाम दिया मनीषी डा० ज्योति प्रमाद जैन की पुस्तक 'दी जैना सोर्सेज गया । आठवी शती ईस्वी आरम्भ होने तक मालव जाति आफ दि हिस्ट्री आफ एशिएण्ट इण्डिया' में द्रष्टव्य है।
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डिग्गी (राजस्थान) के दि० जैन मन्दिर में उपलब्ध हिन्दी का प्रथम पद्मपुराण
0 डा. कस्तूर चन्द कासलीवाल
डिग्गी (राजस्थान) के दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र आचार्य रविषेण का पद्मपुराण एव राजस्थानी भाषा के भण्डार को मुझे अभी १६, १७, १८ जून, ८३ को देखने महाकवि ब्रह्म जिनदास का रामरास के नाम उल्लेखनीय एव उनकी सूची बनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। यह हैं जिनमें रामचरित के (एक भाग को छोड़कर) अतिरिक्त देखकर बडी प्रसन्नता हुई कि वहाँ मन्दिर मे प्राचीन हस्त- सभी ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है। लिखित ग्रन्थो का अच्छा मग्रह है । शास्त्र भण्डार को डिग्गी के शास्त्र भण्डार से प्राप्त मुनि सभाचन्द का देखते समय अपभ्र श एवं हिन्दी की कितनी ही अज्ञात पद्मपुराण एक अज्ञात एव अचर्तित कृति है। महाकवि एव अर्चाचत कृतियां प्राप्त हई जिनमे प. महाराज का तुलसीदास की मृत्यु के केवल ३१ वर्ष पश्चात निबद्ध यह बुद्धि रसायन, धनपाल के हिन्दी पद एव गीत, भट्रारक कृति सचमुच रामकथा सम्बन्धी जैन कृतियों में अत्यधिक महेन्द्रकीर्ति के हिन्दी पद, ऋषि दीपायन का महावीर महत्त्वपूर्ण है । डिग्गी से लौटने के तत्काल पश्चात् मैंने डॉ. गीत, प० खुशालचन्द काला की स्वय के द्वारा लिपिबद्ध कामताप्रसाद जैन, डा. नेमीचन्द शास्त्री, डा०प्रेमसागर पाण्डुलिपि, नाटक ममयसार की सवत १६६ की पाण्ड- जैन एव प० परमानन्द जी शास्त्री द्वारा लिखित द्विन्दी लिपि, मुनि समाचन्द का पदपुराण जैसी बीसौं कृतियो के जैन साहित्य के इतिहास पर आधारित पुस्तके देखी नाम उल्लेखनीय है जिन पर विभिन्न लेखो द्वारा प्रकाश लेकिन किसी भी विद्वान द्वारा मुनि समाचन्द के हिन्दी डाला जायेगा । डिग्गी के शास्त्र भण्डार में कभी ३००- (पद्य) मे निबद्ध 'पद्मपुराण' का उल्लेख नही किया । ४०० ग्रन्थो का अच्छा संग्रह था। लेकिन हमारी ग्रन्थो ऐसे विशालकाय ग्रन्थ की अन्य पाण्डुलिपि नही मिलना की सुरक्षा के प्रति उदामीनता के कारण १००-१५० ग्रन्थ भी आश्चर्यजनक है। अपूर्ण एवं खराब हो गये । फिर भी शास्त्र भण्डार में जैन समाज मे पद्मपुराण के स्वाध्याय की ओर डिग्गी जैसे कस्बे को देखते हुये शास्त्रो का अच्छा सग्रह
अत्यधिक रुचि देखी जाती है। गत २०० वर्षों से पण्डित है । जिनमे कितनी ही प्राचीन एव महत्त्वपूर्ण पाण्डु
दौलतराम कासलीवाल के पद्मपुराण भाषा का सबसे लिपिया भी हैं।
अधिक स्वाध्याय हुआ है। प० दौलतराम जी के पूर्व राम और सीता के जीवन पर जैनाचार्यों एव जैन प० खुशालचन्द काला ने भी सवत् १७८४ मे हिन्दी विद्वानों ने अनेक कृतिया लिखी है। पुराण, चरित कथा पद्य में पद्मपुराण लिखा था, जिसकी कितनी ही पाण्डएव काव्य की अन्य विधाओ के नाम से लिखे गये राम
लिपियाँ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारो मे मिलती है, कथा पर आधारित अनेक ग्रन्थ जैन शास्त्र भण्डारों मे लेकिन फिर भी वह समाज में लोकप्रिय नही बन सका। मिलते हैं । ऐसे ग्रन्थो का विस्तृत विवरण राजस्थान के समाचन्द द्वारा रचित हिन्दी पद्मपुराण एक विशालकाय जैन शास्त्र भण्डारो की ग्रन्थ सूचियो के पाच भागों में ग्रन्थ है। जिसकी रचना १७११ मे फागुन शुक्ला पचमी देखा जा सकता है । वैसे राम-कथा के प्रमुख ग्रन्थो में गुरुवार को समाप्त हुई थी। प्राकृत भाषा में निबद्ध विमलसूरि का पउमचरिय, अपभ्र श प्रन्थकार का परिचय के महाकवि स्वयभू का पउमचरिउ, संस्कृत भाषा में निबद्ध पद्पुराण के रचयिता समाचन्द मुनि थे जिनका
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डिग्गी (राज.) के वि०
मन्दिर में उपलब्ध पद्मपुराण
दूसरा नाम सुभचन्द सेन भी दिया गया है । कवि ने अपने रचनाकाल वीर निर्वाण के १२०३ वर्ष एवं ६ माह बाद प्रथम नाम का उल्लेख मंगलाचरण की समाप्ति के बाद का लिखा है। ही किया है, तथा पुराण समाप्ति पर लिखी गई प्रशस्ति कवि के समय तुलसीदास जी की रामायण जन-जन में उन्होंने सुभचन्द सेन के नाम का प्रयोग किया है, जो मे लोकप्रियता प्राप्त कर रही थी। सामान्य जनता मे उनके सेनगणीय भट्टारक परम्परा का मुनि होने की ओर राम के जीवन को पढने, पढ़ाने की अभिरुचि बढ़ रही संकेत करता है । इसके पश्चात् अथ समाप्ति पर जो थी। हमी दष्टि को ध्यान में रखकर कवि ने हिन्दी पद्य पूष्पिका दी गई है उसमे सभाचन्द नाम दिया गया है। मे और वह भी केवल चौपाई एवं सोरठा छन्दो में पद्म
इति श्री पद्मपुराण सभाचन्द कृत 'सपूरन' कवि पुराण की रचना कर जैन समाज मे राम कथा के प्रति सभाचन्द ननि थे तथा उनका सम्बन्ध काष्ठासघ के सेन रुचि जाग्रत की। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे कवि ने भगवान गण से था। दिल्ली मण्डल उनका केन्द्र था। इसलिए राम के प्रति निम्न शब्दो में अपनी श्रद्धा प्रकट की हैमुनि सभाचन्द भी देहली में ही रहते थे, और उन्होने
राम नाम गुन अगम अथाह, ते गुन किस पै बरने जाइ। पद्मपुराण की रचना भी देहली मे रहते हुए की थी।
जो मुख राम नीमर, तो सकट बहुरि न परै ।२३। जिसका उल्लेख कवि ने निम्न प्रकार किया है।
जा घर राम नाम का वास ताके पापन आवे पासि ।। दिल्ली मडल का मुनि राई, जिमके पर भया बहु ठाई।
जिन श्रवणे राम जम सुने देव लोक सुख पावे घने ।२४॥ धरम उपदेश घणा कुभया, पूजा प्रतिष्ठा जामैं नया ।४१॥
सकट विपति पड़े जे आय, राम नाम तिहा होइ सहाय । पडित पदधारी मुनि भए, ग्यानवत करुणा उर थए।
जल थल वन विहडे ले नाम, मन वाछित सह सीझे काम ।२५॥ मलयकीर्ति मुनिवर गुणवत, तिनके हिये ध्यान भगवत ।४२० गुणकीर्ति अर गुणभद्रसेन, गुणवाद प्रकास जैन । प्रस्तुत पद्मपुराण ११६ विधानकों में पूरा होता है भान कीरति महिमा अति घणी, विद्यावत तपसी मुनी।४३। जबकि आचार्य रविपेण के पद्मपुराण में १२३ पर्व है। कमारसेन भटारक जती, किया श्रेष्ठ उज्वल मती। कवि ने पर्व का नाम न देकर उसका नाम विधानक लिखा उनके पट मुभचन्द्र सेन, धरम बरवाण सुनाव जैन ।४४॥ है। पद्मपुराण की पाण्डुलिपि में ११८ पत्र है जो
उक्त उद्धरण से उनके भट्रारक के पद पर अभिषिक्त १३४६इच आकार वाले हैं। एक पत्र में दोनों ओर होने का भी सकेत मिलता है।
करीब ५० चौपाई छन्द लिखे हुए हैं इस प्रकार यह पूरा ग्रंथ परिचय :
पुराण ६ हजार चौपाई एव सोरठा छन्दो में विभक्त किया मनि सभाचन्द ने आचार्य रविषेण के सस्कृत पद्म- हुआ है । प्रस्तुत पान्डुलिपि मवत् १८५६ आषाढ शद्धि पुराण की हिन्दी पद्य मे काव्य के रूप में रचना की थी। १४ सोमवार की है। लिपि कराने वाली थी गगाराम की कवि ने इसका उल्लेख पुराण के प्रारम्भ और अन्त दोनो पत्नी ने मांडलगढ़ में आटान्हिका व्रत के उपलक्ष में में किया है।
पंडितोत्तम पडित मोतीराम जी के पाम प्रतिलिपि करवाई आचार्य रविषेण महंत सहसकृत मैं कीनो ग्रन्थ । थी। लिपि सुन्दर एव स्पष्ट है। कागज सागानेरी है । ग्रथ महामुनिवर ज्ञानी गुनी, मति श्रुति अवधि ग्यानी मुनी। प्रशस्ति के पश्चात मूल सघ मरस्वती गच्छ के मुनि रत्नमहा निग्रंथ तपस्वी जती, क्रोध मान माया नही रली ।३१ कीर्ति एवं उसके शिष्य रामचन्द्र मुनि का भी वर्णन किया पृष्ठ । कवि ने रविषेण के सम्बन्ध मे लिखा है कि वीर गया है जो निम्न प्रकार .निर्वाण में १२०० वर्ष और ६ महीने व्यतीत होने पर श्री मूलसघ सरस्वती गच्छ, रत्नकीरत मुनि धरम का पच्छ,
आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण की रचना समाप्त की तारण तरण ज्ञान गभीर, जाणे मह प्राणी की पीर । थी। यह समय स्वय रविषेण द्वारा लिखे हुए समय से तप संयम ते आतम ज्ञान, धरम जिनेश्वर कहे बखान, तीन वर्ष से कम हैं । क्योंकि रविषेण ने पद्मपुराण का छुट मिथ्या उपजै जान, जे निगचे धरि मन में आन ।।
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१२, बर्ष ३६, कि०३
काष्ठसंघ एवं लोहाचार्यका उल्लेख
जीमैं भोजन सब परिबार, वीरा दीना पान संवार । कवि ने ग्रन्थ के अन्त मे काष्ठसघ के संस्थापक लोहा- सिंहासन पर बैठे आय, नगर कितोहल देखे राय।४३ चार्य का नामोल्लेख एवं उनका गुणानुवाद करते हुए उक्त पद्यो में घेवर, बरफी, परोस्या, जैसे शब्द राजअग्रोहा जाने का वर्णन किया है तथा अग्रवाल श्रावको को स्थानी है तो पेरे (पेड़े) वीरा (वीड़ा) कितोहल जैसे शब्द प्रतिबोधित करने की चर्चा की है उन्हें जैनधर्म के प्रति ब्रजभाषा के है। निष्ठावान, दृढ श्रद्धानी बनाने की बात भी लिखी है। अन्य विशेषतायें:-कवि ने सभी घटनाओं का यही नही अग्रवाल श्रावको द्वारा व्रत उपवास, पूजा दान अच्छा वर्णन किया है। फिर चाहे वह नगर का वर्णन हो आदि देने, मन्दिरो का निर्माण करवाने, बारह व्रती का अथवा किसीके स्वभाव अथवा तत्त्व एव दर्शन का हो । पुण्य पालन करने आदि का भी उल्लेख किया है । इसमे यह अर्जन करते रहने की कवि ने निम्न प्रकार प्रशंसा की हैभी प्रतीत होता है कि मुनि सभाचन्द अग्रवाल जैन थे। वर्णन ऐतिहासिक है जो निम्न प्रकार है :
पुण्यमुं पावै सुर की रिधि, पुण्यभव होवै विद्या सिध ।।
पुण्ये भोग भूमि मुख कर, पुण्य राज पृथ्वी के वर। काष्ठमधी माथुर गच्छ, पहुकर गण मे निर्मल पछ। महानिरगथ आचारिज लोह छांडया मकल जानि का मोह। पुण्य दुख दालिद्र सब हरे, पुण्ये भवसागर जल तिरै ॥ तेरह विध चारित्र का धणी, काम क्रोध नही माया मणी। पुण्य पुत्र कालत्र पारवार, पुण्ये लक्षमी होय अपार ।
पुण्य विधा लहै विमान, पुण्य पावै उत्तम थान ॥ महातपम्बी आतम ध्यान, दया वत निर्मल ग्यान ।३१।।
पुण्ये दूरि जिन लागे पाय, पुण्य थी सदा सुखदाय । जिहा है उत्तम क्षमा आदि, छोड़े पाच इन्द्री का स्वाद ।।
जल थल वन विहंड सहाय, ताप पुण्य करो मन लाय ।। रूप निरंजन ल्याया चित्त, अठाईम मूलगुन नित ।३२। चौरासी क्रिया सजुक्ति, जे क्षाईक समकित सो रक्ति। सुणा पुण्य कीजे सब कोय, मन वाछित फल पावे सोय । कहे ज्ञान के मूक्ष्म भेद- वाणी मुणत मिथ्यात का खेद ३४१ सुरगति नर नारकी तिरयंच, पुण्य बिना सुख लहै न रच।। अग्गेहे निकट प्रभु ढाडे जोग, कर बन्दना सब ही लोग। कुछ बिधानकों (सर्ग) को छोड़कर शेष बिधानक छोटेअग्रवाल श्रावक प्रतिबोध, वेपन क्रिया बताई सोध ।३५छोटे हैं । कवि ने पुराण का मुख्य वर्णन (रामचरित) पच अणुव्रत सिख्याधारि, गुनव्रत तीन कहे उपधारि। प्रारम्भ करने से पूर्व ऋषभदेव से महावीर तक का बारहै व्रत बारहै तप कहे, भवि जीव सुणि चित मे गहे ।३६। संक्षिप्त वर्णन किया है। मिथ्या धरम कीयो तहां दूरि, जैन धरम प्रकास्य। पुरि। प्रकाशन की प्रावश्यकता विध तै टान देई सब कोई, मास्त्र भेद मुनि ममकिती होई। इस प्रकार पद्मपुराण एक महत्वपूर्ण कृति है। रामदस लख्य बताया धरम, तीन रत्न का जान्या मरम। कथा पर लिखी जाने वाली यह प्रथम हिन्दी जैन रचना व्रत विधान समझाई रीत, पूजा रचना कर नचित्त ।३८) है। जिसमे छ हजार से ऊपर चौपाई एव सोरठा छन्दो श्री जिनके कीए देहुरे, चउईम बिंब रचना सुख रे। का प्रयोग हुआ है। भाषा सीधी-सादी एव लालित्य गुण चउविध दान दे वित्त समान, चउधडीया अणथमी प्रमान। युक्त है । सभी वर्णन सामान्यतः अच्छे है । यद्यपि प्रस्तुत
भाषा.-भापा की दृष्टि से पद्मपुराण में ब्रजभाषा कृति रविषेणाचार्य की पद्मपुराण की .नुकृति है फिर भी एव राजस्थानी दोनो का पुट है । कवि सभाचन्द का वह मौलिकता लिये हुई है । इस पुराण के प्रकाशन से दिल्ली प्रदेश से अधिक सम्बन्ध था । तथा वहा सभी तरह जैन कवियो द्वारा हिन्दी विकास मे उनके योगदान पर भाषायें बोलने वाले थावक गण आते रहते थे इसलिए अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है । प्रस्तुत पद्मपुराण की पद्मपुराण की रचना सामान्य बोलचाल की भापा में की अभी तक एक मात्र पाण्डुलिपि की खोज की जा सकी है। गई । भाषा का एक उदाहरण देखिए
इसलिए यह पाण्डुलिपि भी अलभ्य पाण्डुलिपि है इस ग्रंथ घेवर बरफी लडुवा सेत, बहु पकवान परोस्या तेह । का विस्तृत अध्ययन मूलपाठ के साथ महावीर ग्रंथ अकादमी षटरस भोजन कीने घने, हरे व पेरे उत्तम बने ।४२। के आगामी प्रकाश में किया जावेगा। (शेष प०१३पर)
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बिहार में जैन धर्म : प्रतीत एवं वर्तमान
प्रो० डा. राजाराम जैन, पारा
पृष्ठभूमि : प्राचीन जैन पुराणेतिहास में (वर्तमान हजारीबाग प्रक्षेत्र) के सम्मेद-शिखर (पावनाय "बिहार" शब्द का अर्थ
पर्वत), भद्रिकापुरी (वर्तमान भदिया आदि २२ तीर्थकरो प्राचीन जैन इतिहास मे 'बिहार' शब्द का अर्थ उम एव अन्य कोटि-कोटि जैन साधको की घोर तपस्या एवं पवित्र भूमि से है, जहाँ जैन-साधु एव साध्वियो का निरतर निर्वाण भूमि रही। विचरण होता रहा हो, उनके लगातार चातुर्मासो (वर्षा- वर्तमान बिहार प्रान्त का उदय वासों) से जो भूमि पवित्र हो तथा जो तीर्थकरो एव अन्य
कालान्तर मे उक्त सभी जनपद कुछ हेर-फेर के बाद जैन-साधको की जन्म, तप, समवशरण (उपदेश-भूमि) एव मिलकर मानिटार" निर्वाण की स्थली रही हो'। इस दृष्टि से वर्तमान बिहार
प्राचीनकाल मे जो "बिहार-क्षेत्र" आध्यात्मिक साधना की प्रान्त उसका साक्षात् प्रमाण है । क्योकि ईसा पूर्व की वी
पुण्यभूमि के रूप मे प्रसिद्ध था, वही आगे चलकर एक सदी के पूर्व के एतद्विपयक अनेक उल्लेख मिलते है । उदा- राजनैतिक तथा भौगोलिक मात्र
राजनैतिक तथा भौगोलिक सीमाक्षेत्र के प्रतीक-'बिहारहरणार्थ अग-जनपद (वर्तमान भागलपुर-प्रक्षेत्र) की चम्पा- प्रान्त' के रूप में विख्यात हआ। पुरी (मे स्थित मन्दार गिरि), बारहवे तीर्थकर वासुपूज्य
कुछ भौगोलिक एवं भाषा-वैज्ञानिक प्रमाणकी निर्वाणभूमि रही। तो मगध-जनपद को राजगृही'
जिस प्रकार 'बिहार' शब्द जैन-संस्कृति-गभित एक पावापुरी', नालन्दा', गुणावा एव कुण्डलपुर', कोल्हा
सार्थक नाम है, उसी प्रकार वर्तमान बिहार-प्रान्त के (कोटिशिला) पर्वत, प्रचार' एव श्रावक पर्वन गाथा बरा
अनेक नगरों, ग्रामों नदियो एव पर्वतों के नाम भी जैनबर की पहाड़ियाँ", अनेक तीर्थकरो एव माधको को जन्म,
सस्कृति-गभित सार्थक नाम है और गदि अधिक प्राचीन तप, समवशरण, बर्षाबास एवं निर्वाण की पुण्यभूमि रही ।
नही, तो भी वे नन्द एव मौर्य कालीन जैन-केन्द्र रहे होंगे, वज्जि-विदेह" (वर्तमान तिरहुत-प्रक्षेत्र) जनपद, तीर्थकर
इसमें सन्देह नही । ऐसे नामो मे वर्तमान चौसा (भोजपुर) नमिनाथ, मल्लिनाय एव वर्द्धमान को जन्म, तप, वर्षावास
चाइवासा, संथाल, मगध, विदेह, वेज्जि, नालन्दा, गया, एव समवशरण की पवित्र भूमि है, तो भगि-जनपद '
कर्मनासा, थावक-पहाड़ आदि प्रमुख हैं। ये सभी शब्द(पृ० १२ का शेषाश)
नाम मूलत. जैन-सस्कृति के सूचक हैं । इनका भापा-वैज्ञासन्दर्भ-सूची
निक एव जैन-दार्शनिक तणा आध्यात्मिक अर्थ निम्न प्रकार १. संवत सत्रह से ग्यारहै बरस, सुन्या भेद जिन वाणी परम, समझा जा सकता है:
फाल्गन मास पचमी वेत, गुरूवासर मन मे घरी हेत। चौमा"चउसाचउम्मासासार चतुर्मास:-वह स्थल, २. सभात्रन्द मुनि भया आनन्द भाषा करी चौपाई छन्द,
जहाँ का वातावरण शान्त, धर्मानुकूल एव सुनि पुरान कीना मंडान, गुरूजन लोक सुनदे कान ।
आध्यात्मिक साधना के लिए उपयुक्त हो और ३. सहेथ एक अर दोइसे वरस, छह महीने बीते कुछ तरस,
जैन-साधु एवं साध्वियां निविघ्न रूप से वर्षा महावीर निर्वाण कल्याण इह अतर है रच्या पुराण ।
ऋतु में चतुर्मास (वर्षावास) कर सकें। यहाँ ४. द्विशताभ्यधिके समासहधै समतीते अर्धचतुर्थ वर्ष युक्ते,
की खुदाई मे धातुओ की अनेक प्राचीन मूर्तियाँ जिनभास्कर वर्द्धमानसिद्धेश्चरित पद्य मुनेरिद निबद्धम् ।
उपलब्ध हुई है।
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१४, ३६, कि०३
अनेकान्त चाइवासा" र त्यागी वासः (उदासीनाथम)-वह स्थल की घटनाओं को ऐतिहासिक न भी मानें तो भी २३वे
जहाँ गृहविरत त्यागी, व्रती, संयमीगण रहकर तीर्थकर पार्श्वनाथ [ई०पू० ७७० वर्ष अर्थात् तीर्थकर संयम पालन एवं स्वाध्याय कर आत्म-कल्याण महावीर के परिनिर्वाण (ई० पू० ५२७) से २५० वर्ष कर सके।
पूर्व के समय मे बिहार-प्रान्त जैन धर्म का प्रधान केन्द्र संथाल संथार, संस्तार वह स्थल, जहाँ जैन साधु था। आधुनिक बिहार में जो लोग आदिवासी, सथाली
या सयमी व्यक्ति तथा साध्वियों सल्लेखना- एवं सराक जाति के नाम से प्रसिद्ध है तथा जिन्हें दुर्भाग्य पूर्वक देह त्याग कर सकें।
से पिछड़े वर्ग का माना जाता है, उनके विषय मे स्वयंमगधर मा+गद्धि-वह आध्यात्मिक क्षेत्र, जहां मूग- सेवी संस्थाओं ने सर्वेक्षण कराया है रहित होकर सयमशील जीवन व्यतीत किया गोत्र. नाम व उनके सामाजिक रीतिर
गोत्र, नाम एव उनके सामाजिक रीति-रिवाजों के आधार जा सके।
पर यह सिद्ध हुआ है कि उक्त जातियो के लोग विशेषतया विदेह-वि+देह =देह के प्रति ममता भाव त्याग कर
सराक जाति के लोग तीर्थकर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। साधनापूर्ण जीवन व्यतीत करने योग्य क्षेत्र ।।
यह 'सराक' शब्द श्रावक (आचारवान जैन गृहस्थ) का वज्जित वज्जितोर वजित. वह क्षेत्र जहाँ भौतिक
अपभ्र श रूप है। संथाल परगना में अभी यद्यपि उत्खनन लिप्सा के त्याग की भावना उदित हो और आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते रहने की
(Excavations) कार्य अत्यल्प ही हुआ है, फिर भी वहाँ शिक्षा प्रदान की जाय।
अनेक प्राचीन जैन-मूर्तियां मिली है। उनसे भी उक्त तथ्य गया"गता: वह स्थल, जहा से निर्वाण की प्राप्ति हो। का समर्थन होता है" कर्मनासा"र कर्मनाशा वह प्रक्षेत्र जहाँ साधना करके उपलब्ध जैन सन्दर्भो के अनुसार मगध सम्राट नन्द
ज्ञानावरणादि अष्ट दुखद-कमों को नष्ट कर मौर्य वशी अनेक नरेश जैन धर्मानुयायी थे। उन्होने जैन निर्वाण पद प्राप्त किया जा सके।
धर्म को न केवल राष्ट्रीय धर्म के रूप मे प्रतिष्ठा दी चुकि प्राच्य कालीन बिहार की जन-भाषा अथवा अपितु उसके उद्धार एव प्रचार-प्रसार के लिए भी महत्त्वराष्ट्र-भाषा प्राकृत थी अत: वहां के तत्कालीन नगरों पूर्ण कार्य किए। हाथी गुम्का शिलालेख का वह प्रसंग आदि के नामों की प्राय: प्राकृत-भाषात्मक थे । इनके उदा. स्मरणीय है, जिनके अनुसार कलिंगनरेश खारवेल (ई० पू० हरण ऊपर दिए ही जा चुके हैं। प्राकृत-भाषा के जन भाषा दूसरी सदी) मगध सम्राट वृहस्पति मित्र पर आक्रमण कर एवं राष्ट्र भाषा होने के कारण ही उसमें लोकनायक अपनी राष्ट्रीय-मूर्ति-कलिंग जिन (प्रथम तीर्थकर आदिसर्वोदयी नेताओ-महावीर एव बुद्ध ने अपने उपदेश दिए नाथ की मूर्ति) को छीनकर वापिस कलिंग मे ले आए दिये थे एक मगध के सम्राट प्रियदर्शी अशोक ने अपनी थे। इस प्रसग में मेरा अनुमान यह है कि उक्त शिलाधर्माज्ञाए समस्त भारत तथा सीमावर्ती प्रदेशो मे सर्वगम्य लेख में जिसे "कलिंगजिन" कहा गया है, वह मूर्ति पूर्व मे होने कारण प्राकृत-भाषा मे ही जारी की थी। भाषा- 'मगधजिन' के रूप मे प्रतिष्ठित रही होगी। क्योकि नन्द वैज्ञानिको के अनुसार वर्तमान भोजपुरी, मैथिली, मगही, राजाओ के समय मे जैन-मूर्तियों का निर्माण होने लगा सथाली तथा बगला, उड़िया, असमिया, ब्रज, अवधी, था। वह 'मगधजिन' जब कलिंग पहुंची तो वहां वही मूर्ति मराठी, राजस्थानी, गुजराती, पजाबी एव काश्मीरी आदि 'कलिंगजिन' के नाम से प्रसिद्ध हो गई । इस प्रकार उस आधुनिक बोलियों अथवा भाषाओं का विकास विविध ऐतिहासिक मूति का आवागमन होता रहा। कभी वह मगध प्रादेशिक-प्राकृतो से ही हुआ है।
से कलिंग ले जाई गई तो कभी कलिंग से वापिस मगध मे वंशानुक्रम-परम्परा, मूर्तिकला एवं
ले आई गई और फिर कलिंग वापिस ले जाई गई। उसका पुरातत्त्व को दृष्टि से
नाम परिवर्तन भी (मगधजिन अथवा कलिंगजिन के रूप यदि जैन पुराणो मे वर्णित ई० पू० की सहस्राब्दियो मे) उसी क्रम से होता रहा । अन्ततः कलिंग मे जाने के
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बिहार में जैन धर्म : अतीत एवं वर्तमान
वाद उस ऐतिहासिक मूर्ति का क्या हुआ ? इसकी जानकारी नही मिलती ।
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जन साहित्य लेखन की दृष्टि से भी देखा जाय तो गीता, बाइबिल एव कुरान के समान सम्मानित एव ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी सुप्रसिद्ध जैन ग्रन्थ " तत्त्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य" की रचसा ईसा की दूसरी सदी मे पाटलिपुत्र मे ही हुई । " सुप्रसिद्ध जैनाचार्य समन्तभद्र ( दूसरी सदी) ने शास्त्रार्थ" मे तथा जैन महाकवि हरिचन्द ( ११वी सदी) ने सस्कृत-गद्य के कठिन परीक्षण " मे यहा गौरवपूर्ण विजय प्राप्त की थी।
लोहानीपुर पटना के उत्खनन में प्राप्त प्राचीन जैन मूर्ति एवं मन्दिर का ऐतिहासिक महत्त्व -
जैसा कि पूर्व मे उल्लेख किया जा चुका है, लोहानीपुर (पटना) के उत्खनन मे जो कार्योत्सर्ग-मुद्रा की अद्वितीय जैन नग्न मूर्ति प्राप्त हुई है, उसे देखकर यह अनुमान होता है कि प्रथम बार में 'मगधजिन' के कलिंग मे ले जाए जाने के तत्काल बाद ही उस रिक्तता को पूर्ण करने हेतु उसकी प्रतिकृति बनवाकर उसे पाटलिपुत्र के एक नवनिर्मित कलापूर्ण जैन मन्दिर मे प्रतिष्ठित किया गया होगा और लोहानीपुर के उत्खन में वही मूर्ति एव मन्दिर के भग्नावशेष अब उपलब्ध हुए है। वस्तुतः अद्यावधि उपेक्षित प्रस्तुत विषय पर पुनर्विचार एवं निष्पक्ष गम्भीर अन्वेषण की महती आवश्यकता है। जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र पाटलिपुत्र : जैनेतिहास को प्रथम शतों के प्रारम्भ से बिहार में जंनधर्म का क्रमिक हामदृष्टि से -
प्राचीन जैन संस्कृत एव प्राकृत साहित्य मे ई० पू० की ५वी सदी के पूर्वोक्त जनपदों के कुछ प्रमुख नगरों में घटित जैन धर्म विषयक अनेक ऐतिहासिक घटनाओ के उल्लेख मिलते है । मगध की राजधानी पाटलिपुत्र (पटना) के वर्णन-प्रसंग में बताया गया है कि यह वही पावन स्थान है जहा अन्तिम श्रुतवली आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) ने
वशी प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त ( ई० पू० ३६३) को जैनधर्म में दीक्षित कर उसे अपना शिष्य बनाया था और उसके साथ दक्षिण-भारत की यात्रा की थी।" पाटलिपुत्र मे ही ई० पू० ३७५ के आसपास अर्धमागधी प्राकृत के जैनागमों को लिपिबद्ध कर उन्हे सुरक्षित रखने हेतु प्रथम सगीति का आयोजन किया गया था।" यही पर नन्द एव मौर्यकालीन जैन मूर्तिया भी प्राप्त हुई। ये मूर्तिया न केवल जैनकला के इतिहास मे अपितु भारतीय मूर्तिकला के इतिहास मे भी सर्वप्रथम मानी गई हैं । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो मोहन-जो-दारो एवं हडप्पा मे प्राप्त मूर्तियों की कला यदि आदिम अथवा प्रारम्भिक है, तो लोहानीपुर की जैन-मूर्ति भारतीय मूर्तिकला का चरम विकसित रूप है।
उक्त कुछ तथ्यों से विहार के साथ जैनधर्म के अटूट सम्बन्धो की जानकारी आसानी से मिल जाती है और उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि वह बिहार का एक प्रमुख महान धर्म था । अतः यह कहने में कोई संकोच नही किया जा सकता कि बिहार के निर्माण में तथा उसे सुयश एव गौरवपूर्ण स्थान दिलाने में उसका योगदान अविस्मरणीय है ।
मौर्य साम्राज्य की समाप्ति के बाद कुछ नए गणतन्त्र अस्तित्व में आए किन्तु आपसी कलह के कारण वे दीर्घकाल तक नही टिक सके । गुप्तवशीय राजा समुद्रगुप्त (चौथी सदी) के समय तक उनकी समाप्ति हो गई । यद्यपि वैशाली का गणतन्त्र उस समय भी अपना कुछ प्रभाव बनाए हुए था । " समुद्रगुप्त के पिता चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने उसी की सहायता से गुप्त साम्राज्य की स्थापना की थी। किन्तु राजनंतिक महत्वाकाक्षा बडी विचित्र होती है । उसने अपना प्रभुत्व स्थापित करने हेतु जहाँ यौधेय, आर्जुनायन एव मालव जैसे गणराज्यों को नष्ट किया उसी प्रकार वज्जी- विदेह के गणराज्य को भी आत्मसात कर लिया ।" इतिहास की यह लीला भी विचित्र ही मानी जायगी कि एक ओर वैशाली दोहित्र - शिशुनाग वशी राजा अजातशत्रु ने अपने ननिहाल के राज्य (वैशाली) को ध्वस्त किया तो दूसरे दोहित्र समुद्रगुप्त ने उसके रहे- सहे अस्तित्व को गणतन्त्रों के मानचित्र से सदा-सदा के लिए ही मिटा दिया । वैशाली के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने के कारण वहाँ के जैन धर्मानुयायी लिच्छिविगण आदि हिमालयवर्त तिब्बत, लद्दाख, भूटान, नेपाल, वर्मा आदि देशों में चले
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१६ वर्ष ३६, कि० ३
अनेकान्त गए। वहाँ के वर्तमानकालीन कुछ राजवश आज भी बिहार में जैन धर्म का पुनर्जागरण-कालअपने को लिच्छिवियो से सम्बन्धित बतलाते हैं परिस्थिति- बिहार में जैन धर्म के पुनरुद्धार की दृष्टि से १९वी वश धर्म-परिवर्तन कर वे सभी बौद्धधर्मानुयायी हो गए। एव २०वीं सदी का काल एक नव जागरण काल के रूप यही कारण है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग को ७वी सदी मे स्मृत किया जायगा । सन् १८७० के आसपास बिहार में वहाँ केवल जैन मन्दिरों एव भवनो के खण्डहर ही में राजनैतिक स्थिरता, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन दिखाई दिए थे। वहां उसे जैनियों की संख्या अत्यल्पमात्रा की समाप्ति, भारतीय-प्राच्य-विद्या के अनेक देशी-विदेशी में ही दिखाई दी थी।
विद्वानों द्वारा ऐतिहासिक खोजों के प्रति गहरी अभिरुचि १३वीं सदी के तिब्बती यात्री धर्मस्वामी को वैशाली अंग्रेजों के शासन की स्थापना तथा उसके द्वारा बिहार के में यह जानकारी मिली थी कि तुरुष्क सेना के आक्रमणों आर्थिक-बिकास के क्रम में खान एवं अन्य उद्योग-धन्धों के भय से वहां के निवासी भाग गए थे। इतना ही नही, का क्रमिक विकास होने लगा। उनसे आकर्षित होकर उस समय अग-चम्पा एव पाटलिपुत्र, जो कि उस समय व्यापारिक दृष्टिकोण से अनेक जैन-परिवार बिहार में आने महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र थे, वे भी आक्रान्ताओं के भय लगे और वे धीरे-धीरे यही बसने लगे। इनकी तथा अन्य से उजाड़ हो गए थे। इस प्रकार वैशाली एव उसके स्थानीय मूल निवासी जैनियो की प्रेरणा से अनेक जैन समीपवर्ती प्रदेशो में जैन धर्म की स्थिति नगण्य हो गई। साधुओ एव साध्वियो के भी बिहार मे पुन. बिहार जैन धर्मानुयायियो के नष्ट-भ्रष्ट अथवा पलायन के कारण (आवागमन) होने लगे और जैन-मदिरो, स्वाध्यायशालाओ, वज्जी-विदेह एव मगध से जैन धर्म का प्रभाव प्रायः समाप्त पाठशालाओ एव औषधालयो का पुनरुद्धार अथवा होता गया तथा वहा क्रमशः ब्राह्मणो का प्रभाव बढ़ने निर्माण होने लगा । व्यापारी होने के कारण जैनियो ने लगा।
व्यापार की सम्भावना का पता लगाकर अपनी-अपनी इस प्रकार महावीर-निर्वाण (ई० पू० ५२७) के बाद हाच के अनुसार बिहार के विभिन्न नगरो को अपना कार्य लगभग पांच सौ वर्षों तक जिसने भारतीय सीमाओं को पार क्षेत्र बनाया। से जैन-बहुल नगरो मे आरा, ईसरीबाजार कर एशिया" एव यूनान" की विचारधारा को प्रभावित औरगाबाद कटिहार, कतरास, गया, गिरिडीह, गुणावा, किया और जिसने भारत, विशेषतया बिहार के चतुर्दिक छपरा, झरिया, झूमरी-तिलया, डालटनगज, डालमियानगर जन-जीवन में आध्यात्मिकता तथा अहिंसा एव अपरिग्रह की धनबाद, नवादा, बाढ, वारसोइघाट, बेगूसराय, पावापुरी, अमृत-स्रोतस्विनी प्रवाहित की वही जैन धर्म विविध विषम पूर्णिया, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, मुगेर, रफीगज, राजगृही, परिस्थितियों के कारण अपने मूल केन्द्र में ही प्रभावहीन राची, सम्मेत शिखर, एब हजारीबाग आदि प्रमुख है। हो गया । यद्यपि मध्यकालीन जैन-साहित्य मे, बिहार में पाश्चात्य एवं प्राच्य विद्वानों की देनजैन धर्म की स्थिति के कुछ साहित्यिक-सन्दर्भ तथा जैन १९वी-२०वी सदी मे जैन धर्म के प्राचीन गौरव के तीर्थ यात्रा सम्बन्धी साहित्य अवश्य मिलता है किन्तु उससे प्रकाशन की दिशा मे हर्मन याकोबी, बुहलर, सर विलियम एक अन्तः सलिला नदी की तरह, जैन धर्म की स्थिति का जोन्स, जेम्स फर्ग्युसन, कनिंघम, स्पूनर ग्लाख, स्मिथ, डॉ. केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है । वस्तुतः वह एक वाशम, डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल, डॉ. आर. डी. समयसाध्य शोध का विषय है। वर्तमान में उससे जैन बनर्जी, डॉ. उपेन्द्र ठाकुर एव डॉ. योगेन्द्र मिश्र का नाम धर्म की सर्वाङ्गीण गतिविधियो को समझ पाने मे विशेष बड़े ही गौरव के साथ स्मरण किया जाएगा जिन्होने सहायता नहीं मिल रही है। यथार्थतः हमारे इतिहास- अपनी विविध खोजो मे प्राप्त बहुमूल्य सामग्रियो के आधार कारों की उपेक्षा के कारण ही बिहार के तत्कालीन जैन पर निष्पक्ष दृष्टि से जैन धर्म की प्राचीनता को प्रकाशित धर्म का वह एक महान ऐतिहासिक अध्याय अभी तक कर न केवल मव जागरणकाल के बिहार के जैनियो को अन्धकाराच्छन्न जैसा ही बना हुआ है।
प्रोत्साहित किया; अपितु भारतीय इतिहासकारों को भी
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बिहार में जैनधर्म : अतीत एवं वर्तमान
जैन धर्म के विषय मे लेखन-कार्य हेतु प्रेरित किया। सभ- एक प्राचीन किंबदन्ती के अनुगार धम्मापुरी (भागलवत उसी समय से बिहार के प्राचीन जैन तीर्थों के पुनरु- पुर) मे ११वी सदी में एक जैन-मन्दिर का निर्माण कराया रुद्धार, नव-निर्माण एव उनकी लोकप्रियता को बढाने हेतु गया था किन्तु मुगलकाल मे सम्राट शाहजहा ने उस पर नए-नए प्रयत्न किए गये।
अधिकार कर उसे तथा आसपाम के कुछ गाव चाँदबाई प्राचीन जैन तीर्थ मतियों का जीर्णोद्वार
नाम की एक ब्राह्मणी को राखी बापने के उपलक्ष्य में उमे एवं नव-निर्माण
भेट कर दिया था" उसके बाद उसका क्या हुजा, इसकी सन् १८२५ ई० के आसपास पवित्र गिरिराज सम्मेद जानकारी नही मिलती। शिखर (पारसनाथ पहाड जिला हजारी बाग) को तत्कालीन पाल नरेश से खरीदकर तथा उसका जीर्णोद्धार कर
सन् १९११ मे चम्पापुरी में स्थित मन्दागिरि पर्वत
किसी स्थानीय जमीन्दार के अधिकार में रहने के कारण जैन समाज ने उमको अधित्यका में अगेक नवीन शिखर
बह बडा अव्यवस्थित था लेकिन गादर मत्रीचन्द जैन बन्द जैन मन्दिरो का निर्माण कराया और प्रशासन से सुरक्षा की गारण्टी प्राप्त कर उसकी तीर्थ यात्रा के लिए
कैमरे हिंद (तत्कालीन जनरल नरिटाफ पलिम, देश के कोने-कोने से जैनियो को आकपित किया गया ।
बिहार, बगाल एव उद्दीमा) के अथक प्रनो में वह एतद्विषयक अनेक पूजा-पाठ एव स्तुतियो का प्रणया किया
जैनियों के अधिकार में आ गया"। नाश्चात् उम क्षेत्र का गया । हिन्दी के एक जन कवि द्यानतराय ने उस तीर्थ- बहुमुखी विकास हुआ। वहीं सर्वोपयोगी अनेक जैन-धर्मराज की महिमा मे लिखा है -
शालाओ का निर्माण कराया नया । गन् १९४३ मे बाराएक बार बन्दे जो कोई ताहि नरक पशु-गति नहिं होई।
