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________________ ४ ३६, कि०१ अनेकान्त उनके समकालीन २२वें तीर्थकर भ. नेमिनाथ को एक राज ऋषभ की कायोत्सर्ग-मुद्रा में ध्यानस्थ आकृतियाँ वास्तविक एवं ऐतिहासिक व्यक्ति मान्य न करें।' प्रो० मुद्रांकित पाया जाना, साथ ही जीववाद, परमाणुवाद जैसी कर्वे, कर्नल जेम्स टाड, शेजर जन० जी० जे० आर० फलांग जनों की अत्यन्त मौलिक आदिमयुगीन तात्त्विक मान्यताएं डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार, डॉ. हरिसत्य भट्टाचार्य आदि उसे न केवल एक सर्वथा स्वतन्त्र एवं शुद्ध भारतीय धार्मिक अनेक विद्वान् भ. नेमिनाथ की ऐतिहासिकता स्वीकार परम्परा सिद्ध करती हैं, वरन प्राग्वैदिककालीन भी सूचित करते हैं। यजुर्वेद आदि में तीर्थकर नेमिनाथ अपर नाम करती है। अरिष्टनेमि का उल्लेख पाया जाता है और डॉ० काशी. प्रसाद जायसवाल प्रभृत्ति कई विद्वानों का मत है कि अथर्व अस्तु, उपरोक्त प्रमाण बाहुल्य के आधार पर अनेक वेद में उल्लिखित ब्रात्य वह व्रात्यक्षत्रिय या क्षात्रबन्धु थे प्रख्यात विद्वान् जैन परम्परा को आपेक्षिक प्राचीनता में जिनकी निन्दा उनके अवैदिक होने के कारण वैदिक साहित्य सन्देह नहीं करते । यदि कुछ विद्वानों के अनुसार 'यह मनुस्मृति आदि में की गई है, और जो वस्तत. जनधर्म के अहिसा प्रधान जैनधर्म, अधिक भी नहीं तो कम से कम अनुयायी थे। वेदों और वैदिक धर्म जितना प्राचीन अवश्य है', तो कुछ प्राचीन भारतीय अनुश्रुतियों के अनुसार महाभारत मे अन्य विद्वानों का मत है कि 'जनों और उनके धार्मिक वर्णित घटनाओं के पूर्व रामायण में वर्णित घटनाओ का साहित्य सम्म साहित्य-सम्बन्धी वर्तमान ज्ञान के आधार पर हमारे लिये युग था । इस महाकाव्य के नायक अयोध्या के इक्ष्वाकवशी यह सिद्ध करना तनिक भी कठिन नही है कि बौद्धधर्म (सूर्यवंशी) भ० रामचन्द्र का जैन परम्परा में भी परम्परा अथवा वैदिक धर्म की शाखा होना तो दूर की बात है, जैसा ही आदरणीय स्थान है। वह बीमवें तीर्थकर मुनि जैनधर्म निश्चयतः भारतवर्ष का अपना एक सर्वप्राचीन धर्म सुब्रतनाथ के तीर्थ में उत्पन्न हुए थे। उसके भी पूर्वकाल है। अत्यन्त प्राचीनकाल से ही उसका स्वतन्त्र अस्तित्व की राजा बसु तथा राजा वेन सम्बन्धी हिन्दू पौराणिक रहता आया है।' अतएव, यह बात प्राय: नि संकोच कही कथायें जैन अनुश्रुतियों से समर्थित है। जा सकती है कि प्रागऐतिहामिक काल के प्रकृत्याश्रित पापाण युग से ही, जब से भी भारत एवं भारतीयों का वास्तव में, जैसा कि प्रो. जयचन्द्र विद्यालंकार का इतिवृत्त किसी न किसी रूप में मिलना प्रारम्भ हो जाता कहना है, "भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास उतना ही जैन है, तभी से उसके साथ वर्तमान में जिसे जैनधर्म और जनहै जितना कि वह अपने आपको वेदो का अनुयायी कहने संस्कृति के नाम से जाना जाता है उस धार्मिक परम्परा वालों का है। जैनो की मान्यता के अनुसार महावीर के एवं तत्सम्बन्धी संस्कृति का सम्बन्ध बराबर मिलता चला पूर्व २३ और तीर्थकर हो चुके थे। इस विश्वास को सर्वथा आता है। वस्तुतः जैनधर्म परम्परामूलक अथवा सनातन भ्रमपूर्ण और निराधार मान लेना तथा समस्त पूर्ववर्ती है । बह बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, सिख प्रभति धर्मों की भांति तीर्थङ्करों को काल्पनिक एव अनैतिहासिक मान बैठना न ऐतिहासिक नहीं है, जिसके कि संस्थापक और स्थापना की तो न्यायसंगत ही है और न उचित ही है । इस मान्यता मे निश्चित तिथि और ऐतिहासिकता प्रतिपादित की जा सके, विश्वास न करने योग्य बात कुछ भी नही है।" आदिम मानव मे जब भी धर्मभाव का जो उदय हुआ, उसी जनों की असंदिग्ध मान्यता कि प्रथम तीर्थकर भगवान से शनैः शन. विकसित होता हुआ और एक के बाद एक ऋषभदेव (आदिनाथ) ने ही सर्वप्रथम धर्म का प्रवर्तन तीर्थङ्करों द्वारा व्यवस्थित, आचारित एवं प्रचारित होता किया एवं कर्मयुग का सूत्रपात किया, उन्हीं ऋषभदेव का हुआ यह मानव का स्वभावगत और भारतवर्ष का परम्परा ऋग्वेदादि में उल्लेख होना, ब्राह्मणीय पुराणों में उन्हें विष्णु गत मौलिक धर्म है। का एक प्रारम्भिक अवतार घोषित करना तथा अर्हत (जैन) मत का प्रवर्तक-प्रचारक मानना, प्रागार्य एवं प्राग्वैदिक -ज्योति निकुंज सिन्धु-बाटी सभ्यता के अवशेषों में उन्हीं वृषभलांछन योगि चारबाग, लखनऊ
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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