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________________ अग्रणी साहित्यान्वेषो स्व० अगरचन्द नाहटा गत १२ जनवरी १९८३ को स्वनगर बीकानेर में, लगभग ७२ वर्ष की आयु में, लब्धप्रतिष्ठ साहित्यसेवी श्री अगरचन्द नाहटा का देहान्त हो गया। वह अति सादा वेषभूषा, आहार-विहार एवं आदतों वाले, धार्मिक प्रवृत्ति के सद्गृहस्थ एव सफल व्यापारी थे। शिक्षा-दीक्षा भी अति सामान्य कामचलाऊ चटसाली रही। किन्तु इस पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति से जिस बात की आशा प्राय: नही की जाती, उसे स्व० नाहटा जी ने आश्चर्यजनक रूप में करके दिखा दिया। साहित्य के क्षेत्र में जिस चाव, उत्साह, लगन और अध्यवसाय के साथ वह लगभग पचास वर्ष निरन्तर साधना करते रहे और परिणामस्वरूप जैसी और जो उपलब्धिया उन्होने प्राप्त की, उसके अन्य उदाहरण अति विरल हैं। पुरानी हस्तलिखित प्रतियो की खोज-तपास, अपने निजी अभय जैन ग्रन्थालय एवं शकरदान कलाभवन में उनका सग्रह-सरक्षण, उन पर शोध-खोज करना तथा उसके परिणामो से विद्वज्जगत को तत्परता के साथ परिचित कराते रहना, नाहटाजी की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तिया रही । इस क्षेत्र में उन्हें श्वेताम्बर समाज का 'आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार' कहा जा सकता है। मुख्तार साहव की भांति नाहटाजी की दृष्टि भी मूलत: ऐतिहासिक रही और झुकाव तुलनात्मक अध्ययन की ओर विशेप रहा । स्वभावतः नाहटाजी का कार्यक्षेत्र मुख्यता जैन साहित्य रहा, उसमे भी विशेषरूप से देश-भाषाओ, हिन्दी, राजस्थानी आदि में रचित श्वेताम्बर साहित्य, किन्तु वह वही तक सीमित नहीं रहा। दिगम्बर साहित्य भी जब जहाँ उनके दृष्टिपथ में आया, बिना साम्प्रदायिक पक्षपात के वह भी उसी प्रकार उनकी दिलचस्पी का विषय बना । इतना ही नही, जनेतर हिन्दी एव राजस्थानी साहित्य की शोध-खोज मे भी उनका योगदान महत्त्वपूर्ण रहा । अनेक साहित्यान्वेषियों एव शोधाथियों को भी उनसे अमूल्य सहायता मिलती रही। कई साहित्यिक पत्रिकाओं, अभिनन्दन-स्मृति ग्रन्थों आदि के सम्पादन में योग देने के अतिरिक्त, नाहटाजी ने साधिक एक दर्जन पुस्तकों की रचना भी की, और जैनाजैन पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित उनके लेखों की संख्या तो लगभग चार सहस्र होगी। दूसरे लेखको की कृतियो की समीक्षा भी खरी करते थे और उनकी त्रुटियों को बिना किसी तकल्लुफ के गिना डालते थे। हमारे तो बन्धुवर नाहटाजी के साथ लगभग चालीस वर्ष से निकट साहित्यिक-मैत्री सम्बन्ध रहते आये और उनके सैकड़ो पत्र हमें प्राप्त हुए। कई बार मतभेद भी हुए परन्तु सम्बन्धों मे कभी भी कटुता नहीं आई, वरन् सौहार्द्र मे वृद्धि ही हुई। मित्रों को लिखने को निरंतर प्रेरणा देने वालों में भी उन जैसे बहुत कम देखने में आये। साहित्य साधना में उनका जो सतत अध्यवसाय रहा वह किसी तपस्वी की तपःसाधना से कम नही, 'विद्वानेव विजानाति विद्वज्जन परिश्रमम्' । वीर सेवामन्दिर के मुखपत्र अनेकान्त पर उनकी सदैव कृपा रही और उनकी विभिन्न किरणों मे उनके दर्जनों लेख प्रकाशित हुए। वस्तुतः नाहटाजी के निधन से हिन्दी साहित्य संसार की अपूरणीय क्षति हुई है। हम स्वयं अपनी ओर से तथा वीर सेवामन्दिर एवं जनेकान्त परिवार की बोर से दिवंगत आत्मा की शान्ति एव सद्गति की भावना करते हुए, उनके परिजनो के साथ हार्दिक संवेदना अनुभव करते हैं। -योर
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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