मती (महाराष्ट्र) के थीमन्त श्री नलकचन्द कस्तूरचन्द ने आगे चलकर उसकी उपत्यका में भी अनेक जन ८५०००) रुपयों की लागत से विशाल भव्य जैन मन्दिरी आर दर्जनो विशाल धर्मशालाओ तथा गगनचुम्बी
मन्दिर का निर्माण कराया तो उभी के आगपाम एक अन्य उत्तग मानस्तम्भी का निर्माण कगया गया इनके अतिरिक्त
जन धमांनुरागी श्री घनश्यामदास मरावगी ने भी एक सार्वजनिक औषधालय, वाचनालय, ग्रन्थालय एवं विद्या
जैन मन्दिर का निर्माण कराया। कहा जाता है कि इस लयों की भी स्थापना की गई जिससे स्थानीय जनता भी मन्दिर मानन्द एव मौर्यकालीन जन-मुनिया सुरक्षित है। लाभान्वित हो सके । इस तीर्थ का वर्णन तीमरी-चौथी मन् १९०० के आगपाग में कु, तीर्थकरो की जन्म, सदी के जैन-साहित्य में भी प्राप्त होता है।
तप एव ममवशरण की पुण्यम गजगही का क्षेत्र ___ सन् १९०१ ई० के आसपास सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता विकसित हुआ । तीमरी-वाया दामन माहित्य में उसे डॉ एम० ए० स्टेन तथा सर विलियम हण्टर ने भद्रिकापुरी पचर्णलपुर के रूप में स्मृत किया गया है। २०वी सदी (वर्तमान भदिया, हजारी बाग) की खोजकर उसे तीर्थकर के प्रारम्भिक वर्षों में सभी पहाडियो के प्राचीन जैनशीतलनाथ की जन्मभूमि सिद्ध करते हुए घोषित किया मन्दिरो का जीर्णोद्धार एव नवीन मन्दिरो का निर्माण कि उसके आसपास के सतगवां, कुन्दकिला, बलरामपुर, कराकर श्रेणी मार्ग बनवाये गए तथा यात्रियों की सुविधा बोरम, छर्रा, द्वारिका, उल्मा, कतरासगढ़, पवनपुर, पाक- के लिए अनेक धर्मशालाए और सार्वजनिक औपधालय, वीर एव तेलकुप्पी आदि नगर जैनियों के प्रधान केन्द्र थे। ग्रन्थालय, वाचनालय, विद्यालय एव दानशाला का निर्माण उक्त विद्वानो ने वहाँ की जैन-मूर्तियो के कला-वैभव एव कराया गया। १९३६ ई० में आग को ब्रह्मचारिणी चन्दा अन्य प्रमाणो से आधार पर यह भी सिद्ध किया कि वहा बाई जी ने रत्नागिरि पर्वत पर दशाश्रुतम्कन्ध का निर्माण पर १३-१४वी सदी मे एक विशाल कलापूर्ण जैन मन्दिर कराकर एक ऐतिहासिक कार्य किया । सन् १९४८ मे यहाँ था, जिसमें दूसरी-तीसरी सदी की जैन मूर्तिया सुरक्षित भ० महावीर के प्रथम समवशरण के आगमन की पुण्य
स्मृति में एक कलापूर्ण मानस्तम्भ का निर्माण कराया गया
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१८, वर्ष ३६, कि०३
अनेकान्त
तथा उमके उद्घाटन के समय प्रथम वीर-शासन जयन्ती आसपास सन्त-साधक सुदर्शन सेठ को तत्कालीन किसी का बृहद् आयोजन किया गया।
विदेशी नरेश ने सूली की सजा दे दी थी। वह सजा सर्वथा पिछले दशक में आगरा के सुप्रसिद्ध राष्ट्र सन्त अमर अन्यायपूर्ण थी। सुदर्शन शुद्ध परिणामपूर्वक मरे और उन्हें मुनि जी महाराज ने वहाँ "वीरायतन" नामक एक संस्था वही से निर्वाण की प्राप्ति हुई थी" | तभी से बहन की स्थापना की है, जो भगवान महावीर की पुण्यस्मृति में सिद्धक्षेत्र के रूप मे जैन इतिहास में प्रसिद्ध है। ईसापूर्व स्थानीय सामान्य जनता के बहुमुखी विकास एव नव-निर्माण चतुर्थ सदी के आसपास नन्द नरेश के महामन्त्री शकटाल में सर्वनोभावेन सलग्न है। इस संस्था की ओर से सार्व- के पुत्र स्थूलिभद्र एव गणिका कोशा की इतिहास-प्रसिद्ध जनिक विशाल एव आधुनिक साज-सज्जायुक्त चिकित्सालय, मौलिक एवं आध्यात्मिक घटनायें भी इसी स्थल पर घटी प्रारम्भिक विद्यालय संस्थापित हैं। अल्पमोली साहित्य- थी। तद्विषयक एक जीर्ण-शीर्ण स्मारक आज भी उस प्रकाशन एव सर्वोदयी नैतिक शिक्षा-प्रसार हेतु भी अनेक घटना को प्रकाशित कर रहा है। विभाग कार्य-सलग्न है।
बिहार के आधुनिक जैन इतिहास मे यदि आरा नगर पावापुरी को जैनियो का महान निर्वाण क्षेत्र माना के जैनियों एव उनके कार्यकलापो को चर्चा न की जाय तो गया। वहा से भ० महावीर के परिनिर्वाण की चर्चा वह अधूरा ही रहेगा । आरा नगर वैसे तो रामायणकालीन
मगे-नीमरी सदी के जैन-साहित्य में उपलब्ध है । कुछ नगर है । उस समय उसका नाम क्या रहा होगा, यह एक प्रमाणो के आधार पर वहां के एक प्राचीन जैन मन्दिर शोध का विषय है किन्तु मसाढ (प्राचीन महाशाल वनका जीर्णोद्धार सन् १९४१ मे कराया गया था और उसमे जि. भोजपुर) के प्राचीन जैन मन्दिर मे सुरक्षित एक जन महन्तियण वश के श्रावकों ने तीथकर महावीर के चरणो मूर्ति के लेखानुसार उसका प्राचीन नाम आरा नगर (उपकी स्थापना की थी। उस समय ये जैन श्रावक पावापुरी बनो एव बगीचो का नगर) था । यह लेख अनुमानतः ७वी एव उसके आमपाम के प्रक्षेत्र मे बहुसंख्यक थे किंतु काला- सदी का है। चीनी यात्री ह्वेनसांग पाटलिपुत्र जाते समय न्तर मे कुछ विषम परिस्थितियों में वे जैन धर्म से विमुख महाशालबन(मसाढ़ वर्तमान आरा से लगभग ४ मील दूर) हो गए।
एव आरामनगर (आरा) आया थ।। उसके बाद लगभग मन १९२५ ई० में गुणावा-क्षेत्र (नालन्दा) का जीर्णो- १८वी सदी तक के वहाँ के जैन कार्य-कलापों की जानकारी द्धार हुआ । अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के अनुसार इसका नही मिल सकी है। पराना नाम गुशिला-चैत्य है, जहा भगवान महावीर के १९वी सदी के मध्य मे यहां एक बड़ा ही तेजस्वी कुछ चतुर्मास (वर्षावास) हुये थे । यहां पर इन्दौर के धन
साहित्यकार हुआ, जिसकी साहित्यिक रचनाओं ने जैन कुबेर रावराजा सर सेठ हुकुमचन्द जैन ने लाखो रुपयो की
समाज मे धूम मचा दी। उसका नाम है महाकवि वृन्दालागत से एक विशाल जैन मन्दिर एवं धर्मशाला का
वनदास वि० सवत १९४८-१९०६] आजीविका हेतु वे निर्माण कराया था । मन्दिर मे १५-१६वी सदी की कुछ
तत्कालीन बनारस की एक टकसाल मे सेवाकार्य करते थे, जैन मूर्तिया प्रतिष्ठित हैं । सन् १९४७ में गया निवासी
अपने स्वाभिमान एव अक्खड़ स्वभाव के कारण अग्रेजों ने केशरीमल लल्लूमल ने यहाँ एक कलापूर्ण उत्तुंग मानस्तंभ
उन्हे कारागार मे बन्द कर दिया था। उनकी भक्तिका भी निर्माण कराया था।
चमत्कार के कारण कारागार का दरवाजा अपने आप सन् १९४० मे गुलजार बाग (पटना) स्थित कमलदह खुल गया था। इस कारण अंग्रेजों ने उनसे क्षमा याचना सिद्ध क्षेत्र का जीर्णीद्धार कर वहाँ पुरातन जैन मन्दिर का मागते हुए उन्हें मुक्त कर दिया था। इनकी सरस स्तुतियां नवनिर्माण किया गया। एक विशाल जैन धर्मशाला भी बन- समस्त जैन समाज में लोकप्रिय हैं । इनका पारिवारिक वाई गई । उक्त मन्दिर मे १६-१७वी सदी की जैनमूर्तियां भवन आरा की महाजन टीली न० २ मे अभी भी बना सुरक्षित हैं । यह वही स्थल है जहाँ ईसापूर्व ६वीं सदी के हमा है किन्तु काल के थपेड़ों ने उसे जर्जर कर दिया है।
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बिहार में चैनधर्म
२०वीं सदी के प्रारम्भ में आरा नगर बिहार के एक जैन केन्द्र के रूप में उभरकर सम्मुख आया और पिछले लगभग ८० वर्षों में उसने ऐसे अनेक ऐतिहासिक कार्य कार्य किये हैं, जो समूचे भारतीय जैन समाज के लिये प्रेरणा के स्रोत बन गए। ऐसे कार्यों में प्रथमतः भारत विख्यात जैन सिद्धान्त भवन की स्थापना है, जिसमे लगभग १०,००० प्राचीन ताडपत्रीय एव कर्गलीय (सचित्र सामान्य) तथा लगभग सहस्र दुर्लभ ग्रन्थ एवं जर्नल्स एक विशाल कलापूर्ण भवन में सुरक्षित हैं। इसके निर्माता सस्थापक एव संचालक श्री देवकुमार जी जैन एवं उनके सुपुत्र श्री बाबू निर्मलकुमार जैन के नाम जैन-इतिहास में अविस्मरणीय रहेंगे। जैन सिद्धान्त भवन ने अनेक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थों का प्रकाशन तो किया ही, साथ ही उसने सन् १९०३ के आसपास जैन सिद्धान्त भास्कर एवं जैन @टिस्बेरी (हिन्दी-अंग्रेजी दोनों में) नामक एक उच्चस्तरीय शोध-पत्रिका का भी नियमित प्रकाशन किया और उसके माध्यम से जैन-विद्या के शोध के क्षेत्र मे एक स्वर्णिम अध्याय का सूत्रपात किया । वर्तमान मे उक्त भवन देवकुमार मैन ओरिटल रिसर्च इंस्टीट्यूट आरा के नाम से एक शोध संस्थान के रूप मे मगध विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत है और जैन विद्या के विविध अगो पर वहां शोधकार्य चल रहा है।
जैन धर्म के विकास के क्षेत्र में द्वारा की जैन समाज का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य है Sacred Books of the Jaina series का प्रकाशन । आरा के एक उत्साही युवक कुमार देवेन्द्र ने न केवल जैन साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद एवं समीक्षा कर अहिन्दी भाषियों के लिये उक्त सीरीज के प्रकाशन की कल्पना की, अपितु देश के अनेक गण्यमान्य विद्वानों को प्रेरित कर जैन विद्या के लगभग २५ प्रत्यो का अंग्रेजी अनुवाद, समीक्षा तथा तुलनात्मक अध्ययन अंग्रेजी में उक्त सीरीज के अन्तर्गत प्रकाशित कर जैन इतिहास के एक नवीन अध्याय का प्रारम्भ भी किया। इन ग्रन्थों के कारण विदेशों में भी जैन धर्म की लोकप्रियता बढी ।
बारा जैन समाज की तीसरी देन है श्री जैन बाला विश्राम, जिसकी स्थापना ब्रह्म० पं० चन्दाबाई जैन ने
बतील एवं वर्तमान
१६
सन् १९२१ में की थी। इस प्रथम एवं अनुपम जैन धर्म कन्या शिक्षण संस्था ने जैन महिला जगत में शिक्षा की धूम मचा दी । उसी का सुफल है कि आज देश के कोनेकोने में आरा की प्रशिक्षित जैन महिलाएं जैन समाज तथा विविध सार्वजनिक सेवाकार्यों मे सलग्न है । प० चदा बाई जी का अभी हाल मे दुखद निधन हो गया है किन्तु ब्रह्म० पं० ब्रजबाला जी के तत्त्वावधान में उक्त संस्था प्रगतिशील कार्यों मे सलग्न है।
आरा की चौथी देन है श्री आदिनाथ ट्रस्ट जिसने भोजपुर एवं रोहताम जैसे पिछडे हुये जिलों में सार्वजनिक
शिक्षाप्रसार का संकल्प किया। इसके सस्थापक थे श्री हरिप्रसाद दास जैन उनके स्वर्गवास के बाद ट के पदाधिकारियो ने उनके नाम पर आग में हरप्रसाद दाम जैन कालेज और हर प्रसाद दास जैनको स्थापना की। ये दोनो शिक्षा सस्थाएँ बिहार के उच्च संस्थानों मे प्रथम स्थान रखती है। इनके अतिरिक्त टुट की ओर विशाल जैन धर्मशाला, औषधालय, ग्रन्थालय, वाचनालय, एवं दानशाला तथा अन्ध-मूक बधिर विद्यालय जैसी सस्थाए भी सचालित है।
आरा नगर की पांचवी देन है यहां के ४५ जैन मन्दिर बिहार मे इतने अधिक जैन मन्दिर किसी भी अन्य नगर में नही हैं। इन में से कुछ जैन मन्दिर भव्य, विशाल एवं कलापूर्ण होने के कारण दर्शनीय है। यहां की चौबीसी, नन्दीश्वर एवं चन्द्रप्रभ मन्दिर स्त्र वर्णित हैं । सम्मेद शिखर एवं पावापुरी के जल-मन्दिर की भी अनुकृतियां यहाँ उपलब्ध हैं । उक्त जल-मन्दिर जीर्ण-शीर्ण हो चूका था किन्तु भ० महावीर के २५००वे निर्वाणमहोत्सव वर्ष की स्मृति मे उसका जीर्णोद्वार कर उसे सन् १९७४-७५ में विकसित किया गया था तथा वर्तमान मे भी उसे नगर के एक दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है। इस कार्य मे गर्वश्री मण्डल, पद्मराज परेशचन्द्र एवं अविनयकुमार जैसे की सुरुचि एवं सत्प्रयत्न सराहनीय है। अन्य कलात्मक वस्तुओ मे मानस्तम्भ, कीर्तिस्तम्भ, सहस्रकूट - चंन्याला एवं बाहुबलि की विशाल सौम्य - मूर्ति दर्शनीय है ।
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२०, वर्ष ३६, कि०३
अनेकान्त
जैन-विद्या सम्बन्धी शोध कायों में भी आरा के जैन- सुन्दर विवेचन किया है। गया के श्री रामचन्द्र जैन सराविद्वानों ने भारत में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया वगी डालटनगंज, चतरा, कतरास एव गया में जैनधर्म के है। इतिहास एवं संस्कृति, ज्योतिषशास्त्र एव गणित- विकास हेतु अनेक कार्य किए। वे लेखक एव विचारक विद्या, माहित्यिक ममीक्षा, अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थो विद्वान हैं। वर्तमान मे वे कोल्हुआ-पर्वत की पुरातात्विक का सम्पादन एवं समीक्षा एव प्राचीन जैन-साहित्य मे सामग्री का अध्ययन कर कुछ लिखने का विचार कर रहे वणित आर्थिक जीवन एव वैदेशिक व्यापार पर यहा के है। इसी प्रकार डा. जयकुमार जैन M L.C. भागलपुर, विद्वानो ने अनुकरणीय ठोस कार्य किए है, जिनकी शिक्षा श्री चिरजीलाल जैन गया, श्री बिमलकुमार जैन (रेड जगत ने मुक्तकण्ठ मे प्रशसा की तथा समाजसेवी मोटर) गया, श्री स्वरूपचन्द्र सोगानी हजारीबाग, थी सस्थाओ एव राज्य-मरकारों ने भी उन्हें पुरस्कृत किया बिमलप्रसाद जैन झरिया, श्री शिखरचन्द्र जैन खरखरी, है। मे विद्वानो में श्री पं० के० भुजबली शास्त्री, डॉ० श्री दयालचन्द्र जैन आरा, बद्री माद सरावगी पटना, नेमिचन्द्र शास्त्री, डॉ० दिनेन्द्रचन्द्र जैन, डॉ० रामनाथ सुबोधकुशार जैन एव डा. देवेन्द्र कुमार जैन आरा अपनेपाठक, डॉ. राजाराम जैन, डॉ० गदाधरसिंह, डॉ. चन्द्र- अपने नगरो की स्वयसेवी संस्थाओं के माध्यम से जनविद्या देवराय एव डॉ० विद्यावती जैन प्रमुख है।
के बहुमुखी विकास एव जैनधर्म के युगानुकल मर्वोपयोगी मौलिक माहित्य-प्रणयन तथा मगीत एव कला के बनाने में कार्यरत हैं। क्षेत्र में भी आरा का नाम अग्रगण्य है। श्री जैनेन्द्रकिशोर सन १९४५ के आमपाम कुछ साहित्यिक एव पुगजैन ने मन १९३० के आमपाम विविध नाटको एव ग्रन्थो तात्विक प्रमाणो के आधार पर अन्तिमरूप में वैशाली के लेखन से न केवल जैन जगत अपितु जिले के हिन्दी स्थित कुण्डग्राम को भ० महावीर का जन्म स्थान घोषित जगत को भी प्रेरणा दी। शास्त्रीय संगीत में श्री भैरव- किया गया और बिहार के डा० श्रीकृष्ण सिन्हा (तत्कालीन कमार प्रमाद जैन नथा चित्रकला के क्षेत्र मे थी प्रबोध- मुख्यमन्त्री), आचार्य बद्रीनाथ वर्मा (शिक्षा-मत्री), डा० कमार जैन एव सुबोधकुमार जैन के नाम उल्लेखनीर है। अल्टेकर, डा. योगेन्द्र मिथ, थी जगदीशचन्द्र माथर इन चारो व्यक्तियो ने आरा को साहित्य, संगीत एव कला (तत्कालीनन शिक्षा सचिव), श्री आर० आर० दिवाकर का त्रिवेणी-मगम बना दिया है।
(राज्यपाल) आदि ने उस क्षेत्र की सार्थकता बढाने हेतु वर्तमानकालीन गया, हजारीबाग, राँची एव भागल- वहा प्राकृत एव जैन-विद्या के उच्च अध्ययन एव शोधपर भी जैन समाज के प्रमुख केन्द्र माने जाते है । वहाँ की कार्य हेतु एक बहत योजना तैयार की तथा साहू शान्तिसमाजो ने वहा मुरुचिमम्पन्न भव्य जिनालयो के निर्माण प्रसाद जैन के लगभग साढे छह लाख रुपयो के अनुदान मे तो कराए ही, मार्वजनिक हितों की दृष्टि से भी वहा वैशाली मे मन् १६५८ में प्राकृत जैन शोध-मस्थान की कन्या पाठणालाए, हाई स्कूल एव कालेज बनवा कर स्थापना की गई। उसमके मस्थापक निदेशक के रूप मे शिक्षा के प्रचार-प्रमार में महत्वपूर्ण योगदान किया है। डा. हीरालाल जैन ने प्राकृत एव जैन-विद्या सम्बन्धी इनके अतिरिक्त भी मार्वजनिक स्थानो पर पानी की एम० ए० का पाठ्यक्रम तैयार कर उसके अध्यापन तथा टकियां, ब्लड बैंक, नेत्रदान शिविर, ग्रन्यालय, वाचनालय उच्चस्तरीय शोध की व्यवस्था की । शोध संस्थान की आदि का निर्माण कर भ० महावीर के सर्वोदय का मच्चे योजनाओ को माकार करने मे डा० जगदीशचन्द जैन, अर्थ में प्रचार किया है। रॉची के रायबहादुर श्री हरख- डा. नथमल टाटिया, डा० गुलावचन्द्र चौधरी, डा० चन्द जैन इस समय जैन समाज के प्रमुख नेताओं में माने राजाराम जैन, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, डा. विमलप्रकाश, जाते हैं। उनकी सत्प्रेरणा एव सहायता से श्री पी० सी० डा. गमप्रकाश पोद्दार, डा देवनारायण शर्मा, डा. म्वरूप राय चौधरी ने Jainism in Bihar नाम ग्रन्थ लिखकर चन्द्र जैन, एव डा० रजनसूरि का प्रमुख हाथ रहा । डा. पुरातत्त्व की दष्टि मे बिहार के प्राचीन जैन-वैभव का हीरालाल जैन की प्रेरणा मे मगध विश्वविद्यालय ने भी
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बिहार में जैन धम: अतीत एवं वर्तमान
सन् १९५८ से प्राकृत भाषा एवं जैन-विद्या को अपने पाठ्यक्रम मे स्वीकृत किया । वर्तमान में बिहार इण्टरमीडियट एजुकेशन कौसिल ने भी उसे इण्टरमीडियट स्तर तक स्वीकृत किया है, जिसके फलस्वरूप बिहार के सभी विश्वविद्यालयो में इण्टर कक्षा तक छात्र-छात्रायें उसका अध्ययन कर सकते है ।
इस प्रकार १२वी २०वी सदी में बिहार में जैन धर्म ने अपने अतीतकालीन गौरव को प्राप्त करने का यथासम्भव प्रयत्न किया है। उनके अनुयायियो ने एक ओर अपने सत्यनिष्ठ आचरण, शुद्ध सात्विक जीवन, शाकाहारी मात्विक ज्ञान व मधुर व्यवहार एवं उदार आचरण से जहां स्थानीय जन-जीवन को प्रभावित किया तो वही राष्ट्रिय स्वतन्त्रता आन्दोलन को सफल बनाने तथा स्वातन्त्र्योत्तर काल मे राष्ट्रिय एवं प्रान्तीय आधिदैविक एवं आधिभौतिक विषम समस्याओं के समाधान हेतु भी उन्होने तन, मन एव धन मे सदा सदा सक्रिय योगदान दिया। अपने गुरुवार्थ एवं परिश्रम से जहा एक ओर विपुल धनार्जन किया, वही उन्होंने अनेक सर्वापयोगी धर्मशालाओ
सन्दर्भ-सूची
१. दे० जैनेन्द्र तिद्धान्तकोप ३।५८१-८३ ।
२. तिलोयपत्ति - ८१५६८ ।
३. वही- ४१५८५।
४. हरिवशपुराण -- ६६।१५-२७.
५. सुयगडमुत्त- २७ ॥
६. भगवती सूत्र १३ ।
७ श्रमण-साहित्य में वर्णित विहार-डा० राजाराम जैन ।
८. विविध तीर्थकल्प [ कोटि शिला कल्प गाथा- २ ] । ९-१०. श्रमण साहित्य में बिहार - पृ० ८३ । ११. अशोक स्तम्भ लेख म० ७ १० १६ ।
१२-१३. दे० भारत के दि० जैनगी मा० २, पृ० १२.१८५ १४. भोजपुर आरा जिले का एक छोटा ग्राम ।
१५. संथाल परगना का एक प्रमुख नगर ।
१६. ६० श्रमण-साहित्य मे बिहार - पृ० ४२ ।
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शिक्षा संस्थाओं, चिकित्सालयों, वाचनालयो, ग्रंथालयो एवं दानशालाओ के भी निर्माण कराए। विविध उद्योग-धन्धों के माध्यम से उन्होने अपने नगरो एवं बिहार प्रान्त के आर्थिक समुन्नयन में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। जैनतीयों के जीर्णोद्वार एवं लोकप्रियता बढाने में उन्होने करोडो-करोड रुपये व्यय कर जहाँ कलाओं को एवं श्रमिको के नियोजन की व्यवस्था की, वहीं देश के लाखों लाख जैन यात्रियो को आकर्षित कर राज्य के राजस्व में भी प्रतिवर्ष करोडो रुपयों की आय का एक स्थायी साधन बना दिया। जैन धर्मानुयायियों ने प्रारम्भ से ही बिहार को अपने तीर्थकरो, महापुरुषों एवं पूर्वजो को मातृभूमि एव तीर्थभूमि मानकर उसकी प्रतिष्ठा एव गौरव की अभिवृद्धि मे उन्होंने निरन्तर ही पुत्रवत् सेवाकार्य किया है। सक्षेप मे हम यही कह सकते हैं कि कला, सस्कृति, साहित्य उनका आर्थिक समुन्नयन करके पवित्र तीर्थभूमियों के गौरवपूर्ण प्रदेश के रूप में महान यशस्वी इस बिहार के नव-निर्माण में जैनधर्म के रचनात्मक योगदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा।
महाजन टोनी नं० २ आरा (बिहार)
१०. बिहार एवं पू० पी० की सीमा विभाजक एक नदी १८. दे० श्री बाबूलाल जमादार द्वारा लिखित - सराक हृदय जैन सरकृति के विस्तृत प्रतीक एवं प्राप्य जैन मराक शोधकार्य नामक ग्रन्थ [ अहिंसा निकेतन बेलचापा द्वारा प्रकाशित ] । १६. दे० डा० राजाराम जैन द्वारा सम्पादिन - आ० भद्र बाहु चाणक्य चन्द्रगुप्त कथानक की प्रस्तावना । २०. दे० हाथीगुम्फा - शिलालेख प० स० १२ । २१. दे० रामचन्द्र मुमुक्षुकृत पुण्याश्रवकथा कोप ( उपबास फल प्रकरण) ।
२२. दे० जैनागम माहित्य में भारतीय समाज - डा० जगदीशचन्द्र जैन पृ० ४६२ ।
२३. दे० विविध तीर्थकल्प (निधी सीरीज ०६६ २४. साहित्य में वर्णित बिहार १० ३४ ॥ (शेष पृष्ठ २२ पर)
२५. दे० मागधम् ६।८५
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निमित्ताधीन दृष्टि
श्री बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि परवस्तु हमारा बिगाड़ सही बात यह है कि हमने स्त्री को देखकर राग कर लिया करती हैं जैसे स्त्री राग कर देती है इसलिए राग गलती हमारी है। अगर अपनी गलती समझेंगे तो अपने से बचने को स्त्री को छोड़कर जंगल में चले जाते हैं परंतु को ठीक करने की चेष्टा करेंगे। वह मन की स्त्री तो सूक्ष्म रूप सजाकर मन मे प्रविष्ट व्यवहार में भी यही कहा जाता है कि कोई चिढ़ता हो जाती है जिसको पहचानना भी मुश्किल हो जाता है, है नो लोग चिढाने लगते हैं तो कहा जाता हैं कि चिढ़ाने समझना यह है कि क्या स्त्री राग कराती है। एक स्त्री वालों को चिढाने दे तू चिढना छोड़ दे। चुपचाप अपने रास्ते जा रही है उसको यह भी मालूम बाहरी निमित्त कोई प्रेरणा नही देते परन्तु हम उसके नहीं है कि उसे कोई देख रहा है। और किसी ने उसे देखा साथ जिस रूप का सम्बन्ध स्थापित करते हैं वैसी ही पर
और राग किया फिर कहता है कि स्त्री ने राग करा दिया णति हो जाती है वजन हमारे सम्बन्ध स्थापित करने पर यह तो सरासर झूठ और बेईमानी है। अगर हम यही है। हम सही तरह से भी देख सकते हैं । कोई आदमी समझते रहे तो दोष तो दूसरे का हैं उसको ठीक करने हाथ का थप्पड दिखा रहा है हम उसे देख कर अनदेखा की चेष्टा करेंगे परन्तु अपने को ठीक कैसे कर सकते है। भी कर सकते हैं, हम उसे पागल भी समझ सकते हैं, हम
यह भी सोच सकते हैं कि यह मेरे को थप्पड़ दिखाता है। (पृष्ठ २१ का शेषांश )
यह सब बातें हमारे पर निर्भर है कि हम कैसे हैं ? अगर २६. दे. भारत के दि० जैनतीर्थ ३४१ ।
शात परिणामी हैं तो देखा अनदेखा कर देंगे अगर तीव्र २७. वही।
परिणामी हैं दो क्रोध मे पागल हो जायेंगे। २८. एंशिएंट ज्याग्राफी आफ इंडिया (कनिषम) पृ० ५१७ इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि पर वस्तु ने राग २९. दे० स्वेनच्चांग (जगमोहन वर्मा) पृ० १२६ । नही कराया परन्तु उसका अवलम्बन लेकर मेरा भीतर १०. दे. भारत के दि० जैन तीर्थ ३।४१।।
का रूप बाहर मे आ गया। अगर भीतर न होता तो बाहर ३१. दे० संक्षिप्त जैन इतिहास (डा. कामताप्रसाद जैन) कहां से आता । एक कुये मे मैला पडा है हमने बाल्टी डाली पृ० १९१-२।
बाल्टी ने मला पैदा नहीं किया परन्तु अगर मैला था तो ३२. वही।
बाल्टी मैले से भरकर आ गई । बाल्टी का अवलम्बन ३३. दे० मारत के दि० जैनतीर्थ २।१६७ ।
लेकर जो भीतर था वह बाहर आ गया । दोष बाल्टी का ३४. दे. भारत के दि० जैन तीर्थ २।३७ ।
नहीं । हमारे भीतर क्या पड़ा है हम कैसे हैं इसका है। ३५.३० वही ३१७१।
एक साधु जंगल में बैठा है, एक राजा आता है यह ३६. दे. वही ३१६६ ।
उसके गले में एक मरा हुआ सांप डाल देते हैं। रात को ३७. तिलोयपण्णत्ति १२६५।
अपनी रानी से कहते हैं मैंने ऐसा किया है। रानी राजा ३८. दे. भारत के दि. जैन तीर्थ ३११८ ।
को लेकर साधु के पास आती है, लाखों चीटियां साधु के ३९. विविध तीर्थ कल्प पृ० ।
शरीर को चिपक जाती हैं रानी बड़ी सावधानी से चीटियां ४०. विशेष से लिए देखिये-शोध पत्रिका (आरा ना० अलग करती है साधु ध्यान से हटते हैं और दोनों को प्र० स०) १२५
आशीर्वाद दे देते है । सवाल है कि दोनों को समान आशी
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निमित्ताधीन दृष्टि
र्वाद क्यों दिया इसका कारण है कि साधु के पास आशीर्वाद के अलावा और कुछ नहीं था । जो था वही दे सकते थे वही दिया। सवाल यह नहीं है कि राजा ने क्या किया ? सवाल यह है कि हमारे पास क्या है ? अगर हमारे भीतर गाली है तो गाली ही देगे अगर ऊपर से आशीर्वाद भी दिया तो भीतर से तो वही देगे जो हमारे पास है ।
इसलिए सवाल यह नही है कि दूसरे ने क्या किया वह कैसा है, सवाल है कि हम कैसे हैं ?
इसलिए यह देखने से नुकसान होगा कि दूसरे ने क्या किया परन्तु यह देखिए मैंने क्या किया ।
परन्तु जब तक रोग है अस्वस्थ है तब तक ठण्डी हवा से बचना चाहिये, वह इसलिए नही कि हवा हमारा बिगाड करने वाली है परन्तु इसलिए कि हम अस्वस्थ है । हम इसलिए बच रहे है कि हमारा स्वास्थ्य ठीक नही है । अपनी कमी की वजह से बच रहे है । इसलिए जो जोर आयेगा वह अपनी कमी दूर करने पर आएगा न कि हवा से द्वेष करने पर ।
घी बहुत बढिया चीज है । लोगो को फायदा भी करता है परन्तु बुखारवाला खावे तो नुकसान करता है इसलिए ऐसा मानना उचित नही कि घी खराब है परन्तु बुखार की वजह से उससे बचना जरूरी है ।
इसलिए बाहरी निमित्तो से बचना भी चाहिए तबतक जब तक हमारे मे कमजोरी है परन्तु दोष उनका न समझ कर अपनी कमजोरी को समझना चाहिए तब तो हम अपनी कमजोरी को दूर करने का पुरुषार्थ करेंगे जो हो
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सकता है । अगर दूसरे का दोष समझेंगे तो उसको ठीक करने का पुरुषार्थ करेंगे जो हो सकता है। जो जैसा हम कर रहे हैं और जो हो नही सकता परन्तु हमारी कमजोरी तो इससे दूर होगी नही ।
एक आदमी को कुछ आदमी छेड़ रहे हैं वह किस किस का मुह बन्द करने की चेष्टा करेगा । अगर कुछ लोगो को समझाता है तो और लोग छेड़ने लग जाते हैं । दुनिया बहुत बड़ी है परन्तु हम अपने को ठीक कर लें चिढ़ना बन्द कर दे तो बात ठीक हो जाती है ।
'आत्मार्थी अपना दोष देखता है अपने को ठीक करने की चेष्टा करता है । ससार मार्गी दूसरे का दोष देखता है और उसे ठीक करने की चेष्टा करता है ।
दो आदमियो को बुखार है और दोनो किसमिस खाते है और दोनो को खारी लगती है परन्तु एक सच्चा है वह किसमिस को खारी समझता है और एक कहता है कि अगर किसमिस खारी लगती है तो अभी मेरे बुखार है । जो ऐसा समझता है वह अपने बुखार को दूर करने का उपाय करता है जो सही उपाय है परन्तु जो विर मिस को बारी समझता है वह किसमिस को धोकर खारापन दूर करने की चेष्टा करता है जो असम्भव है ।
हमे विचार करना है कि क्या उसी आदमी की सी हालत ही हमारी नही है ? हम भी जीवन में दूसरे को ठीक करने की चेष्टा करते है अपने को नही देखते अपने को ठीक करने की चेष्टा नही करते ।
एको मे सासदो प्रध्या रगारगदं सरलक्खरगो । सेसा मे बाहिराभावा सब्वे संजोगलक्खणा ॥ अथ मम परमात्मा शास्वतः कश्विदेकः,
सहजपरमचिच्चितामरिण निश्यशुद्धः । निरवधिनिजदिव्यज्ञानदृग्भ्यांसमृद्धः,
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किमिह बहुविकल्पे मे फलं बाह्यभावः ॥
निश्चय से मेरा आत्मा नित्य, एक, अविनाशी है। ज्ञान-दर्शन लक्षण का धारी है। मेरे आत्मीक भाव के सिवाय अन्य सर्वभाव मुझसे बाह्य हैं तथा सर्व ही भाव संयोग लक्षण हैं अर्थात् पर द्रव्य के संयोग से उत्पन्न हुए हैं ।
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भट्टारक-पट्टावली
0 डॉ० पी० सी० जैन सादकीय नोट--
बीत काल मे विविध-साहित्य प्रचुर मात्रा मे लिखा और सकलित किया जाता रहा है, कुछ मूल आगमो की व्याख्या के रूप मे, कुछ स्वतत्र रूप में और कुछ सकलन के रूप मे। ऐसे सकलनो में भट्टारक परम्परा की ऐमी पट्टावलियां भी मिलती हैं जिनमे श्रेणी-बद्धता, क्रम-एकरूपता और कही-कही पूर्णता का अभाव भी परिलक्षित होता है। यद्यपि भट्टारक शब्द पूर्व-काल में केवली, श्रुतकेवली, दिगम्ब गवार्य-मुनियो के लिए प्रयुक्त होता रहा है तथापि बाद के काल में इस शब्द को वस्त्रधारी-थावको के लिए भी खीच लिया गया। शायद महिमा पाने के लिए वस्त्रधारी भी भट्रारको में सम्मिलित होने लगे हो । इमसे उनकी लोकमहिमा में तो वृद्धि हई पर चारित्र की दृष्टि से वे महाव्रतियों से दूर ही रहे। ऐसे में पद की अपेक्षा भेद करना कठिन होता चला गया और सभी एक श्रेणी में बैठने लगे। प्रस्तुन पट्टावली उसी का एक नमूना है -पूरा घोल मोल । इससे दिगम्बराचार्य-मुनियो और वस्त्रधायिो में कोई अन्तर शेष न रह गया। वर्तमान में तो भट्टारक शब्द आचार्यादि से हटकर मात्र वस्त्रधारियो के लिए ही शेष रह गया है, जबकि होना ऐसा चाहिए था कि ये दिगम्बर-वेश मे ही प्रयुक्त किया जाना और यदि वस्त्रधारियो में इसका प्रचलन कर भी लिया गया हो तब भी विभिन्नगण-गच्छ के समस्त दि० आचार्यों को क्रमवार एक (ऊंची) श्रेणी मे और वस्त्रधारी भट्टारक नाम पा गए) थावकों को अन्य पृथक श्रेणी में रखा जाता। यह विषय परिमार्जन की अपेक्षा रखता है। आशा है मनीषी विचारेंगे ।
-सपादक नागौर स्थित भट्टारकीय दिगम्बर जैन ग्रन्थ भण्डार में प्रथ मख्या-- ८४०८ की भट्टारक पट्टावली में मूल सघ के गरस्वती गच्छ एव बलात्कारगण के प्रमुख भट्टारको की विस्तृन नामावलि दी है। इसके माथ ही उममे भद्रारकीय गादी अजमेर तथा आम्बेर की भी सूची दी है जो निम्न प्रकार हैग्रन्थ पट्टावली स-४४०८ ६. भट्टारक श्री उमास्वामी जी १६. भट्टारक श्री वमुनन्दि श्री महावीर जी
, लोहाचार्य जी
श्री वीर नन्दि श्री गौतम स्वामी जी
,, यश. कीति जी
श्री रत्न नन्दि श्री सुधर्माचार्य जी
, यशोनन्द जी
श्री माणक नन्दि श्री जम्बू स्वामी जी
,, देव नन्दि जा
श्री मेघ चन्द्र जो विष्णु नदि श्रुतकेवली
, गुणनन्दि जी २४. , श्री शान्ति कीति जी नन्दि मित्र
,, वज्रनन्दि
थी मेरुकीर्ति जी अपराजित
, कुमार नन्दि
श्री महा कीर्ति १. भट्टारक श्री भद्र बाहु जी १४. , , लोकचन्द्र जी
श्री विश्व नन्दि २. , , गुप्ति गुप्त
, प्रभाचन्द्र जी
श्री शान्ति कीर्ति , माघनन्दि १६. , , नेमचन्द्र जी २६. श्री सील चन्द्र जी जिनचन्द्र जी ,, भानुनन्दि जी
श्री नन्दि जी , पपनन्द जी , सिंह नन्दि
श्री देशभूषण जी
m
१७.
॥
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تي
५.xxx
४१.
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भट्टारक पट्टावली ३२. भट्टारक श्री अनन्त कीर्ति ५८. भट्टारक श्री सुर कीर्ति ८४. भट्टारक श्री पप नन्दि जी ३३. , श्री धर्म चन्द्र जी ५९. , श्री विद्या चन्द्र जी ८५. , , श्री शुभ चन्द्र जी श्री विद्यानन्दिनी 'श्री सूर पन्द्र जी
, श्री जिनचन्द्र जी ३५. , श्री रामचन्द्र जी श्री माघ नन्दि जी
श्री छन कोति श्री रामकीर्ति जी
श्री ज्ञान नन्दि जी
, श्री भुवन कीर्ति ३७. , श्री अभयचन्द्र जी
श्री गग कीर्ति
८६. , श्री धर्म कीति श्री नरचन्द्र जी श्री सिंह कीति
श्री विशाल कीर्ति श्री गगचन्द्र जी श्री हेम कीति
श्री लक्ष्मी चन्द्र जी ४०. , श्री नयनंदि जी
श्री पद्म नन्दि
श्री सहस कीति श्री हरि चन्द्र जी श्री नेमि चन्द जी
श्री नेमिचन्द्र जी ४२. , श्री नैमि चन्द जी श्री नामि कीति
श्री यश. कीति श्री माधवचन्द जी श्री नरेन्द्र कीति
थी भानु कीति ४४. , श्री लक्ष्मीचन्द जी श्री चन्द्र जी
श्री भूषण जी भट्टारक श्री गुण नन्दि जी
श्री पद्म कीनि
, श्री धर्मचन्द जी , श्री गुणचन्द्र जी
श्री बर्द्धमान जी
श्री देवेन्द्र कीर्ति ,, श्री बासवचन्द्र
श्री अकलक चन्द्र जी ६E.
श्री अमरेन्द्र कीति जी श्री लोकवन्द्र जी
श्री ललित कीति १००. श्री रत्न कीर्ति जी श्री श्रुतकीनि
७५. श्री केशव चन्द जी १०१.
श्री ज्ञान भूषण जी , श्री भानुचन्द जी
श्री चारु कीति जी १०२.
, श्री चन्द्र कीर्ति श्री महीचन्द्र जी ७७. भट्टारक थी अभय कीति जी १०३. श्री पद्मनन्दि जी श्री मेघ चन्द्र ७८. श्री बसन कोनि १०४. श्री सकल भूषण जी श्री वृषभ नन्दि ७६. , श्री प्रख्यात कीति १०५.
श्री सहस्र कीर्ति जी श्री शिवनन्दि
श्री सुभ कीति
, श्री अनन्त कीर्ति जी , श्री विश्व नन्दि
श्री धर्म चन्द्र जी
॥ श्री हर्षकीर्ति जी , श्री सिंघ नन्दि ८२. , श्री रत्न कीर्ति १०८. श्री विद्याभूषण जी ५७. , श्री भाबन नन्दि ८३. , श्री प्रभा चन्द्र जी
संवत् १५३२ मे भट्टारक जिनचन्द्र जी ने आम्बेर मे प्रभाचन्द्र जी को बिठाया ज्यां का पाटा की विगति निम्न प्रकार है :८७. भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र जी
८८. भट्टारक श्री धरम चन्द जी श्री ललित कीर्ति जी
, श्री देवेन्द्र.कीर्ति जी ६१.
