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________________ जैनधर्म का प्राचीनत्व ॥ इति० मनीषो डॉ० ज्योति प्रसाद जैन किसी धर्म की श्रेष्ठता एवं उपादेयता उसकी प्राची- साहित्य, कला आदि का अध्ययन प्रारम्भ किया तो उन्होंने नता अथवा अर्वाचीनता पर अनिवार्यतः निर्भर नही होती, उस आधुनिक ऐतिहासिक पद्धति को अपनाया जिसमे वर्तकिन्तु यदि कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ- मान को स्थिर बिन्दु मानकर प्रत्येक वस्तु के इतिहास को साथ सुदीर्घ कालपर्यन्त सजीव, सक्रिय एवं प्रगतिवान बनी पीछे की ओर उसके उद्गम-स्थान या उदयकाल तक खोजते रहती है और लोक के उन्नयन, नैतिक वृद्धि तथा सांस्कृ- चला जाना था। जो तथ्य प्रमाण, सिद्ध होते जाते और तिक समृद्धि में प्रबल प्रेरक एव सहायक सिद्ध हुई होती है अतीत में जितनी दूर तक निश्चित रूप से ले जाते प्रतीत तो उसकी प्राचीनता जितना अधिक होती है वह उतना ही होते, वही उनका अथवा उनकी ऐतिहासिकता का आदिअधिक उक्त धर्म के स्थायी महत्व तथा उसमे निहित सार्व. काल निश्चित कर दिया जाता। कालान्तर मे नवउपलब्ध कालिक एवं सार्वभौमिक तत्त्वों की सूचक होती है। इसके प्रमाणों के प्रकाश में उक्त अवधि को और अधिक पीछे की अतिरिक्त, किसी भी संस्कृति के उद्गम एवं विकास का ओर हटा ले जाना सम्भव होता तो वैसा करने में भी विशेष सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने तथा उसकी देनों का समुचित सकोच न होता । उन्नीसवी शती के प्राच्यविदो द्वारा पुरमूल्यांकन करने के लिए भी उसकी आधारभूत धार्मिक संस्कृत एव कार्यान्वित यह खोज-शोध पद्धति ही आज के युग परम्परा की प्राचीनता का अन्वेषण आवश्यक हो जाता की सर्वमान्य वैज्ञानिक अनुसधान पद्धति मानी जाती है। इस परीक्षा-प्रधान बौद्धिक युग में प्रत्येक तथ्य को परीक्षा यह प्रश्न हो सकता है कि जैनधर्म की प्राचीनता में द्वारा युक्तियुक्त प्रमाणित करके ही मान्य किया जाता है। का करने की अथवा उसे इसी पद्धति के अवलम्बन द्वारा गत डेढ़-सौ वर्षों मे जैनसिद्ध करने की आवश्यकता ही क्यों हई ? स्वय जैनों की धर्म की ऐतिहासिकता सातवी शताब्दी ईस्वी मे बौद्धधर्म परम्परा अनुश्रुतियां तो सुदूर अतीत में, जबसे भी वह की शाखा के रूप मे प्रगट होने वाले एक छोटे से गौण मिलनी प्रारम्भ होती है, निर्विवाद एवं सहजरूप में उसे सम्प्रदाय की स्थिति से शन:-शनैः उठकर कम से कम वैदिक मपादीत मातीचली आतीमाहीत धर्म जितने प्राचीन तथा सुसमृद्ध संस्कृत से समन्वित एक एवं ब्राह्मणीय (हिन्दू) अनुश्रुतियाँ भी अत्यन्त प्राचीनकाल महत्त्वपूर्ण भारतीय धर्म की स्थिति को प्राप्त हो गई है। से जैनधर्म की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करती चली आती वर्तमान युग मे जैनधर्म सम्बन्धी ज्ञान के विकास की तथा हैं। इस विषय में भारत वर्ष के पुरातन आचार्यों एवं मनी- परिणामस्वरूप उसकी ऐतिहासिकता एवं आपेक्षिक प्राचीषियों ने कभी कोई विवाद नही उठाया। अतएव जैनधर्म नता के निर्णय की एक अपनी कहानी है जो रोचक होने के की प्राचीनता सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं थीं। साथ-साथ ज्ञानप्रद भी है। इस समय उसमें न जाकर जैन किन्तु आधुनिक प्राच्यविदों एवं इतिहासकारों ने भारतीय परम्परा की प्राचीनता के कतिपय प्रमुख प्रमाण प्रस्तुत इतिहास के अन्य अनेक तथ्यों की भांति उसे भी एक समस्या किये जाते है। बना दिया। जैन परम्परा के चौबसवें एवं अन्तिम तीर्थकर निर्ग्रन्थ अठारहवीं शती ई. के अन्तिम पाद में यूरोपीय प्राच्य सातपुत्र श्रमण भगवान् यर्द्धमान महावीर का निर्वाण विक्रम विदों ने जब भारतीय इतिहास, समाज, धर्म, संस्कृति, पूर्व ४०, शकशालिवाहन पूर्व ६०५ तथा ईसा पूर्व ५२७
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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