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________________ जैनधर्म का प्राचीनत्व में हुआ था। वह बौद्ध धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक शाक्य तथा अन्तिम तीर्थकर महावीर के नामोल्लेख है तथा बौदामुनि तथागत गौतम बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन थे-भगवान् चाय आर्यदेव ने अपने षट्शास्श में ऋषभदेव को भी जैनबुद्ध के निर्वाण की तिथि में अनेक मतभेद हैं, किन्तु बहु- धर्म का मूल प्रवर्तक बताया है। मान्य आधुनिक मत के अनुसार उनका परिनिर्वाण ईसा आजीविक नामक एक अन्य श्रमण सम्प्रदाय के संस्थापूर्व ४८३ में हुआ माना जाता है। बौद्धों के पालित्रिपिटक पक मक्खलि गोशाल ने, जो महावीर और बुद्ध का प्रायः नामक प्राचीनतम धर्म-प्रन्थों में भगवान् महावीर का उल्लेख समकालीन था, समस्त मानव जाति को छ: समुदायों में निगंठनातपुत्त (निर्ग्रन्थज्ञातपुत्र) नाम से हुआ है और उन्हें विभक्त किया है, जिनमें निम्रन्थों का तीसरा नम्बर है। श्रमण परम्परा में उत्पन्न उस काल के छः तीर्थंकरों (सर्व इस पर से विद्वानों का कहना है कि मानव जाति के ऐसे महान धर्ममार्ग प्रदर्शकों) मे परिगणित किया गया है। मौलिक विभाजन में किसी नवीन, गौण या थोड़े समय से बौद्ध ग्रन्थों में प्राप्त भगवान् महावीर एव जैनधर्म सम्बन्धी प्रचलित सम्प्रदाय को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं उल्लेखो से डॉ. हर्मन जेकोबी प्रभृति प्रकाण्ड प्राच्यविदों हो सकता था। ने यह फलित निकाला है कि 'इस विषय में कोई सन्देह इसके अतिरिक्त, जैसा कि डॉ. जैकोबी का कहना है, नहीं है कि महावीर और बुद्ध एक-दूसरे से स्वतन्त्र किन्तु जैनों जैसे 'एक बहसंख्यक सम्प्रदाय की लिपिबद्ध परम्परा परस्पर प्राय: समकालीन धर्मोपदेष्टा थे। प्राचीन बौद्ध- अनुश्रुति को निरर्थक एवं असत्य-पुंज मानकर अस्वीकार ग्रन्थों में जैनधर्म का एक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी धर्म के रूप में तो करने के लिए भी तो कोई उचित कारण होना चाहिये । उल्लेख किया गया है, किन्तु इस बात का कहीं कोई सकेत वे समस्त तथ्य एवं घटनायें जो जनों की अत्यन्त प्राचीनता नहीं है कि वह एक नब-स्थापित सम्प्रदाय था। इसके विप- की सूचक हैं प्राचीन जैनग्रन्थों में भरी पड़ी है और ऐती रीत, उनके उल्लेख इस प्रकार के है कि जिनसे यह सूचित वास्तविकता के साथ लिखी गई हैं कि उन्हें तब तक अमान्य होता है कि बुद्ध के समय में निग्रन्थो (जैनो) का सम्प्रदाय नहीं किया जा सकता जब तक कि उन तकों एवं युक्तियों पर्याप्त प्राचीन हो चुका था-वह बौद्धधर्म की स्थापना के से अधिक सबल प्रमाण प्रस्तुत न किये जाय जिन्हें कि जैन बहत पहले से चला आ रहा था। बौद्ध साहित्य से यह धर्म की प्राचीनता में शंका करने वाले विद्वान बहधा प्रस्तुत भी प्रतीत होता है कि बोधि प्राप्त करने के पूर्व गौतम बुद्ध करते हैं।' ने सत्य की खोज में जो विविध प्रयोग किये थे उनमें एक वस्तुतः भ० महावीर के निर्वाण से अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व जैन मुनि के रूप में रह कर जैन विधि से तपश्चरण आदि (ई० पूर्व ७७७ में) एकसौ वर्ष की आयु में सम्मेदशिखर करना भी था । इस तथ्य का समर्थन उस जैन अनुश्रुति से (बिहार राज्य के हजारी बाग जिले में स्थित पारसनाथ भी होता है जिसके अनुसार बौद्धधर्म की स्थापना एक पर्वत) से निवाण प्राप्त करने वाले काशी के राजकुमार जैन साधु द्वारा हुई थी। दोनो धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन २३वें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता में अब मे यह बात भी स्पष्ट हो चुकी है कि बौद्धधर्म पर जैनधर्म प्रायः किसी पौर्वात्य या पाश्चात्य विद्वान को सन्देह नहीं का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था और बुद्ध ने अनेक बातें जैनधर्म है। से लेकर अपने धर्म में समाविष्ट की थी। इतना ही नहीं, जैसा कि सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. बौद्ध साहित्य में लिखा है कि वैशाली के लिच्छवि राधाकृष्णन का कहना है, 'इस बात में कोई सन्देह नहीं है निर्ग्रन्थों के प्राचीन अर्हत चैत्यों के पूजक थे। उसमे तीर्थ- कि जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथ के भी बहुत पहले से कर पार्श्व के चातुर्याम धर्म का भी उल्लेख हुआ है। इससे प्रचलित रहता आया है।' डॉ. नगेन्द्र नाथ बसु का मत है स्पष्ट है कि आध बौद्ध लोग तेईसवें तीर्थकर भ० पार्श्वनाथ कि 'भ० पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाप के उपदेशों से सम्बन्धित जैनों की महावीर पूर्व परम्परा से भ• कृष्ण के ताऊजात भाई थे। यदि हम कृष्ण की ऐतिभी अवगत थे। बौद्ध धम्मपद मे प्रथम तीर्थंकर ऋषभ हासिकता स्वीकार करते हैं तो कोई कारण नहीं कि हम
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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