श्री चन्द्र कीर्ति जी , श्री नरेन्द्र कीर्ति जी
श्री देवेन्द्र कीर्ति जी
श्री सुरेन्द्र कीर्ति जी श्री जगत कीर्ति जी
श्री देवेन्द्र कीर्ति जी श्री महेन्द्र कीर्ति जी
श्री क्षेमेन्द्र कीर्ति जी , श्री सुरेन्द्र कीर्ति जी
१००. , श्री सुखेन्द्र कीर्ति जी १०१. , श्री नरेन्द्र कीर्ति जी
१०२. , श्री देवेन्द्र कीर्ति जी निव.पृ०.२७ पर) नोट-प्रन्थ सख्या ४४०४ की भट्टारक पट्टावली में छलकीर्ति के स्थान पर पपनन्दि लिखा है शेष इसी के अनुरूप है।
xxxxxxxx
१०७.
500
०MM
.
६८.
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"भाव संग्रह" की लिपि प्रशस्ति
0ले. कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल
"भाव संग्रह" जैन साहित्य की प्राकृत भाषा का सर्वो- विराजमान थे। इसी समय भ. पद्मनन्दी, भ. शुभचन्द्र, तम सेवान्तिक एवं दार्शनिक. ग्रंथ है यह ग्रन्थराज बाचार्य भ.जिनचन्द्र, म. प्रभाचन्द्र के शिष्य मण्डलाचार्य श्री विमलसेन के शिष्य देवसेन ने विक्रम संवत् ११० केलग- धर्मचन्द्र जी महाराज की परम्परा में सावडा गोत्रिय भग रवावा । आचार्य देवसेन की दर्शनसार, बाराधना खण्डेलवाल वंशी साह वीमा और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सारतत्वसार, लषु नयचक्र आलाप पद्धति आदि अन्य विजयश्री के वंश में साह टेह नामका बड़ा धर्मात्मा और कबहमल्य कृतियों का निर्माण किया था, वे अपने समय साहित्यानुरागी एवं गुरुभक्त सुश्रावक पुन हुआ जिसने के बहुश्रुत विख्यात विद्वान् थे। चूंकि भाव संग्रह मुद्रित पंचकल्याणक व्रत के उद्यापनार्थ यह "भाव संग्रह ग्रन्थ हो सका है और इसके विषय में विद्वानों द्वारा सविस्तार लिखा कर आचार्य श्री हेमकीर्ति के लिए ज्ञानवरणी कर्ममहापोह हो चुका है अतः प्रस्तुत लेख का लक्ष्य "भाव क्षय हेतु प्रदान किया था। साह बीझा से साह टेहू तक संग्रह की चर्चा या विवेचना नहीं है अपितु "भाव संग्रह" के वंश वक्ष में उनके सभी पुत्रों और उनकी पत्नियों का की वि० सं० १६०६ में प्रतिलिपि कराई गई थी। इस मामलेट किया गया है। प्रति में लिपिकर्ता की विस्तृत प्रशस्ति दी गई है जो ऐति
उपर्युक्त भ. श्री पद्मनन्दी आदि दिल्ली-जयपुर हासिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है अतः उसी लिपि
शाखा का प्रतिनिधित्व करते थे, जिनका परिचय अन्य प्रशस्ति को प्रकाश में लाने के लिए ही यह लेख लिखा
उपलब्ध होता है । साह टेहू ने "णायकुमार चरिऊ" की
भी प्रति लिखवाकर भ० ललित कीति को सं० १६१२ भाव संग्रह" की यह प्रति मूलगाथा मात्र है और
ज्येष्ठ सुदी ५ शनिवार को प्रदान की थी। "णायकुमार यह ५८ पत्रों की पूरी प्रति रही होगी। पर दुर्भाग्यवश हमारे हमें इसका अन्तिम पत्र ५८वां ही सुरक्षित
चरिउ" महाकवि पुष्पदंत की श्रेष्ठ कृति है। क्या७पत्रों का क्या हुआ कुछ नहीं कहा जा
यह साह टेहू अपने समय का बड़ा प्रबुद्ध श्रावक था बहरहाल इतिहास की दृष्टि से यह बकेला ही
जिसे ग्रंथों के प्रचार प्रसार में अत्यधिक अभिरुचि थी और पर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है अतः मैंने इसे बड़ी सुरक्षापूर्वक
मानवृद्धि के लिए धर्मग्रंथ लिखाकर आचार्यों व भट्टारकों संबोकर रख छोड़ा है।
को उपलब्ध कराता था । धन्यास्ते सुकृतिनः । भाव संग्रह के इस अन्तिम पत्र की लम्बाई २८ से.
गाथा को लिपि प्रशस्ति मी. तवा चौड़ाई १२ से. मी. है। इसमें प्रत्येक पत्र पर संवतु १६०६ वर्षे ज्येष्ठ सुदि भौमवासरे श्री आदि ११-११ पंक्तियां है तथा प्रत्येक पंक्ति में ३४-३४ बक्षर नाथ चैत्यालये ताक्षकगढ़ महादुर्गे महाराजाधिराज गउ विद्यमान हैं। इस प्रति का लिपिकाल संवत १६० वर्षे श्री रामचन्द्र राज्ये प्रवर्तमाने श्री मूलसंघे नंद्याम्नाये ज्येष्ठ सुदि भौमवार लिखा है। यह प्रति तक्षकगढ़ बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. (टोडा राबसिंह) नामक महादुर्ग के बादिनाथ चैत्यालय में श्री पपनंदीदेवा तत्पट्टे भ. श्री शुभचन्द्रदेवा तत्पटे भ. लिखी गई थी।
श्री जिनचंद्रदेवा तत्पट्टे श्री प्रभाचन्द्रदेवा तत्पट्टे शिष्य "भाव संग्रह के लिपिकास में तक्षकगढ़ के शासक मंडलाचार्य श्री धर्मचंद्रदेवाः तवाम्नाये खंडेलवालान्वये महाराजाधिराज श्री रामचन्द्र जी राव राज सिंहासन पर साबड़ा गोत्रे साह बीशा तत्भार्या विजयश्री तत्पुत्राः
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भावसंग्रह की लिपि प्रशस्ति
२७
चत्वारः प्र० सा० सोढ़ा दि. सा० गाल्हा तृ.सा. रला, नौलादे तत्पत्र बीवसी वि० सालमा भार्या नानी ततच० सा० माल्हा । सा. मोढ़ा भार्या भोली तत्पुत्र पंच पुत्राः त्रयःप्रसा. छीतर भार्या छायसदेतत्पुत्र चिकी। प्र० सा० चाहड़ दि० साषी वा तृ. सा. दूलह, च. सा. सा. चौहप भार्या चतुरखदे, पृ.पि. राणा। सा० भेला देवा, पं० सा. पूना। सा० पाहड भार्या मदना, सा. भार्या भावलदे। सा० माल्हा भार्ये प्र.नाहा, हि. दूलह भार्या करमा तत्पुत्र त्रयः प्र० सा० पोया, दि० मेहां। तत्पुत्री दो प्र० सा. टेहू, वि० सा• नोता, सा. सायेल्हा, तृ० सा. श्रीपाल, सा० पोया भार्या पौसिरि टेहू भार्या त्रयःप्र. तिहुणश्री, वि० सुहागदे, तृ० गूजरि तत्पुत्री द्वीप्र० सा. सुरताण, द्वि० चि० पचाइण, सुर- तत्पुत्री ग्रोप्र. सा. पदमप्ती भाप्र. प्रताप सि. ताणभार्या सुहागदे सा० थेल्हा भार्ये द्वे प्र० सरसुति, द्वि- पाटमदे, द्वि० चि. सा. गोपाल । सा० नोता भार्यप्र. लाडो तत्पुत्री द्वौ प्र. डूगरसी भार्या नाथी द्वि. सा. नौणादे द्वि० कोउमदे तत्पुत्री दीप्र. वि. मावा भार्या भेल्हा, सा० श्रीपाल भार्ये द्वे प्रथमा सरुपदे, द्वितीया लहुडी, अहंकारदे द्वि० चि० सांगा एतेषां मध्ये सा० टेहूं"...... तत्पुत्र सा० रूपा। सा० देवाभार्ये ३० प्र० साभौ० द्वि० (स्याही फेर मिटा दिया है) इदं शास्त्रं मिलाप्य कल्याण सरूपदे तत्पुत्राः त्रयः प्र० सा. सरवण, भार्या होली, व्रत उद्योतनार्थ आचार्य श्री (धर्मचंद्राय काट दिया है) हेम. तत्पुत्र सा. हेमा, सा० टोहा भार्या चन्द्रा सा० ईसर भार्ये कीर्तयेदमा ज्ञान वा शानदानेन इत्यादि पठनीयं । सूर्ण भवत। द्वे प्रथम ईसर दे, द्वि० वार, सा. रतना भार्या सिरमा
श्रुतकुटीर, ६८कुन्ती मार्ग, विश्वास नगर तत्पुत्राः त्रयः प्र. सा. डाल भार्ये हे प्र० डाली दि.
शाहदरा, दिल्ली-११००३२
(पृ० २५ का शेषांश) अजमेर गादी पर रहे भट्टारकों का क्रम निम्न प्रकार दिया हुआ है१. भट्टारक श्री विद्या नन्दि जी
२. भट्टारक श्री महेन कीर्ति की , श्री भुवन भूषण जी
४. , श्री अनन्त कीर्ति जी ५. , श्री विजय कीर्ति जी
६. , श्री तिलोक कीर्ति की ७. , श्री भुवन कीर्ति जी
८. , श्री सकल भूषण जी उक्त पट्टावलि का "भट्टारक सम्प्रदाय" के भट्टारकों की लिस्ट से मिलान करने पर निम्न प्रकार से अंतर मिलता है जो दृष्टव्य है
उक्त पट्टावलि की क्रम संख्या ५ और ६ के बीच में कुन्दाकुन्दाचार्य का नाम और उपलब्ध होता है। इसी प्रकार क्रम संख्या १८वें के स्थान में जटासिंह नन्दि, २८वें के स्थान में श्रीभूषण, ३३वें के स्थान पर धर्म नन्दि, ३६वें के स्थान पर नागचन्द्र, ४१वें के स्थान पर हरिश्चन्द्र, ४२व के स्थान पर भ. महीचन्द, ४५ के स्थान पर गुणकीर्ति, ५३३ के स्थान पर ब्रह्मनन्दि, ५६वें के स्थान पर हरिनन्दि, के स्थान पर गंगकीर्ति, ६६ स्थान पर चारुनन्दि, ८७वें के स्थान पर रत्लकीर्ति एवं 6 के स्थान पर म० सुरेखकीर्ति मिलता है।
इसी पट्टावलि में उल्लिखित क० सं० १.१ से १०८ तक के सभी मदारकों के नाम के भी "भट्टारक सम्प्रदाय" की सूची में नहीं है इसके स्थान पर क्रमशः भट्टारक विद्यानन्दि, म. महेन्द्रकीर्ति, म. बनन्तकीर्ति, प. भुवनभूषण तथा म. विजयकीर्ति का नाम है।
जैन मनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
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प्राचार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को देन
आचार्यं भूतबली और पुष्पदन्त के पश्चात् आगमोत्तर साहित्य के सृजक, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान के सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में निरूपक, भगवान महावीर के और गणघर के समान मंगल-रूप आचार्य कुन्दकुन्द ही एक ऐसे आचार्य हैं जिन्हें जैन धर्म की दोनों परम्परायें समान रूप से प्रामाणिक मानती हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने विपुल साहित्य-सृजन कर अपने उत्तरकालवर्ती आध्यात्मिक और जैन दार्शनिक आचार्यों के लिए आदर्श प्रस्तुत किया है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी बहुमूल्य कृतियो मे तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमासा का विवेचन किया है । वर्तमान में उपलब्ध इनके पाहुडो (ग्रन्थ) के अध्ययन करने के आधार पर यह कहा जा सकता है कि व्यवहार-निश्चयनयवाद, सप्तभङ्गी, आत्म-निरूपण शैली, उपयोग सिद्धांत, त्रिविध चेतना, ज्ञान की स्व-पर प्रकाशता, स्वभाव-विभाव ज्ञान, पुद्गल और आत्मा का सयोग, परमाणुवाद, सर्वज्ञतावाद आदि जैन दर्शन को ही नही बल्कि सम्पूर्ण भारतीय दर्शन को उनकी अनुपम देन है । निश्चय और व्यवहारनय
नयवाद दर्शन-जगत का प्रमुख सिद्धान्त है । निश्चय और व्यवहार नय का सिद्धान्त भारतीय दर्शन को आचार्य कुन्दकुन्द की अद्वितीय देन है। समयसार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि निश्चय नय और व्यवहार नय पदार्थ निरूपण की दो दृष्टियां हैं। व्यवहार नय के द्वारा वस्तु के अयथार्थ स्वरूप का और निश्चय नय के द्वारा उसके यथार्थ स्वरूप का विवेचन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार नय को अभूतार्थ और निश्चयनय को भूतार्थं कहा है'। वे कहते हैं कि जो नय आत्मा को कर्मों के बन्धन से रहित, पुद्गल पदार्थ के स्पर्श से रहित, अनन्य, नियत, अविशेष और अन्य पदार्थों के संयोग से रहित देखने वाला है वह निश्चय नय कहलाता है और जो आत्मा
[D] डा० लालचन्द जैन, वैशाली
को पुद्गल द्रव्य का कर्ता, कर्म बन्धन से युक्त, कर्म रूप परिणमन और कर्म-प्रहण करने वाला मानता है वह व्यवहार-नय कहलाता है'। समयसार में निश्चय नय के द्वारा शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा का और व्यवहार नय से पुद्गल कर्मबद्ध सासारिक आत्मा का विवेचन किया गया है । व्यवहार नय से वस्तु के स्वरूप का विवेचन वस्तु के यथार्थ स्वरूप के समझने के लिए किया है। इसी कथन को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार म्लेच्छ लोग म्लेच्छ जनो की भाषा के बिना वस्तु के स्वरूप को नही समझ सकते हैं उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ को नही समझा जा सकता है । प्रमेय विवेचन
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथो मे प्रमेय निरूपण अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योकि उनको भलीभांति जानने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य ने कही पर द्रव्य को और अन्यत्र लोक- अलोक एव पदार्थ को ज्ञेय' अर्थात् प्रमेय कहा है । दूसरे शब्दो मे ज्ञेय या प्रमेय का अर्थ पदार्थ, द्रव्य और लोक- अलोक है । सम्यग्दर्शन मोक्ष की प्रथम श्रेणी है । इसलिए आचार्य ने दसण पाहुड़ मे छह द्रव्य - जीव, पुद्गल काय, धर्म, अधर्म, काल, आकाश, नौ पदार्थ
जीव, अजीक, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा, वध और मोक्ष, पाच अस्तिकाय " जीव, पुद्गलकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय एव सात तस्वो (पुण्य और पाप के अतिरिक्त) के स्वरूप का श्रद्धान करने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा है"। सूत्र पाहुड़" मे जीव, अजीव आदि बहुत प्रकार के पदार्थों और हेय-उपादेय तत्त्व के जानने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा है। इस प्रकार प्रवचनसार मे आचार्य ने द्रव्य, गुण और पर्याय को" एव अन्यत्र केवल द्रव्य" को अर्थ बहकर बतलाया है कि अर्थ के जानने वालों का मोह नष्ट हो जाता है" और मोह के क्षय से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।
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माचार्य कुन्दकुन्द की न दर्शन को रेन
२९
सत् या सत्ता
सद्भाव बना रहना स्वभाव है" । सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य जैन दर्शन में सत्, द्रव्य, सत्ता अर्थ और वस्तु एका- रूप है", अत: सत् ही द्रव्य का स्वभाव और ऐसा लक्षण र्थक माने गए हैं । सत् का अर्थ अस्तित्व होता है और है जो सभी द्रव्यों में पाया जाता है। इसलिए द्रव्य यही अर्थ सत्ता का भी है । आचार्य कुन्दकुन्द ने सत् या स्वभाव से सत्वान या सत्तावान है। सत्ता को द्रव्य का लक्षण बतलाया है"। यह मत् सभी आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि द्रव्य और सत् द्रव्यों में विद्यमान रहता है।
भिन्न-भिन्न नही हैं। इसके विपरीत सत् द्रव्य से अभिन्न सत्ता की विशेषताएं
है। ऐसा नही है कि सत् या सत्ता अलग है और द्रव्य सत्ता के लक्षण में निम्नाकित विशेषतायें परिलक्षित अलग है तथा सत्ता सामान्य के सयोग से द्रव्य सत्तावान होती हैं -
हो जाता है। इसलिए कहा है कि यदि द्रव्य स्वभाव से १. सत्ता ममस्त पदार्थों में रहती है।
सत् रूप न होता तो वह असत् हो जाएगा अथवा सत से २ सत्ता सविश्वरूप अर्थात् नाना प्रकार के स्वरूपो गे भिन्न हो जाएगा। अतः द्रव्य स्वय सत्ता स्वरूप है, युक्त है।
ऐसा मानना चाहिए" सत्ता रूप परमतत्त्व का द्रव्य-गुण ३. सत्ता अनन्तपर्यायात्मक है।
और पर्यायो में रहने के कारण सर्वत्र विस्तार है" । द्रव्य ४. सत्ता उत्पाद-व्यप ध्रौव्यात्मक है।
और सत्ता में प्रदेश भेद न हो कर गुण-गुणी या अन्यत्व ५. सत्ता प्रतिपक्ष हे अर्थात् समान प्रतिपक्षी धर्मो से रूप भेद है" । द्रव्य गुणी है और मना गुण हैं" । इसलिए युक्त है।
द्रव्य सत्ता का स्वरूप है। ६, सत्ता एक है।
द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप है ७. मत्ता का विनाश नही होता है।
आचार्य ने द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कहा है। द्रव्या स्वरूप
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य का परिणाम है । द्रव्य का 'स्वय पनास्तिकाय मे आचार्य ने द्रव्य को सत्ता से अभिन्न उत्पाद अथवा विनाश नही होता है। पर्याय की अपेक्षा ही कह कर मत्ता को ही द्रव्य का लक्षण कहा है"। यी द्रव्य उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य रूप होता है" । उत्पाद एव लक्षण की अपेक्षा सत्ता और द्रव्य मे अन्तर है" लेकिन । विनाश द्रव्य में रहने वाली पर्यायो का होता है । वास्तव में मत्ता और द्रव्य एक ही है । द्रव्य के लक्षण में उत्तर पर्याय की उत्पत्ति और पूर्व पर्याय का विनाश निम्नांकित विशेषताये है"-.
होना क्रमश. उत्पाद-व्यय कहलाता है और इन दोनो अव१. द्रव्य की व्युत्पत्ति के अनुमार जो उन-उन (अपनी- स्थाओ मे अस्तित्व रूप से रहना ध्रीव्य कहलाता है। उदा
अपनी) गुण-पर्यायो को प्राप्त होता है वह द्रव्य हरण द्वारा आचार्य ने बतलाया है कि "मनुष्य पर्याय से कहलाता है।
नष्ट हुआ जीव देव अथवा अन्य पर्याय रूप हो जाता है। २. द्रव्य सत् स्वरूप है।
लेकिन दोनो पर्यायो मे जीवत्वभाव का मद्भाव मौजूद ३. द्रव्य उत्ताद-व्यय और प्रौव्य स्वरूप है।
रहता है। जीव का न स्वय उत्पाद होता है और न उसका ४. द्रव्य गुण-पर्याय स्वरूप है।
विनाश होता है। वही जीव उत्पन्न होता और मरता है ५. द्रव्य अपने स्वभाव - " ....है अर्थात द्रव्य लेकिन सत्स्वरूप स्वभाव से वह न मरता है और न अपरित्यक्त स्वभाब है।
उत्पन्न होता है"। द्रव्य-स्वरूप को व्याख्या
उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य का परस्पर सम्बन्ध बतलाते ___आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य-स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है कि व्यय के बिना उतााद नहीं होता है और हुए बतलाया है कि अपने गुणो और नाना प्रकार की उत्पाद के बिना व्यय नही होता है। उत्पाद और व्यय पर्यायो, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त द्रव्य का तीनो काल में दोनो ध्रौव्य के बिना नही होते हैं। इस प्रकार उ ९६
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अनेकान्त
10, 15, fue
व्यय और प्रोव्य में परस्पराश्रय सम्बन्ध बतलाया है। raft उत्पादादि पर्यायों में होते हैं लेकिन वे द्रव्य से भिन्न नहीं हैं । क्योकि पर्याय द्रव्य में रहती है ।" अतः सिद्ध है कि उत्पाद-व्यय-धौव्य एक ही समय द्रव्य में होते हैं । इसलिए उत्पादादि द्रव्य का है। इस से भिन्न नहीं है।" इस प्रकार आचार्य ने द्रव्य को उत्पाद व्यय और धौष्य रूप कहा है।
अन्य गुरु-पर्याय वाला है
कुन्दकुन्दाचार्य ने द्रव्य की एक यह विशेषता बतलाई है कि द्रव्य गुण-पर्याय स्वरूप है। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि द्रव्य परिणमनशीन है जो उत्पन्न और विनष्ट होती है उसे पर्याय कहते हैं। पर्याय दो प्रकार की होती हैं।
स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय
आचार्य कुन्दकुन्द ने मनुष्य, नारक, तियंच और देव को विभाग पर्याय और कर्मरूप उपाधि से रहित पर्यायों को स्वभाव पर्याय कहा है। जिनके द्वारा द्रव्यों में भेद किया जाता है उसे गुण कहते है। आचार्य कुन्दकुन्द की विशेषता यह है मि उन्होने द्रव्य और गुण-पर्याय अभेद होते हुए भेद भी दिखलाया है। द्रव्य और गुणपर्याय अभिन्न हैं क्योंकि पर्याय के बिना द्रव्य नही है और द्रव्य के बिना परिणाम नहीं है। पंचास्तिकाय में भी कहा है कि पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं होती है। इसलिए द्रव्य पर्याय दोनों परस्पर में अभिन्न है। द्रव्य के बिना गुण नहीं रह सकते और न गुण के बिना द्रव्य ही सम्भव है। इसलिए द्रव्य और गुण में अव्यतिरेक अर्थात् अभिन्न भाव है। द्रव्य जब जिस रूप से परिणमन करता है तब वह उसी रूप हो जाता है ।" द्रव्य स्वयं एक गुण से अम्य गुण रूप परिणमन करता है इसलिए द्रव्य गुण-पर्याय वाला है।"
द्रव्य और गुण-पर्याय के भिन्न और अभिन्न सम्बन्ध को समझने के लिए आचार्य के पृथकत्व और ममत्व को समझना होगा ।
वस्तुओं के प्रदेशों में अत्यन्त भेद को पृथकत्व नामक भेद और अदूभाव को (वह यह नहीं है) अन्य मेद ते हैं।"
द्रव्य-गुण-पर्याय से पृथक सर्वधा चिन्न नहीं है क्योंकि उनमें प्रदेश-भेद नहीं है । किन्तु उनमें अन्यत्व भेद है।" क्योंकि जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं हैं और जो द्रव्य है वह गुण नही है । द्रव्य और गुण-पर्याय में स्वरूप भेद तो है लेकिन वे सर्वथा भिन्न नहीं है। इसी प्रकार यदि द्रव्य गुण से सर्वथा भिन्न हो और गुण द्रव्य से भिन्न हो तो (एक) द्रव्य अनन्त हो जायेगा अथवा द्रव्य का अभाव हो जायेगा और गुण सर्वथा भिन्न नहीं है। इसके विपरीत व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय की अपेक्षा द्रव्य और गुण-पर्याय मे भेद होते हुए भी अभेद है।" उदाहरण द्वारा आचार्य ने बतलाया है कि सम्ब न्धियों के अलग-अलग होने पर एक होने पर भी स्वामि भाव हो सकता है। जैसे धन और पुरुष दोनों भिन्नभिन्न हैं और धन से धनी सम्बन्ध बनता है। इसी प्रकार ज्ञान और पुरुष एक होने पर वह ज्ञानी कहलाता है। लेकिन जैसे धन धनी से सर्वथा भिन्न है उसी प्रकार ज्ञान ज्ञानी से भिन्न नहीं है।" यदि ज्ञान भी ज्ञानी से न के समान सर्वथा भिन्न माना जाय तो आत्मा और ज्ञान दोनों बचेतन (जड़) हो जायेंगे" आचार्य ने इस सिद्धांत का खण्डन किया है कि ज्ञान और आत्मा के भिन्न मानने पर भी समवाय सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानी हो जाता है । समवाय सम्बन्ध से आत्मा को ज्ञानी मानना सिद्ध नही होता है क्योंकि अज्ञान के साथ आत्मा का एकत्व सिद्ध होता है।" अतः उन्होंने गुण-गुणी के सादात्म्य सम्बन्ध को समवाय कह कर उसे अपृथग्भूत और अयुतसिद्ध बतलाया है ।" अतः द्रव्य और गुण अयुतसिद्ध और अपृथग्भूत हैं अर्थात् इनमे समवाय सम्बन्ध है । दृष्टान्त द्वारा उन्होने बतलाया है कि दर्शन ज्ञान गुण आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है किन्तु व्यय देश-संज्ञादि की अपेक्षा पृथक कहे जाते हैं। इस प्रकार द्रव्य और गुग-पर्याय कथंचित् भिन्न और कचित् अभिन्न है।" अर्धमागधी आगम में द्रव्य और गुण-पर्याय को इस प्रकार कथंचित् भिन्न और कचित् अभिन्न नही सिद्ध किया गया है। अतः यह आचार्य की अपूर्व देन है।
ख) द्रव्य का स्वभाव नहीं छूटता
आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की एक इस विशेषता का
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आचार्य भी उल्लेख किया है कि जीवादि छहो इन्य परस्पर एकदूसरे में प्रवेश करते हैं, अवकाश देते हैं और एक दूसरे से मिलते हैं तो भी वे मिल कर एक नहीं होते हैं, क्योंकि वे कभी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते हैं।" सभी द्रव्यों का विशेष स्वभाव होता है जिससे उनमे भेद बना रहता है।
एक प्रश्न के उत्तर में आचार्य ने बतलाया है कि यद्यपि धर्म, अधर्म और आकाश एक क्षेत्रावगाही है अर्थात् एक ही स्थान में रहते हैं और अमूर्त हैं लेकिन आकाश को गति और स्थिति का कारण नही माना जा सकता है अन्यथा गति स्वभाव वाले सिद्ध जीव को लोकाय भाग में नही रुकना चाहिए।" लेकिन वे लोकाप्र भाग में स्थिर हो जाते हैं। इससे सिद्ध है कि आकाश पति और स्थिति स्वभाव वाला नही है । आकाश से भिन्न गति और स्थिति स्वभाव वाले धर्म और अधर्म ग्रन्य स्वतन्त्र हैं ।" गति और स्थिति का कारण आकाश को मानने से अलोक की हानि और लोक की वृद्धि हो जायेगी अर्थात् लोक अलोक का विभाग नष्ट हो जायेगा ।" अन्त मे आचार्य ने धर्म-अधर्म और आकाश को अप्रूवम्भूत, समान परिमाण वाले और विशेष स्वभाव वाले होने से कयचित् भिन्न और कथचित् अभिन्न कहा है ।" ३. प्राम-निर
'कुन्दकुन्द की : जैन दर्शन को देन
वैभव (ज्ञान वैभव ) के द्वारा एकत्व शुद्ध आत्मा का निरूपण करूंगा ।" इसी के जानने से मोक्ष मिल सकता है।"
आचार्य कुन्दकुन्द के आत्म निरूपण द्वारा हम देखेंगे कि उनका आत्मवाद बौद्ध दर्शन से किस प्रकार भिन्न है । बौद्ध दर्शन में विशेष कर पालि- त्रिपिटक 'मलिन्दपञ्हो' मे यह तो प्रतिपादित किया गया है कि आत्मा क्या नही है, लेकिन वहां यह नहीं बतलाया गया कि आत्मा क्या है यही कारण है कि उनको अनात्मवादी कहा जाता है। । ।
कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में विशेषकर समयसार म आत्मा का जो विवेचन उपलब्ध है वह आगमो में उपलब्ध नहीं है। आचार्य ने आत्मा का स्वरूप विवेचन निश्वय और व्यवहार नय की पद्धति से किया है जो अद्वितीय है। उन्होने शुद्ध निश्चय नय के द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन किया है और व्यवहार नय के द्वारा ससारी आत्मा का, जो शुद्ध आत्मा को समझने के लिए आवश्यक है।" क्योंकि कर्म उपाधि से उत्पन्न गुण और पर्यायों से रहित बुद्ध आत्मा ही उपादेय है।" एकत्व विभक्त शुद्ध आत्मा की प्राप्ति सुलभ नहीं है, क्योंकि सासारिक जीवों ने काम, भोग और बन्ध की कथा सुनी है, उससे परिचित हैं और अनुभव भी किया है। लेकिन शुद्ध आत्मा की कथा कभी न सुनी है, न उससे परिचित हैं और उसका न अनुभव किया है।" इसलिए वे कहते हैं कि मैं अपने
भावात्मक शैली द्वारा श्रात्मस्वरूप निरूपरण
इस शैली के द्वारा उन्होंने बतलाया है कि शुद्ध आत्मा क्या है, कैसा है । विभिन्न गाथाओ द्वारा बतलाया कि शुद्ध आत्मा ज्ञायक स्वरूप, उपयोग स्वरूप, शुद्ध, दर्शनज्ञानमय अरूपी (अमूर्तिक) पर द्रव्य से भिन्न, " रूप-रसगन्ध से रहित अव्यक्त, चैतन्य गुण से युक्त शब्द रहित, इन्द्रियो द्वारा अग्राह्म निराकार" जन्म-जरा और मरण से रहित आठ गुणो से युक्त है"। मिद्धो की तरह शरीर रहित, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा" स-स्थावर से भिन्न है" । शुद्ध आत्मा निर्दण्ड निर्द्वन्द्व, निर्मम, निष्कल, निरालम्ब' नीराग, निदोष, निर्मूह, निर्भय, निर्ग्रन्थ नि शल्य, निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान और निमंद" अतीन्द्रिय, महान, नित्य, अचल, श्रेष्ठ पर पदार्थों के आलम्बन से रहित शुद्ध है ।" मोक्ष पाहुड मे भी कहा है कि आत्मासिद्ध, शुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और केवलज्ञानरूप है ।" निवात्मक शैली द्वारा प्रात्म-स्वरूप निरुपण
निषेधात्मक जैसी द्वारा आचार्य ने बताया है कि शुद्ध आत्मा क्या नही है । शुद्ध जीव न प्रमत है, न अप्रमत्त है । उसके न ज्ञान है, न दर्शन है और न चरित्र है. न कर्म है न नो-कर्म है, न-सचिताचित पदार्थ है।" शरीरादि बद्ध और धनधान्य आदि अबद्ध पुद्गल जीव के नही है और न वह अनेक भावों से युक्त है । यदि ये पुद्गल द्रव्य जीव के होते तो पुद्गल भी जीव हो जाता । व्यवहार नय से शरीर और जीव एक है लेकिन निश्चयनय की दृष्टि से शरीर और जीव भिन्न-भिन्न है। जीव समस्त परभावों से भिन्न है।" अध्यवसान, कर्म, अध्यवसान भावों में तीव्र
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३२, वर्ष ३६, कि०३
अनेकान्त
अथवा मन्द अनुभाग गत नो कर्म, कर्म-उदय, कर्मों का होते है लेकिन आपस में मिल जाने पर एक से प्रतीत होने तीव्र अथवा मन्द भाव से युक्त अनुभाग, जीव और कर्म लगते हैं । उसी प्रकार जीव और उपर्युक्त पुद्गल के परिका सयोग जीव नही है। क्योकि ये सभी भाव पुद्गल णाम पृथक-पृथक होते है और परस्पर मे मिल जाने पर एक द्रव्य के परिणाम है । आचार्य ने उदाहरण द्वारा समझाया से प्रतीत होने लगते है। उदाहणार्थ फिसी पुरप को मार्ग है कि व्यवहार नय से अध्यवसानादि भाव जीव उसी मे लुटते देखक. अवहार से कहा जाता है कि अमुक मार्ग प्रकार है जैसे कि मेना के निकनने पर सेना के समूह को लुटता है। उनी प्रकार जीव में कर्मादि देखकर व्यवहारी राजा व्यवहार में कहा जाता है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, लोग उन्हें जीव के कहने लगते हैं । जने मार्ग नही लुटता रूप, शरीर, सस्थान, सहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, है पुरुष लुटता है, उसी प्रकार से वास्तव मे कर्म, वर्णादि कर्म, वर्ग, वर्गणा, सर्धक, अध्यवसाय, अनुभाग, योग- जीव के नहींहोते है।" सगारी जीवो के ससारावस्था में ही स्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्ध- उपर्युक्त कर्म, वर्णादि होते है। मुक्तावस्था में उसके नही स्थान, मरने शम्यान, सयमलब्धिस्थान जीव समास और होते है । यदि जीव के साय वांदि भावो का अभिन्न सबध गुण स्थान जी नहीं है ।“ क्षायिक भाव, झायोपर्शामक, होता तो जीव और अजीव में कोई भेद ही नहीं होता । औदयिक और औपशपिक भाव जीव नहीं है । चतुर्गति दूसरा दोप यह आयेगा कि पुद्गल द्रव्य को जीव मानना रूप समार परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, पडेगा।" अन एकेन्द्रि, द्वीन्दिर, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, कूल, स्त्री, गुरुप, नपुमकादि पर्याय शुद्ध जीव के नहीं है।" पचेन्द्रिय जीप, बादर, सूक्ष्म, पत आप्ति ये सब नाम क्योकि वर्णादि उपर्यक्त भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम है। कर्म की प्रकृतिया है । ये मव व्यवहार नयी अपेक्षा अतः व्यवहार नय की अपेक्षा उपर्युक्त भाव जीव के कह- जीव दी है, वास्तव में (पारमाधिक प्टि में नहीं है। लाते है। जिस प्रकार दूध और पानी दोनो पृथक-पृथक
(क्रमश) सन्दर्भ-सूची १. समयमार, गा०११ २. वही, गापा १५ १६ 'दविय त भागने अण्णभद 7 मत्तादो ।' वही, गा०६ ३. वही, गाथा १०८ ४. वही, गाथा ८
२०. प्र० सा० गा०।१४ ५. ..णेय दव्व. प्र. मा०, गा० ११३६
२१. (क) दविदि गच्छदि ताइ ताइ सम्मानजयाइ ज । ६. 'णेयं तोमालोय ।' वही, गा० ११२३
प० काय ६ ७. ....अट्ठा जयप्पगा।' वही, गा० १२८
(ख) दब्व सल्लमणिप उपादवपावतप जुत्तम् । ८. द्रष्टव्य-प० का० गा०६०, एव नि० सा०, गा०६
गुणपज्जयासय वा जन भण्मनि मरणहू ।।
बही, गा० १० ६. प० का०, गा० १०८ १०. वही, गा० ४
(ग) अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादब्बयध्र वत्तमजुत्तम् । ११. छह दव्व णवायत्या पचन्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दा ताण कर सो सद्दिट्ठी मुणेचो॥
गुणव च सपज्जाय ज त दवत्ति वुश्चति ।
प्र० सा०२।३ दसण पाहुड, गा० १६
२२. सम्भावो हि सहायो ।प्र० सा०, गा० २।४।। १२. सू० पाहुड, गा० ५
२३. वही, गा० २७ १३. दब्बाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठमण्णयाभणिया ।
२४. इह विविहलक्खणाण लक्षणमेग यदित्ति सवगय ।प्र० सा०, ११७ १४. अत्थो खलु दन्बमओ। वही, २११
वही, गा०५
२१. वही, गा०२।६ १५. वही, गा० ८६ एव ८८ ।
२५.(क) ण हवदि जदि सद्दव्व अमद्भुव हवदि त कधदव्वं । १६. (क) दव्व सहावसिद्धं सदितिः। प्रवचनसार, २१६
हवदि पुणो अण्ण वा तम्हा दव्व सय सत्ता ।।(ख) सदवठ्यि सहावे दव्वति । वही, गा० २०१७
वही,गा। २।१३ १७. इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगय। २६. वही, ग० २।१५ २७. वही, गा० २।१६ मावचनसार, २१५
२८. जो खलु दबसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो। १६. पंचास्तिकाय, गा.
