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ओम् अर्हम्
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम्॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५०८, वि० स० २०३६
वर्ष ३६ किरण १
नवरी-मार्च
१९८३
उपदेशी-पद
चेतन, तू तिहुंकाल अकेला। नदी-नाव संयोग मिले ज्यों, त्यों कुटम्ब का मेला ॥
यह संसार प्रसार रूप सब, ज्यों पटपेखन खेला।
सुख-संपति शरीर-जल-बुदबद, विनशत नाहीं बेला। मोह-मगन प्रातमगुन भूलत, परी तोहि गल-जेला। मैं मैं करत चहुंगति डोलत, बोलत जैसे छेला ॥
कहत "बनारसि" मिथ्यामति तज, होय सुगुरु का चेला। तास वचन परतीत पान जिय, होइ सहज सुरझेला ॥
xxx x चेतन, तोहि न नेक संभार । नख सिख लों विदबन्धन बेढे कौन करे निरवार।
जैसे माग पषारण काठ में, लखियन परत लगार।
मदिरा पान करत मतवारो, ताहि न कछू विचार ॥ ज्यों गजराज पखार माप तन, प्रापहि डारत छार। मापहि उगल पाट को कीरा, तनहि लपेटत तार ।।
सहज कबूतर लोटन को सो, खुले न पेच प्रपार। मौर उपाय न बने 'बनारसि', सुमिरन भजन प्रचार।