सदवठि सहावे दव्वत्ति ॥. सा. २०१७
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भाचार्य कुन्दकुन्द की नपर्शन को देन
३३
२६. दम्वत्तं पुणभावो तम्हा दव्वं सयंसत्ता।।
५६. धम्माधम्मागासा अपुधन्भूदा समाणपरिमाण
प्रा. सा०, मा० २१८ पधगुवलद्धिविसेसा करंति एगत्तमण्णत्तं ॥ ३०-३१. उप्पादो य विणासो विज्जति सव्वस्स अत्यजादस्स ।
-वही, गा०६६ पज्जाएण दु केणवि अत्थो खलु होदि सम्भूदो।।- ५७. समयसार, गा०८
प्रा० सा०, ११८ म. जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । ३२. पं० का०, गा० ११, एवं प्र० सा०, गा० २०११
कम्मोपाधिमपुभवगुणापज्जाएहिं बदिरित्तो। ३३. वही, गा० १७.१८
पुव्वत्तसयलभावा परदव्य परसहावमिदि हेयं ।
सगदव्वपुबादेय अतरतच्चं हवे अप्पा ॥ ३४. ण भवो भंग विहीणो भगो वा पत्थि संभविहीणो।
-नियमसार, गा० ३८ एव ५० उप्पादो वि य भंगो णइ वणा धोव्येण अत्येण ।प्र० सा०' गा० २।८
(ख) एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए । ३५. वही, गा० २६
-स० सा०, गा० ३ ३६. समवेदं खलु दव्वं सभवठिदिणाससणिणदह्रहिं ।
५६. (क) वही, गा०४
(ख) दुक्खं णज्जइ अप्पा । मो० पा०, गा०६५ एक्कम्मि णेव समये तम्हा दव्वं ख तत्तिदयं ।।- ६०. वहीगा
वही, २०१०
६१-६२. वही, गा. १७-१८ ३५. द्रष्टव्य-नियमसार, गा० १५ ।
६३. अहमिक्को खलु सुदो दसणणाणमइयो सदारुवी। ३८.प्र० स०, गा० १११० ३६. पज्जयविजुद दव्य दवविजुत्ता पज्जया त्थि ।
णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्ण परमाणमित्तं पि । दोण्ह अणण्णभूदं भावं समणा परूविति ॥
- स० सा०, गा० ३० -40 का०, गा०१२ ६४. अरसमरुवमगंधं अव्वक्त चेदणागणमसह । ४०. दम्वेण विणा ण गुणा गुणेहि दव्वं बिणा ण संभवदि ।
जाण अल्लिग्गगहण जीवमणिद्दिट्ठसठाणं ।। अवदिरित्तो भावो दव्वगुणाण हवदि तम्हा ॥
(क) वही, गा०४६
(ख) नि० सा०, गा०४६ -प० का०, गा० १३
(ग) प्र० सा०, गा०२।८० ४१.प्र. सा०, गा०६
६५. नि० सा०, गा०४७ ४२. वही गा०१२
६६. वही, गा०४८ ४३. वही गा० २०१५
६७. भणिदा पुढविप्पमुहा."| प्र. सा., गा० २१९० ४४. अविभक्तमणण्णात्तं दव्यगुणाणं विभतमण्णातं ।
६८. णिइंडो णिदंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णिच्छति णिच्चयण्हू तब्धिवरीदं हि वा तेसि ।।
णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिभयो अप्पा ॥ ४४. (क) प्र० सा०,२।१६
णिग्गथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को। ४५. १० का०, रा० ४४
णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ।। ४६. वही, गा०४६ ४७. वही, गा० ४७
-नि० मा०, गा० ४३-४४ ४८. ण वियपदि णाणादो णाणी....। वही, गा० ४३
६६. एव णाणप्पाणं सणभूदं अदिदियमहत्थ ।
धुवमचलमणालंबं मण्णेऽह अप्पग शुद्ध । ४६. प० का, गा०४८ ५०. ण हि सो समवायादो अत्यंतरिदो दुणाणदोणाणी।
-प्र० सा० गा०।१०० अण्णाणीति य वयणं एगत्तप्पसाधणं होदि ।।
७०. मो० पा०, गा० ३५ -वही, गा० ४६
७१. स० सा०, गा०६-७,१६-२२ ।
७२. वही, गा० २३-३७ ७३. वड़ी, गा० ३९-४८ ५१. समवत्ती समवाओ अपुषन्मदो य अजुद सिद्धोय ।
७४. वही, गा० ५०-५५ । नि० सा०, गा०४० एवं ४५ तम्हा दन्वगुणाणं अजुदा सिद्धित्ति णिहिट्ठा ॥
-वही, गा० ५०
७५. नि० सा०, गा०४१-४२।
७६. स० सा०, गा०५६ ५२. वही, गा० ५१.५२ ५३.५० का०, गा०७
७७. वही, गा० ५७ ७८. वही, गा०५८-६० ५४. वही, गा० ९२
७९. द्रष्टव्य-वही, गा० ६१-६४ ५५ वही, गा०९३-९५
८०. (क) वही, गा० थ५-६८ (ख) प्र० मा० गा० २६०
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विचारणीय-प्रसंग
(संत)
0 श्रीपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
'शब्दानामनेकार्थाः'-एक ही शब्द के शास्त्रों में अनेक पादन होने से विषय जटिल और अनिर्णयात्मक होते जा अर्थ मिलते हैं परन्तु प्रकरण जाने बिना शब्दमात्र से अर्थ रहे है आदि।' का अभीष्ट दोहन नही किया जा सकता । एतावतः हमने इस सम्बन्ध में हम निवेदन कर दें कि प्रसंग में हमें भी समयसार की १५वी गाथा के 'अपदेस संत' पद के ख्याति अथवा अर्थ-लाभादि की चाह नही और ना ही अपहा उद्घाटन में प्रसंग की उपेक्षा किये बिना 'संत' का मान कराने या करने का भाव । हम तो ज्ञाताओ के समक्ष अर्थ सत्-सत्त्व-आत्मा किया था और आचार्यों द्वारा 'विचारणीय-प्रसग' ही रखते हैं, निर्णायक नही। और प्ररूपित प्रमाण भी दिये थे कि 'अपदेससंतमज्झ' में संत- चाहते हैं कि जिनवाणी अक्षुण्ण-निर्मल रहे । हम क्षमा भी शब्द का अर्थ सत्-आत्मा है-शान्त-रस जैसा अर्थ नहीं मांगते रहते है । हमारा न किसी कोर्ट में मुकदमा पेश है (अनेकान्त वर्ष ३६ किरण २) इसके सिवाय 'शान्त-रस' और न हार-जीत का प्रश्न है। फिर, विद्वानो से हमे क्यों नहीं इस सम्बन्ध में भी हमने सयुक्तिक लिखा था ज्ञान-दान मिला है और दि० गुरु के आशीर्वाद मे हमे तथा पाठकों को इस विषय पर अन्य मनीषियो के विचार मनन का अवसर मिला है जिसका प्रवाह आज भी चाल भी मिले होगे।
है। से मे हम सभी प्रकार नम्र हैं-हमारा कोई इसमें दो राय नहीं कि एक ही प्रसंग में विभिन्न मुकद्दमा नहीं । हाँ, कषाय-वश यदि किसी अन्य ने ऐसा प्रकार के अनेको विरोधी-विचार जब साधारण जिज्ञा- किया हो तो वह जाने, हम तो विद्वानों, त्यागियों, सभी के सुओं के समक्ष आते हैं तब प्रसंग और गहराई के ज्ञान के दास हैं। हमारा ऐसा भी भाव रहता है कि पाठक मनन अभाव में वे भ्रम मे पड जाते हैं कि किसे उचित और करें यदि जंचे तो ग्रहण करें, अन्यथा छोड दें। किसे अनुचित माने ? फलतः हमारे पास एक पत्र भी यद्यपि आत्मा स्वभावत सश्नेष व सयोग सम्बन्धों आया जिसमें लिखा था-कचहरी के अन्दर अपनी दलीन से रहित, अनन्य, स्व में नियत एवं स्व से अभिन्नकी पुष्टि करने के लिए वकील लोग कानून की धाराओ अपने मे एक रूप है तथापि नयाश्रित-छयस्थो की दृष्टि का Interpretation अपनी-अपनी सुविधा तथा मौके मे भिन्न२ दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि जैसे अन्य अनेक क्रमिकके अनुसार जज के सामने रखते हैं। कानून एक ही है विकल्पो रूप प्रतिभासित होता है। पर जो ज्ञाता समयपरन्तु उसकी भिन्न-भिन्न मान्यतायें बनाई जा रही हैं। वर्ती नयाश्रित एकागी और सविकल्प दृष्टि को छोड़कर बिल्कुल यही स्थिति हमारे धर्म की होती जा रही है। प्रमाणरूप-अभेद दृष्टि को प्राप्त करता है-आत्मा को विद्वान क्या साधु क्या सब अपनी-अपनी मान्यतानुसार 'अपदेस'-अखण्ड 'संतमज्'-सत्-सत्त्व अर्थात् आत्मा प्रतिपादन कर रहे हैं। साधु-साधु का, विद्वान-विद्वान का के मध्य-स्व मे स्थापित करता है वही जिनागम के और साधु-विद्वान का, विद्वान-साधु का विरोध रोज ही अन्तरंग को पूर्ण रीति से जानता है। भेद-दृष्टि वाला सामने आ रहा है। वस्तुस्थिति तो जैसी है वैसी ही नहीं जान सकता। इसी भाव को स्पष्ट करने के लिए रहेगी परन्तु मुश्किल है हमारे जैसे अल्पज्ञ और सक्षेप आचार्य ने कहा है कि-'निर्विकल्पसमाधिभ्रष्टानां खंडबुद्धि वाले जीवों की। भिन्न-भिन्न मान्यतानुसार प्रति- खडरूप. प्रतिभाति, ज्ञानिनां पुनरखण्डकेवलज्ञानस्वरूप
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विचारणीय प्रसंग
एव इति हेतोरखण्डज्ञानरूपे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्वं जिनशासनं ज्ञातं भवति ।' जयसेनाचार्य
उक्त टीका में 'अज्ञान शुद्धात्मनि शासति 'अखंडज्ञानरूपे पद का मनन करने पर 'अपदेससंतमजा' का तदनुकूलपूर्ण संगत अर्थ स्पष्ट होता है। तथाहि - 'अपवेस' का अर्थ अखण्ड और 'संतम' का अर्थ ज्ञानरूपे युद्धआत्मनि । यहाँ आचार्य ने 'संत' का अर्थ काल्पनिक और अप्रासंगिक शान्त रस जैसा सविकल्प भाव न करके प्रसंग सम्मत सत्-सत्त्व अर्थात् आत्मा किया और ज्ञानमयको विकल्पातीत आत्मा का विशेषण बनाया है । शुद्ध प्रकृत में यदि आचार्य को शान्त रस इष्ट होता तो वे टीका में 'अज्ञानरूपे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्व जिनशासनं ज्ञातं भवति पक्ति के स्थान में 'अखण्डशान्तरसरूपे शुद्धात्मनि इत्यादि पक्ति को स्थान देते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया । अपितु उक्त प्रसंग में भेद दृष्टि के परिहार और अभेददृष्टि के पोषण के लिए आचार्य ने लवण का दृष्टान्त ही दिया। वे कहते हैं कि - "यथा लवणखिल्य एकरसोऽपि फलशाकपाकादिपरद्रव्य सयोगेन भिन्न-भिन्नस्वादः प्रतिभात्यज्ञानिनां ज्ञानिनां पुनरेकरस एव तथाSSत्माप्यखण्डज्ञानस्वभावोऽपि • विषयभेदेनाज्ञानिना निविकल्पसमाधिभ्रष्टाना वंडर ज्ञानरूपः प्रति प्रति ज्ञानिनां पुनरखण्ड केवलज्ञानरूप एव । "
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जैसे लवण की डली एक रस व्याप्त है और वह वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञो को फनशाक-पत्रशाकादि के संयोगो के कारण भिन्न-भिन्न स्वाद वाली मालूम होती है और शानियों को अण्ड एकक्षाररसरूप अनुभव में आती है वैसे ही अखण्ड ज्ञानस्वभावी आत्मा भी निविकल्पसमाधि से रहित जीवो को विभिन्न ज्ञेय रसादि अनेकरूपो मे प्रतिभासित होती है और ज्ञानियों को अक्षय केवलज्ञानरूप प्रतिभासित होती है। प्रसग मे 'अपदेससंतमज्झ' पद इसी भाव मे है । यहा वा गया है - जो ( अपदेस) अखण्ड (सतमज्झ ) सत्-सत्व अर्थात् आत्मा के मध्य अपने को स्थापित करता है अपने को निर्विकल्पदृष्टि से एक अभेदरूप, ज्ञानरूप या पंतम्यरूप जानता है वह जिनशासन को जानता है। यहां ज्ञान्तरस का कोई प्रसंग ही नहीं है।
-
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प्रसंग के संबन्ध में हम मनीषियों से निवेदन करते हैं कि वे समयसार की १५वी गाथा की पूर्ववर्ती १४वी और उत्तरवर्ती १६वीं गाथाओं का ध्यान पूर्वक मनन करें तो वहां उन्हें अखण्डज्ञानरूप आत्मा का ही प्रसंग मिलेगा'शान्तरस' नाम तक नहीं। यदि प्रकृत में आचार्य को 'संत' का अर्थ शान्त रस जैसा अभीष्ट होता तो वे कही उक्त गाथा में एक बार तो उसका नाम लेते या किसी टीका में उसका उल्लेख करते। चूंकि वे जानते थे कि 'गाणं सो अप्पा अप्पा सो जाणं ।' फलत. उन्होने अभेद निर्विकल्पज्ञान को आत्मा का रूप दिया। वे ये भी जानते थे कि जिनशासन को जानने का काम ज्ञान का है-शान्त रस का नही । अत उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि अखंड ज्ञानरूपे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्व जिनशासनं ज्ञातं भवति ।' अन्यथा वे कहते- 'अखडशान्तरसम्पे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्वजिनशासनं ज्ञान भवति ।'
-
हम और सभी यह जानते है कि कोषों में 'संत' का थं शान्त भी मिलता है- शान्त रस नही। पर प्रसंग मे ( जैसी हमने प्रार्थना की) शान्त अर्थ का प्रयोजन न होने से और टीकाकार तथा अन्य आचार्यों द्वारा भी आश्मा अर्थ के ग्रहण किये जाने से हमने भी बाचायों को मान दिया है और आगमार्थ की पुष्टि की है। यह तो हम पहिले ही सयुक्तिक लिख चुके हैं कि आत्मा के प्रसग मे जहा भी रस के साथ 'शान्त' शब्द प्रयुक्त हो यहां उससे किसी रस-विशेष का ओविभव ग्रहण न कर 'विकार निरास' भाव ही लेना चाहिए— शान्ता. -निर्गता। शमिता इत्यादि इस प्रसंग में देखें- 'अनाविरक्तस्य तवायमासीद्' के प्रसग में हमारा 'विचारणीय प्रमग
।'
एक निवेदन और हम अपने को प्राजस एवं सहृदय ( सज्जन ) समझदार मानकर इस प्रसग के ज्ञाता मानने का दावा नही करते और ना ही दूसरो के स्वतंत्रमनमाने विचारों को अविचारित रम्य ही कहते हैं। हमारा आशय तो सभी को सम्मान देते हुए यह रहता है कि वे 'विचारणीय प्रसंग' पर सद्भावना पूर्वक विचार दे सकते हो तो देकर उपकृत करते रहे। विशेषु किमधिकन् ?
ם
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जरा-सोचिए
जनी कैसे बना जाय?
हम देश-विदेश में, जन-साधारण में धर्म प्रचार करने धर्म और अधर्म दोनों में तथ्य-अतथ्य, सत्य-असत्य
कराने का नारा देते हैं, यूनिवर्सिटी और कालेजों में जैन और हां-नां जैसा अन्तर है । धर्म वस्तु का स्वभाव और
चेयरों को चाहते हैं, गीता जैसा कोई जैन ग्रन्थ लिखाकर
साधारण में वितरण करने-कराने का स्वप्न देखते हैं । पर अधर्म वस्तु का बनावटी रूप है । जब धर्म स्व-द्रव्य में पूर्ण
हमारे अपने घरो में अधर्म की जो आग फैल रही है उसे और सम-रूप में व्यापक है तब अधर्म में न्यूनाधिक्य और
बुझाने के आय नहीं करते । यह तो ऐसी ही विडम्बना अव्यापकत्व है । वस्तु मात्र के सत्यरूप को विचारें तो छहों
है जैसे कोई पुरुष मद्य-पान को बुरा माने और मद्य-पायी द्रव्यों में अपने गुण-धर्म पूर्ण निश्चित हैं, उनमें कभी फेर
की निन्दा भी करे। पर, अपने मद्य-पायी पुत्र या सम्बन्धी बदल नहीं होता।
को प्रश्रय दे उसका पालन-पोषण करता रहे उससे नाता हमने कभी इसी स्तम्भ में जिन, जैन और जैनी की न तोड़ सके । और जो धर्म की अपेक्षा अपने पुत्रादि को विवेचना की थी कि जैनी वाह्य-आचार और अन्तरंग- अधिक महत्त्व दे, या जो सिगरेट और शराब पर जहर विचार में समानरूप में एक होता है। मात्र जैन य जैनी के लेबल लगवाने का पक्षधर होकर भी उन्हें बेचता और नाम लिखने-लिखाने से जैनी नही हुआ जाता । आज हमें उनके ठेके देता-लेता रहे। इस परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए कि हममें कितने जेनी हैं आचारवान पण्डित गण को देखकर हमें खुशी होती और कितनों ने कारणों वश जैनी का बाना ओड़ रखा है कि हमारे और समाज के भाग्य से वे इस पद के योग्य है ? कितनों ने समाज में धुले-मिले रहने के लिए और हैं-बड़ा ही अच्छा है। पर, इतने लम्बे अर्से के बाद भी कितनों ने राजनैतिक दृष्टि से गणना बढ़ाने के लिए, अपने मुझे अपने को पडित कहलाने या लिखने-लिखाने की जुर्रत को जैन घोषित कर रखा है ? आदि :
नही होती। यदि कोई मुझे पडित संबोधन देता है तो गत दिनों दिल्ली बुचडखाने के विरोध में कई पत्र अपने पर शर्म जैसी महसूस होती है । आखिर, पण्डित
तो वही होता है जो ज्ञान के अनुरूप आचरण भी करे । मिले, अखबारों में लेख और स्वतन्त्र पैम्फलेट भी देखे।
मैं तो अभी मार्ग में ही लगने के प्रयल में हैं। जैन और बड़ा सन्तोष हुआ कि अभी जैनो में चेतना है, वे महावीर
जैनी के विषय में भी मेरी यही धारणा है कि उसेके उपासक हैं। पर बाद में जब स्वकीयों के सम्बन्ध में
आचरणवान् होना लाजिमी है—बिना आचार-विचार देखा तो जनत्व के प्रति खेद ही हुआ कि-एक ओर तो .
के जैन कैसा? हम मूक-पशुओं तक के प्रति दयालु हो-दूसरों से उनकी
यदि अपने को जैनी कहने-कहाने वाले उक्त परिप्रेक्ष्य रक्षा की अपेक्षा करें और दूसरी ओर अपनों में हो रहे
में जैनी बन जाय तो अगैनों को भी जैनी बनते देर न अनयों को रोकने मे उपेक्षा बरतें?
लगे-जैन के प्रचार की चिन्ता भी न करनी पड़े-स्वयं हमने 'जैन शुद्ध वनस्पति का निदेशक जेल में होडग ही प्रचार हो जाय। आखिर, तीर्थकर भी किसी से जैन देखा. दहेज के माध्यम से जली या मरी बहुओ की चचाए बनने को नहीं कहते । लोग उनके दर्शन कर (उनके आचसुनी, और जैनों से अफीम बरामद होने जैसे समाचार भी
रण रूप आदर्श से) स्वयं ही जैन हो जाते हैं । उक्त प्रसंग देखे। ये तो कुछ प्रमंग हैं। न जाने अब हम जैन नाम
में हम कैसे सच्चे जैनी बन सकते हैं और कैसे आदर्श धारियों में ऐसी कितनी अनहोनी-होनी के रूप में परिणत आचरण की ओर बढ़ सकते हैं ? जरा सोचिए ! होंगी ? हमें इनका उपचार करना होगा।
-सम्पादक
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साहित्य-समीक्षा १.नतरव कलिका:
२. तोपकर (मासिक) : जन मान योग विशेषांक लेखक: आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज
अप्रेल १९८३ सम्पादक : श्री समर मुनि
सम्पादक-डा. नेमिचन्द जैन । प्रकाशक-हीरा प्रकाशक : आत्मज्ञानपीठ, मानसा मण्डी (पंजाब)
या प्रकाशन, ६५ पत्रकार कालोनी, कनाड़िया मार्ग, डिमाई साइज : पृष्ठ २६४+३१६-५८०
इन्दौर । पृष्ठ २४; मूल्य-पन्द्रह रुपये। मूल्य : साधारण जिल्द ४० रु. रंग्जीन ७५ रुपए स्थानकवासी श्वेताम्बर उपाध्याय श्री आत्माराम
ध्यान-योग पर भारत के ऋषिमुनियों ने गहन चिंतनमहाराज की 'जैन सत्व कलिका विकास' नामक ३०८
मनन किया है एवं प्रभूत प्रयोग करके उसकी परम वैज्ञापेजी कृति सन् १९३८ में करनाल से प्रकाशित हुई थी।
निकता को परखा है । जैनाचार्यों का भी इस क्षेत्र में प्रस्तुत कृति उसी का परिवधित और परिवर्तित रूप है।
अपना विशेष एवं प्रचुर योगदान है। उन्होंने ध्यान-योग यद्यपि ग्रंथ के मूल नाम से 'विकास' शब्द हटाकर इसका
का प्रयोग आत्मा के स्वरूप को जानने में किया है। आज नाम 'जैन तत्व कलिका' कर दिया गया है तथापि विषय
जैन ध्यान-योग के प्रति रुचि एव जिज्ञासा बढ़ी है तथा विस्तृत हुआ है।
वह वस्तु-स्वरूप, उसकी समग्रता और परिपूर्णता को युगग्रन्थ में जैन-मान्य तत्त्व, द्रव्य, प्रमाण-नय, स्याद्वाद, पत् समझने में सहायता प्रदान करता है। ध्यान की रत्नत्रय, लोकवाद, कर्मवाद आदि जैसे तात्विक विषयों प्रक्रिया सूक्ष्मतर है और उसका सम्बन्ध अभीष्ट एकाग्रता को स्पष्ट और सरल रूप में खोला गया है। इससे पाठक से है। इसलिए हमारा ध्येय सदैव असंदिग्ध होना चाहिये ज्ञानानुभूति और आत्मानुभूति कर सकेंगे । तस्करण को वस्तुतः जैन परम्परित प्रयोगधर्माओं ने जैन योग एवं नवीन रूप देने में सम्पादक श्री अमर मुनि जी ने अथक जैन ध्यान की सूक्ष्मतम मौलिकताओं को उदासित एवं श्रम किया है और विषय को सरलता से विशदरूप में उद्घाटित किया है। स्पष्ट किया है, इसके लिए वे साधुवादाह हैं। साज- विशेषज्ञों की अपनी समृद्ध परम्परा के अनुरूप विशेसज्जा की दृष्टि से प्रकाशक भी बधाई के पात्र हैं। पाक का भी अपना विशिष्ट महत्व है। 'तीर्थकर' ने प्रथम-सस्करण से उद्धृत 'स्वकथ्य' में मूलग्रंथकर्ता
हमेशा व्यक्तियों की अपेक्षा प्रवृत्तियों को अधिक महत्त्व द्वारा घोषित उस प्रशस्त भावना का हम आदर करते है,
दिया है और भारतीय संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में जैन जिसका सूत्रपात और निर्वाह उन्होंने ५० वर्ष पूर्व किया।
संस्कृति की मौलिकताओं को प्रकाशित किया है। प्रस्तुत उनका संकल्प था-'अन्य इस प्रकार से लिखा जाय जो
विशेषांक जैन ध्यान-जैन योग की शास्त्रीय एवं लौकिक परस्पर साम्प्रदायिक विरोध से सर्वषा विमुक्त हो और
दोनों ही दृष्टियों से सांगोपांग विविध एवं रोचक शैली में उसमें केवल जैन-तत्त्वों का ही जनता को दिग्दर्शन कराया I
संयोजित अभिव्यक्ति है । इसमे जैन धर्म और दर्शन के जाय।' प्रस्तुत परिवधित संस्करण में उक्त रेखा का उल्लंघन ममभूत ध्यान और योग के बहुविध पक्षों पर सर्वाळपर्ण
दृष्टि से प्रकाश डाला गया गया है जिसके कारण इसे जैसा दिखा, अब इसमे जैन सम्प्रदाय की धाराओ के हादसा
मरने विषय के विश्व कोष की कोटि में रखा जा सकता विरोध सम्बन्धी प्रसंग भी जुड़ गए हैं जैसे-मल्लि
है। विषय को प्रस्तुत करने में सर्वत्र अधिकारी विद्वानों और महावीर के कथानक, स्त्रीलिंग, नाक 11 और
एवं सुविज्ञ मनीषियों द्वारा आधुनिक साधनों एवं शैलियों गृहीलिंग से मुक्ति आदि । इससे अन्य मूल लेखक को भाव
का आश्रय लिया गया है जिसके कारण विषय और भी नानुमार संप्रदायातीन न होकर श्वेताम्बर पय की मान्यता
रोचक बन पड़ा है। जैसा बन गया है। पूरी जैन-धारा का नहीं। ऐसा तो हम मानते नहीं कि उपाध्याय श्री ऐसे मतभेदों से मारिचित विशेषांक विशेषतया संग्रहणीय एवं सर्वथा उपादेय
इसलिए उन्होंने ऐसे प्रसंगों को छोड़ा हो । प्रत्युत ऐसे है तथा प्राच्य विधाओं के प्रत्यास्थापन से हितबद्ध मनीकपनों को स्पर्श न करने में उनकी पन्यवाद निर्मूलक षियों द्वारा मननीय एवं पठनीय है। प्रशस्त भावना ही थी जिसका पात हुमा है। -संपादक
-गोकुल प्रसाद जैन, उपाध्यक
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
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समीचीन धर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन अन्ध, मुख्तार श्रीजुगणपिशो।
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । . ४५. रम्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं०परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक साहित्य- .
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... अनबन्ध-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । विपन
प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित। सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५.. समाषितन्त्र और राष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीक सहित बवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जन तीर्थ: श्री रामकृष्ण न ... प्याय-दीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं०, मनु । १०... म साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । सापपाहत : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरा लालजी सिवान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी प्रक्षिक
पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । मैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया . ध्यानशतक (ज्यानस्तव सहित):संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२.०० भावकवर्म संहिता: श्रीबरवावसिंह लोषिया
५.८० बनलबजावली (तीन भागों में):सं.पं.बालपद सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पपचन्द्र शास्त्री, बहुचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
२.०० Jain Monoments: री. एन. रामचन्द्रन Reality :मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद । बड़े प्राकार के ३०.प., पक्की जिल्द ८००
२५...
आजीवन सदस्यता शुल्क: १०१.००२० बार्षिक मूल्य : ६)१०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे
विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक
मगल लेखक के विचारों से सहमत हो।
सम्पादक परामर्श मण्डन- ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-भी पानशास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयधारी जैन, वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार शादर्स प्रिंटिंग प्रेस -१२, नबीन शाहदरा
दिल्ली-३२ से मुक्ति।
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घोर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वय ३६ : कि०४
अक्टूबर-दिसम्बर १९॥
इस अंक में
क्रम
विषय १. जिनवाणी-महिमा २. श्रीलंका और जैनधर्म-डा. ज्योतिप्रसाद जैन ३. जैनधर्म की प्राचीनता व ऐतिहासिकता
-डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच ४. गुप्त सम्राट् रामगुप्त जैन धर्मानुरागी था
-कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल ५. क्षणभंगवाद और अनेकान्त
-अशोककुमार जैन एम० ए० ६. आचार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को देन
-डा. लालचन्द जैन, वैशाली ७. जैनधर्म-दर्शन में आराधक की अवधारणा
-डा. गुलाबचन्द जैन ८. बीज मे वृक्ष की संभावना
- वक्ता श्री बाबूलाल जैन ९. दिगम्बरत्व का क्या होगा?
-कुन्दनलाल जैन प्रिंसिपल १०. विचारणीय-प्रसंग-पपचन्द्र शास्त्री, दिल्ली ११. जरा-सोचिए-संपादक १२. साहित्य-समीक्षा
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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बाहुबली-कुम्भोग वि० क्षेत्र का संकट दिगम्बरत्व पर संकट है। यहां प्रातसाथियों नेव-धर्म और गुव सभी का अपमान किया है। सरकार इसकी न्यायिक जांच कराकर अपराधियों के साथ भारतीय संविधान के अनुरूप व्यवहार करे और ऐसी व्यवस्था बनाये कि देश में समीधर्म-जाति-सम्प्रदाय के लोग अपनी मर्यादानों में सुरक्षित रह सकें। दिनों को भी प्रस्तुत प्रसंग में मुनि श्री विद्यानंद जी महाराज के निर्देश में प्रागे बढ़ना चाहिए।
-बीर सेवा मन्दिर
-
अपनी-बात इस अंक के साथ 'अनेकान्त' का ३६वां वर्ष पूर्ण हो रहा है। हम उन सभी लेखकों, पाठकों और सहायकों का अभिनन्दन करते हैं जिन्होंने इस पुण्य कार्य में हमें सहयोग दिया है। हम यह भी जानते हैं कि हमसे गल्तियां भी हुई होंगी, जिन्हें सभी ने क्षमा किया है-कोई किसी प्रकार का उलाहना नहीं बाया। सच तो यह है कि यह कार्य बड़ी जिम्मेदारी का है और सभी के सहयोग से पूरा होता है। हमारा सम्पादक मण्डल पूरा ध्यान रखता है और समय-समय पर निदेश देता रहता है। संस्था की कार्यकारिणी का भी इधर ध्यान है।
हमें खुशी है कि विद्वान पाठकों ने 'अनेकान्त' को सराहा है-बहुन से पत्र भी भेजे हैं। सभी का प्रकाशन आत्म-प्रशंसा न समझ लिया जाय इस भय से हम कुछ की कुछ पक्तियां ही उद्धृत कर रहे हैं। तपाहि१. अनेकान्त में 'विचारणीय प्रसंग', पढ़कर हर्ष हुआ। वस्तुतः लेख आगमोक्त, युक्ति-आगम-तकं
से पूर्णतः संपुष्ट, विचारोत्तेजक, मध्ययन खोज व शोधपूर्ण हैं। ऐसे लेखों द्वारा आप सचमुच में आगम-मार्ग विलोपता की रक्षा कर रहे हैं।'
-स्वामी श्री भ. चारुकीति जी पंडिताचार्य, महविद्री २. 'शान्त रस' के सबंध में विचारणीय-प्रसंग' तथा 'जरा-सोचिए' के अन्तर्गत विचारोत्तेजक टिप्पणियां युक्ति-युक्त एवं अच्छी लगी।'
-डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, मखनऊ 1. 'आप अनेकान्त में चिंतन के रूप में जो विचार दे रहे हैं, वे काफी सुलझे हुए और नवीन चेतना को जगाने वाले हैं।'
-डॉ. दरवारीलाल कोठिया, वाराणसी ४. 'अनेकान्त ने अपना रूप निखारा है। विद्वत्तापूर्ण लेख तथा 'जरा-सोचिए' की सामयिक टिप्पणियां बड़े अच्छे होते हैं।'
-डॉ. नन्दलाल जैन, रीवा हम पाठकों से निवेदन कर दें कि 'अनेकान्त' की नीति व्यक्तिगत किसी विवाद में पड़ने या खडन मंडन की नहीं है। इसके उद्देश्य सभी भांति जैन-आगमा सस्कृति और उसके मार्ग-उद्घाटन, उसकी रक्षा तथा प्रचार तक केन्द्रित हैं। अतः चिन्तन के रूप में जहाँ, जैसा जो मिलता है, लेखकों के माध्यम से पाठकों के विचारार्थ पहुंचा दिया जाता है और उसके जिम्मेदार लेखक स्वयं होते हैं। फिर भी जानेअनजाने किसी लेख से किन्हीं पाठकों को कोई ठेस लग जाय तो वे उसे सहज-भाव में ग्रहण कर हमें समा ही करते रहें हम उन्हीं के अपने है।
धन्यवाद!
-सम्पादक
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ओम् अहम्
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ALOLITalk
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमषनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष ३६
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५१०, वि० स० २०००
बर-दिसम्बर १९८३
जिनवाणी-महिमा
नित पीजो धी-बारी। जिनवानि सुधासम जानके मित पीजो धी-धागे॥ बोर-मुखारविन्द तें प्रगटी, जन्म जरा गव-टारी। गौतमादिगुरु उर घट व्यापी, परम सुरुचि करतारी।। सलिल समान कलित, मलगंजन, वृष-मन-रंजनहारी। भंजन विभ्रमधूलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी॥ कल्यानकतर उपवन धरनो, तरनी भवजल-तारी। बन्धविवारन पैनी छनी, मुक्ति नसनी सारी॥ स्वपरस्वरूप प्रकाशन को यह, भानु-कला अधिकारी। मुनिमन-कुमुविनि-मोवन-शशिभा, शमसुख सुमन सुवारी।। जाको सेवत, बेबत निजपद, नसत प्रविद्या सारी। तीन लोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी।। कोहि नीम सौ महिमा जाको, कहि न सके पविधारी। 'बोल'पल्पमति केमको यह प्रथम उपारनहारी।।
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श्रीलंका और जैनधर्म
D 'इतिहासमनीषो' डा० ज्योतिप्रसाद जैन
श्रीलका, लंका, सिंहलद्वीप या सीलोन भारतवर्ष के आदि प्रदेशों से गये प्रवासियों की संख्या भी पर्याप्त है। सुदूर दक्षिण में तथा भारतीय भूभाग के निकटतम स्थित प्राचीन जैन अनुश्रुतियों के अनुसार भोगयुग के अव. एक विशाल द्वीप है। इसका आकार सीधी रखी नाश- सान पर प्रथम तीर्थकर. आदिदेव भगवान वृषभनाथ ने पाती जैसा है, जिसकी अधिकतम लम्बाई उत्तर-दक्षिण कर्मयुग एव मानवी सभ्यता का ॐ नमः किया था तथा लगभग ५०० कि० मी०, अधिकतम चौड़ाई पूर्व-पश्चिम समाज एवं राज्य की व्यवस्था की थी। भगवान के एक लगभग २५० कि० मी. तथा क्षेत्रफल लगभग ८०,००० वर्ग उपनाम इक्ष्वाकु पर मानवों का इक्ष्वाकुवश प्रसिद्ध हुआ कि. मी. है। कुमारी अन्तरीप या कन्याकुमारी से लका जिसकी शाखा उपशाखाओं मे आगे चलकर सूर्यवश, के पश्चिमी तट की दूरी लगभग २५० कि. मी. है। चन्द्रवश एव हरिवंश प्रसिद्ध हुए। उस युग में प्राय. संपूर्ण मनार की खाड़ी श्रीलंका को भारत के दक्षिणी-पूर्वी तट त्तरापथ मे उक्त इक्ष्वाकुवशी क्षत्रियों की ही प्रभुसत्ता से पृथक करती है । तमिल देशस्य नाग पट्टिनम से थोड़ा थी। भगवान के ज्येष्ठ पुत्र भरत इस महादेश के प्रथम दक्षिण में भारतीय भूभाग को श्रीलका के उत्तरी सिरे पर चक्रवर्ती सम्राट हुए और उन्ही के नाम पर वह भारतवर्ष स्थित जफना बन्दरगाह से लगभग ५० कि० मी० चौड़ा कहलाया। उसी युग मे मनुष्यों की एक अन्य जाति थी पाक जलडमरूमध्य अलग करता है। निकट ही सेतुबंध जो विद्याधर कहलानी थी। उसके नेता नमि ओर विनमि रामेश्वरम अथवा 'आदम का पुल' स्थित है। द्वीप के नाम के दो भाई थे। उन्हे वेताढ्य अथवा विजयार्ध पर्वत दक्षिणी-पश्चिमी तट पर स्थित श्रीलंका की वर्तमान की उत्तर एव दक्षिण श्रेणियों में सुखपूर्वक निवास करने राजधानी कोलम्बो है, द्वीप के प्रायः मध्य मे प्राचीन नगरी की व्यवस्था हुई । उक्त विद्याधरों के वंशजो में आगे चलकैन्डी स्थित है और उत्तर पूर्वी तट पर त्रिकोमाली। कर ऋक्ष या राक्षस वंश और वानरवंश नाम की दो वश कुछ विद्वानों का कहना है कि चीनी भाषा के 'सेल' शब्द परम्पराएं सर्वाधिक प्रसिद्ध हुई। ये तब भी मनुष्य ही थे, से. जिसका अर्थ रत्न है, संस्कृत का सिंहल और अंग्रेजी का और प्राय: जिनधर्म भक्त थे। लेकिन ज्ञान-विज्ञान एवं सीलोन बने, अतएव सिंहलद्वीप और रत्नद्वीप पर्यायवाची हैं। विद्याओं में अत्यन्त कुशल होने के कारण विद्याधर कहप्राचीन जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मणीय साहित्य में लंका, सिंहल- लाते थे । एकवंश का राज्य-चिह्न एवं ध्वज-चिह्न कपि या द्वीप और रत्नद्वीप के अनगिनत उल्लेख प्राप्त होते हैं, बानर होने से वह बानरवंश कहलाया, दूसरे ने ऋक्षद्वीप जिनसे प्रतीत होता है कि भारतवर्ष के साथ इस द्वीप के या राक्षसद्वीप को अपनी सत्ता का केन्द्र बनाया अतः वह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक राक्षस वश कहलाया। उक्त राक्षसद्वीप के मध्य में त्रिकसम्बन्ध रादुर अतीत से ही पयाप्त घनिष्ट रहते आये हैं, टाचल पर्वत था जिस पर उसकी अत्यन्त भव्य राजधानी जिनके कारण यह द्वीप अखिल भारतवर्ष का ही एक लंकापुरी का निर्माण हुआ। राजधानी के नाम पर पूरा अभिन्न अग जानामाना जाता रहा है। वर्तमान मे श्री द्वीप ही लका कहलाने लगा। स्वर्ण रत्न आदि की प्रचुरता लंका के अधिकांश निवासी बौद्ध धर्मानुयायी है। गत दो- के कारण रत्नद्वीप भी कहलाया। यह कहना कठिन है कि तीन सौ वर्षों में धर्म परिवर्तनों के परिणामस्वरूप ईसाई लंका का ही अपरनाम रत्नद्वीप था अथवा वह उसके और कुछ मुसलमान भी है तथा भारतीय मूल के तमिल निकटस्थ कोई अन्य एवं अपेक्षाकृत छोटा द्वीप पा।
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श्रीलंका मौरजनधर्म
आदिपुराण के अनुसार भरत चक्रवर्ती ने अपने लोग जिनेन्द्र भगवान की पूजा-उपासना करते थे। रावण दिग्विजय अभियान में उक्त राक्षसद्वीप को भी विजय अपने युग का अर्ध-चक्री सम्राट एवं प्रतिनारायण था। किया था। एक अनुश्रुति के अनुसार भारत के पूर्वी तट इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न रघु के वंशज अयोध्यापति से वररोज नामक एक असुर सरदार अक्ष, यक्ष, नाग महाराज दशरथ के पुत्र राम जब अपनी पत्नी जनकसुता आदि विद्याधर जातियो के व्यक्तियों को लेकर लंका गया वैदेही सीता तथा अनुज लक्ष्मण के साथ दंडकारण्य में था और उसी ने उस द्वीप को बसाया था। पद्मपुराण से बनवास कर रहे थे तो एकदा लक्ष्मण के हाथों अनजाने विदित होता है कि बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ शबूककुमार का वध हो गया । वह रावण की बहिन चन्द्रमें मालि, सूमालि और माल्यवान नाम के तीन भाइयो ने तखा का पत्र था। परिणाम
पनि इस द्वीप पर अधिकार कर लिया था। उसी काल मे दूषण के साथ राम लक्ष्मण का भीषण युद्ध हुआ। उस रथनपुर का विद्याधर नरेश इन्द्र था जो बड़ा शक्तिशाली, अवसर का लाभ उठाकर रावण ने सती सीता का अपहरण प्रतापी एव महत्वाकांक्षी था और प्रत्येक बात मे देवराज कर लिया और उसे लका में ले गया। रावण की प्रतिज्ञा इन्द्र की नकल करता था। उसने समस्त विद्याधर राजाओं थी कि किसी परस्त्री का उराकी इच्छा एवं सहमति के को पराजित करके अपने अधीन कर लिया। लंका वालों बिना उपभोग नही करेगा, साप ही वह अत्यन्त मानी था को भी उसने पराभूत कर दिया। युद्ध में मालि मारा और स्वय को सर्वशक्तिशाली समझता था। अतएव वह गया और सुमालि एवं माल्यवान अपने परिवार सहित मीता को उसके पति राम के पास भेजने के लिए राजी मजात गप्तस्थान मे शरण लेने पर विवश हुए। इन्द्र ने नही हआ। उधर राम व लक्ष्मण सीता की खोज में भटलका मे अपने आज्ञाकारी सामन्त वैशवण को स्थापित कर कते रहे और जब उन्हें रावण के कुकृत्य का ज्ञान हुआ तो दिया जो साक्षात कुबेर जैसा था । उसके समय मे लका के
हनुमान, मुनीव, नल, नील आदि वानरवंशी विद्याधरों को वैभव मे अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
उन्होने अपना सहायक बनाया और समुद्र पार करके, सुमालि का पुत्र रत्नथवा था जिसकी पत्नी का नाम
लका पर आक्रमण कर दिया। रावण की अनीति से क्षन्ध केकसी था-इन दोनों का पुत्र सुप्रसिद्ध राक्षस-राज
होकर उसका भाई विभीषण भी राम से आ मिला। राम नन अपरनाम रावण हुआ। वह अत्यन्त पराक्रमी और रावण के मध्य भयंकर युद्ध हुआ जिसमें नारायण और तेजस्वी था। होश सम्भालने पर उसे अपने कुल के के हाथों प्रतिनारायण रावण मारा गया। उसके अनेक पराभव का कारण ज्ञात हुआ और उसने लंका पर चढ़ाई परिजन और सामन्त भी युद्ध में काम आये । इन्द्रजित कर दी तथा वैश्रवण को पराजित करके लका पर अधि- आदि कई एक ने जिनदीक्षा ले ली। राम और सीता का कार कर लिया। वैश्रवण रावण का मौसेरा भाई था- मिलन हुआ । लंका का राज्य विभीषण को सौंपकर राम, उसने रावण से संधि कर ली, अपना पुष्पक विमान भी लक्ष्मण, सीता आदि अयोध्या ची गये । लंका में विभीषण उसे दे दिया और अन्यत्र जाकर रहने लगा। अब रावण एवं तदनन्तर उसके वंशज चिरकाल तक राज्य करते रहे । की प्रभसत्ता, शक्ति और समृद्धि में दुतवेग से प्रगति होने ये प्रायः सब ही जिनधर्म भक्त थे। लगी। उसने इन्द्र विद्याधर तथा उसके प्रायः सभी सामन्तों महाभारतकाल में श्रीकृष्ण सिंहलद्वीप (लंका) जाकर को पराजित करके अपने अधीन कर लिया। अन्ततः बहा के राजा श्लक्षणरोम की कन्या लक्ष्मणा को हर लाये लकाधीश राक्षसराज रावण विद्याधर वंशियों का एकच्छत्र थे और उन्होने उसे अपनी पत्नी बनाया था। तेईसवें मम्राट बन गया। उसकी सोने की लका लोक-विख्यात हो तीर्थकर पार्श्वनाथ के तीर्थ में अंग-कलिंग-आन्ध्र के अर्धीगई। रावण और उसका परिवार परम जिनभक्त थे। श्वर महाराज करकंडु ने, जो एक जैन नरेश था, सिंहलराजधानी लंकापुरी का प्रधान देवालय सोलहवें तीर्थकर द्वीप की यात्रा की थी। अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर भगवान शान्तिनाथ का अत्यन्त भव्य मन्दिर था जिसमें वे के समय (छठी शती ई०पू०) में कलिंग देश के सिंहपुर
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मनेकान्त
मगर का विजय नामक एक जैन राजकुमार लंका गया था विद्वान इस घटना की तिथि ई०पू० ३८ बताते हैं। इस और वहां उसने एक नए राज्यवंश की स्थापना की थी। प्रकार श्रीलंका के इतिहास के प्रारम्भ से लेकर ईस्वी सन् बौद्धग्रंथ महावंश से विदित होता है कि चौथी शती ई. के प्रारम्भ से कुछ दशक पूर्व तक उस देश का प्रधान धर्म पूर्व में इसी वंश में उत्पन्न सिंहल नरेश पाण्डुकामय ने जैनधर्म ही बना रहा। राजधानी अनुराधापुर में एक विशाल जैन बिहार तथा बौद्ध राजा वट्टगामिनी की विध्वंसलीला एवं धामिक अति भव्य जिनमन्दिर बनवाया था। ३री शती ई०पू० अत्याचारों के बावजूद भी श्रीलंका में जैनधर्म का अस्तित्व के मध्य के लगभग मगध सम्राट अशोक के मौर्य के पुत्र प्राय: महाकाल तक बना रहा । लंका के इतिहास से पता महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा के द्वारा लंका में बौद्ध धर्म का चलता है कि ५वीं शती में जब लंका नरेश कस्सप प्रथम सर्वप्रथम प्रवेश हुआ, किन्तु उसकी विशेष प्रगति नही हुई द्वारा निर्वासित होकर राजा मोग्गलन को १८ वर्ष तक लगती और उससे जैन धर्म प्रायः अप्रभावित रहा, क्योंकि भारत में रहना पड़ा था तो उसने लंका निवासी जैनों २री शती ई०पू० में कलिंग चक्रवर्ती जैन सभ्राट खारवेल तथा सेनापति मिगार के साथ गुप्त संपर्क बनाये रखे थे। ने लंका में अपने दूत एव धर्मप्रचारक भेजे थे और लका किन्तु जब ४६५ ई० में मोग्गलन राज्य को पुनः प्राप्त के प्राचीन ऐतिहासिक अभिलेखों से स्पष्ट है कि लंका- करने में सफल हया तो उसने जैनों की उपेक्षा की और नरेश खलतग (१०६-१०३ ई० पू०) के समय में भी शिलाकाल द्वारा लाये गये बुद्ध के अवशेषों के स्वागत तत्कालीन राजधानी श्रीगिरि (सिगिरिया) के निकटस्थ समारोह में ही ब्यस्त रहा। कस्सप बौद्ध गया जाकर अभयगिरि पर एक विशाल जैन बसति (विहार) विद्यमान बौद्ध भिक्षु बन गया। ७वी-८वीं शताब्दी ई० में भी जैनथी जिसमें अनेक जैन मुनि साधनारत रहते थे। कुछ समय धर्म और उमके अनुयायियों का अस्तित्व श्रीलंका में था, पश्चात् लंका नरेश वट्टगामिनी के शासनकाल में तमिल इस बात के स्पष्ट निर्देश मिलते हैं। इतना ही नही, एक देशवासी किसी राजा ने लका पर आक्रमण किया। कोलंब- प्रायः तत्कालीन शिलालेख से प्रकट है कि ११वीं शती ई० हलक स्थान मंकविधय भी उनसे मिल गया और लका के के कर्णाटक के एक जैनाचार्य यशःकीति उस समय के सिंहल नरश क साथ युद्ध हुआ। राजा बट्टगामिना पगाजत हाकर नरेश द्वारा अपनी राजसभा में सम्मानित किए गए थे। युद्धभूमि से भाग गया। कहते हैं कि जब वट्टगामिनी अपने
१ मई १९८३ के दैनिक टाइम्स आफ इडिया साथियों के साथ भागता हुआ अभयगिरि की जैन बसति में प्रकाशित अपने एक लेख में श्री पी० बी० राय चौधरी के निकट पहुंचा तो उक्त विहार के जैनाचार्य मुनि गिरि ने र
मुनि गिार ने ने यह प्रश्न उठाया है कि क्या कारण जब बौद्ध धर्म तो इस कायरतापूर्ण पलायन के लिए उसका उपहास एवं
श्रीलंका पर प्रायः पूरी तरह छा गया, जैनधर्म के अस्तित्व भर्त्सना की थी। इससे वह राजा चिढ गया और उसने
के वहां कोई चिह्न नही प्राप्त होते। विद्वान लेखक एक प्रतिज्ञा की कि यदि कभी वह अपना राज्य पुनः प्राप्त कर मास लंका मे रहकर आए हैं और वहा के पुरातत्व विभाग लेगा तो इस जन विहार को नेस्तनाबूद कर देगा। सयोग सोपकिया किन्त उन्हें यही बताया गया से कुछ समय बाद वह सफल हो गया और अपने राज्य
किसी भी जैन मन्दिर, मूर्ति या कलाकृति के कोई अवशेष पर पूनः स्थापित हो गया; ८८-७७ ई०पू० में १२ वर्ष बाब र नही उस्त लेखक उसका यह शासन रहा उस अवधि में वट्टगामिनी ने उक्त का अनुमान है कि जैनों का जीवनदर्शन, आचार के कठोर एवं अन्य अनेक जैन मन्दिरों एवं विहारों को जो उसके नियम तथा दिगम्बरत्व ही श्रीलका में जैनधर्म के प्रसार में पूर्ववर्ती राजाओं ने वावाए या संरक्षित रखे थे, नष्ट करवा बाधक रहे हैं। कर उसके स्थान म बौद्ध मन्दिर और बिहार बनवाये। हमारे विचार से यह अनुमान किसी अंश तक सत्य हो इसी राजा के समय में सिहल में बोड त्रिपिटक के संकलन सकता है. सर्वथा नहीं। स्वयं भारतवर्ष के प्रायः प्रत्येक लिपिबद्ध करने का सर्वप्रथम प्रयास किया गया। कुछ
(शेष पृ०८ पर)
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जैनधर्म की प्राचीनता व ऐतिहासिकता
Dii. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच जैन धर्म सबसे प्राचीन जीवन्त परम्परा है। इसकी तथा स्वरूपाचरण में ही अधिकतर मग्न रहते हैं, वे आचार्य प्राचीनता का सबसे बड़ा प्रमाण इम धर्म का अनादि-अनि कहलाते हैं । गृहस्थपना का त्याग कर, मुनि धर्म अंगीकार धन मंत्र है । अनादिनिधन मगल मन्त्र इस प्रकार है
कर निजस्वभाव साधन के द्वारा जो चार घातिको का णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं ।
क्षय कर देते हैं, वे पूर्ण वीतराग अर्हन्त कहे जाते हैं। णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं । सभी प्रकार के कर्म-कलकों से रहित सिद्ध भगवान होते णमो लोए सव्व साहूणं ॥
है। इस तरह मन्त्र में कहे गए पांच परमेष्ठियों के रूप में अर्थात्-लोक में सब अर्हन्तों को नमस्कार हो, सब जैन साधना का कृमिक वर्णन निहित है। सिद्धों को नमस्कार हो, सब आचार्यों को नमस्कार हो, जैनधर्म के अनुसार लोक अकृतिम है, अनादि-अनिधन सब उपाध्यायों को नमस्कार हो, सब साधुओं को नमस्कार है। इस विश्व में पाई जाने वाली सभी वस्तुएं अनादि हो।
काल से हैं और अनन्त काल तक बनी रहेंगी। इसलिए इस मन्त्र में जैन धर्म, संस्कृति-साधना, इतिहास सब ६८ वर्गों की रचना वाले प्राकृत भाषा का यह मन्त्र भले कुछ समाहित है । यद्यपि भाषा की दृष्टि से पैतीस अक्षरो ही द्रव्यश्रुत के रूप में पांच हजार वर्ष पुराना हो, किन्तु वाला यह मन्त्र प्राकृत भाषा में है, किन्तु इस में समस्त भावत के रूप में प्रत्येक तीर्थंकर के कल्पकाल में इसका श्रुतज्ञान की अक्षर संख्या निहित है, यह जिनवाणी का अस्तित्व रहता है। सार है। तत्त्वज्ञान भी इस मे समाया हुआ है । इस मन्त्र पौराणिक दृष्टि से काल की अखण्ड धारा में कमी का उच्चारण करने से धनात्मक और ऋणात्मक दोनो प्रकार विकास का समय वर्तता है और कभी पतन का समय की विद्यत शक्तियां उत्पन्न होती हैं, जिन से कायिक शक्ति आता है। यह काल-चक्र की भांति परिणमनशील रहता जाग्रत होती है। मन्त्र में पांच परम इष्टों अर्थात पूज्य, है। इसके दो विभाग या कल्प-काल माने गए हैं-उत्ससर्वोत्कृष्ण का स्मरण यानी उनके गुणों का स्मरण किया पिणी । और अबविणी जाता है। पूज्य परमात्मा की श्रेणी के माने गए है । जो कभी नीचे से ऊपर और फिर ऊपर से नीचे नियत क्रम में मिथ्यात्व और रागादिक को जीत लेते हैं, वे सम्यग्दृष्टि
धूमता रहता है, उसी प्रकार एक समय ऐसा आता है जब ज्ञानी पुरुष "एकदेशजिन" कहे गए हैं । अतः परमात्मा के
जगत उन्नतिशील होता है और एक समय ऐसा भी आता है गुणों का चिन्तन, मनन करने से मन विसुद्धता को प्राप्त जब सब तरह से अवनति की ओर झुकता जाता है। जैसे होता है। जिस समय हम निर्विकल्प-दशा में तत्वज्ञान का घड़ी की सुई छह संख्या तक नीचे की ओर, फिर छह तक शद्ध ज्ञान रूप से अनुभव करते हैं. उस समय जिनशासन, ऊपर की ओर चलती है, वैसे ही दोनों काल-विभाग छहयह मंगल मंत्र हमारी आत्मशुद्धि का साधन होता है । इस छह के वर्षों में निरन्तर घूमते रहते हैं। उनमें कम है। प्रकार इस मंगल मन्त्र में जिनशासन समाया हुआ है। इसी काल चक्र का नाम विकासवाद तथा ह्रासवाद है। अपने शद्वात्मस्वरूप स्वभाव को साधने वाले साधु होते हैं, उस्सपिणी के छह विभागों के नाम हैं-सुषमा-सुषमा, द्रव्य श्रुतज्ञान की विशिष्टता के साथ भाव श्रुतज्ञान की सुषमा, सुषमा-दुष्मा, दुषमा-सुषमा और दुष्मा-दुष्मा। इसी विशेषता को लिए उपाध्याय होते हैं और जो सष में नायक प्रकार जब काल-चक्र घूमकर सुख से दुख की ओर बाता
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बनेकान्त
है, तब अवसर्पिणी काल होता है। इसके भी छह विभाग भगवान वृषभदेव के एक सौ पुत्र उत्पन्न दुए। उनमें किए गए हैं। दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल बनता सबसे बड़े सहयोगी भरत थे। उनके नाम पर इस देश को है। इन दोनों कल्पों की अवधि लाखो वर्षों की होती है। भारतवर्ष कहते हैं। "अग्निपुराण" में भी यही उल्लेख है इस समय दुषमा या दु:खम नामक पाँचवा अवसर्पिणी कि ऋषम और मरुदेवी के पुत्र भरत के नाम से यह काल चल रहा है।
भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ। "ब्रह्मण्डपुराण" और विष्णुपुराण" पुराणों में प्रारम्भ के दो कालों को भोग भूमिकाल में ऋषम को राजाओं में श्रेष्ठ, सभी क्षत्रियों का पूर्वज कहा गया है। इन कालों मे आधुनिक ग्राम- सभ्यता या और भरत आदि सौ पुत्रो का जनक कहा गया है। नगर-सभ्यता नही थी। लोगो की आवश्यकताएं बिना "विष्णुपुराण" के अनुसार महात्मा नाभि और मरुदेवी से श्रम किए कल्पवृक्षो से पूर्ण हो जाती थी। कल्पक्ष दस अतिशय कान्तिमान ऋषभ नामक पुत्र हुआ। ऋषभ से तरह के थे-मद्यांग, तूर्याग, विभूषणांग, स्रगग, ज्योतिरंग, भरत का जन्म हुआ। वे एक सौ पुत्रो मे सबसे बड़े थे। दीपांग, गहांग, भोजनांग, पत्रांग और वस्त्रांग । उसयुग में पिता ने वन जाते समय राज्य भरत को सौप दिया था। मनुष्य परिवार बना कर नही रहता था । लोग खेती नहीं प्रतापी राजा भरत के नाम से यह हिमवर्ष भारतवर्ष के करते थे। कल्पवृक्षों से घर-मकान, भोजन-वस्त्रादि प्राप्त नाम से विश्रुत हुआ। "मार्कण्डेपुराण" [५०,३९-४१] मे हो जाते थे। भाई-बहन का जन्म युगल रूप मे होता था। कहा गया है-ससार से विरक्त होकर ऋषभ ने हिमवान अपना अंगठा चूस-चूस कर वे ४६ दिनों मे तरुण हो जाते पर्वत की दक्षिण दिशा का भूमि-भाग भरत को सौंप दिया थे। उन में परस्पर अनायास विवाह हो जाता था । भोग जो भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हो गया। "कूर्मपुराण" भूमि की यह व्यवस्था लाखों वर्षों तक चलती है। फिर, अग्निपुराण, वायुमहापुराण, गरुणपुराण, वाराहपुराण, तीसरे काल की समाप्ति होते-होते कल्पवृक्षों का प्रभाव लिंगपुराण तथा स्कन्दपुराण आदि में भी लगभग समान क्रमशः क्षीण हो जाता है।
रूप से वर्णन मिलता है। एक दिन सहसा अस्त होते हुए सूर्य तथा चन्द्र को देख हिन्दू पुराणो में कहीं-कही जैनधर्म की विशिष्ट प्रशसा कर लोग भयभीत हो उठते हैं । प्रथम कुलकर उन्हें ग्रह- की गई है। यहां तक कहा गया है कि जैनधर्म सनातन है, नक्षत्रों की जानकारी देते हैं। इसप्रकार चौदह कुलकर पूज्य है, केवल जिन की ही पूजा करनी चाहिए। होते हैं जो आवश्यकतानुसार उन सब को शिक्षा देते है। "पद्मपुराण" [भूमिखन्ड ३७.१५] मे उल्लेख हैइन कुलकरों में अन्तिम कुलकर नाभिराय हए । नाभिराय जिनरूप विजानीहि सत्यधर्म कलेवरम् । का उल्लेख वैदिक तथा श्रमण दोनो परम्पराओ के ग्रन्थों मे अर्हन्तो देवता यत्र निर्ग्रन्थो दृश्यते गुरु. । समान रूप से मिलता है। नाभिराय भगवान ऋषभदेव के दया चैव परो धर्मस्तत्र मोक्ष प्रदृश्यते । पिता तथा कर्मभूमि की व्यवस्था के सूत्राधार थे । सस्कृत अर्थात् -जिनमुद्रा ही सत्यधर्म का कलेवर [शरीर] के शब्दकोशों में यह उल्लेख है कि जिस प्रकार चक्र के है। जिसके देवता अहंन्त हों, निर्ग्रन्थ जिसके गुरु हो और मध्य में नाभि अर्थात् कीली मुख्य होती है, इसी प्रकार वे जो स्वयं दया रूप ही है, वही उत्कृष्ट धर्म है और उससे क्षत्रिय राजाओं में मुख्य थे। उनके नाम पर सुदीर्घ मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्राचीन काल में इस देश का नाम अजनाभवर्ष था। "नगरपुराण" में कहा गया है-कृतयुग में दश नाभिराय अत्यन्त प्रतापी राजा थे। आगे चलकर उनके ब्राह्मणों को भोजन कराने का जो फल है, कलियुग में वही पुत्र ऋषभ या वृषभ आदि तीर्थकर हुए। ऋषभ के पुत्र फल अर्हन्तभक्त मुनि का भोजन कराने का है। भरत चक्रवती के नाम पर इस देश का नाम भारत वर्ष पुराणों में ही नही, वेदों में भी जैनधर्म के चौबीस पड़ा। हिन्दू पुराणों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है। "यजुर्वेद" (अ० २५, "श्रीमद्भागवत" में [५।४) ८६में कहा गया है- म० १६, अष्ट ६१, अ०६, वर्ग १) में उल्लेख है
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जैनधर्म की प्राचीनता व ऐतिहासिकता
"ओम् ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वशं यज्ञेषु नग्नं परमं पुरातात्त्विक दृष्टि से सिन्धु घाटी के उत्खनन से माहसंस्तुतं वरं शत्रु जयंतं पशुरिन्द्रमाहतिरिति स्वाहा। प्राप्त मुद्राओं तथा मूर्तियों पर अंकित वृषभ से यह
ओम् त्रातारमिन्द्र हवे शत्रमजितं तद्वद्धमानपुरहूतमिन्द्र प्रमाणित होता है कि शवधर्म की भांति जैनधर्म भी ताम्र माहरिति स्वाहा । ......... शान्त्यर्थमनुविधीयते सो युगीन सिन्धु सभ्यता के साथ फल रहा था। सिन्धु स्माक अरिष्टनेमिः स्वाहा।"
घाटी से प्राप्त मोहरों पर कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित मूर्तियां इसमे ऋषभदेव, सुपार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ठीक वैसी हैं, जैसी कि मथुरा म्यूजियम की दूसरी शती वर्द्धमान इन चार तीर्थंकरों की पूजा की गई है। "ऋग्वेद" की कायोत्सर्ग मुद्रा मे स्थित ऋषभदेव की मूति है । सिन्धु के कई मन्त्रों में ऋषभदेव का "वृषभ" रूप से और घाटी की मूर्ति की शैली इससे बहुत कुछ समानता लिए नेमिनाथ का "अरिष्टनेमि" शब्द से स्तुति-गान किया गया हुए है । इतिहास के सुप्रसिद्ध विद्वान् डा. राधाकुमुद है। इससे अत्यन्त स्पष्ट है कि साहित्यक, सांस्कृतिक, मुकर्जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिन्दू सभ्यता" में लिखते पौराणिक व ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन है-"श्री चन्दा ने ६ अन्य मोहरो पर खड़ी हुई मूर्तियों किंवा अनादि-अनिधन परम्परा है।
की ओर ध्यान दिलाया है । फलक १२ और ११८, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास "कृषि के देवताः ऋषभ" आकृति ७ (मार्शलकृत "मोहनजोदड़ो") कायोत्सर्ग नामक से प्रारम्भ होता है। सृष्टि के प्रारम्भ के दिनो मे खेती योगासन में खडे हुए देवताओ को सूचित करती है। यह क्यो और कैसे करनी चाहिए-इसका ज्ञान उन्होने समाज मुद्रा जैन योगियो की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती को दिया था। उनके ही समय मे अग्नि की उत्पत्ति हुई है, जैसे मथुरा सग्रहालय में स्थापित तीर्थकर श्री ऋषभदेव थी। समाज-व्यवस्था की सभी पद्धतियो का जन्म उनसे की मूति मे । ऋषभ का अर्थ है बैल जो आदिनाथ का प्रारम्भ हुआ। समाज की सभी मर्यादाए और नियम लक्षण है । मुहर संख्या एफ० जी० एच० फलक दो पर उन्होंने बनाए । उन्होने अपनी बडी पुत्री ब्राह्मी को अठारह अकित देवमूति मे एक बैल ही बना है । सम्भव है यह प्रकार की लिपियां सिखाई, आगे चलकर ब्राह्मी के नाम ऋषभ का ही पूर्व रूप हो । यदि ऐसा हो तो शैव धर्म की पर "ब्राह्मीलिपि" प्रचलित हुई । श्री पी० सी० राय तरह जैनधर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चौधरी के अनुसार "जैन शास्त्रो द्वान यह प्रमाणित होता चला जाता है।" है कि ऋषभ देव ने जैनधर्म का प्रचार मगध (विहार) में जन साधारण का यह भ्रम है जो यह कहते हैं कि पाषाण-युम के शेष काल मे तथा कृपि-युग के आरम्भ में जैनधर्म कभी इस देश के बाहर नही गया । इतिहास मे किया था। उस प्राचीन काल मे मगधदेश शेष भारत से.. इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि मध्य एशिया से
नरनियापान का प्राचीन इतिहास लेकर सुदूर पूर्व देशो तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार रहा भी इस बात का साक्षी है ।" (जैनिज्म इन विहार, है। मेजर जनरल जे फाग, कर्नल जेम्स टारमादि कई
प्रारम्भिक प्राच्यविदो का अनुमान है कि जैनधर्म यूरोप जैन पुराणो के अनुसार ऋषभदेव अरबो (८२ हजार स्केन्डिनेविया जैसे दूरस्थ प्रदेशो मे तुर्की तथा ऊपरी मध्य वर्ष कम लगभग एक सागर) वर्ष पहले हुए थे। उनकी एशिया के क्षेत्रो तक पहुंच गया था। चौथी शती.ई०पू० पज्यता अत्यन्त प्राचीन है । बौद्ध दार्शनिक "न्यायविन्दु", में यूनानी सम्राट् सिकन्दर महान् इस देश के तम शिला "आर्यमंजूश्रीमूलकल्प" आदि ग्रन्थों में उनका सादर उल्लेख से कल्याण नामक जैन सन्त को अपने साथ बाबुल तक ने किया गया है। आचार्य शुभचन्द्र स्वयं "योगी-कल्लतर" गया था, जहां उन सन्त ने सल्लेखना ग्रहण कर समाधि के रूप में ऋषभदेव का स्मरण करते है
पूर्वक देहत्याग किया था। ईस्वी सन् के प्रारम्भ में भड़ोंच भवनाम्भोजमार्तण्डं धर्मामृतपयोधरम् । के श्रमण आचार्य का रोम जाना और वहीं समाधि करने का योगिकल्पतरूं नौमि देवदेवं वृषध्वज ॥ उल्लेख पाया जाता है। दक्षिण एवं पूर्व में बृहत्तर भारत
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अने
के सिंहल, वर्मा, स्याम, कम्बोज, चम्पा, श्री विजय, नवद्वीप आदि प्रदेशों से इस देश का जो सांस्कृतिक सम्बन्ध बना रहा है, उसके मूल मे जैन व्यापारियों एवं विद्वानों का योग अवश्य रहा है। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा जब लका में धर्म प्रचार के लिए गए, तो उन्होंने वहां देखा कि निर्ग्रन्थ सघ पहले से ही उस देश मे स्थापित है । पालि ग्रन्थों के अनुसार लंका में बौद्ध धर्म की स्थापना हो जाने के पश्चात ४४ ई० पूर्व तक वहां निर्ग्रन्थों के आश्रम विद्यमान थे। "महावंश" के अनुसार तत्कालीन राजा ने निर्ग्रन्थों के लिए भी आश्रम बनवाए । डा० जैन
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के अनुसार मध्य एशिया की फरात नदी की घाटी के ऊपरी भाग में एक भारतीय उपनिवेश ईसा पूर्व दूमरी शताब्दी में विद्यमान था । लगभग पाच सौ वर्ष पश्चात् पोप ग्रेगरी ने भयकर आक्रमण करके उसे ध्वस्त कर दिया था । अनुश्रुति है कि खेतान के उक्त भारतीय उपनिवेश की स्थापना का श्रेय मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र राजकुमार कुणाल को है। वह राजकुमार जैन धर्मावलम्बी था और उसका ही पुत्र प्रसिद्ध जैन सम्राट सम्प्रति था । मध्य एशिया में सम्भवत यह सर्वप्रथम भारतीय उपनिवेश था । फिर तो चौथी शती ई. के प्रारम्भ तक काशगर से लेकर चीन की सीमा पर्यन्त समस्त पूर्वी तुकिस्तान का प्रायः ( पृ० ४ का शेषाश)
भाग में अनेक लमूह सामिबहारी पाये जाते है, इतर धर्मों वाले नग्न जैन मुनियो के प्रति विरक्ति भी प्रदर्शित करते है, तथावि प्रायः सर्वत्र ही जैनधर्म, उसके अनुयायी एव धर्मातन आदि अल्पाधिक पाये जाते रहे हैं। दिगम्बर मुनियों का प्राय निर्बाध बिहार भी सर्व होता रहा है। शुद्ध सात्विक अहिंसक जैन विचारधारा और जैनचर्या, विशेषकर जैन साधुओ की चर्या के नियमों की कठोरता अवश्य ही जिनधर्म के व्यापक प्रचार में बाधक रही है, किन्तु सर्वोपरि कारण इतर परम्पराओं के अनुयायियों का धार्मिक विद्वेष तथा उनके सत्ताधारी प्रभवदाताओं द्वारा किए गए भीषण धार्मिक अत्याचार ही हैं । लका का वट्टगामिनी, पांड्यमदुरा का सम्बदर, पल्लवकांची का अय्यर और मद्रन्द्र वर्मन रामानुज के श्रीवैष्णव, बासव के लिंगायत या वीरव किस किसने जैनधर्म का उच्छेद करने के मानुषिक प्रयास नहीं किए। अन्य विरोधी शक्तियां एवं विविध कारण भी कार्य करते रहे।
यों, लगभग ५० वर्ष पूर्व स्व. ब्र. सीतल प्रसाद जो शंका गये थे, वहां उन्होंने कुछ काल निवास भी किया था,
पूर्णतया भारतीयकरण हो चुका था। उसके दक्षिणी भाग में शैलदेश ( काशगर), चौक्कुक (यारकुन्द), खोतग (खोतन), और चन्द (शान-शान ) नाम के तथा उत्तरी भाग में भस्म, कुचि, अग्नि देश और काओ चंग नाम के भारतीय संस्कृति के महान प्रसार केंद्र थे। इन उपनिवेशों की स्थापना के पश्चात चौथी से सातवीं शताब्दी तक लगातार निर्द्वन्यो तथा बौद्ध भिक्षुओं का आवागमन होता रहा है। कुछ जैन मूर्तियां एवं अन्य जैन अवशेष भी वहां यत्र-तत्र प्राप्त हुए है । अनेक प्राच्यविदों एवं पुरातत्त्वज्ञों का मत है कि प्राचीन काल में जैनधर्म भी उन प्रदेशों में अवश्य पहुंचा था। तिब्बत, कपिशा (अफगानिस्तान), गान्धार (तक्षशिला और कन्दहार), ईरान, ईराक, अरब,
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तुर्री, मध्य एशिया आदि मे जैनधर्म के किसी-किसी रूप में पहुचने के चिन्ह प्राप्त होते है । इतना नहीं, चीन देश के "ताओ" आदि प्राचीन धर्मरूपो पर जैनधर्म का प्रभाव लक्षित होता है। चीन के उत्तरकालीन साहित्य पर जैनधर्म की छाप तथा जैन प्रभाव के सूचक सकेत मिलते है । प्राचीन यूनान के पाइथागोरस एव एपोलोनियस जैसे शाकाहारी व आत्मवादी दार्शनिकों पर भी जैनधर्म का प्रभाव स्पष्ट रहा है और यह तब तक सभव नही है, जब तक वे किसी जैन साधु सन्त के सम्पर्क मे न आए हो। इस प्रकार जैनधर्म की प्राचीनता व ऐतिहासिकता के सूत्र देश-देशांतरी मे कई रूपों में उपलब्ध होते है जिनका भलीभांति अध्ययन व विवेचन इस युग की मुख्य माग कही जा सकती है। 00 और जैनधर्म एव दर्शन पर सार्वजनिक भाषण भी दिये थे। व्यापारार्थ भी छुट-पुट जैन वहां जाते-आते रहते है, शायद कुछ एक वहां बस भी गये है बौद्ध, ईसाई, मुसल मानों आदि जैसा मिशन से धर्म प्रचार तो जैनो मे प्राय: कभी रहा नही वह उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। एक बौद्ध देश का पुरातत्व विभाग, वहा प्रतिद्वन्द्वी जैन धर्म का कोई पुरातत्त्व मिलता भी है तो उसमे को दिलचस्पी क्यो लेने लगा -- उसके कार्यकर्त्ता ईमानदार भी हो तो अनभिज्ञता तथा जैन एवं बौद्ध परम्पराओ के अनेक सादृश्यों के कारण जैन पुरावशेषों को चीन्हना भी प्रायः दुष्कर है। फिर प्रायः गत २००० वर्ष मे ध्वस ही तो हुआ है, कोई भी जैन निर्माण शायद नही हुआ । जो जैन अवशेष रहे भी होगे, उन्हें बौद्ध मन्दिरो विहारो आदि में तथा जनता द्वारा अपने भवनों आदि में इस्तेमाल कर लिया होगा। इसके अतिरिक्त किसी विशेषज्ञ टीम द्वारा श्रीलंका का जैनावशेषो एव चिन्हो को खोजने के लिए कोई सर्वेक्षण भी नही हुआ है। इस दिशा मे कोई ठोस प्रयास किया जाय तो बहुत कुछ सामग्री मिलने की सम्भावना है। 00
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गुप्त सम्राट् रामगुप्त जैनधर्मानुरागी था ?
दुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल
गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना यद्यपि आधुनिक प्रसिद्ध इतिहासकार डा0 अल्टेकर जाता है । इस तण मे चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्र गुप्त, राम- और डा0 मजूमदार ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "The Vakataगुप्त (काचगुप्त) उसका भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त ka Gupta age" मैं स्पष्ट रूप से निषेध कर दिया है। आदि बड़े प्रतापी और बलशाली बुद्धिमान शासक हुए थे। कि जब तक इस तरह के कोई अभिलेखात्मक प्रमाण
अकेले चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही आने सैन्यबल एवं उपलब्ध नहीं हो जाते तब तक इस चर्चा को यही रोक बुद्धिकौशल से शको एव हूणो जैसे महान विजेताओं के दात दिया जावे । सच्चाई तो यह है कि श्री विशाखदत्त अपने खट्टे कर दिए थे । गुप्तकाल अपने साहित्य, संगीत, शिक्षा चरित्रनायक चन्द्रगुप्त से इतने अधिक प्रभावित दिखाई कला आदि की अभिवृद्धि के लिए इतिहास में विख्यात है।
देते है कि वे उसकी छवि की उज्जवलता तब तक नही
उभार पाते हैं जब तक कि उसके अनुज की हीनता न इसी वश के सस्थापक सम्राट चन्द्र गुप्त प्रथम के पुत्र
प्रकट कर दें, इसीलिए साहित्य की ओट मे वे रामगुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के दो पुत्र हुए प्रथम रामगुप्त जो कात्र
को कायर और डरपोक लिख गए। गुप्त के नाम से भी प्रसिद्ध था द्वितीय चन्द्रगुप्त द्वितीय जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी
यथार्थता यह है कि जब देवी ध्र वस्वामिनी का चन्द्र गुप्त का बड़ा भाई रामगुप्त ( काचगुप्त ) था
स्वयबर हुआ तो वह चन्द्रगुप्त द्वितीय पर आसक्त थी Lजिसे जन श्रुतियो ने इतिहास मे कायर और डरपोक
और उसी को वरण करना चाहती थी पर राजगद्दी पर प्रसिद्ध कर दिया और जो शको से पराजित हो अपनी पत्नी
उस समय रामगुप्त (काच गुप्त) विराजमान था, अतः ध्र व स्वामिनी को शको को समर्पित करने के लिए तैयार
उसका (ध व देवी) विवाह राम गुप्त से कर दिया गया, हो गया था पर इसका अनुज चन्द्रगुप्त द्वितीय यह सब
बस इसी तीखातीखी मे रामगुप्त को बदनाम करने का कुछ सहन न कर सका और उसने गुप्तवश की मर्यादा
अवसर मिल गया और कालान्तर में 'देवी चन्द्रगुप्तम्' सरक्षण हेदु स्वय ध्रुवस्वामिनी का रूप धारण कर शक
के रूप में विशाखदत्त इस ऐतिहासिक मूठ को तथ्य के राज को पराजित किया था और अपने कुल की मर्यादा प्रर्वतक सिद्ध हुए। जिससे राम गुप्त हीन चरित्र और बचाई थी।
चन्द्रगुप्त द्वितीय श्रेष्ठ चरित्र वाला चित्रित हुआ और
विवाह की ईर्ष्या से प्रज्जवलित चन्द्रगुप्त ने अपने अग्रज रामगुप्त को कायर और डरपोक सिद्ध करने के पीछे
रामगुप्त (काचगुप्त) का बध कर दिया जिससे आगे के एक बड़ा भारी एतिहासिक षड्यन्त्र रहा है जो इतिहास के
लिए कोई प्रमाण ही अविशिष्ट न रहें। विद्वानो को अब अनुभव होने लगा है। क्योकि रामगुप्त की कायरता व डरपोकपने को सिद्ध करने के लिए अभी
सन् १९५० मे विदिशा से प्राप्त सिक्को में राम गुप्त काई ठोस ऐतिहासिक अभिलेख उपलब्ध नहीं हुए है, सब का चित्र अकित है और उसे 'महाराजाधिराज' की पदवी से पहले ११ वी सदी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटककार श्री से अलकृत किया गया है । सन् १९६५ में विदिशा के विशाखदत्त ने 'देवी चन्द्रगुप्तम्' नाटक लिखकर इस दुजना गांव मे बुलडोजर चलाते हुए जमीन से खदाई में षड्यत्र को उभारा है । और राम गुप्त को पृष्ठ भूमि में तीन तीर्थकरो चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त और पप प्रभु की प्रतिधकेल दिया ।
माएं उपलब्ध हुई हैं यद्यपि हम प्रतिमानों में मांछन (चिन्ह)
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१०, वर्ष ३६, कि० ४
अनेकान्त
नहीं उकेरे जाते थे, चिन्ह उकेरने की परम्परा बाद में उपर्युक्त तीनो मूर्ति लेखो की भाषा एक सी ही है प्रचलित हुई है। इन तीनो 'तिमाओं को, जिनका मूल केवल चन्द्र प्रभु भगवान के मूर्ति लेख को छोड़कर शेष दो निम्न प्रकार है, महाराजाधिराज श्री रामगुप्त के उपदेश लेख खन्डित हैं । पर यह सुनिश्चित है कि ये प्रतिमाएं से गोलकान्त के पुत्र चेल ने सर्पसन के शिष्य और उनके महाराजाधिराज रामगुप्त के उपदेश से प्रतिष्ठत कराई गई प्रशिष्य द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई थी - तीनो मूर्ति लेख थी इससे सम्राट रामगुप्त का जैन धर्म के प्रति अनुराग निम्न प्रकार है :
और सद्भाव स्पष्ट प्रतीत होता है। हो सकता है जैनधर्म
के प्रति अनुराग की यह भावना वंश परम्परा मे ही चली श्री चन्द्रप्रभु की प्रतिमा
आ रही हो। १. भगवतोऽर्हत चन्द्रप्रभस्य प्रतिमयं कारिता गहाराजा
उपर्युक्त तथ्यो से सम्राट रामगुप्त की हीनता एव धिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिक चन्द्र
कायरता का सर्वथा निषेध हो जाता है । यह तो कोई क्षमणाचार्य क्षमण श्रमण प्रणिप्याचार्य सर्पसन क्षमण
राजनैतिक या ऐतिहासिक षड्यन्त्र रहा है जिसने रामगुप्त शिष्यस्य गोलक्यान्त्य सत्पुत्रस्य चेरलक्षमणस्यति ।।
की छवि धूमिल कर दी और यह षड्यत्र ११ वी सदी के श्री पुष्पदन्त की प्रतिमा
बाद प्रचलित हुआ जिसे परवर्ती विद्वानो ने आंख मीच
कर स्वीकार लिया। ११ वी सदी से पूर्व ऐसा कोई २. भगवतोऽर्हत. पुष्पदन्तस्य प्रथमय कारिता महाराजा
उल्लेख नही मिलता है और अब विदिशा से प्राप्त मतियो धिराज थी रामगुप्तेन् उपदेशात् पाणिपाधिक चन्द्र
एव सिक्को से इस षड्यत्र का सर्वथा भडाफोड़ ही हो क्षमताचार्य क्षमण श्रमण प्रशिष्य ..... ........
जाता है और रामगुप्त एक श्रेष्ठ गुप्त सम्राट सिद्ध होता अपूर्ण ।
है। निष्पक्ष इतिहासकारों को इस तथ्य की पुष्टि कर श्री पद्मप्रभु को प्रतिमा
प्राचीन षड्यन्त्र का सर्वथा निराकरण करना कराना ३. भगवतोऽर्हत: पद्मप्रभस्य प्रतिमय कारिता महाराजा- चाहिए । इतिहास मे प्राय. भूलें प्रचलित हो जाती है जो धिराज श्री राम गुप्तेन उपदेत पाणि पाविक...... कालान्तर में स्पष्ट प्रमाण मिलने पर सुधार ली जाती है। अपूर्ण ।
अत. इन भूल को भी सुधारना चाहिए। उपर्युक्त प्रमिमाए विदिशा के संग्रहालय में सुरक्षति
विश्वामनगर-शाहदरा दिल्ली-११००३२
'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरयागज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री रत्नत्रयधारी जैन, ८ जनपथ लेन, नई दिल्ली राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२
मैं रत्नत्रयधारी जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है।
रत्नत्रयषारी जैन
प्रकाशक
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क्षणभंगवाद और अनेकान्त
अशोककुमार जैन एम० ए०, शास्त्री
क्षणभंगवाद बौद्धदर्शन का सबसे बड़ा सिद्धान्त है। वस्तु न तो युगपद् अर्थ क्रिया करती है ओर न क्रम से । संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक हैं वे प्रतिक्षण बदलते रहते नित्य वस्तु यदि युगपद् अर्थ क्रिया करती है तो संसार के हैं, विश्व में कुछ भी स्थिर नही है, चारो ओर परिवर्तन समस्त पदार्थों को एक साथ, एक समय में ही उत्सन्न ही परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, हमें अपने शरीर पर ही हो जाना चाहिए और ऐमा होने पर आगे के समय में विश्वास नहीं है, जीवन का कोई ठिकाना नहीं है, इन्यादि निन्य वस्तु को कुछ भी काम करने को शेष नही बचेगा। भावनाओ के कारण क्षणभगवाद का आविर्भाव हुआ है। अत. वह अर्थ क्रिया के अभाव मे अवस्तु हो जायगी। इस वैसे तो प्रत्येक दर्शन (भग) नाश को मानता है, किन्तु प्रकार नित्य मे युगपद् अर्थ क्रिया नहीं बनती है। नित्य बौद्ध दर्शन की यह विशेषता है कि कोई भी वस्तु एक क्षण वस्तु क्रम से भी अर्थ क्रिया नहीं कर सकती तो यह प्रश्न ही ठहरती है और दूसरे क्षण मे वह वही नही रहती, किन्तु उपस्थित होता है कि महकारी कारण उसमे कुछ विशेषता दूसरी हो जाती है अर्थात् वस्तु का प्रत्येक क्षण मे स्वा. उत्पन्न करते है या नही ? यदि सहकारी कारण नित्य में भाविक नाश होता रहता है । तर्क के आधार पर क्षणि- कुछ विशेषता उत्पन्न करते है तो वह नित्य नहीं रह कत्व की सिद्धि इस प्रकार की गई है-'सर्व क्षणिक सत्वात' सकती और यदि सहकारी कारण नित्य में कुछ भी अर्थात सब पदार्थ क्षणिक है, सत् होने से । सत् वह है जो विशेषता उत्पन्न नहीं करते तो सहकारी कारणो के मिलने अर्य क्रिया (कुछ काम) करे।' बौद्ध कह रहे हैं कि इस ढंग पर भी वह पहले की तरह कार्य नहीं कर सकेगी। दूसरी की कई व्याप्तियां बनी हुई है कि जो जो सत् है वे सभी बात यह भी है कि नित्य स्वयं समर्थ है अत: उसे सहकारी क्षणिक हैं अर्थात् नित्य नही है अथवा जो जो सत् है कारणो की कोई अपेक्षा भी नही होगी फिर क्यों न बढ़ वह सभी प्रकारों करके एक दूसरे से विलक्षण हैं अर्थात् एक गमय मे ही सब काम कर देगी। इस प्रकार नित्य कोई भी किसी के सदृश नहीं है । उससे अतिरिक्त अन्य पदार्थ मे न नो युगपद् अर्थ किया हो सकती है और न स्थानों में सतपने का व्याघात हो जाने से अर्थ क्रिया की क्रम से । अर्थ क्रिया के अभाव मे वह सत् भी नही कहला क्षति है । सम्पूर्ण सत् पदार्थ क्षण मे समूल चूल नाश हो सकता इसलिए जो गन् है वह नियम से क्षणिक हैं। जाना स्वभाव वाले है यानी एक क्षण मे ही उत्पन होकर क्षणिक ही अर्थ क्रिया करता है। यही क्षणभगवाद है। आत्मलाभ करते हुए द्वितीय क्षण में बिना कारण ही वन क्षणभग के कारण ही बोजन विनाश को नितक मानता को प्राप्त हो जाते हैं तथा प्रतिक्षण नवीन-नवीन उत्पन्न हो है। प्रत्येक क्षण मे चिनाश दय होता है किसी दूसरे के रहे पदार्थ सर्व ही प्रकारों से परस्पर मे विलक्षण है। कोई द्वारा नही।' घट का जो विनाश दण्ड के द्वारा होता मा किसी के सदृश नही । सूर्य चन्द्रमा, आत्मा, मर्वज्ञप्रत्यक्ष, देखा जाता है वह घट का विनाश नही, किन्तु कपाल की परमात्मा आदि पदार्थों के भी उत्तर-उत्तर होने वाले उत्पत्ति है। असंख्य परिणाम सदश नहीं हैं, विभिन्न है, इस प्रकार, उत्तरपक्ष- बौदों वे नमार सर्वपदार्थ क्षणिक बोट मानते हैं। अब यह देखना है कि अर्थ कि निम को पी पदार्थ दोक्षण नही हन्ता, एक क्षण ही पदार्थ पदार्थ में हो सकती है या नही । रौद्ध दर्शन का कहना कि का अस्तित्व माना है। इस प्रकार का अनित्यत्वकान्त नित्य वस्त में अर्थ क्रिया हो ही नही सकती की कि निय प्रत्यक्ष से मिशनही होता है। प्ररक्ष से तो स्थिर अर्थ
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१२, बर्ष १०
बनेका की प्रतिपत्ति होती है बौद्ध यदि अनित्यत्वैकान्त की सिद्धि न्याश्रय दोष आता है क्योंकि अविनाभाव का ज्ञान हो अनुमान से करना चाहें तो बौद्धों के यहाँ अनुमान भी जाने पर अनुमान होगा और अनुमान के उत्पन्न होने पर नहीं बन सकता है। साध्य और साधन में अविनाभाव अविनाभाव का ज्ञान होगा। इस प्रकार बौखों के यहां सम्बन्ध का ज्ञान होने पर साधन के ज्ञान से जो साध्य किसी भी प्रमाण से अविनाभाव का ज्ञान न हो सकने के का ज्ञान होता है वह नुअमान है। घूम साधन है और कारण अनुमान प्रमाण सिद्ध नहीं होता है इसलिए अनुमान वह्नि साध्य है। उनमें असा ज्ञान करना कि जहाँ-जहाँ प्रमाण से भी अनित्यत्वकान्त की सिद्धि नही होती है। धम होता है वहाँ-वहाँ वह्नि होती है और जहाँ वह्नि क्षणिकात्मबाद मे हेतु बनता ही नहीं है क्योकि हेतु नही होती वहां धूम भी नही होता इस प्रकार के ज्ञान का
का
ही
को यदि सत् रूप माना जाय-सत् रूप ही पूर्वचित्तक्षण नाम अविनाभाव का ज्ञान है। घूम और वह्नि में अवि- उत्तरचित्तक्षण का देत है ऐमा स्वीकार किया जाय तो नाभाव का ज्ञान हो जाने पर पर्वत में धूम को देखकर इससे विभव का प्रसंग आता है अर्थात् एकक्षणवर्ती चित्त वहिका ज्ञान करना अनुमान है किन्तु बौद्धों के यहां में चित्तान्तर की उत्पत्ति होने पर उस चित्तान्तर के कार्य अविनाभाव का शान किसी प्रमाण से नहीं हो सकता है। की भी उसी क्षण उत्पत्ति होगी और इस तरह सकलचित्त प्रत्यक्ष से तो साध्य और साधन में अविनाभाब का ज्ञान और चत्तक्षणो के एकक्षणवर्ती हो जाने पर सकल जगत हो नही सकता क्यो कि बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक व्यापरीचित प्रकारो की यगपत मिति ii (अनिश्चयात्मक) मानते हैं । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा होने से जिसे क्षणिक कहा जाता है वह विभुत्व रूप ही है, अविनाभाव का ज्ञान कैसे संभव हो सकता है । जो किसी सर्व व्यापक ही है यह कैसे निवारण किया जा सकता है। बात का निश्चय ही नहीं करता । वह अविनयभाव को इसके सिवाय एकक्षणवर्ती सत् चित्त के पूर्वकाल तथा कैसे जानेगा। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के बाद एक सविकल्पक उत्तरकाल मे जगत चित्तशून्य ठहरता है और सन्तान प्रत्यक्ष भी होता है जिसको बौद्ध भ्रान्त मानते हैं। वह भी निर्वाणरूप जो विभवमोक्ष है वह सबके अनुपाय (बिना अविनयभाव का ज्ञान नहीं कर सकता । क्योंकि उसका प्रयत्न के ही) सिड होता है और इसलिए सत् हेतु नहीं विषय भी वही है जो निर्विकल्पक का विषय है जब निर्वि. बनता (इस दोष से बचने के लिए) यदि हेतु को असत् ही कल्पक अविनाभाव को नहीं जानता है तो सविकल्पक को कहा जाय तो अकस्मात् विना किसी कारण के ही) कार्योकैसे जान सकता है। दूसरी बात यह भी है कि प्रत्यक्ष त्पत्ति का प्रसग आयेगा और इसलिए असत् हेतु भी नहीं पास के अर्थ को ही जानता है। उसमें इतनी समर्थ्य नहीं बनता। यदि पदार्थ को प्रलयस्वभावरूप आकस्मिक माना है कि वह संसार के समस्त साध्य ओर साधनों का ज्ञान जाय-यह कहा जाय कि जिस प्रकार बौद्ध मतानुसार कर सके अतः प्रत्यक्ष के द्वारा अबिनाभाव का ज्ञान सभव बिना किसी दूसरे कारण के ही प्रलय (विनाश) आकस्मिक नही है।
होता है, पदार्थ प्रलयस्वभावरूप है उसी प्रकार कार्य का अनुमान के द्वारा भी अविनाभाव का ज्ञान संभव नही उत्पादन भी बिना कारण के ही आकस्मिक होता है तो है 'पर्वतोऽयं वह्निमान धूमवत्वात्' इस अनुभान मे जो इससे कृतकर्म के भोग का प्रणाश ठहरेगा-पूर्वचित्त न जा अविनाभाव है उमका ज्ञान इसी अनुमान से होगा या शुभ अथवा अशुभ कर्म किये उसके फल का भोगी वह न दूसरे अनुमान से यदि दूसरे अनुमान से इस अनुमान के रहेगा और इससे किये हुए कर्म को करने वाले के लिए अविनाभाव का जान होगा तो दूसरे अनुमान में अविनय- निष्फल कहना होगा और अकृत कर्म के फल को भोगने भाव का ज्ञान जीसरे से और तीसरे में अविनाभाव का का प्रसग आयगा जिस उत्तरभावी चित्त ने कर्म किया ही शान चौथे "नुमान से होगा इस प्रकार अनवस्था दूषण नही उसे अपने पूर्वचित्त द्वारा किये हुये कर्म का फल या जाता है। यदि इसी अनुमान से इस अज्ञान के अवि- भोगना पड़ेगा क्योंकि क्षणिकात्मवाद मे कोई भी कर्म की नाभाव का ज्ञान किया जाता है तो ऐसा मानने में अन्यो- कर्ता चित्त उत्तरक्षण में अवस्थित नहीं रहता किन्त कर
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सपनंगवार और मकान्त
की परम्परा चलती है। साथ ही कर्म भी असंवेतित-अवि- सार दो वस्तुएं एक ही ज्ञान का विषय हो नहीं सकती। चारित टहरेगा, क्योंकि जिस चित्त ने कार्य करने का एक ही क्षण तक ठहरने वाले और अंशो से रहित निरात्म विचार किया उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जाने भाव में भी क्रम और योमपच नहीं ठहरते हैं तथा अपने से और विचार न करने वाले उत्तरवर्ती चित्त के द्वारा अर्थ क्रिया भी नही होती है अर्थात् कूटस्थ के समान नि:उसके सम्पन्न होने से उसे उत्तरवर्ती चित्त का अविचारित स्वभाव क्षणिक पदार्थ मे भी कम और योगाद्य तथा कार्य ही कहना होगा। पदार्थ के प्रलय स्वभावरूप क्षणिक अर्थक्रिया का होना विरुद्ध हो रहे हैं क्योंकि ये अनेकहोने पर कोई मार्ग भी युक्त नही रहेगा। क्षणिक एक धर्मात्मक पदार्थ में पाये जाते हैं जिस कारण वह बोडों का चित्त में बन्ध और मोक्ष भी नही बनते।' शास्ता और सत्व हेतु विपक्ष में वृत्ति होने से अनैकान्तिक (व्यभिचारी) शिष्यादि के स्वभाव-स्वरूप की भी कोई व्यवस्था नहीं है अर्थात् एकान्त साध्यवाद से विपरीत में वृत्ति कर रहा बनती।
वह हेतु विरुद्ध है।
बौद्धों की यह कल्पना भी उचित नही जान पड़ती
सभी प्रकार मूल से ही दूसरे क्षण मे नाश होने वाले
पदार्थ मे वास्तविक रूप से क्रम और अक्रम नही बनते कि अनेक वस्तुयें एक ही कार्य को जन्म देने में समर्थ हैं क्योंकि इन अनेक वस्तुओं में अनेकता रहती है जब कि
हैं। क्रम तो कालान्तरस्थायी पदार्थ में बनता है और इस अनेकता का प्रस्तुत कार्यगत एकता के साप विरोध
अक्रम यानी एक साथ कई कार्यों का करना भी कुछ देर है। कारण सामग्री की अगभूत सभी वस्तुओं पर निर्भर
तक ठहरने वाले पदार्थ मे सम्भवता है। तिस कारण रहते हुए अस्तित्व में आने वाला कार्य एक कैसे कहा जा
अक्रम के असम्भव होने पर ज्ञानमात्र हो जाना इस अपनी सकता है क्योकि एक वस्तु वह होती है जिसमे एक स्व
निज की अर्थक्रिया की भी भला कैसे व्यबस्था हो सकेगी? भावता रहती है जब कि अनेक बस्तुओ से उत्पन्न होने
जिससे कि उस सर्वथा क्षणिक से निवृत्ति को प्राप्त हो रहा वाली वस्तु में एकस्वभावता रह नहीं सकती। कारण- सत्ता सस्व हेतु अनेकान्तस्वरूप कथंचित् क्षणिक पदार्थ मे सामग्री की अंगभूत वस्तुएँ अनेक इसीलिए हैं कि उनके स्थिति को प्राप्त करके उस क्षणिकपन से विरुव नहीं स्वभाव परस्पर भिन्न है ऐसी दशा में इन्हीं (अनेक) होता।" सत्व हेतु से कथचित् क्षणिकपन और न्यारे-न्यारे वस्तुओं की सामथ्यं के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली वस्तु पदाथों में कथंचित् सदृश्यपना सिद्ध हो जाने से निर्वाध हो एकरूप कैसे हो सकती है। जो कार्य एकवस्तु की सामथ्य गई सदृशपन और एकपन को विषय करने वाली प्रत्यके फलस्वरूप उत्पन्न होता है वह किसी दूसरी वस्तु से भिशा नाम की प्रतीति पदार्थों के सर्वथा नित्यपन अथवा भी उत्पन्न हो यह संभव नही; क्योंकि उस दशा में उक्त क्षणिकपन के एकान्त को नष्ट कर देती है और पदार्थों दो वस्तुयें परस्पर अभिन्न हो जायेंगी और यदि ये वस्तुयें को उत्पाद, व्यय, धौव्यरूप परिणाम का साधन करा देती परस्पर भिन्न रहेंगी तो यह कार्य भी दो रूपों वाला हो है। ऐसे अनेकान्तरूप और परिणामी उस पदार्थ में भला जाएगा। किन्हीं वस्तुओं के सम्बन्ध में यह कहना कि वह प्रत्यभिज्ञान कैसे नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा। कसी कार्य विशेष को जन्म देने में वे सभी समर्थ तभी परिणाम नही होने वाले कूटस्थ और निरश एकान्त रक्तसंगत है जब इनमे से प्रत्येक वस्तु उक्त कार्यको अणिक पदार्थों की सिद्धि नहीं हो सकी है। कथंचित् नित्य, जन्म देने में समर्थ हो क्योंकि सबकी सामर्थ्य 'प्रत्येक की परिणामी, अनेकधर्मात्मक वस्तुभूत अर्थ मे प्रत्यभिज्ञान सामर्थ्य के बिना सभव नही। दो वस्तुओं को एक ही प्रमाण का विषयपना है।" ज्ञान का विषय बनाये बिना उनके बीच कार्यकारणभाव की कल्पना करना युक्तिसगत नहीं लेकिन बोडों के अनु
निकट जैन मन्दिर, बिजनौर (उ० प्र०)
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१४, ३६ कि०४
संदर्भ-सूची १.अर्थ क्रिया सामर्थ्य लक्षणत्वाद् वस्तुनः ।
बाकस्मिकेऽयं प्रलयस्वभावे मागों न -न्यायविन्दु पृ० १७
युक्ती वधकश्च न स्यात् ॥ २. पत्सतत्सर्व मणिकं सर्वव विलक्षणं ।
-युक्त्यनुशासन १४ ततोऽन्यत्र प्रतीषातात्मत्वस्याक्रियाक्षतेः ॥
८. वही-.१५ अर्थक्रिया क्षतिस्तत्रक्रमवृत्तिविरोधतः ।
९. वही-१७ तद्विरोधस्ततो नं शस्यान्यापेक्षा विधाततः ।। इतीय व्यापका दृष्टिनित्यत्वं हंति वस्तुनः ।
१०. प्रभूतानां च नैकत्र साध्वी सामर्थ्यकल्पना । सादृश्यं च ततः संज्ञा बाधिकेस्यपि दुर्घटम् ॥
तेषां प्रभुत भावेन तदेकत्व विरोधतः ।। क्षणप्रध्वंसिनः संतः सर्वथैव विलक्षणः ।
तान शेषान् प्रतीत्येह भवदेकं कथं भवेत् । इति व्याप्तेरसिद्धत्वादप्रकृप्टार्थशकिनाम् ॥
एकस्वभावमेकं यत् तत्तु नानेकभावतः ॥ तत्वार्थ श्लोक वार्तिकालकार, तृ० खंड पृ. २३०-३२
यतो भिन्नस्वभावत्वे सति तेषामनेकतः । ३. तस्मादनश्वरत्वे कदाचिदपि नाशायोगात, दृष्टत्वाच्च
तावत् सामर्थ्यजत्वे च कुतस्तस्यकरूपता ॥
यज्जायते प्रतीत्यक सामर्थ्य नान्यतो हि तत् । नाशस्य, नश्वरमेव तद्वस्तु स्वहेतोरुपजातमङ्गी कर्तव्यम् । तस्मादुत्पन्नमात्रमेव विनश्यति उत्पत्ति क्षण
तयोरभिन्नतापत्ते दे भेदस्तयोरपि । एवं सत्वात् ।
-तर्कभाषा पृ० १६
प्रत्येकं तस्य सद्भावे युक्तायुक्तएवभावता । ४. प्रो. उदयचन्द जैन : आप्तमीमांसा-तत्वदीपिका
न हि तत्सर्वं सामर्थ्य तत्प्रत्येकत्वबर्जितम् ।।
उभयोग्रहणभावे न तथाभावकल्पनम् । पु. ३० ।
तयोन्याय्य न चैकेन द्वयोर्ग्रहणमस्ति वः ॥ ५. प्रो. उदयचन्द जैन : आप्तमीमांसा तत्वदीपिका
हरिभद्र : शास्त्रवार्तासमुच्चय ३०६, ३००, ३०८, पृ. २६-६० ।
३०६, ३११, ३२१ । ६. नैवास्ति हेतु: क्षणिकात्मवादे, न सन्नमन्वा विभवादकस्मात् ।
११. क्षणिकेऽपि विरुध्येते भादेनशे क्रमाक्रमी। नाशोवर्यकक्षणता च दुष्टा,
स्वार्थ क्रिया च सत्वं च ततोऽनेकान्तवृत्तितत् ॥७॥
तत्वार्थ श्लोकवातिकालंकार पृ० २३३-३४ तृ० खड सन्तान-भिन्न क्षणयोरभावात् ॥
-युक्त्यनुशासन १३ १२ निहंति सर्वथैकांत साध्येत्परिणामिन । ७. कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगो स्याताम
भवेत्तम न भावे तत्प्रत्यभिज्ञा कथंचन ॥७॥ सञ्चेतितकर्म च स्यात् ।
तत्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकार पृ० २३४ खण्ड
मेरा यह वृढ़तम विश्वास हो गया है कि पनिक वर्ग ने पंडित वर्ग को बिल्कुल ही पराजित कर दिया है। यदि उनको कोई बात अपनी प्रकृति के अनकल न रुचे तब वे शीघ्र ही शास्त्र विहित पदार्थ को भी प्रग्या कहलाने की चेष्टा करते हैं।
-वर्णीवारणी २०-६-१९५१
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गतांक से आगे:
पावार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को देन
DO लालचन्द जैन, वैशाली
४. अत्ला के तीन भेद : बहरात्मा, अन्तरामा अब्याबाध, अनिन्द्रिय, अनुपम, पाप-पुण्य से युक्त, पुनरागमन और परमात्मा
से रहिन, नित्य, अचल और अनालम्ब है। आचार्य कुन्दआचार्य कुन्दकुन्द के मोस्वाहुड़ (मोक्षप्राभूत) मे कुन्द के पूर्व आत्मा के उपर्युक्त तीन भेदों का निरूपण आत्मा के तीन भेद उपलब्ध होते हैं -बहिरात्मा, अन्त. आचारांगादि अग साहित्य में भी उपलब्ध नही होता है। रात्मा और परमात्मा।' अत्मा के इस प्रकार के भेद कुन्द- ५. त्रिविध चेतना कुन्दाचार्य के पूर्ववर्ती जैन वाड्मय मे दृष्टि गोचर नही आत्मा चेतना रूप हे अर्थात् चेतना आत्मा का स्वरूप होते है । अतः यह भी उनकी एक अभूतपूर्व देन है। कुन्द- है। चेतना को अनुभूति, उपलब्धि और वेदना भी कहते हैं कुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अनुकरण कर आचार्य कुन्दकुन्द ने तीन प्रकार की चेतना का उल्लेख आत्मा के उपर्युक्त भेदो का विवेचन किया है।
किया है। चेतना के इस प्रकार के भेदो का उल्लेख अर्धबहिरात्मा का स्वरूप.-इन्द्रियो को आत्मा मागधी आगम में उपलब्ध नहीं है। आचार्य ने बतलाया मानना बहिरात्मा है। बाह्य पदार्थों में जिसका मन है कि आत्पा परिणामी है और वह चेतना रूप परिणमन आसक्त है, इन्द्रियरूपी द्वार से जो अपने स्वरूप से भ्रष्ट करता है। इस दृष्टि से चेतना निम्नाकित तीन प्रकार (च्युत) हो गया है, जो अपने शरीर को आत्मा मानना है की है। - और उसका ध्यान करता है, ऐमा मूढ दृष्टि वाला बहि- १) ज्ञान चेतना, २) कर्म चेतना, और ३) कर्मफल रात्मा कहलाता है। जो आवश्यक कर्म म रहित है, अन्त बतना । जल्प और बाह्मजल्प मे वर्तता है और न रहित है वह स्व-पर भेदपूर्वक जीवादि पदार्थों को जानना अर्थात् बहिरात्मा है।'
ज्ञानभाव रूप परिणमन करना ज्ञान चेतना है। आत्मा ने अन्तरात्मा-जो आत्मा का सकल्प करता है, आवश्यक (शुभ-अशुभ कार्य करते समय) जो भाव किए है वह भावकम से युक्त, जो जल्पो में वर्तता है, धर्म-ध्यान और शुक्ल- कर्म है, जो अनेक प्रकार के हैं। इसे कर्म चेतना कहते हैं, ध्यान मे परिणत है वह अन्तरात्मा कहलाता है। कर्मजन्य सुख-दुख का अनुभव करना कर्मफल चेतना है।"
परमात्मा–जो आत्मा कर्म कलक से विमुक्त है, मैल चेतना की अपेक्षा सम्पूर्ण जीवराशि उपर्युक्त तीन शरीर और इन्द्रियो से रहित है, केवलज्ञानमय है, विशुद्ध भागों में विभाजित है।" जिनके ज्ञानावरणादि समस्त कर्म है, परमपद मे स्थित है, परम जिन है, मोक्ष देने वाला नष्ट हो गये है और जो प्रमुख रूप से ज्ञानरूप परिणमन अविनाशी सिद्ध है, समस्त दोषों से रहित है, केवल शान करते हैं उनके ज्ञानचेतना होती है। यह चेतना केवलज्ञानी आदि परम वैभव से युक्त है परमात्मा कहलाता है। और सिद्धों के होती है। परमात्मा ज्ञानी, शिव, परमेष्ठि, सर्वज्ञ, विष्णु चतुमुंख जो जीव प्रमुख रूप से केवल कर्म-फलो का अनुभव तथा बुद्ध भी कहलाता है। परमतत्त्व जन्म, जरा और करते हैं वे कर्म-फल चेतना युक्त जीव कहलाते है । पृथ्वी.
ण से रहित है, उत्कृष्ट, अष्टकर्मों से वजित, शुद्ध ज्ञानादि काय आदि स्थावर जीवों के कर्मफल चेतना होती है। दो चार गुण रूप स्वभाव वाला, अक्षय, अविनाशी, अछेय, इन्द्रियादि स जीवो के कर्मचेतना होती है।
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१६ बर्ष ३६, कि०४
अनेकान्त ६. उपयोगवाद
रखता है उसके शुभोपयोग होता है।" यह उपयोग चतुर्थआचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार के ज्ञानाधिकार में गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक के जीवों के तारतम्यरूप उपयोग सिद्धान्त का जो विवेचन मिलता है वह आचारी- से होता है । शुभोपयोग से पुण्य का संचय होता है। गादि आगमों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। चेतना की शभोग्योग क. फल परिणति विशेष उपयोग कहलाता है। उपयोग चैतन्य को शुभांपयोग के प्रभाव से शुभोपयोगी जीव उत्तम तिर्यच छोडकर अन्यत्र नही रहता इसलिए उपयोग चैतन्य का उत्तम मनुष्य तथा उत्तम देव होता है और आयु पर्यन्त अन्वयी परिणाम कहलाता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने आगम अनेक प्रकार के उत्तम सुखों को भोगता है।" आचार्य ने ग्रन्थों की तरह आत्मा को उपयोग स्वरूप और ज्ञान-दर्शन यह भी कहा कि शुभोपयोग से युक्त आत्मा को स्वर्ग के रूप बतलाया है। लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के सखों की प्राप्ति होती है। परिणमन की अपेक्षा उपयोग के तीन भेद बतलाये है"
अशुभोग्योग (१) अशुभोपयोग, (२) शुभोपयोग, (३) शुद्धोपयोग ।
अशुभोपयोग अशुभ-भावो अर्थात् मोह, द्वेष और अप्रपचास्तिकाय और भाव पाहुड़ मे उन्होंने बतलाया है कि
शस्त राग से होता है। इन्द्रिय विषय स्पर्शनादि और भाव तीन प्रकार के होते है-(१) शुभ, (२) अशुभ और
क्रोधादि कषाय मे परिणत होना, मिथ्या शास्त्र सुनना, पर
के लिए इष्ट काम भोग की चिन्ता से युक्त होना, दृष्टों शुभ अशुभ अनुष्ठानों के करने से क्रमश. शुभ भाव
की संगत करना, और दुचर्या करना अर्थात् परनिन्दा और अशुभ भाव होते हैं। जब आत्मा शुभ और अशुभ
करना, हिंसादि पाप करने मे उग्र होना और उन्मार्गी अनुष्ठानो के विकल्पों से रहित निर्विकल्प रूप हो जाता
होना अर्थात् सर्वज्ञ कथित मार्ग से उल्टे मार्ग को अपनाना है तो उसके शुद्ध भाव होता है । अत: शुभ भाव रूप से
अशुभोपयोग कहलाता है।" परिणमन करने से आत्मा शुभोपयोगी, अशुभ भाव से युक्त
अशुभोपयोग अशुभ परिणामो से होता है। अत: यह होने से अशुभोपयोग वाला और शुद्ध भावो से युक्त होने से
पाप का कारण है।" अशुभोपयोग से युक्त आत्मा कुमनुष्य आत्मा शुद्धोपयोगी कहलाता हैं।" शुभ, अशुभ और शुद्ध
तिर्यच और नारकी होकर अनन्त दुखो से दुखित होकर रूप अनुष्ठान करने से होने वाले शुभोपयोग, अशुभोपयोग
ससार में भ्रमण करता रहता है।" प्रवचनसार के टीका. और शुद्धोपयोग के स्वरूप, उनके फल और हेय-उपादेव का
कार के अनुसार मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र के गुणसूक्ष्म और विशद विवेचन प्रवचनसार में उपलब्ध है।
स्थानों के जीवो के अशुभोपयोग होता है।" १. शुभोपयोग
प्रशस्त राग शुभ भाव कहनाता है। पवास्तिकाय में शभापयोग और प्रशमोरयोग में अन्तर अरहन्त सिद्ध और साधुश्रो मे भक्ति रखना शुभ राग रूप अशभोपयोग और शुभोपयोग दोनो अशुद्ध अरिणामो धर्म में प्रवृत्ति होना तया गुरुओं के अनुकूल चलना प्रशस्त से होते है इसलिए ये दोनों अशुद्धोपयोग कहलाते हैं। राग कहा है। अत. प्रशस्तराग से युक्त होना शुभोपयोग लेकिन शुभोपयोग पुण्य का कारण है और इससे इन्द्र, नरेन्द्र कहलाता है। प्रवचनसार में उन्होंने शुभोपयोग का लक्षण चक्रवर्ती एव स्वों के सुखो तक उपलब्धि हो सकती है। बतलाते हुए कहा है कि देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करना, क्योकि शुभोपयोग शुभ अनुष्ठानों से होता है । अतः व्यवहार दान देना, अहिंसादि पांच महाव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत नय की अपेक्षा धर्म है। इसलिए शुभोपयोग उपादेय है। का निदोष रूप से पालन करना, उपवास आदि करना इसके विपरीत अशुभोपयोग अशुभ अशुभ अनुष्ठानों के शुभोपयोग कहलाता है।"शेयाधिकार में भी कहा है कि करने से होता है। इसलिए यह एक मात्र दुःख का कारण जो मरहन्त को जानता है, सिद्धों तथा अनगारों अर्थात् है। व्यवहार नय की दृष्टि से भी धर्म का अंश न होने के मुनियों के प्रति श्रया करता है और जीवों में अनुकम्पा कारण सर्वथा हेय है।"
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भाचार्य कुनकुन्द की न बर्शन को देन शुयोपयोग
शुद्धोपयोग ही उपादेय है ___ अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहना शुखोपयोग है। यद्यपि अशुभोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग उपादेय है। शुभोपयोग और अशुभोपयोग से रहित निर्विकल्प स्थिति
लेकिन शुभोपयोग भी संसार का कारणभूत होने के कारण शुद्धोपयोगी की है। जिस समय जीव पर-पदार्थों में न राग शुभोपयोग भी छोड़ने योग्य है। शुभोपयोग पुण्य उत्पन्न करता है और न देष करता है अर्थात् उससे सर्वथा उदासीन करता है, पुण्य सोने की बेड़ी के समान है, जो जीव को हो जाता है। और निर्विकल्प होकर शुद्ध आत्मा का
बन्धन में बांधता है।" अतः यह मोक्ष का साक्षात् कारण चिन्तन करने लगता है। यह मोह-शोभ-विहीन आत्मा की नहा है।" अशुभोपयोग की तरह शुभोपयोग से भी स्वाभा साम्य अवस्था ही शुद्धोपयोग है। कहा भी है-"अशुभ
विक सुख की प्राप्ति नहीं होती। इसके विपरीत शुभोपयोग से रहित और शुभोपयोग में राग न रखने वाला
योगजन्य सुख इन्द्रियजन्य, पराधीन, बाधायुक्त, कर्म-बन्धन (अशुभयोग और शुभोपयोग से रहित) और शुभ एवं अशुभ
का कारण, क्षयिक और विषम होने से दुःख रूप ही होना पदार्थों में मध्यस्थ स्व-पर-विवेकी जीव ज्ञान स्वरूप शुद्ध
है।" शुभोपयोगी विषयों में तृष्णा रखता हुआ उनमें रमण आत्मा का अनुभव करता है।"
करते हैं । विषय-जन्य सुखाभास है सुख नहीं । अनः मनुष्य शुद्धोपयोग को पद्मनन्दि ने साम्य, स्वस्वास्थ्य, समाधि
तिर्यच, नारकी और देव सभी देहजन्य दुःखों से पीड़ित रहते
हैं। अत: शुभोपयोग भी अशुभोपयोग की तरह त्यागने योग, चित्तनिरोध कहा है।" जयसेन ने प्रवचनसार की तात्पर्य-वृत्ति में उत्सर्ग मार्ग, निश्चय नय, सर्वपरित्याग,
योग्य है शुद्धोपयोग से शरीरजन्य दुख नहीं होते हैं और संयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग को एकार्थक कहा
स्वाभाविक सुख मिलता है, संवर एवं मोक्ष का साक्षात् है।" अत: शुद्धोपयोगी वह कहलाता है जिसने समस्त
कारण है।" इसलिए यह उपादेय है । यही कारण है कि
आचार्य ने संसारी जीवों को शुद्धोपयोग ग्रहण करने की शास्त्रों का भलीभांतिपूर्वक अध्ययन कर लिया है, संयम
प्रेरणा दी है। और तप से युक्त है, वीतराग है और सुख-दुख में समभाव रखता है।"
शान-विमर्श
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में ज्ञान मीमांसा बहुत ही शुद्धोपयोगका फल
महत्त्वपूर्ण मानी गई है। प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि शुद्धोपयोग युक्त आत्मा को निर्वाण का सुख मिलता।
आध्यात्मिक ग्रन्यों में ज्ञान जीव का स्वरूप, स्वभाव और है। क्योंकि शुखोपयोग पुण्य-पाप का कारण नहीं हैं।
सार बतलाया गया है। जो जानता है वह ज्ञान है । शान निर्वाण सुख की विशेषता है कि वह सातिशय, आत्म- के द्वारा ही समस्त पदार्थों को जान सकते हैं । पदार्थों का जन्य, विषयातीत, अनुपमेय, अनन्त और निरन्तर बाधा- ज्ञान हो जाने पर ही मोक्षमार्ग के लक्षभूत शुद्ध आत्मा की रहित होता हैं।
प्राप्ति हो सकती है।"शान सर्वव्यापक स्व-पर प्रकाशक शुद्धोपयोग अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान से क्षीण रूप कहा गया है। कषाय नामक बारहवें गुण-स्थान तक के जीवों के तारतम्य ज्ञान के मेव रूप से होता है। संयोग केवली और अयोगकेवलीजिन आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्धज्ञान केवलज्ञान को प्राप्त होना शुद्धोपयोग का फल है। शुखोपयोग के प्रभाव से करना जीवन का लक्ष्य बतलाया है। यह सामान्य ज्ञान आत्मा के शानावरणादि घातिया कर्मों का भय हो जाने से कर्म की अपेक्षा माठ प्रकार का बतलाया हैशुद्धोपयोगी के केवलज्ञान हो जाता है । अतः वह केवली माभिनिबोध, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान, कहलाने लगता है। केवली तीन कालवी समस्त द्रव्यों कुमतिज्ञान, कुश्रुत और विभंगज्ञान । और उनकी पर्यायों को जानने लगता है इसलिए वह सर्वज्ञ स्वभावमान और विभावज्ञान कहलाने लगता है।"
अर्धमागधी बागमों में स्वभावज्ञान और विभावज्ञान
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१८१६ कि.४
अनेकान्त
की चर्चा उपलब्ध नही है। ज्ञान को स्वभावज्ञान और स्व-प्रकाशक मानकर आत्मा को स्व-पर प्रकाशक मानना विभावज्ञान इन दो निकायो में विभाजित कर जनदर्शन को ठीक नही है। क्योकि ऐसी मान्यता मे निम्नाकित दोष अपूर्व चिन्तन प्रदान किया है।"प्रवचनसार मे जिस केवल आते हैंशान को क्षायिकज्ञान कहा गया है वही नियमसार में स्व- १-शान को परप्रकाशक और दर्शन को स्वप्रकाशक भावज्ञान है। विभाव ज्ञान को पुन. दो भागों में विभाजित मानने से ज्ञान और दर्शन भिन्न-भिन्न हो जायेगे । क्योकि किया है-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । २
दर्शन पर-द्रव्य को नही जानेगा। सम्यग्ज्ञान
२-दूसरा दोष यह है कि दर्शन आत्मा से भिन्न आचार्य ने संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ज्ञान सिद्ध होगा क्योंकि आत्मा पर का भी प्रकाशक है लेकिन को सम्यग्ज्ञान कह कर मति आदि चार ज्ञानों को सम्य- दर्शन पर-प्रकाशक नही है। शान बतलाया है।"
३-जैन धर्म मे ज्ञान-दर्शन और आत्मा भिन्न नही मिण्याज्ञान
है। इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि व्यवहार नय की मिथ्याज्ञान अज्ञान रूप होता है। इसके तीन भेद किए अपेक्षा ज्ञान पर-प्रकाशक है, इसलिए दर्शन और आत्मा गए है"-कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान । भी पर-प्रकाशक है।" निश्चयनय की अपेक्षा ज्ञान स्व. परोक्ष और प्रत्यक्षज्ञान
प्रकाशक है, इसलिए आत्मा और दर्शन भी स्वप्रकाशक आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञान का विभाजन प्रत्यक्ष और है।" यदि यह माना जाय कि ज्ञान लोक-अलोक ज्ञय को परोक्ष रूप से भी किया है। उन्होंने इन्द्रियो और प्रकाश जानता है और स्वद्रव्य आत्मा को नहीं जानता, तो ऐसा को पर कह कर इनसे उत्पन्न होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहना ठीक नही है।" क्योकि ज्ञान जीव का स्वरूप है कहा है।" नियममार में आचार्य कहते हैं कि जो अनेक इसलिए वह आत्मा को जानता है। यदि ज्ञान आत्मा को प्रकार के गुण-पर्यायों से युक्त समस्त द्रव्यो को नही देखता न जाने तो ज्ञान आत्मा से भिन्न हो जाएगा। आत्मा है वह उसे परोक्ष दृष्टि कहते है। इस विभाजन के ज्ञान है औरज्ञान आत्मा है इसलिए ज्ञान स्व-पर प्रकाशक अन्तर्गत मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान हैं। को रखा गया हैं।
(ङ) ज्ञान से जानने का तात्पर्य जो ज्ञान आत्मा से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्षज्ञान
आचार्य कुन्दकुन्द ने इस बात की निश्चय और व्यवकहलाता है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि मूर्त, अमूर्त हार नय के द्वारा व्याख्या की है कि ज्ञान से ज्ञेय को जानने चेतन, अचेतन एवं स्व और पर द्रव्यो को देखने वाला का तात्पर्य क्या है? ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रियज्ञान कहलाता है।"प्रवचनसार" ज्ञानो और ज्ञेय में शेय-ज्ञायक सम्बन्ध है में भी यही कहा गया है। प्रत्यक्षज्ञान की उपर्युक्त परिभाषा आचार्य ने बतलाया है कि ज्ञानी (आत्मा) ज्ञान स्वरूप के अनुसार प्रत्यक्ष के अन्तर्गत केवल ज्ञान को ही रखा है और अर्थ ज्ञेय स्वरूप है। अर्थात् स्वरूप की अपेक्षा गया है।
दोनो भिन्न-भिन्न और स्वतन्त्र है। जिस प्रकार चक्षु-मूर्तिक (घ) ज्ञान को स्व पर प्रकाशता
पदार्थों से अलग रहकर उन्हे जान लेती है अर्थात् चक्षु न ज्ञान स्व-प्रकाशक है या पर प्रकाशक या स्व-पर ती मूर्तिक पदार्थों में प्रविष्ट होती है और न मूर्तिक पदार्थ प्रकाशक है इसका समाधान अर्धमागधी आगम में उपलब्ध चक्षु मे घुमते है। दोनों स्वतन्त्र रहते हैं। फिर भी पक्ष नही है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शान को स्व-पर प्रकाशक उन मूर्तिक पदार्थों को जान लेता है और मूर्तिक पदार्थ अपने स्वरूप बतलाकर उपर्युक्त शंका का समाधान नियमसार में स्वरूप को जना देते हैं। उसी प्रकार ज्ञानी और जय दोनो दिया है । यह उनकी अभूतपूर्व देन मानी गई है। के स्वतन्त्र रहने पर भी ज्ञानी पदार्थों अर्थात् शेयो मे घुसे
उन्होंने कहा कि ज्ञान को पर-प्रकाशक और दर्शन को बिना भी उन्हे जान लेता है और यशानी में प्रविष्ट हुए
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भाचार्य कुन्यकुलको मैन बर्शन को न बिना अपने को जना देते हैं। इस प्रकार निश्चयनय की जिस प्रकार सूर्य का ताप और प्रकाश एक साथ होता है अपेक्षा ज्ञेय और ज्ञानी दोनों स्वतन्त्र हैं और उनमें ज्ञेयर उसी प्रकार केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन एक साथ गायक सम्बन्ध है।
होता है। व्यवहार से ज्ञान पदार्थों में है
आचार्य सिद्धसेन ने इस सिद्धान्त की तार्किक रूप से व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानी ज्ञ यों में प्रविष्ट होता सम्पुष्टि की है। है। शेयों में ज्ञानी उसी प्रकार रहता है जैसे पदार्थों मे सवज्ञता का सिद्धान्त दृष्टि रहती है। इस बात को उदाहरण देकर समझाया सर्वज्ञता की जो व्याख्या प्रवचनसार में कुन्दकुन्द ने गया है। जिस प्रकार दूध में नीलमणि रत्न डालने से वह की वह इनके पूर्व किसी भी अर्धमागधी आगम में दष्टिअपनी प्रतिमा से अर्थात् नीली आभा से दूध के रूप को गोचर नही होती है। जीव या आत्मा स्वभाव से ज्ञान ढक करके उसे नीला कर देता है उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेय स्वरूप है। ज्ञान उसका स्वाभाविक गुण है इसलिए वह पदार्थों में रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दूध में ज्ञाता कहलाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञान आत्मा से अभिन्न नीलमणि स्वय व्याप्त नही होता फिर भी वह दूध उसकी है। इमलिए आत्मा को ज्ञाता कहने का तात्पर्य यह नहीं है नील आभा के कारण नीला हो जाता है। उसी प्रकार कि ज्ञान आत्मा से भिन्न है और ज्ञान के संयोग से वह ज्ञाता ज्ञान वास्तव में ज्ञेय मे नही होता है फिर भी अपनी विचित्र हो जाता है ।" आत्मा स्वभाब से ज्ञाता होता है । ज्ञान गुण ज्ञायक शक्ति से पदार्थों को जान लेता है इसलिए कहा आत्मा ही है और यह आत्मा के बिना अन्यत्र नही रहता। जाता है कि ज्ञेय अर्थात् पदार्थों मे ज्ञान है ।
इसलिए ज्ञान आत्मा है। लेकिन आत्मा शान गुण स्वरूप ज्ञेय ज्ञान में रहता है
एवं अन्य सुखादि गुण रूप भी है।"आत्मा ज्ञान प्रमाण ___ जिम प्रकार व्यवहार नय से ज्ञान पदार्थों में रहता है है। उससे कम या अधिक नहीं है। यदि आत्मा को जान उसी प्रकार यह भी मानना चाहिए कि ज्ञान मे पदार्थ के बरावर न माना जाय तो आत्मा को उससे कम या रहते हैं। यदि पदार्थ ज्ञान मे नही रहता है, ऐमा माना अधिक मानना पड़ेगा । यदि ज्ञान आत्मा से कम है। ऐसा जाय तो ज्ञान सर्वव्यापक कैसे कहा जायेगा? कि ज्ञान माना जाय तो ज्ञान अचेतन हो जाएगा और वह कभी सर्वव्यापक है, ज्ञेय लोक-अलोक है, इमलिए अर्थ ज्ञान में नही जान सकेगा। यदि ऐसी मान्यता हो कि आत्मा ज्ञान रहते हैं, यह सिद्ध है।
से बडा है तो आत्मा ज्ञान के बिना कुछ नही जान दर्शन
सकेगा।" इसलिए मिद्ध है कि ज्ञान आत्मा का अभिन्न दर्शन का सामान्य अर्थ देखना होता है। पनास्ति- स्वाभाविक गुण है। इसलिए आमा स्वभाव से ज्ञाता है। काय में जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया वह दीपक की तरह स्वय और पर-पदार्यों को जानता है।
__लेकिन अनादि काल से या जीव पुद्गल कर्मों से मलीन स्वभाव और विभाव दर्शन
है।" इसलिए उनकी स्वाभाविक ज्ञान शक्ति रुक जाती है, नियमसार में दर्शन का वर्गीकरण दो प्रकार से किया अत. उसकी सामाविक शक का TET रुक जाता है। गया है"
सांसारिक जीव स्वय प्रतिगुणस्थान प्रयत्न करता हुआ १- स्वभाव दर्शन-केवलदर्शन
बारहवे गुण स्थान में घाति का-जानावर ण, दर्शनावरण २-विभाव दर्शन-चक्षुदर्शन, अचक्षु एवं अवधि- अन्तराय और मोहनीय रूपी रम को सर्वथा समूल नष्ट दर्शन।
कर देता है तो वह समस्त पदार्थों को जानने लगता है।" शान दर्शन का योगपद्य
तब वह अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त करके स्वयं ही आचार्य कुन्दकुन्द ने केवली के ज्ञान और दर्शन को सर्वज्ञ, सम्पूर्ण लोक के अधिपतियों का पूज्य स्वयम्भू योगपद्य होना बतलाया है। नियमसार मे वे कहते है कि हो जाता है।" घानियों के नाण हो जाने से उसके
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एक (आत्मा जान सकेगा। अगला
अनन्त वीर्य, अनन्त शान, अनन्त दर्शन रूप तेज के प्रकट रूप से परिणमन करने वाले स्कन्ध को पुद्गल कहा है। हो जाने से अतीन्द्रिय होता हुआ ज्ञान और सुख रूप परि. अर्थात बढ़ने और घटने का नाम पुदगल है। लेकिन नियम णमन करने लगता है। सर्वज्ञ का ज्ञान इन्द्रियाधीन न सार में पुदगल की व्याख्या निश्चय और व्यवहार-नय के होने के कारण और स्वयं आत्मजन्य होने के कारण केवली द्वारा की गई है। उनका मत है कि निश्चयनय बी दृष्टि
से परमाणु ही पुद्गलद्रव्य द्रव्य कहलाता है और व्यवहारऔर वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त द्रव्यों की पर्यायों को नय की अपेक्षा स्कन्ध पुद्गलद्रव्य कहलाता है।" पुद्गल जानता है इसलिए उसके कुछ भी परोक्ष नही होता है।" की यह व्याख्या किसी भी अर्धमागधी बागम में उपलब्ध अतीन्द्रियज्ञान सप्रदेशी, अप्रदेशी, मूर्त, अमूर्त अनुत्पन्न और नही है। विनष्ट पर्यायों को जानता है ।" सर्वज्ञ का ज्ञान क्षायिक पुदगल की पर्याय कहलाता है क्योंकि वह कर्मों के क्षय से होता है। इसलिए
__ आचार्य ने पुद्गल की दो पर्यायें बतलाई हैं-स्वभाव
आचार कुन्दकुन्द ने कहा है कि सर्वज्ञ का क्षायिक ज्ञान त्रिकाल- पर्याय और विभाग वर्ती द्रव्यों और उनकी पर्यायों को एक साथ जानता है।
परिणमन स्वभाव पर्याय कहलाती है और परमाणु का यदि वह तीन लोक में स्थित कालिक द्रव्यो और उनकी
स्कन्ध रूप परिणमन विभाव पर्याय है। पर्यायों को यूगपद न जानकर क्रमशः जाने तो सर्वज्ञ एक पूर्वगलके मेद द्रव्य को भी उसकी समस्त पर्यायों सहित नही जान सकेगा" पंचास्तिकाय मे पुद्गल के निम्न कित चार भेद बत. जो अनन्त पर्यायों सहित एक (आत्मा) द्रव्य को नहीं लाये गये हैंजानता है तो वह अनन्त द्रव्य को युगपत कैसे जानेगा?
१. स्कन्ध (खंध)-अनन्त समस्त परमाणुओं का पिंड। अर्थात वह सर्वश कैसे कहलायेगा ?" दूसरी बात यह भी २. स्कंध देश (खंधदेसा)-स्कन्ध का आधा भाग । है कि यदि सर्वज्ञ का ज्ञान अर्थों की अपेक्षा करके क्रम: ३. स्कन्धप्रदेश (खधपदेसा)-स्कन्ध का चौथाई भाग। उत्पन्न होता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि कोई शान ४. परमाणु (परमाणु)-अविभागी। नित्य, क्षायिक और सर्व-विषयक (सर्वगत)नहीं हो सकेगा नियमसार ८५ में पुद्गल दो प्रकार का बतलाया मश के ज्ञान का माहात्म्य यही है कि वह तीन लोक में गया है-(१) स्कन्ध और (२) परमाणु । स्थित त्रिकालवर्ती विभिन्न प्रकार के समस्त पदार्थों को पुदगल स्कन्ध सदैव एक साथ जानता है।"
आचार्य ने पुद्गल स्कन्ध छह प्रकार का बतलाया सर्वज्ञ समस्त द्रव्यों की भूतकालीन, भविष्यत-कालीन "और वर्तमान-कालीन पर्यायों को भेद सहित वर्तमान-कालीन १. अतिस्थूलस्थूल (अइथूलथूल)-पृथ्वी, पर्वत आदि जो पर्यायों की तरह स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष ही जान लेता है। तोड़ने पर टूट जाएं लेकिन पुनः मिलाने पर मिलन सर्वज्ञ के ज्ञान की दिव्यता तो यही है कि वह उत्पन्न और सकें। विनष्ट पर्यायो को प्रत्यक्ष रूप से जान लेता है।"
२. स्थूल (थूल)-घी, जल, तेल आदि जो काटने पर पुल्ल द्रव्य
भी स्वयं आपस में मिल जायें। बाचार्य कुन्दकुन्द ने पुद्गल द्रव्य का विवेचन पंचास्ति- ३. स्थूलसूक्ष्म-छाया, आतप आदि जो देखने में स्थूल काय, नियमसार और प्रवचनसार मे किया है। उनका लगें किन्तु जिन्हें पकड़ा, काट ना जा सके। द्रव्य विवेचन भूतपूर्व है। पुद्गल को उत्तराध्ययन की ४. सूक्ष्म स्थूल-चक्षु इन्द्रिय के अलावा शेष चार इन्द्रियों तरह स्पर्श, रम, गन्ध और वर्ण वाला मूर्तिक कहा है। के विषय-रस गंध, स्पर्श और शब्द । वस्वासूत्रक र उमास्वामी ने भी पुदगल का लक्षण यही सूक्ष्म-कर्मवर्गणा रूप होने योग्य स्कन्ध सूक्ष्म है जिन्हें कहा है। पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्द ने बादर और सूक्ष्म इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता है।
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माचार्य कुन्दकुन्त को न दर्शन को देन
२१ ६. अति सूक्म-कर्मवर्गणा रूपन होने योग्य स्कन्ध अति १७. परमाणु सावकाशी नहीं है अर्थात् दो आदि प्रदेश सूक्ष्म हैं।
वाला नहीं होने से उसमें जगह नहीं है। परमारण सिमान्त
१८. एक प्रदेश से ही स्कन्धों का भेदक है। आचार्य कुन्दकुन्द का परमाणु-सिद्धान्त भी अनुपम १९. स्कन्धों का कर्ता है। हैं। नियमसार", प्रवचनसार" और पंचास्तिकाय में पर २०. परमाणु काल और संख्या का भेद करने वाला है। माणु का स्वरूप निम्नाकित बतलाया गया है-
२१. स्कन्ध से भिन्न है। १. जिसका आप ही आदि, आप ही मध्य है और आप २२. स्निग्ध और रूक्ष गुणो के कारण एक परमाणु दूसरे _ही अन्त है, वह परमाणु कहलाता है।
परमाणु से मिलकर दो-तीन प्रदेश वाला हो जाता २. जो इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नही किया जाता है। ३. जो अविभागी है।"
२३. परमाणु परिणमन स्वभाव होने से उसके स्निग्ध और ४. स्कन्धों का अन्तिम अश (भाग) परमाणु है।" रूक्ष एक अविभावी प्रतिच्छेद से लेकर बढ़ते-बढते ५. परमाणु शाश्वत (नित्य) है।
अनन्त अविभागी प्रतिच्छेद वाले तक हो जाते हैं।" ६. अशब्द है, लेकिन शब्द का कारण है।"
२४. परमाणु के स्निग्ध गुण हो अथवा रूक्ष गुण हों, समान ७. परमाण एक प्रदेशी अर्थात् प्रदेश मात्र है ।
संख्यक (दो, चार, छह आदि) अथवा विषम संख्यक ८. परमाणु मूर्तिक है।
(तीन, पांच, आदि) गुण वाले परमाणुओं में से दो ६. परमाणु अप्रदेशी है।
गुण अधिक होने पर दोनों परमाणुओं का आपस में १०. परमाणु में स्निग्ध और रूक्ष गुण होते हैं।"
वध होता है। लेकिन एक स्निग्ध अथवा एक रूक्ष ११. परमाणु में एक रस, एक गध, एक रूप और दो गुण वाले परमाणु का किसी परमाणु के साथ बन्ध
स्पर्श होते हैं । ऐसा परमाणु स्वभाव गुण वाला पर- नही होता है।" माणु कहलाता है।"
आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में निहित तत्त्व मीमांसा १२. दयणक में अनेक रसादि वाला परमाण विभाग गुण और ज्ञानमीमांसा के कतिपय मूलभूत सिद्धान्तो का सक्षिप्त वाला कहलाता है।
विवेचन किया। आचारांग आदि विद्यमान अर्धमागधी १३. परमाणु पृथ्वी आदि चार धातुओं का कारण और आगमो मे उपर्युक्त सिद्धान्त दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। इस कार्य है।
दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को एक अनुपम १४. परमाणु परिणामी है । तात्पर्य यह है कि स्पर्शादि गुण देन कही जा सकती है। निबन्ध का कलेवर बढ़ जाने के
के भेदों से षट्गुणी हानि-वृद्धि होती रहती है। भय से यहा उनके द्वारा प्रतिपादित आचार मीमांसा का १५. परमाणु नित्य है।
विवेचन नही प्रस्तुत कर सका है। आचार्य कुन्दकुन्द के १६. पराण अनवकाशी नही है अर्थात् परमाणु वर्णादि उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने उनके सिद्धान्तो का पोषण और गुणो को अवकाश देता है।
संवर्धन किया है।
सन्दर्भ-सूची १. मोक्खपाहड़, गा०४
६.नि. सा०, गा०७ २. (क) पूज्यपादाचार्य . समाधिसतक ।
७. णाणी सिव परमेष्ठी सव्वण्हू बउमुहो बुद्धो। (ब) शुभचन्हे : ज्ञानार्णव, अधिकार ३२
अप्पो विय परमप्पो कम्मविमुवको य होइ फुडं। (ग) योगेन्दु : परमात्म प्रकाश, ११११ इत्यादि
भावपाहुड, गा० १५० ३. मो० पा०, गा०५, ८-११
८. नियमसार, गा०१७६-७७ ४. नि. सा०, मा० १४६-१५१
अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी। ५. मा०पा०, मा०५-६
प्र० सा०, २३३
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२२,
१६कि.४
अनेकान्त
१०. परिणमदि चेयणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। ३४. सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।) सा पूण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा॥ जं इंदियेहिं लदं तंसोक्ख दुक्खोव तत् ॥प्र० स०, प्र० सा० २।३१
गा० ११७६
३५. द्रष्टव्य, प्र० सा०, ११७१-७७ ११. णाणं अट्ठवियप्पो कम्म...। प्र० सा०, २१३२ । १२. पं० का०, गा० ३८-३६
३६. क-उवओगविसुद्धो सो ख्वेदि दंहुम्भवं दुक्खं । १३. प्रवचनसार ज्ञेयतत्वाधिकार, गा० ६३
ख- सुद्धेण लहइ सिदि। बारसाणुपेक्खा । गा० २४
एवं ६४ १४. भावपाहुड़, गा० ७६ । और भी द्रष्टव्य-पं० का० ग- वही, गा० १२० गा० १३१-२३६
३७. (क) जीव सहावं गाणं "। प. का०, गा० १५४ १५. जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहा असुहो। (ख) णाणं णरस्य सारो दर्शन पाहुड, गा० ३१ सुढेण तदा सुखो हवदि हि परिणामसम्भावो ॥
(ग) णाणं पुरिसस्स हवदि। बोध पाहुड़, गा० २१ प्र० सा०, ज्ञानाधिकार, गा.
1°६ ३८. (क) जो जाणदि सो णाणं--प्र० सा० ३१३५ १६.५० का , गा० १३६
(ख) णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं । १७. प्र० सा०, ज्ञानाधिकार, गा०६६
बोध पाहुड, १८. प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वाधिकार, गा० ६ण
(ग) णाणेण लहदि लक्खं मोक्खमग्गस्स। वही, २१ १६. जुत्तो मुहेण आदा तिरियो वा माणुसो वा देवो वा।।
३६. द्रष्टव्य प्र० सा.ज्ञानाधिकार भूदो तावदि कालं वहदि सुहं इंदियं विविहं॥ ४०. पंचा० काय, गा० ४१
वही, १७०
४१. नियमसार; गा०, ११ २०. पावदि-सुहावजुत्तो वा सग्गसुहं । वही, १११
४२. वही, गा० १६ २१. विसयक्साओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो।।
४३. वही, गा० ११ उग्गो उम्मरगपरो उवओगो जस्स सो असुहो ।
४४. वही, गा० ११ प्र० सा०, गा २०६६
४ण. प्रवचनसार, ११५८ २२. असुहो वा तप पावं । वही, गा० २।३४
४६. नियमसार, गा० १६८ २३. वही, गा.१२१२
४७. प्रवचनसार, गा० ११५८ २४. जयसेनाचार्य, प्र. सा. तात्पर्यटीका, गा०६, पृ०९-१० ४८. नियमसार, गा० १७६ २५. ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यत्तहेय एवायमशुभोपयो
४६. प्रवचनसार, गा० ११५४, ५०-६० योग इति । अमृतचन्द्रसूरि : प्र० सा• ततप्रदीपिका
५०. नि० सा०, गा० १६१ वृत्ति, गा० १२, पृ० १३
५१. वही, गा० १६२ २६. एवं विदियत्यो जो दब्वेसु ण रागमेदि दोसं वा उब
५२. (क) वही, वा० १७३ ओगविसुद्धो । प्र० सा०, गा० ११७८
५३. (ख) वही, गा० १६४ २७. बही, २०६७ । और भी द्रष्टव्य गा०६८-८०
५४ वही, गा० १६५ २८. पंच विंशतिका, गा० ४१६४
५५. वही, गा० १६६ २६. प्र० सा० तात्पर्यवृत्ति टीका, ३३०, पृ०२८७ ५६ णाणं जीवसरुव तम्हा जाणेह अप्पगं अप्पा। ३०.प्र० सा० १११४
अप्पाण ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित। ३१.प्र. सा०, गा ?॥१५-२१
अप्पाण विणु णाण णाणं विण अप्पगो ण संदेहो । ३२. समयसार, गा० १४५-४६
तम्हा सपरपयासं गाणं तह दंसणं होदि। ३३. विस्तृत रूप से द्रष्टव्य पंचास्तिकाय, गा० १७५-१७१
यही, गा० १७०.७१
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आचार्य कुन्दकुन्द को जैन दर्शन को देन ५७.प्र. सा०, गा०२८
७७. वही, गा० १३५१ ५८. वही, गा० १२२६-३०
७८. वही, गा० ११३७-३८ ५६. जदि ते ण संति णाणे ण होदि सव्वगय ।
७६. वही, गा० १३६ सम्वगय वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अटठा । ८०.प्र. सार, गा २,४०। 'नुलना करें-उत्तराध्ययन सूत्र, प्र० सा० १३०
२८।१२ ६०.ज पिच्छइ त च दसण भणिय । चरित्त पा०, गा० ३ ८१. पंचास्तिकाय, गा०७६ ६१. सम्मत्तसद्दहणं-14. का. गा० १०७
८२. नियमसार, गा० २६
८३. वही, गा०२८ ६२. नियमसार, गा० १३-१४
८४. पवास्तिकाय, गा० ७४-७५, एवं गा० ७९ ६३. ....'ण हवदि णाणेण जाणगो आदा । प्र० सा.
८५ वही, गा० २० ६४.णाणं अण्ण त्ति मद वदिणाणविणा ण अप्पाण। ८६. (क) नियमसार, गा०२१-२४, (ख) प०कायतम्हा णाण अप्पा अप्पा णाण व अण्ण वा ।।
गा०७६ वही, गा० श२७ ८७. गा० २५-२७ ६५. आदाणाणपमाण "। वही, गा० ११२३
८८. गा० २०७१ ६६. वही, गा० १२४.२६
८६. गा० ७३-७१ ६७. वही, गा० २।२६
१०. नियमसार, गा०२६ ६८: उवओग विसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ।
६१. प० का०, गा० ७७ भूदो सममेवादा जादि परणेयभूदाण । प्र० मा० ११५ ६२. वही, गा० ८१ ६६. तह सो लद्धसहावो सव्वण्ह सव्वलोगपदिमहिदो। ६३. प्रवचनसार, गा० २०७१
भदो सयमेवादा हवदि सयभु ति णिद्दिट्ठी ।।वहा, १११६ ०४. द्रष्टव्य-नियममार, गा० २७,प० काय, गा. ७०. पक्खीणघादिकम्मो अणंनवखीरिओ अधिक नेजो। ६५. नियमसार, गा० २५ एव प० काय, गा० ७८ जाटो अदिदिओ सो णाणसोक्ख च परिणमदि।। ४६. प० का०, गा०६०
वही, गा० १११६ १७. प्रवचनसार, गा०२।७२ ७१. बही, गा० १०२२
१८. णिता वा लुक्खा वा अणुपरिणमा समा वा विसमा वा। ७२. वही, गा० ११४१
समदो दुराधिगा जदि बज्नंति हि आदिपरहीणा । ७३. प्र० सा० ११४७ ७४. वही, गा० ११४८
णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्वेण बंधमणुहवदि । ७५. वही, गा० ११४६
लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पचगुणजुत्तो। ७६. वही, गा० ११५०
वही, गा०२।७३-७४ (पृष्ठ २८ का शेषांश) के प्रकाशन मे श्वे. समाज से कही आश्वासन मिल गया है दिगम्बरी परम्पराओं, मान्यताओं, विवेचनाओं, गवेष. होगा और वे ऐसा कर गये पर सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य णाओं एव गिद्धान्तों से लोग सर्वया अपरिचत है. इसमें प्रकाशन हआ दिगम्बर समिति द्वारा, दिगंबरों ने ही वि० किसी का दोष नही है इम सबके लिए सम्पूर्ण दिगम्बर मान्यताओं पर कुठाराघात किया।
समाज उत्तरदायी है। समय रहते यदि इस ओर ध्यान न इस प्रकार यदि यही स्थिति रही तो भविष्य में दिया गया तो दिगम्बरत्व सर्वथा लुप्त हो जावेगा। आज दिगम्बरत्व का क्या होगा? क्या कभी किसी ने इस प्रश्न बालकिशोर पभीरता से चिन्तन मनन एवं विचार विमर्श किया है महानुभाव होते तो वे इस शिथिलाचार को किञ्चिन्मात्र मेरा आशय किसी वर्ग विशेष से राग द्वेष का नही है मैं
भी सहन न करते और डके की चोट से इन सबकी बखिया तो इतिहास का विद्यार्थी हूं और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
उधेड़ देते। पर आज के जैन पत्रकार, जिनका कार्य शिषिही मेरी यह कल्पना है कि आगामी हजार पाँच सौ वर्षों
लाचार को रोकने के लिए समाज को इस दिशा में प्रेरित में दिगम्बरत्व का सर्वथा लोप हो जावेगा और श्वेताम्बरत्व
करना होना चाहिए था, वे स्वयं किसी न किसी खेमेवाद ही जैनधर्म रह जावेगा और दिगम्बरत्व का उतना विशाल
का शिकार हैं और शिथिलाचार का पोषण कर रहे है। पाङ्गमय सर्वथा उपेक्षणीय हो जावेगा। बाज भी विदेशों में बन धर्म के नाम पर वेताम्बरत्वकाही प्रचार हो रहा बोपोलीलपीरा।
अस्तु
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जैनधर्म-दर्शन में पाराधक की अवधारणा
डा० गुलाबचन्द जैन
आराधक का चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति होता है इसके (४)तपाराषक-देश विरत आदि नष्ट कषाय वाले लिए वह जीवन पर्यन्त सतत साधना करता है। आचार्य अपने अनुरूप उत्तम आचरण वाले, शुद्ध चित्त युक्त वट्टकेर ने इसके स्वरूप को बतलाते हुए लिखा है
तपाराधक कहलाते हैं। आराधक निर्मोह, अहकार रहित, क्रोधादिक कषायों से जो आराधक कषाय रहित, जितेन्द्रिय निर्भय व दर पचेन्द्रियो का निग्रह करने वाला, परीषहादिक को चारित्राचरण करने मे तत्पर है उनका प्रात्यख्यान सुख सम्मान पूर्वक सहन करने वाला तथा सम्यग्दर्शन से युक्त पूर्वक सम्पन्न होता है। इस प्रकार जो आराम गरीर होता है इन गुणों से युक्त होकर वह समाधि पूर्वक प्राणों त्याग के काल में प्रत्याख्यान करता है उसकी आहारादिक का त्याग करता है। आ० देवसेन के अनुसार-जो पुरुष चार संज्ञाओं में विल्कुल अभिलाषा नहीं रहती है। धैर्यकषायों से रहित हो, भव्य सम्पदृष्टि, सम्यग्ज्ञान का वान ऐसे उस क्षपक को आराधना का उत्तम फल अर्थात धारक, वाह्य व आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह से मोक्ष प्राप्त होता है। रहित हो, ससार के सुख से पराङमुख, विरागी, औपशमिक लेश्या के प्राश्रय से प्राराधक के मेदसम्यग्दर्शन का धारक हो, सभी तपों का तपनेवाला, आत्म लेश्या की दृष्टि से आराधक के उत्तम, मध्यम और स्वभाव में लीन, पर पदार्थों से जायमान सुख से रहित जघन्य तीन भेद होते है - और रागद्वेष से विनिर्मुक्त हो वह मरणपर्यन्त अराधक
उत्कृष्ट र धक-जो क्षषक शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट कहा जाता है। ओपनियुक्ति में लिखा है जो पांचो
अंश रूप से परिणत होकर मरण करता है वह नियम से
से इन्द्रियों से गुप्त हैं अर्थात् उन्हे अपने आधीन रखता है,
उत्कृष्ट आराधक होता है । क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात मन आदि तीनो करणो मे सावधान है, तथा तप, नियम
चरित्र और क्षायोपशमिक ज्ञान की आराधना करके क्षीण बसयम में सलग्न है, वह आराधक कहलाता है।'
मोह होता है और वह बारहवां गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह मेव:-दर्शन, ज्ञान, चारित्र ओर तप इन चार
होने के पश्चात् अर्हन्त होता है। प्रकार की आराधनाओ के भेद से आराधक के भी चार
मध्यमाराधक-शुक्ल लेश्या के शेष मध्यम और भेद हो जाते है।' जो इस प्रकार है :
जघन्य अंश तथा पपलेश्या के उत्कृष्ट मध्यम और अधन्य (१) वर्शनाराषक-उपशम तथा वेदक सम्यग्दर्शन के अंश रूप से परिणित होकर मरण करने वाला क्षपक मध्यम
पात्र निर्मल परिणाम वाले तथा उनके योग्य गुणो वाले आराधक होता है। जीव सम्यकत्व (दर्शन) के आराधक होते हैं।
जघन्याराधक-तेजोलेश्या के अंश रूप से परिणत (२)मानाराषक-मति आदि छद्मस्थ ज्ञान युक्त तथा होकर यदि मरण करता है तो वह जघन्य आराधक
उनके योग्य गुण वाले तथा सुविशुद्ध परिणाम बाले होता है। मानाराधक कहलाते हैं।
जो क्षपक जिस लेश्यारूप से परिणत होकर मरण] (३) चारित्राराषक-देश विरत आदि नष्ट कषाय करता है वह उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उसी लेश्यावाला
बाले, बढ़ती हुई शुभ लेश्या वाले तथा शील गुण से ही देव होता है। जो पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या को विभाजित चारित्राराधक कहलाते है।
भी छोड़कर लेश्या रहित अयोग अवस्था को प्राप्त होता
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नधान में माराधक की अवधारणा है वह सम्पूर्ण केवल ज्ञान और केवल दर्शन से युक्त होकर कर्म अपण में व्यापार करते है उन्हें अपक कहते हैं। ऐसे आयु का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त करता है। वह समस्त क्षपक जिन्होंने संघ के मध्य में प्रतिज्ञा करके चार प्रकार कर्म लेस के चने जाने से विशुद्ध होता है तथा समस्त आराधना रूप की पताका को ग्रहण किया है ये शूरवीर क्लेशों से छूट जाता हैं।
और पूज्य हैं। जिन्होंने भगवती आराधना का पूरी तरह समाधि का इच्छुक, निर्यातकावार्य की खोज में जाता से पालन किया वे पुण्यशाली और ज्ञानी हैं और उन्होंने हुआ क्षपक निम्न चार कारणों से भी आराधक होता है- जो प्राप्त करने योग्य था, उसे प्राप्त कर लिया। जिन्होंने १. 'मन, वचन, काय के विकल्परूप रत्नत्रय में लगे अति- सम्पूर्ण भगवती आराधना का आराधन किया उन महान
चारों को, आलोचना के दोषों को त्यागकर में सम्यग् भावों ने लोक में क्या नहीं प्राप्त किया अर्थात् प्राप्त रूप से गुरु से निवेदन करूंगा' ऐसा संकल्प करके करने योग्य सब प्राप्त कर लिया।" जो गुरुके समीप जाने के लिए निकला है, यदि वह
अपक की तीर्थ से उपमा--क्षपक एक तीर्थ है मार्ग में ही अपनी बोलने की शक्ति खो बैठे तो वह
क्योंकि संसार से पार उतारने में निमित्त है। उसमें स्नान आराधक होता है।
करने से पाप कर्म रूपी मल दूर होता है। अतः जो दर्शक २. अपने दोषो की आलोचना करने का संकल्प करके जो
समस्त आदर भक्ति के साथ उस महातीर्थ में स्नान करते गुरू के पास जाने को लिए निकला है वह यदि मार्ग
हैं वे भी कृतकृत्य होते हैं। तथा वे सौभाग्य शाली है। में ही मरण को प्राप्त हो जाए, तो वह आराधक
यदि तपस्वियों के द्वारा सेवित पहाड़ नदी आदि प्रदेश होता है।
तीर्थ होते हैं तो तपस्यारूप की राशि क्षपक स्वयं तीर्थ ३. अपने दोषो की आलोचना करने का संकल्प करके जो
क्यों नही है। यदि प्राचीन प्रतिमाओ की वन्दमा करने गुरु के पास जाने को निकला है, यदि आचार्य बोलने
वालों को पुण्य होता है तो क्षपक की वन्दना करने वालों में असमर्थ हों तो भी वह आराधक है ।
को विपुल पुण्य क्यों नही प्राप्त होगा? जो तीव्र भक्ति ४. जो गुरू के सन्मुख अपना अपराध निवेदन करने के
पूर्वक क्षपक की सेवा करता है उसकी भी सम्पूर्ण आरालिए निकला है, यदि आचार्य मरण को प्राप्त हो
धना सफल होती है।" जाए, तो भी वह आराधक है। माराषक क्षपकको प्रसंशा-क्षपक श्रेणी पर
अध्यापक, शा० उ० मा० विद्यालय चढ़ने वाला जीव चरित्र मोहनीय का अन्तरकरण कर
छोटे डोंगर, बस्तर (म.प्र.) लेने पर भपक कहलाता है। धवला में लिखा है जो जीव
पिन ४९४-६६१ - संदर्भ-सूची १. मूलाचार २१६०३
७. वही १९१६-१९१७ २. आराधनासार १७:१६
८. भगवती आराधना ४०५-४०६ ३. बोधनियुक्ति ३८१, पृ० २५०
६. कसाय पाहुः १११, १८पृ० ३४७ ४. आराधना समुच्चय २२४-२२५ ५. मूलाचार २।१०४.१०५
१०. धवला ११. १, २४० २२४ ६. भगवती माराधना १९१२-१९१५ जीवराज ग्रंथमाला, ११. भगवती आराधना १९९५-१९९७ शोलापुर संस्करण
१२. वही २०००-२००३
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बीज में वृक्ष की संभावना
संसार मे जितनी आत्माएं हैं, चैतन्य है, वे सब पर - मात्मा बनने के बीज हैं। सब आत्माओं में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है । यह सबसे बड़ी स्वतंत्रता है यह सबसे बड़ी महान स्वतंत्रता की घोषणा है कि हरेक व्यक्ति ही नहीं, हरेक जीवात्मा मे परमात्मा बनने का उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। वह परमात्मा बन सकता है वह God - खुदा परब्रह्म भगवान, परमात्मा बन सकता है उससे कुछ भी कम रहने की बात नही है। अगर कुछ भी कम रहने की बात रही तो आत्मा फिर एक जाति की नहीं दो जाति की हो जायेगी ।
जैसे बीज मे वृक्ष बनने की शक्ति विद्यमान है उसको मौका मले तो वह वृक्ष बन जाता है । परन्तु आत्मा बीजरूप परमात्मा है उसे मौके मिलने की बात नही वह तो निज में इनीसीमेटीम लेने वाला है इसलिए उसे मौका मिलने की बात नहीं है। उमे ब्रह्म बनने की जिज्ञासा उत्पन्न करने की बात है उसको चुनाव करना है कि मुझे परमात्मा बनना है उसे कुछ भी कम नहीं रहना है यह उसका चुनाव है। जानवर बनना भी उसका चुनाव है मनुष्य बनना भी उसका चुनाव है और परमात्मा बनना भी उसका चुनाव है । परमात्मा बनना उसकी पूर्णता है उसका विकास है और पशुता उसको हास है। चुनाव उसी का है।
व्यवहार में यह कहा जाता है कि मनुष्य ही परमात्मा बन सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि पशु डाइरेक्ट परमात्मा नही बन सकता वह अपना विकास करने लगेगा तो मनुष्य बनेगा और वहां से परमात्मा बन जायेगा । इसका अर्थ यह भी है - "कि जिसमें पशुता है जिसमें मानवता ही नही वह परमात्मा कैसे बने इससे तो क्रम का उलंघन हो जायेगा ।" बीज अभी अंकुर ही नहीं बना वृक्ष कैसे बन जायेगा।
D वक्ता, श्री बाबूलाल जंन
मनुष्य चौराहे पर खड़ा है और उसके चारों तरफ रास्ते गये हैं। उसे चुनाव करना है कौनसा रास्ता, क्या बनने का रास्ता पकड़ना है। कहते हैं कि तू अपने को इतना ऊंचा उठा सकता हैं कि ऊचाई की चरम सीमा तक उठ सकता है तू इतना गिर सकता है कि निचाई की चरम सीमा को छू जाये । अभी जहां खडा है वह भी तेरा ही चुनाव था। चुनाव करते ही वैसा हो जाये यह बात नही है चुनाव कर और उस रूप होने का पुरुषार्थ कर । अगर पूरा पुरुषार्थ हुआ तो तू बसा हो सकता है। वैसा बनने की स्वयम् भावना तेरे मे है। अगर दूमरे बीज वृक्ष बन सकते है तो तू भी बन सकता है तू भी उसी जाति का है जो बने है वह भी तेरी जाति के थे। एक वृक्ष पर दो आम लगे है एक पक गया है एक कच्चा है । कच्चा कह रहा है पक्के से, कि तू भी पहले मेरे जैसा कच्चा आम था, केरी था। तू केरी से ही आम वना है मेरे मे भी आम बनने की शक्ति विद्यमान है मैं भी जाति का हूं जिसका तू है तेरे मेरे मे कोई फरक नही आम बन कर रहूगा । मैं भी उसी वृक्ष का फल हूं उसी है फरक इतना ही है तेरा विकास पूर्ण हो गया है और मेरे मे पूर्ण विकास करने की शक्ति विद्यमान है । मैं तेरे जैसा हो जाऊगा । जब साधक साध्य के सामने जाकर, जब भक्त भगवान के सामने जाकर अपने को बीजरूप और साध्य को फलरूप देखता है तो फल बनने की प्यास जागृत होती है। जब यह समझता है कि मैं भी ऐसा बन सकता हूं तब वह श्रद्धा मे तो वैसा बन गया, मात्र प्रवृत्ति मे बनना रहा है। वह अपने आपको ऐसा देखता है जैसे ऐसा हो ही गया जब तक अपने मे पड़ी हुई बीजरूप शक्ति को नही पहचानता था तब तक पामर था। जब शक्ति को पहचाना तो उस रूप हुआ सा ही अनुभव करने लगा जिस रोज बीजरूप भगवान को जान लेता है वही
।
(शेष आवरण पृ० ३ पर)
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दिगम्बरत्व का क्या होगा?
कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल आज जनतंत्र का युग है, जिसका काम जोड़ना है भ० महावीर की २५सौंवी निर्वाण शताब्दी के तोडना नहीं । जैनधर्म के जहाँ तक प्राचीनतम प्रमाण मिलते अवसर पर प्रयाम भी हुए कि जैनियों की सभी धारायें उपहैं वह भी लिच्छवियों के गणराज्य का युग था। लोगो मे धारायें सम्मिलित होकर जैनधर्म की एक विशाल विस्तृत जहाँ विचारो की विभिन्नता होती थी वहाँ पारस्परिक एव अगाध जैन गगाधारा बन जावे पर यह सब कुछ न हो सौहाई भी रहता था। भ० महावीर के निर्वाण के कुछ सका । फिर भी कुछ सीमा तक परस्पर बिल्कुल क्षीण रूप ही वर्षों बाद जैनधर्म दो शाखाओ मे विभाजित हो गया। से नजदीक तो हुए ही फिर भी कट्टरता तो बनी ही रही। यद्यपि भारतवर्ष के सास्कृतिक इतिहास मे श्रमण
अम्नु, यहां मुझे दिगम्बर सम्प्रदाय मे जो कुछ शिथिलाचार सस्कृति का महत्वपूर्ण योग दान रहा है जो वैदिक संस्कृति
फैल रहा है उस पर कुछ टिप्पणी करनी है। के विकल्प के रूप में विकसित हुई थी और विगत ढाई
यद्यपि नैतिक दुर्बलता, चारित्रिक पतन, भ्रष्टता एवं हजार से अधिक वर्षों से भारतीय दर्शनों को प्रभावित शिथलाचार सभी समाजो, धर्मों में व्याप्त है यहाँ तक कि करती रही। आज भी श्रमण सस्कृति की दोनो धाराए जैन सम्पूर्ण देश और विश्व भी इन दुर्बलताओं से नहीं बच पा और बौद्ध भारतीय इतिहास को विशिष्ट रूप से रेखांकित रहे है अतः किसी तरह का उपालभ कुछ तर्क संगत तो कर रही है।
नही जचता पर जब ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर कुठारापात
की नौबत आ जाय तो फिर मन बिलबिलाता तो है ही। प्रकृति का कुछ नियम सा है तथा इतिहास भी साक्षी । है कि जब भी कोई धर्म समाज या सम्प्रदाय विकास की यह सब बड़े खेद और लज्जा का विषय है तथा भ. चरम परणति पर पहुंचते हैं तो उनमे विखडन या विभाजन महावीर की वाणी को कलंकित करना है। खाद्य पदापों प्रारम्भ हो जाता है, इसी नियम या परम्परा वश जैनधर्म में मिलावट, घी मे चर्बी मिलाना, टैक्सों की चोरी करना, भी दिगम्बर और श्वेतावर दो धाराओ मे विभक्त कालाधन जोड़ना, झूठे विल बनवाना, रेलवे तथा जीवनहुआ। आचार्य भद्रबाह के नेतृत्व में दिगम्बर दक्षिण मे बीमा निगम आदि संस्थाओं से जानी Claim वसूलना तथा आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व मे श्वेताम्बरत्व उत्तर- आदि । जहां जैन श्रावक पक्ष को दुर्बलता एवं शिथिलता को पश्चिम में बड़े जोरो से विकसित एव प्रफुल्लित हुआ। उजागर करते हैं वही ये ही श्रावक मुनि वर्ग को भी दोनों ही सम्प्रदायों मे बड़े-बड़े उच्चकोटि के दिग्गज शिथल होने में सहयोग देते है। उपर्युक्त भ्रष्टताओं में जैन विद्वान हुए और उत्कृष्ट शास्त्रो की सर्जना हुई और धीरे लोग अग्रणी होते जा रहे है । अभी सुना है कि दिल्ली के धीरे कुछ मौलिक सैद्धान्तिक मत भेदो की सर्जना होती तथा कथित कुछ जैन करोड पतियो ने रगून और हांगकांग गई। यह सब भ• महावीर ने नहीं सिखाया था अपितु से बादाम, पिस्ता, किसमिस आदि मूखे फलों के करोड़ों परवर्ती आचार्यों मुनियो एवं विद्वानों की विचक्षण बुद्धि रूपये के झूठे बिल बनवाये और जहाजों में मेवों की जगह वैभव का कौशल था कि दोनो धारायें दृढ़ से दृढतर होती भूसा भरवाकर उन जहाजो को डुबवा दिया तथा L. I C. गई और वट वृक्ष की भांति विशाल मजबूत होती रही। से हरजाना वसूलना चाहा पर विशी गुप्तचरों की सतर्कता इन दोनो धाराओं की कुछ उपधारायें भी प्रवनित हुई। से उनकी जालसाजी का भडाफोड हो गया और अब वे बीच के काल में कुछ वैमनस्य भी फैला। अस्तु कानून की गिरफ्त में है। चर्बी कांड मे तो जैन व्यापार
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२, १६ कि.४ ने ही सारे जैनियों का मस्तक नीचा कर दिया और जैन- है जैसे भगवान महावीर के कानों में (जो कि बजवृषभ धर्म की छवि धूमिल कर दी।
नाराच संहनन के धारी थे) शलाका ठोकना, स्त्री की ऐसे ही तथा कथित प्रष्ट जैनियों के जाल में हमारा मुक्ति सवस्त्र मुक्ति आदि दि० सैद्धान्तिक विरोध की बातें कुछ त्यागी वर्ग भी फंसा हुआ है। दिगम्बरों में त्यागी जन अंकित की गई है वे निश्चय ही समादरणीय नहीं है। और भी शिथिल होते जा रहे हैं। लगता है कि कालान्तर में जब पंथ मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज (जो दि. साधु
है) को समर्पित हो। त्यागी व साधु मार्ग ही समाप्त न हो जावे। वैसे आज
" तीर्थकर' मासिक पत्रिका के विद्वान सम्पादक डा. दि० मुनियों की गिनती अंगुलियों पर गिनने लायक रह
नेमीचन्द जी जैन द्वारा श्री वीरेन्द्रकुमार जी से लिए गई है मुश्किल से सौ सवा सौ ही हों तो कोई अत्युक्ति न
साक्षात्कार में जिन बातों का उल्लेख है निश्चय ही वे होगी उनमें भी कषाय, एवं शिथलाचार व्याप्त हैं। जिससे
दिगम्बरत्व की सीमा के प्रतिकूल है। यह साक्षात्कार मोगों का उनके प्रति आदरभाव भी कम होता जा रहा है
'तीर्थकर' के वर्ष १२ के अंक मे प्रकाशित है। ऐसा लगता यहां तक दूसरे लोग भी दिगम्बर साधु के दिगम्बरत्व का है कि श्री वीरेन्द्र जी को भ० महावीर के जीवन सबन्धी उपहास करते हैं। यदि यही स्थिति चालू रही तो कालान्तर छोटे-छोटे प्रकरणों को उजागर करने की लालसा सता रही में कोई भी दि० साधु न रहेंगे और जो कुछ क्षुल्लक या
होगी जिनके कि उल्लेख श्वे. साहित्य की चूर्णि, निशी. ऐलक बनेंगे वे सवस्त्र होगे तो निश्चय ही श्वे० विद्वानों
थिका, आगम आदि प्रथो मे ही उपलब्ध होते हैं । दि० मे और कहने में तनिक भी संकोच न रहेगा कि दिगम्बरत्व नही। मैं समझता है कि उनकी इच्छा महात्मा बुद्ध के स्वयं में कुछ नहीं अपितु श्वेताम्बरत्व की ही शाखा है
जीवन की बारीकियो के भांति, जिनका कि उल्लेख जातक यह परिकल्पना मैं अब से भविष्य मे दो चार शताब्दी
कथाओ, त्रिपिटकों सुत्त आदि प्रथो मे उपलब्ध होता हैं, बाद की कर रहा हूं। जब कि कोई दिगम्बर दिखेगा ही,
उसी तरह भ. महावीर के जीवन की बारीकियो को नहीं। जरा दूर दृष्टि से संवत ३००० की कल्पना कीजिए।
प्रकाश में लाने की होगी, पर ऐसे विवादास्पद उपन्यास उस समय अब कोई दिगम्बर होगा ही नही तो फिर
को लिखने से पूर्व उन्हें दोनो सम्प्रदायों के साहित्य और दिगम्बरत्व के अस्तित्व में क्या तक और प्रमाण प्रस्तुत सिद्धान्त का गहन अध्ययन जरूरी था जिससे किसी की किए जा सकेंगे, केवल प्राचीन साहित्य और इतिहास ही
अगुली उठाने की जुर्रत न पड़ती। अभी विगत वर्ष प्रसिद्ध दिगम्बरत्व का प्रतीक रह जावेगा । अत: इस दिशा में
कथा शिल्पी, हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार, शरद बाबू के विद्वानों एवं समाज सेवियों को कुछ सोचना एवं उपाय
चितेरे श्री विष्णु प्रभाकर जी ने बाहुबली के ऊपर एक खोजना चाहिए। जैन साधु भी इस दिशा में आत्मालोचन
नाटक लिखा था जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित करे और भविष्य में दिगम्बरत्व लुप्त न हो जावे इस सबंध
किया है उस नाटक को श्री विष्णु जी ने इतनी कुशलता में कुछ गवेषणात्मक विवेचना करें।
और चतुराई एव दोनो सम्प्रदायो की विचारधाराओ का अभी प्रसिद्ध कथा शिल्पी श्री वीरेन्द्र कुमार जैन जो गहन अध्ययन कर लिखा कि दि० या श्वे० किसी को स्वयं दिगम्बरी है का 'अनुत्तर योगी' एक वृहत उपन्यास भी कही भी कुछ अंगुली उठाने या आलोचना करने की प्रकाशित हुआ है अभी हाल में सम्भवतः पाचवा भाग जगह नही छोड़ी, दोनों ही वर्ग उससे पूर्णतया सतुष्ट हैं। प्रकाशित होना है, इसे इन्दौर की दिगम्बर समाज द्वारा यद्यपि विष्णु जी जैनी नहीं हैं फिर भी उन्होने किसी भी
अपित "महावीर निर्वाण शताब्दी समिति" द्वारा लाखों वर्ग के किसी विवादग्रस्त मसले को छुआ ही नहीं जबकि रुपये खर्च करके प्रयाशित किया जा रहा है । यद्यपि यह श्री वीरेन्द्र जी जैनी हैं और दिगम्बरी है फिर भी विवादकल्प अब है कोई सैदान्तिक दिवेचना एवं गवेषणा से ग्रस्त मसलों की वे उपेक्षा न कर सके और एकांगी पक्ष
dोर्ट मपर्ण शास्त्र नहीं है पर इसमें दिगम्बर को प्रबल बना गये, ऐसा लगता है कि उन्हें अपनी कृति विरोधी कुछ संद्धान्तिक विवेचना की है या उदरण दिए
(शेष पृ०२३ पर)
रूपये
कोई
नहीं है पर
दिए
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विचारणीय-प्रसंग 'अनुत्तरयोगी-तीर्थकर महावीर' (उपन्यास)
Dपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
रचना की पृष्ठभूमि : (लेखक की जबानी): लेखक के उक्त बिखरे उद्गारों से स्पष्ट है कि
पद्मभूषण पं० सुमतिबाई जी ने कहा-आप मुनि दिगम्बर क्षेत्र (श्री महावीर जी) में दिगम्बर मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज से मिलिए। वे एक मात्र ऐसे की भावनानुरूप (जन्मन) दिगम्बर लेखक द्वारा 'अनुत्तर व्यक्ति हैं जो संप्रदाय निरपेक्ष रूप में लिखवाना चाहेगे। योगी'-तीर्थकर महावीर (उपन्यास) का निर्माण हुमा महाराज श्री महावीर जी में विराज रहे हैं, मैं परिचय और इन्दौर की (दि. जैन) ग्रन्थ प्रकाशन समिति से पत्र लिखे देती हूं। हम श्री महावीर जी पहुंचे। महाराज प्रकाशित हुआ-सभी प्रसग दिगम्बरी हैं। अभी तक श्री को पत्र दिया उन्होने वह पत्र पढ़ लिया ओर एकान्त प्रकाशित हुए चार भागो की कुल पृष्ठ सख्या १५४७ और में मिलने के लिए कहा। जब मैं उनसे मिलने गया तो मूल्य ११०.०० रुपए है। पाचवां भाग लेखनाधीन है। उन्होंने मेरा कन्धा पकड़कर कहा-आपके लिए परिचय इतने बृहद उपन्यास मे प्रभूत द्रव्य का व्यय (दिगम्बरपत्र की क्या जरूरत है मैं तो आपको खोज ही रहा हूं। धर्मावलम्बियो द्वारा) हो जाना साधारण सी बात है।
आपकी कलम मुझे चाहिए उपन्यास लिखने के लिए । मेने ग्रंथ के कुछ प्रसंग (जो वि०परम्परा के सर्वया कहा उपन्यास नहीं लिबूंगा, महाकाव्य लिखूगा। महा- विपरीत हैं): काव्य के रूप मे वह गाथा ज्यादा सफल होगी, ज्यादा जब हमने अनेकान्त मे समालोचना करने की दृष्टि आकर्षित करेगी। महाराज श्री ने कहा लिखिए तो आप से उक्त ग्रंथ को पढ़ा तो बड़ा धक्का लगा। हमने प्रथ मे उपन्यास ही, मैं काव्य भी लिखवा लूगा । “अनुत्तर योगी" महावीर के मुख से कहलाए गये निम्न स्थल देखेका जन्म श्री महावीर जी मे हुआ यों कहिए कि "अनुत्तर १. "एक सुन्दर चांदी की चोकी वहा अतिथि के पडयोगी का गर्भधारण हुआ, गर्भाधान हुआ वही यह निर्णय गाहन को प्रस्तुत थी। मैंने उस पर पग धारण लिया गया। फिर इन्दौर से बाबूलाल जी पाटौदी आए किया।" (भाग २ पृ. ६) उनके साथ फिर श्री वीर निर्वाण अन्य प्रकाशन समिति २. "सर्वार्थसिद्धि जैसी आत्मोन्नति की ऊर्वश्रेणियों पर के अन्तर्गत अनुबन्धित करने का प्रस्ताव हुआ।" डा. आरूढ़ होकर भी कभी-कभी आत्माएं नारकी और नेमीचन्द जी ने प्रूफ रीडिंग में काफी मदद की। केवल नियंच योनियो तक मे आ पड़ती है।" प्रूफ रीडिं। मे ही मदद नहीं की है। बल्कि "अनुत्तर
(भाग २ पृ० ५१) योगी" का जो स्वरूप है, उसके कलेवर मे, मुद्रण मैं जो ३. "उस हवेली के द्वार पर कोई द्वारापेक्षण करता नही सारा परिष्कार किया, उसका जौ (फार्मेट) मे चाहता था, खडा है । आतिथ्य भाव से शून्य है वह भवन । ठीक पत्राचार के द्वारा मिलना बहुत कम होता था, आपने उमी के सन्मुख खड़े होकर श्रमण ने पाणिपात्र पमार (म. सा. ने) मुझे पूरा-पूरा ग्रहण कर लिया, भीतर से, दिया। गवाक्ष पर बैठे नवीन श्रेष्ठि ने लक्षमी के प्रथम खण्ड से ही........."मेरी कल्पना को साकार मद से उद्दण्ड ग्रीवा उठाकर अपनी दासी को आदेश
दिया :-तीर्थकर वर्ष १२ अक के अंश : साभार । किंचना, इस भिक्षुक को भिक्षा देकर तुरन्त विदा कर
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अनेकान्त
दासी भीतर जाकर काष्ठ के भाजन में कुलमाष लिवा ले गए फिर आदेश दिया कि-आयुष्यमान धान्य ले आई और श्रमण (महावीर) के फैले कर- मुमुक्षकों, श्री भगवान का वन्दन करो। वे पांचों गुरू पात्र में उसे अवज्ञा के भाव से डाल दिया।"
आशा पालन को उद्यत हए कि हठात् शास्ता महा
(भाग २ पृष्ठ १५२) वीर की वर्जना सुनाई पड़ी-केवली की आशातना ४. "ना कुछ समय में ही ग्वाला कही से कास की एक न करो, गौतम ! ये पांचों केवलज्ञानी अर्हन्त हो
सलाई तोड़ लाया। उसके दो टुकड़े किए। फिर गए हैं । अहंन्त, अहंन्त का वन्दन नहीं करते।" निपट निर्दय भाव से उसने श्रमण के दोनो कानो में
(भाग ४ पृ० २८४.२८५) वे सलाइयां वेहिचक खोस दो। तदुपरान्त पत्थर इसी प्रकार बहुत से प्रसंग दिगम्बरों के आगमों के उठाकर उन्हें दोनो ओर से ठोंकने लगा।" विपरीत हैं, जिन्हें भावी पीढी प्रमाण रूप में प्रस्तुत करेगी
(भाग २ पृ. २१२) और अनायास ही दिगम्बर के विपरीत मार्ग की पुष्टि १. (सलाइयां ठुको और वेदना की अवस्था मे) 'सिद्धार्थ होगी। हमने ऐसे ही कतिपय प्रसंगों के आधार पर प्रका.
वणिक के द्वार पर अंजुली पमार दी है"... - "विपुन शन संस्था से विनती की, कि वे ग्रंथ में दिगम्बर सिद्धान्तों केशर, मेवा, द्राक्ष से मधुर और सुगधित पयस उसने (कथानकों) के विपरीत आए प्रसगों का स्पष्टीकरण करें मेरे कर-पात्र में ढाल दिया है। उसके घट कण्ठ से कराएं। तथाहिनीचे उतारने में जो कष्ट हो रहा है, वह पास ही भाग २ पृष्ठ ६ पंक्ति ३-४ क्या दि० मुनि चाँदी की चौकी खड़े श्रेष्ठ के परममित्र खरक वैद्य ने लक्ष्य कर
पर चरण रख सकता है? लिया।"
(भाग २ पृष्ठ २१४) भाग २ पृ०५१ प. २०-२१ क्या सर्वार्थसिद्धि का जीव ६. "सिद्धार्थ और खरक वैद्य आवश्यक औपधि उपचार
नरक, त्रियंचगति में जा के साधन लेकर उद्यान में दौड़े आए हैं। मेरे शरीर
सकता है ? को पपासन में ही ज्यों का त्यौ उठाकर एक तेल की
भाग २ पृ. १५२ प. १२-१८ क्या द्वारापेक्षण बिना, दासी कुण्डी में बिठा दिया गया है । ....."फिर दो व्यक्तियो
के द्वारा अवज्ञापूर्वक दिया ने....."संगसियां लेकर, दोनों कानों के शूलो पर
आहार मुनि ले सकता है ?
भाग २ पृ. २१२ पं. २५-३० वज्रवृषभनाराच सहनन में पकर बैठाकर एक साथ उन्हें पूरी शक्ति से खीचा । ....."उस क्षण बरबस ही मेरे मुख से एक भयकर
कीले ठुक सकते हैं क्या?
भाग २ पृ. २१४ पं. २५-36 क्या मुनि उपसर्ग दशा में पीख निकल पड़ी। ऐसी वेदना की अनुभूति हुई, जैसे कोई वजवाण ब्रह्माण्ड के हृदय को भेदकर मेरे
आहार को जा सकते हैं ? आर पार निकल गया हो।" (भाग २ पृ. २१५)
भाग २ पृ. २१५५. २८-३५ तेल की कुण्डी में बिठाकर
मर्दन किया जाना और मुख ७. "कांटों और डालो के खुप जाने के कारण असह्य
से चीख निकलना महावीर में वेदना से शरीर टीसने लगता है।"
संभव है क्या? (भाग २ पृष्ठ १०)
भाग २ पृ. १०५. २३-2५ असह्य वेदना से शरीर टीसना ८. "चम्पा पहुंच कर अपने पांचों शिष्यों (साल, महासाल, गागली, पिठर और स्त्री यशोमती) सहित श्री
महावीर मे कैसे ठीक है?
भाग ४ पृ. गौतम समवशरण मे यों आते दिखाई पड़े जैसे वे पांच
१६०५० २३- समवशरण (केवली अवस्था) सूर्यों के बीच खिले एक सहस्रार कमल की तरह चल
में उपसर्ग (तेजोलेश्या का)
दिगम्बरों में मान्य है? रहे हैं। पांचों शिप्यों ने गुरू को प्रणाम कर, आदश भाग ४ पृ० १६०५० २८ समवशरण में हाहाकार संभव चाहा। गौतम उन्हें श्री मण्डप मे प्रभु के समक्ष
है क्या?
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विचारणाय-प्रसंग
भाग ४ पृ० २८४ प० २१- 1. यशोमती स्त्री का अर्हन्त वेश धारण करना स्वीकार करेंगे? या वे मिलकर एक
होना क्या स्त्री और सवस्त्र चर्या आदि को स्वीकार करेंगे? मुक्ति की संपुष्टि नहीं?
समाज के नेता और लेखक प्रति जरा सोचे, कि वे २. क्या दिगम्बर महावीर
यश और अर्थ अर्जन को प्रमुखता देने के लिए लोगों को गणधर को वर्जना करेंगे? या
भरमाना पसन्द करेगे या दिगम्बर आगमो और उनके गणधर पांचों के अहंन्त होने
मन्तव्यों की सुरक्षा का मार्ग पसन्द करेंगे? को न जान सके होगे?
उक्त ग्रन्थ 'मत्रदृष्टा पूज्य श्री विद्यानन्द स्वामी' को इसी प्रकार के बहुत से अन्य प्रश्नो का निराकरण
समर्पित होने से ही हम सा नही समझते कि ऐसे विरुद्ध करना पडेगा । हमारा भाव था कि
स्थलों को स्वामी जी की स्वीकृति होगी। वे दिगम्बरों के विज्ञ पुरुष भली भांति जानते है कि अकलक प्रभृति
श्रद्धास्पद गुरु है, दिगम्बर सिद्धान्त, चर्या आदि पर वे दि० पूर्वाचार्यों ने आगमो को कैसी-कैसी विपरीत परि
कभी आंच न आने देंगे। वे तो दिगम्बर धर्म सस्था के स्थितियो मे सरक्षित और प्रचारित किया है इस युग मे
सरक्षणार्थ अनशनादि तक के पक्ष-धर हैं। हमारी धारणा भी हमारे विद्वानों को "सजद" जैसे शब्द के सबध मे
है कि यदि मुनि श्री विद्यानन्द जी को विरुद्ध-स्थलों को पुनरीक्षण करना पड़ा था और आज भी "सत" आदि
पहाया वा दिखाया होता तो ये विसगत प्रसग न होते । शब्दों के प्रासगिक अर्थ विचारणीय बने हुए है। आज कही आगम के मूल शब्दरूप बदले जा रहे हैं और कही शब्दार्थ।
लेखक को हम क्या कहे ? वे तो सिद्ध-हस्त प्रसिद्ध यदि शोध के नाम पर आगम के मूल शय रूपो, अर्थों या लेखक है। उन्होंने भाषा-मौम्य और लम्बी कथा के लक्ष्य भावों में परिवर्तन लाने का प्रयास इसी भाति होता रहा मे सैद्धान्तिक विसगनियों के उभार को किनारे रख दिया। या आगमो के मन्तव्यों के विपरीत अन्य नवीन ग्रन्थो का फिर वे यह कह भी चुके है कि "दि. और श्वे. आगम प्रकाशन और प्रचार होता रहा तो दिगम्बरी के आगमो तथा इतिहास मे उपलब्ध नधो का चुनाव मैंने नितान्त के मूल मंतव्य और महापुरुषों के गिम्बर मान्य जीवन अपनी मृजनात्मक आवश्यकता के अनुसार किया है।"
और तथ्य लोगो की दृष्टि से ओझा हो जाएँगे तथा लोग उक्त अनुबन्ध प्रकाशकों को स्वीकार हुआ प्रतीत होता है दिगम्बर आचार-विचार से भी ही हो जाएंगे। जो भावी पीढ़ी को विचलित करने में कारण बनेगा।
'अनुत्तर योगी तीर्थकर महावीर' सप्रदाय-निरपेक्ष के क्या अनुत्तर-पोगो धर्म-ग्रंथ नहीं? नाम पर तैयार ऐसी हो रचना है, जिसमे जाने-अनजाने कहा जा रहा है 'अनुत्तर-योगी' धर्मग्रंथ नही हैमात्र सौष्ठव के मिस, दिगम्बर सिद्धान्तो के विपरीत ऐसा यह काव्यमय उपन्यास है और उपन्यास मे कल्पना की बहत कुछ बन पड़ा है जो भविष्य मे दिगम्बरो के विरुद्ध छूट है, आदि। पर, इससे क्या हम ऐसा मान लें कि प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया जा सकेगा। यत:-इस ग्रन्थ चारों पुरुषार्यो मे यह रचना अर्थ पुरुषार्थ' मात्र का फल के निर्माण मे सभी दि० स्तम्भो का प्रमुख हाथ है। है। यतः इसे धर्म-पुरुषार्थ तो माना नही जा रहा और
संप्रदायातीत दष्टि का अर्थ किसी के सिद्धान्तो की काम और मोक्ष पुरुषार्थ से इसे सर्वया वजित रखा गया काट नही, अपितु बहिरग अन्तरग दोनो मार्गों मे समन्वय है यतः इनकी पुष्टि भी ग्रन्थ से नही होती। है। लोग बहिरंग साम्प्रदायिक चिह्नो से तो चिपके रहे हम यह मानते हैं कि कवि और लेखक को अपन और अन्तरग सिदान्तो की काट करे ये कैसी सप्रदायातीत रचना मे कल्पना की स्वतन्त्रता है पर, किसी प्रसग में दृष्टि है? क्या संप्रदायातीत दृष्टि पेश करने के लिए भी कल्पना वस्तु स्थिति की पुष्टि से विरुड नहीं होनी दिगम्बर मुनि वस्त्र पहिनना और बस्त्र वाले दिगम्बर चाहिए। अपितु वस्तु-स्थिति को स्पष्ट करने में सहावी
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३२, वर्ष २६,कि.
अनेकान्त
होनी चाहिए। फिर, जब महावीर जीवन के कुछ प्रसंगों अधिक हो सकते है-जिनका निराकरण होना चाहिए था। और आगम के कुछ सिद्धान्तों में पंथ-भेद हो और अन्य का
पाठक विचारें कि यदि कही किसी सरकारी स्कूली निर्माण दिगम्बर संस्था द्वारा संप्रदाय-निरपेक्ष दृष्टि से ।
पाठ्यक्रम में कोई विरोधी बात लिख दी जाती है तब हम कराया गया हो तब तो विरोध-परिहार और भी आव
ही उसका विरोध करते हैं कि यह बात हमारे सिद्धान्त के श्यक है जो प्रथ मे नही हुमा, अपितु दि० सिद्धान्तो के विरुद्ध काफी कुछ लिखा गया हैं।
विरुद्ध क्यों लिखी गई ? यह प्रकाशन तो दिगम्बरो के
द्वारा दिगम्बर सिद्धान्तो का स्वंय ही घत है । उक्त सभी __ लेखक का बारम्बार निर्देश होने पर भी और यह
प्रसंग पाठकों के समक्ष सम्मत्यर्थ प्रस्तुत हैं । कृपया पाठक विदित होने पर भी कि लेखक इसमे अधिक उपयोग
अपनी सम्मति भेजकर अनुग्रहीत करें। हम उसी के आधार श्वेताम्बर-मान्यताओ का कर रहा है। दिगम्बर प्रकाशन
पर "अथ समीक्षा" करेंगे । यत ग्रन्थ हमें समीक्षार्थ प्राप्त समिति और सम्बन्धित व्यक्तियो का यह कर्तव्य था कि है। और वीरसेवा मन्दिर कार्यकारिणी ने भी हमे यह वे सप्रदाय-निरपेक्ष अथ मे से ऐसे प्रसगों को हटाने का कार्य सौंपा है। हाँ, सकेत देते जिनसे दिगम्बरो के सिद्धान्तो का खडन होता
___अन्त में हम उन सभी दि० संस्थाओ से, और विद्वानों स्मरण रहे--सभी पाठक अन्तिम निर्देशिका, परि
से करबद्ध निवेदन करते है कि वे जहा वाहरी रूपों और शिष्ट, परिप्रक्षिका आदि पढ़ने के अभ्यासी नहीं होते।
टीप-टाप पर विशेष दृष्टि रखते हों-वहां आगम के मूल कई तो पूरा प्रथ भी नही पढ़ते। ऐसे में प्रथ के मुखपृष्ठो
तथ्यो को सुरक्षित रखने पर भी विशेष बल दें। व्यवहार
बदलने वाला है-पर आगम में वर्णित मूल तत्व सदा एक पर भी मोटे टाइम मे लिखा देना चाहिए था कि-कथानक
रूप और अरिवर्तन शील है-उनकी रक्षा से ही दिगम्बमे श्वेताम्बर-मान्यताओ का बाहुल्य है और सैद्धान्तिक स्थलो
रत्व की रक्षा होगी बाहरी आडम्बर या जय-जयकार से मे दिगम्बर-पवेताम्बर मतभेद भी है उस पर ध्यान न
नही । वीर नि० ग्र० प्रकाशन समिति से भी हमारी करदिया जाय आदि । फिर, ऐमे प्रकाशन की आवश्यकता ही क्या आ पड़ी थी। इसके प्रकाशन के विना ही दि० प्रका
बद्ध प्रार्थना है कि वह दिगम्बर सिद्धान्तो के सरक्षण और
प्रचार मे सरसेठ हुकुम चन्द जी साहब की मर्यादाओ को शन-समिति उद्देश्य-पूर्ति कर रही थी। पे उल्टा दुष्प्रचार
कायम रख इन्दौर के नाम और सेठ साहब के संकल्प को ही हुआ है। हमने समणसुत्त भी पढ़ा है उसमे विरोध को
अक्षुण्ण रखे। यतः-वर्तमान काल में इस क्षेत्र में बीतनही छुआ गया-'अनुसर योगी' का स्तर भी वैसा हो
राग देव का सर्वथा अभाव है और परम दिगम्बर गुरुओ अविरोधी होना चाहिए था। ये सब हम इसलिए लिख रहे हैं कि आज जनता की
का समागम भी यदा-कदा होता है। ऐसे में श्रावको रुचि आगम के पठन-पाठन मे दिन पर दिन कम होती जा
और जिज्ञासुओं को आगम-मात्र का सहारा है; उसके हाई रही है। विशेषकर नई पीढ़ी के बाल-युवा सभी का ध्यान
को सुरक्षित रखने और तदनुकूल साहित्य को प्रकाशित प्रकाशित नवीन पुस्तकों और पत्रिकाओं पर ही रहता
करने कराने से ही दिगम्बर धर्म की रक्षा है। समिति है-वे उन्ही के आधार पर अपनी श्रद्धा और ज्ञान को
सतत जागरूक रहे ऐसी हमारी भावना है। पुष्ट करते हैं, उनकी दृष्टि यह भी नही होती कि ये किस
वीर सेवा मन्दिर श्रेणी का साहित्य है। ऐसे में विपरीत श्रद्धान के अवसर
नई-दिल्ली
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साहित्य-समीक्षा
भारतीय धर्म एवं अहिता :
है । कारण यह कि इससे अनेक धार्मिक सम्प्रदायो के
ऋषियों और महापुरुषों की छवि धूमिल होती है । 'धूमिल' लेखक : सिद्धान्ताचार्य प० कलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी
शब्द तो बहुत शिष्ट है-वास्तव में उनके द्वारा प्रतिपादित प्रकाशक : श्री राजकृष्ण जैन चरी० ट्रस्ट, दरियागज दिल्ली
हिंसक विधान मुख पर कालिख पोत देता है। साइज : २३४३६ x १६ पेज २१६, मूल्य : २५ रु०।।
सिद्धान्ताचार्य पडित कैलाशचन्द्र जी ने अहिंसा के विद्वद्वर सिद्धान्ताचार्य प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री को
कल्याणकारी स्वरूप को तो दर्शाया ही है, उनका मुख्य यह पुस्तक 'भारतीय धर्म और अहिंसा' अनेक अर्थों मे
विषय और ध्येय भी यही है, किन्तु उन्होंने साहस के साथ एक विशिष्ट और विलक्षण कृति है, अहिसा, भारतीय
उन वीभत्स सदों को और क्रियाकार तथा विधि-विधान विचार पद्धति, और विशेषकर जैन दर्शन तथा जैन जीवन
की उन कुत्सित छवियो को उकेरा है जहा मनुष्य पशु से चर्या का मूलभूत सिद्धान्त है। इस विषय पर अनेक
भी नीचे उतरकर इमी दुनिया मे, इसी मानव समाज में पुस्तकें लिखी गई है। जैनधर्म से सम्बन्धित कोई भी
नर्क को सशरीर उतार लाता है। सम्मेलन हो, कोई भी आयोजन या सगोष्ठी हो जिसमे किसी भी वक्ता को धर्म या दर्शन पर कुछ बोलना हो, पडितजी ने जब यह व्याख्यान श्री राजकृष्ण जैन अहिंसा की धुरी पर ही उसके विचारो का चक्र घूमेगा। चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय के अन्तर्गत इसी बीज पर विषय का पादप पनपेगा, पल्लवित और स्थापित श्री राजकृष्ण जैन स्मृति व्याख्यान माला मे पुष्पित होगा । महान आचार्यों ने अहिंसा पर जो चिन्तन विश्वविद्यालय के मच से विद्वानो और बौद्धिक वर्ग के किया है, मन वचनकाय की भूमिका पर इसे प्रस्थारित सामने प्रस्तुत किया तो थोताओ मे बैठे-बैठ मैं इतना करके आश्रव, बन्ध और निर्जरा का जो व्यापक ससार बेचैन हो गया कि मैंने चाहा कि कहू-पडित जी, इस रचा है, वह विश्व के समग्र दर्शन शास्त्र, मनोविज्ञान और प्रमग को बन्द कर दें। मुझे र था कि विवाद उठ समाज शास्त्रीय अध्ययन मे अपूर्व और अद्भुत है कि भार- खड़ा होगा और उस कर्मकाण्ड तथा विधिविधान को तीय प्रज्ञा इससे गौरवान्वित हुई है। बड़ी बात यह कि अपनी धार्मिक परम्परा का अग मानने वाले विरोध करेंगे अहिंसा-चिन्तन के इतने बड़े प्रसार के जीवन के साथ और कहेगे कि जो प्रतीको और अलकारो में कही गई है, जोड़ने की कला भी जैन तीर्थकरो और आचार्यों की देन उमे पडित जी स्थूल शाब्दिक अर्थों में प्रस्तुत करके धार्मिक है। अहिंसा के विचार और व्यवहार को गहरी छाप अन्य परमरा की निंदा कर रहे हैं । किन्तु किसी एक भी विद्वान, धर्म-प्रवर्तको के चिन्तन और जीवन निर्देश मे प्रतिबिम्बित एक भी श्रोता ने चू नही की । कोई करता भी कैसे क्योकि है। ऋग्लेद के ऋषियो की ऋचाओ से लेकर गाधी एक-दो सदर्भ हों तो प्रतीक खोजने का मानसिक श्रम किया अरविन्द और बिनोबा के वचनो प्रवचनो तक यह परपरा जावे, यहा तो हिंसा के कुत्सित व्यापार की एक पूरी चली है। अहिंसा-दर्शन राजनीति में सत्याग्रह के रूप मे परम्परा और कड़ी से कडी जोड़ने वाले सदों की एक अवतरित हुआ और उसने इतिहास में चमत्कार उत्पन्न पूरी शृखला ही सामने आ गई। क्या किया जाये । पडित किया । अहिंसा के चिंतन और प्रतिपादन में हिंसा स्वभाव जी ने विषय के प्रति न्याय करने के लिए कितना अध्ययन आता है, किन्तु अब तक हिसा के विद्रूप की लोमहर्षक, किया है, प्रमाण जुटाने में कितना श्रम किया है-देख प्राणो को हिला देने वाली छवि आखो से भोझल रखी गई सुनकर आश्चर्य होता है ! रोगटे खड़े कर देने वाले चित्रों
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अनेकान्त
का चितेरा किस प्रकार वाणी का कलाकार बनकर प्रणम्य अहिंसा के सिद्धान्त (पृष्ठ १५४), जैनधर्म और बौद्ध धर्म हो जाता है, यह पं० जी ने अपने व्याख्यान की उन दो की अहिंसा मे तात्विक दृष्टिकोण का भेद (पृष्ठ ८९) आदि संध्याओं में प्रनाणित कर दिया।
प्रसंग सार्थक हैं। मैं समझता हं जब पडित जी ने व्याख्यान का विषय पुस्तक की शैली के विषय में दो शब्द कहना आवश्यक निचित किया--'भारतीय धर्म और अहिंसा' तव उनके है। पडित जी मे यह कला है कि वह दुरुह से दुरूह विषय मन मे विषय की सीमा इतनी ही रही होगी कि यह प्रति- को मुलझा कर सामने रख देते हैं। पुस्तक मे स्थान-स्थान पादित किया जाये कि आदि तीर्थकर भगवान ऋषभनाथ पर रोचक कथा-प्रसग पाठक को प्रमुदित करते हैं। पडित के युग में अहिंसा का जो स्वरूप निर्धारित हुआ उसका जी का अध्ययन इतना व्यापक है कि वेद, पुराण, उपनिषद, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य क्या था और फिर अहिसा का स्वरूप महाभारत के सदर्भ सहजता से जुड़ते चले जाते है। उत्तरवैदिक धर्म मे पौराणिक युग की श्रमण सस्कृति मे तथा रामचरित का वह प्रसग यथा स्थान जुड़ गया है जहा बौद्ध धर्म में वह क्या रहा । किन्तु जब वह अपना भाषण वाल्मीकि के आश्रम में महर्षि वशिष्ट के पधारने पर उनके लिखने बैठे तो अहिंसा के सदर्भ को आधुनिक युग के मत्कार मे बछिया का वध किया गया है। वहां और दो चिन्तन, समस्याओ, प्रश्नो को जीवन-पद्धति और सामाजिक शिष्यो का वार्तालाप चलता है : परिप्रक्ष्य से जोडकर व्याख्यायित करने की आवश्यकता को वह दृष्टि से ओझल नही कर सके । यही कारण है कि
"अच्छा, वशिष्ठ ऋषि आये है ?" अहिमा पर लिखी जाने वाली पुस्तकों में यह अद्यतन और
"हाँ ?" अद्वितीय है। मासाहार और शाकाहार,' औषधि-उपचार
"मैंने तो समझा कि कोई व्याघ्र या भेड़िया आया है।" और अहिंसा', 'गाधी जी और अहिंसा, 'बिश्वशान्ति और
"अरे क्या बकते हो।" अहिंसा,' 'अहिंसा और वीरता मे भेद,' अहिंमा और
"उसने आते ही बेचारी कल्याणिका गौ को खा शासकीय दण्ड विधान, आदि अनेक विषयो को मौलिक
डाला।" ढग से उठाया हैं और अहिंसा के दृष्टिकोण को प्रतिपादित
नाटक का यह अश पंडित जी की शैली के कारण किया है। तात्पर्य यह है कि विद्वानो में पडित कैलाशचन्द्र
जीवित और सटीक हो गया है। जी ऐसे हैं जिनका शास्त्रीय ज्ञान गहराई मे तो विशिष्ट है
विद्वत्ता का गुण बौद्धिकता माना जाता रहा है। पं० ही, पंडित जी आधुनिक जीवन की समस्याओ से भी साक्षात्कार करते है और इसीलिए उनकी जैन दर्शन की कैलाशचन्द्र जी ने 'इसमे रोचकता' का आयाम जोडकर व्याख्या आधुनिक युग के जिज्ञासुओ और श्रोताओ को भी बौद्धिकता को अक्षुण्ण रखा है। आकर्षित करती है।
__ यह पुस्तक ऐसी है कि इसका अनुवाद यदि भारतीय
भाषाओ मे और विदेशी भाषाओ मे किया जाये तो जैनधर्म में अहिंसा का स्वरूप क्या है- महाव्रत और
सांस्कृतिक जगत को पडित जी की यह देन व्यापक अणुव्रत की भूमिका तथा स्वरूप क्या है, हिंसा के १०८
5 रूप से प्रबुद्ध, प्रेरित और उपकृत करेगी। प्रकार क्या है आदि अनेक विषयो को सुबोध ढग से सममाया गया है। विस्तार के साथ-साथ सारसक्षेप भी देते
-लक्ष्मीचन्द्र जैन . गये हैं ताकि विवेचन हृदयगम हो जाये। जैनी अहिंसा के
निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ मूल सिद्धान्त (पृष्ठ १४१), गाधी जी द्वारा प्रतिपादित
नई दिल्ली
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जरा-सोचिए
1. नेता के विचार और हम ?
२. चोर जगा रहे हैं ? १. मैं सत्य कहता हूं, बिल्कुल शुद्ध हृदय से कि मुझे चोरी क्यों होती है और किसकी होती है ? ये सोचने लेकर कोई (अमृत) महोत्सव मने-इस पक्ष में मैं नही की बात है । जिन-भगवान वीतराग हैं, मन्दिर और मंदिर हूं। मैं नहीं चाहता, इसे लोग इस या उस तरह मनाये। के उपकरण सभी उनके नही। ये तो शुभ-रागियो द्वारा मैंने तो अपने दिल्ली-बम्बई के मित्रो और सहयोगियो से शुभ-रागभाव में निर्मित रागियो के भवन हैं और उनके निवेदन किया है कि वे मुझे अपनी शुभ कामनाये दे, यही बहुमूल्य भौतिक उपकरण भी रागियों के ही । जिम-शासन मेरा पाथेय है।
मे बीतराग-भाव की महिमा है और वीतरागभाव के २. हमे कुछ आदर्श स्थापित करने होगे । पौत्र चि० साधन जुटाने के उपदेश । बकुन की शादी हुई जितना भी देना चाहा सब कार अब परम्परा कुछ ऐसी बनती जा रही है कि लोग कर दिया। इसी प्रकार दूसरे बच्चो की शादी जब होगी,
मन्दिरों और मूर्तियो मे भौतिक सम्पदा देखने-दिखाने के मेरा मन है, उन सब में भी हम कुछ नही लेंगे।
अभ्यासी बन रहे है-वे सासारिक विभूति का मोह छोड़ने
के स्थान पर, वीतराग-भाव की प्राप्ति में साधनभूत३. केवल प्रचार-प्रसार से काम नही चलेगा, वस्तुत
मन्दिरो, मूर्तियो मे सासारिक विमूति देखने लगे हैं। कोई हमे स्वय कुछ जिम्मेदारी उठानी चाहिए कम से कम उम
चादी, मोने और हीरे की मूर्तियां बनवाते हैं तो कोई बहक्षेत्र मे जिममे कि हमाग विश्वास है।
मल्य छत्र-चमर सिंहासन आदि । और यह सब होता है ४. आज हमारे यहा तनाव, पागलपन, कलह, राग
नाम, ख्याति, यश और प्रतिष्ठा के लिए लोग चाहते हैं द्वेप बहुत बढ़ गये है।
नाम लिखामा आदि । यह मार्ग सर्वथा त्याज्य है। ५. मेरे हिसाब से, जो अप्रमत्त (शिथिलाचारी नही)
___ जब लोगो ने राग-त्याग के वीतरागी उपदेश की शास्त्रोक्त मुनियो के प्रति भक्ति-भाव रखता है, वह मुनि
अवहेलना की तब चोरो ने थप्पड मारकर उन्हें सचेत
किया और वे मार्ग पर आने को मजबूर होने लगे हैं। ६. मुनि वह बने जिसे शास्त्र का सम्यज्ञान हो
अब वे कह रहे हैंऔर तदनुसार असदिग्ध आचरण की तैयारी हो ।
सादा मन्दिर मे सादा मूर्ति, वह भी विशाम पाषाण७. आज मुनियो को आहार देने की प्रक्रिया काफी
निर्मित होनी चाहिए-जिससे वीतरागता मलके । जटिल और व्ययसाध्य बन गयी है। मामूली आदमी
लोगो की इस प्रक्रिया से क्या हम ऐसा मान लें कि आहार देने की हिम्मत नही कर पा रहा है।
जिन्होने वीतरागता की अवहेलना की उन्हें चोरो ने थप्पड़ ८ हमारे दादा जी कहा करते थे, पण्डित जी आये
मारकर सीधे मार्ग पर लाने का उपाय ढूंढा है। असली हैं बेटा ! इनके पैर पड़ो! इनके लिए खाना खुद पगेस
बात क्या है ? जग सोचिए ? और यह भी सोचिए कि कर लाओ । आज यह बात नही है। अब कोई किसी के
लोगो को सादगी और वीतरागता की ओर डालने के पर नही पडता। नौकर, या ब्राह्मण खाना परोसता है। अन्य उपाय क्या है? जो सन्मान-मत्कार की भावना थी, वह लुप्त हो गई है। ३.प्रचार बातों से या प्राचरण से?
-श्री साह श्रेयांसप्रसाद जैन के उद्गार दिगम्बरत्व वस्तु का स्व-रूप-धर्म है और इसका
(तीर्थकर' से साभार) भाव नग्नत्व से है । जब कोई वस्तु आवरण अर्थात विकार
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१०,
११, कि०४
भनेकान्त
रहित निर्मल स्वरूप में प्रकट होती है तब उसका वह रूप केवल शब्दों द्वाग बतलाने का प्रयत्न करते है-उसका दिगम्बरी होता है और दिगम्बरी रूप को प्रकट करने के प्रभाव लोगों पर नहीं पड़ता। -जरा सोचिए असलियत मार्ग अथवा सिद्धान्तों का अवलम्बन लेने वाला दिगम्बर क्या है ? मार्गी कहलाता है। जैन तीर्थंकरों ने इसी मार्ग का अव- ४. भूल जो आज भी दुहराई जा रही है ! लम्बन ले स्वयं दिगम्बरत्व की प्राप्ति की और इसी मार्ग समाचारों से स्पष्ट है कि १५० वर्ष पूर्व एक भूल को दूसरों के लिए उजागर किया। जो लोग दिगम्बर-रूप किन्ही दि. जैन भट्टारक महाराज ने कुम्भोज पहाड़ी का अथवा दिगम्बर मार्ग को सम्प्रदाय की सज्ञा देते हैं, वे एक मन्दिर, मन्दिरमार्गी श्वेताम्बरों को देकर की; बाद भ्रम में हैं । यतः-सम्प्रदाय पूर्वाग्रहो से-पर-विकल्पो से मे पहाड़ी पर उन्हें धर्मशाला बनाने दी। जिसका दुष्परि
लिया और दिगम्बरत्व वस्त के निर्मल- णाम आज उभर कर सामने आया और फल-स्वरूप स्वाभाविक स्व-रूप की प्राप्ति का मार्ग । फलत: ऐसा बाहुबली की मूर्ति पर पत्थर फेंके गए और त्याग के मत समझना चाहिए कि जब कही सम्प्रदायातीत दृष्टि का
रूप, तपस्वी ज्ञान प्रसारक ६२ वर्षीय वृद्ध दिगम्बर मुनि
समन्तभद्र महार'ज का अपमान हुआ। जिसके निराकरनाम लिया जाय तब वहां बस्तु का स्वरूप अथवा दिगंब
णार्थ मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज को अनशन व अन्नरत्व ही लक्ष्य है और इसी लक्ष्य प्राप्ति का आदर्श मार्ग
त्याग करना पड़ा है और सारी दि. समाज संतप्त और तीर्थकरो का मार्ग है, इसे ही धारण करना चाहिए।
चिन्तित है। अन्य तीर्थो पर तो वर्षों से विवाद चलते ही लोग वर्षों से शोध-खोज की बातें करते हैं, इतिहासों
रहे है। आज भी दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी को उन्ही में तत्तत्कालीन वेष-भूषा रीति-रिवाज आदि का अध्ययन में उलझे रहना पड़ रहा है। ऐसे में सावधानी की करते हैं, मिट्टी पाषाणों कलाकृतियो में तीर्थकरत्व धर्म आवश्यकता है।
ओर दिगम्बरत्व की प्राचीनता खोजते हैं । और तो और हमारा मन्तव्य है कि हम देश और प्रान्त की अख. ऐसे लोग भी, जिन्हें पेय- अपय,-खाद्य-अखाद्य और सामिष डता, सामाजिक सद्व्यवहार और सदाचार के प्रचार निरामिष का तनिक विचार नही, जो स्वयं जनानुकूल प्रसार के मामले में सभी पंथ-सम्प्रदायो से कन्धे से कन्धा देवदर्शन, पूजन, स्वाध्याय आदि से सर्वथा अछुते हैं, जिन्हें भिड़ाकर चलें-एक दूसरे का सहयोग करें। पर धर्म सांसारिक विषय वासना, कीर्ति के साधन जुटाने से फुरसत संबंधी सैद्धान्तिक और आचार-विचार मूलक सद्-परम्पनहीं, वे दिगम्बरत्व के अनुरूप जैन की शोध खोज और राओं को आंच न आने दें, एक मे दूसरे के समावेश को प्रचार-प्रसार की बातें करते है।
प्रश्रय न दें। यदि हम इसमें सावधानी न बरतेगे तो
कालान्तर मे किसी की भूल का प्रायश्चित्त किसी दूसरे को ध्यान रहना चाहिए कि किसी सभा सोसायटी की
इसी भाति करते रहना पड़ेगा जिस प्रकार भट्टारक सदस्यता या अधिकारीपने से, ऊपरी ग्रन्थ-ज्ञान होने से अथवा मीटिंगों में खुले बाहरी मचो पर भाषण झाड़ने से महाराज का भूल का परिमार्जन आज हम दिगबरो के
गुरु कर्मठमुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज को करना पड़ कुछ भी हाथ आने का नही, उल्टा दुष्प्रचार ही होगा।
रहा है और दि. समाज चिन्तित है। दि० मन्दिरो मे यदि वास्तविक दर्द है तो दिगम्बरत्व के अनुरूप क्रिया के
श्वेताम्बरी मूर्ति रखाना, दि० प्रकाशनों में श्वेताम्बरीय भाचरण को, अपने जीवन मे उतारना होगा। जब हम
बातों-कथानकों का समावेश कराना, तीर्थक्षेत्रो मे साझकिया-रूप में स्वर परिणत होगे-तब बिना प्रयत्न के ही
दारी बरतना आदि जैसी भूलें भी इसी जाति की है, जिन्हें प्रचार होने लगेगा । पूज्यवर्णी गणेश प्रसाद जी के शब्दो
दूहराया जाना आज भी बन्द नही है और जो परम्परा में-'यदि हम अपने सिद्धान्त पर आपढ़ हो जावें-उसी
को तो लोप करेगी ही कालान्तर मे वे किसी कोर्ट में भी के अनुसार प्रवृत्ति करने लगे तो अन्य लोग हमारे सिद्धान्त को अच्छी तरह हृदयगम कर लेंगे । परन्तु हम लोग अपने जरा सोचिए ! इस आपदा को टालने के प्रयत्न कैसे सिद्धान्तों को अपने आचरण या प्रवृत्ति से तो दिखाते नही, किये जायें ?
-सम्पादक
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वीर सेवा मन्दिर के वर्तमान पदाधिकारी
कार्यकारिणी समिति के सदस्य
तथा
अध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष महासचिव सचिव
कोषाध्यक्ष सदस्य
१. साहू श्री अशोककुमार जैन २. न्यायमूर्ति श्री मांगीलाल जैन ३. श्री गोकुल प्रसाद जैन
श्री सुभाष जैन श्री चक्रेशकुमार जैन
श्री बाबूलाल जैन ७. श्री नन्हेंमल जैन ८. श्री इन्दर सैन जैन
श्री ओमप्रकाश जैन एडवोकेट
श्री अजित प्रसाद जैन ठेकेदार ११. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन १२. श्री भारतभूषण जैन एडवोकेट १३. श्री विमलप्रसाद जैन (डेसू) १४. श्री अजितप्रसाद जैन १५. श्री अनिलकुमार जैन १६. श्री रत्नत्रयधारी जैन १७. श्री दिग्दर्शन चरण जैन १८. श्री मल्लिनाथ जैन १६. श्री मदनलाल जैन २०. श्री दरयावसिंह जैन २१. श्री नरेन्द्रकुमार जैन
६, सरदार पटेल मार्ग, नई दिल्ली ३०, तुगलक क्रीसेण्ट, नई दिल्ली ३, रामनगर पहाड़गंज, नई दिल्ली १६, दरियागंज, नई दिल्ली ३, दरियागंज, नई दिल्ली २/१०, दरियागंज, नई दिल्ली ७/३५, दरियागंज, नई दिल्ली ४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली ४७४१/२३, दरियागंज, नई दिल्ली ५-ए/२८, दरियागंज, नई दिल्ली बी-४५/४७, कनॉट प्लेस, नई दिल्ली १, दरियागंज, नई दिल्ली २१-ए, दरियागज, नई दिल्ली २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली २७७०, कुतुब रोड, दिल्ली ५, अल्का जनपथ लेन, नई दिल्ली ४६६२/२१, दरियागंज, नई दिल्ली १, दरियागंज, नई दिल्ली सी-६-५८, डेवलपमेण्ट एरिया, सफदरजंग, नई दिल्ली ७/२३, दरियागंज, नई दिल्ली-२ ४८४१-ए/२४, दरियागंज, नई दिल्ली
(पृष्ठ २६ का शेषांश) से परमात्मा बनने का पुरुषार्थ जागृत हो जाता है। सबसे जब यह अपने में बीज देखने लगेगा तो सभी जीवाबड़ी जरूरत इसके भीतर परमात्मा बनने की प्यास पैदा त्मा उसे बीजरूप दिखाई देने लगेंगे। यह फरक हो सकता करना है। परमात्मा के .र्शन करना, शास्त्र का अध्ययन है कोई कम विकसित है और कोई कुछ ज्यादा। परन्तु करना इन सबका प्रयोजन उसमें परमात्मा बनने की बीजपना तो विद्यमान है और जब सभी बीजरूप दिखाई प्यास पैदा करना है।
देने लगेंगे तो प्रेम जागृत होगा हिंसा वृति बह जायेगी। हमारे एक तरफ पशुता है एक तरफ परमात्मपना, वह प्रेम मानव तक ही सीमित नहीं होगा परन्तु जीवमात्र बीच में हम बड़े हैं अगर इधर बढ़ते हैं तो परमात्मता दूर तक फैल जायेगा अथवा कहना चाहिए वह प्रेममय हो होती जाती है अगर उधर बढ़ते हैं तो पशुता दूर होती जायेगा। जाती है परमात्मपना नजदीक होने लगता है।
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________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर बी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द / चैनपत्र-प्रशस्ति संग्रह, भाग 1: संस्कृत और प्राकृत के 171 प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों पोर पं०परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द / ... बनान्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2: अपभ्रंश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह / वपन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित / स.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द / 15.. समाधितन्त्र और इष्टोपवेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... ग्याय-बीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कति का प्रो० डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स. अनु०। 10.00 जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / कसायपाइरसुत: मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिवान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के 1000 से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द / 25... जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री 12-00 भावक धर्म संहिता : बीबरवावसिंह सोषिया बैन लसणावली (तीन भागों में): सं.पं.बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग 4.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, बहुचर्चित सात विषयो पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन / प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित 2-00 Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन 15-80 Reality :मा. पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद / बडे पाकार के 300 पृ., पक्की जिल्द .. आजीवन सदस्यता शुल्क : 101.00 10 वार्षिक मूल्य : 6) 10, इस अंक का मूल्य : 1 रुपया 50 पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मडल लेखक के विचारों से सहमत हो। सम्पादक परामर्श मण्डल- ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-श्री पचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयधारी जन, वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बादर्स प्रिंटिंग प्रेस के-१२, नबीन माह, दिल्ली-३२ से मुद्वित।