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१२, बर्ष ३६, कि०३
काष्ठसंघ एवं लोहाचार्यका उल्लेख
जीमैं भोजन सब परिबार, वीरा दीना पान संवार । कवि ने ग्रन्थ के अन्त मे काष्ठसघ के संस्थापक लोहा- सिंहासन पर बैठे आय, नगर कितोहल देखे राय।४३ चार्य का नामोल्लेख एवं उनका गुणानुवाद करते हुए उक्त पद्यो में घेवर, बरफी, परोस्या, जैसे शब्द राजअग्रोहा जाने का वर्णन किया है तथा अग्रवाल श्रावको को स्थानी है तो पेरे (पेड़े) वीरा (वीड़ा) कितोहल जैसे शब्द प्रतिबोधित करने की चर्चा की है उन्हें जैनधर्म के प्रति ब्रजभाषा के है। निष्ठावान, दृढ श्रद्धानी बनाने की बात भी लिखी है। अन्य विशेषतायें:-कवि ने सभी घटनाओं का यही नही अग्रवाल श्रावको द्वारा व्रत उपवास, पूजा दान अच्छा वर्णन किया है। फिर चाहे वह नगर का वर्णन हो आदि देने, मन्दिरो का निर्माण करवाने, बारह व्रती का अथवा किसीके स्वभाव अथवा तत्त्व एव दर्शन का हो । पुण्य पालन करने आदि का भी उल्लेख किया है । इसमे यह अर्जन करते रहने की कवि ने निम्न प्रकार प्रशंसा की हैभी प्रतीत होता है कि मुनि सभाचन्द अग्रवाल जैन थे। वर्णन ऐतिहासिक है जो निम्न प्रकार है :
पुण्यमुं पावै सुर की रिधि, पुण्यभव होवै विद्या सिध ।।
पुण्ये भोग भूमि मुख कर, पुण्य राज पृथ्वी के वर। काष्ठमधी माथुर गच्छ, पहुकर गण मे निर्मल पछ। महानिरगथ आचारिज लोह छांडया मकल जानि का मोह। पुण्य दुख दालिद्र सब हरे, पुण्ये भवसागर जल तिरै ॥ तेरह विध चारित्र का धणी, काम क्रोध नही माया मणी। पुण्य पुत्र कालत्र पारवार, पुण्ये लक्षमी होय अपार ।
पुण्य विधा लहै विमान, पुण्य पावै उत्तम थान ॥ महातपम्बी आतम ध्यान, दया वत निर्मल ग्यान ।३१।।
पुण्ये दूरि जिन लागे पाय, पुण्य थी सदा सुखदाय । जिहा है उत्तम क्षमा आदि, छोड़े पाच इन्द्री का स्वाद ।।
जल थल वन विहंड सहाय, ताप पुण्य करो मन लाय ।। रूप निरंजन ल्याया चित्त, अठाईम मूलगुन नित ।३२। चौरासी क्रिया सजुक्ति, जे क्षाईक समकित सो रक्ति। सुणा पुण्य कीजे सब कोय, मन वाछित फल पावे सोय । कहे ज्ञान के मूक्ष्म भेद- वाणी मुणत मिथ्यात का खेद ३४१ सुरगति नर नारकी तिरयंच, पुण्य बिना सुख लहै न रच।। अग्गेहे निकट प्रभु ढाडे जोग, कर बन्दना सब ही लोग। कुछ बिधानकों (सर्ग) को छोड़कर शेष बिधानक छोटेअग्रवाल श्रावक प्रतिबोध, वेपन क्रिया बताई सोध ।३५छोटे हैं । कवि ने पुराण का मुख्य वर्णन (रामचरित) पच अणुव्रत सिख्याधारि, गुनव्रत तीन कहे उपधारि। प्रारम्भ करने से पूर्व ऋषभदेव से महावीर तक का बारहै व्रत बारहै तप कहे, भवि जीव सुणि चित मे गहे ।३६। संक्षिप्त वर्णन किया है। मिथ्या धरम कीयो तहां दूरि, जैन धरम प्रकास्य। पुरि। प्रकाशन की प्रावश्यकता विध तै टान देई सब कोई, मास्त्र भेद मुनि ममकिती होई। इस प्रकार पद्मपुराण एक महत्वपूर्ण कृति है। रामदस लख्य बताया धरम, तीन रत्न का जान्या मरम। कथा पर लिखी जाने वाली यह प्रथम हिन्दी जैन रचना व्रत विधान समझाई रीत, पूजा रचना कर नचित्त ।३८) है। जिसमे छ हजार से ऊपर चौपाई एव सोरठा छन्दो श्री जिनके कीए देहुरे, चउईम बिंब रचना सुख रे। का प्रयोग हुआ है। भाषा सीधी-सादी एव लालित्य गुण चउविध दान दे वित्त समान, चउधडीया अणथमी प्रमान। युक्त है । सभी वर्णन सामान्यतः अच्छे है । यद्यपि प्रस्तुत
भाषा.-भापा की दृष्टि से पद्मपुराण में ब्रजभाषा कृति रविषेणाचार्य की पद्मपुराण की .नुकृति है फिर भी एव राजस्थानी दोनो का पुट है । कवि सभाचन्द का वह मौलिकता लिये हुई है । इस पुराण के प्रकाशन से दिल्ली प्रदेश से अधिक सम्बन्ध था । तथा वहा सभी तरह जैन कवियो द्वारा हिन्दी विकास मे उनके योगदान पर भाषायें बोलने वाले थावक गण आते रहते थे इसलिए अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है । प्रस्तुत पद्मपुराण की पद्मपुराण की रचना सामान्य बोलचाल की भापा में की अभी तक एक मात्र पाण्डुलिपि की खोज की जा सकी है। गई । भाषा का एक उदाहरण देखिए
इसलिए यह पाण्डुलिपि भी अलभ्य पाण्डुलिपि है इस ग्रंथ घेवर बरफी लडुवा सेत, बहु पकवान परोस्या तेह । का विस्तृत अध्ययन मूलपाठ के साथ महावीर ग्रंथ अकादमी षटरस भोजन कीने घने, हरे व पेरे उत्तम बने ।४२। के आगामी प्रकाश में किया जावेगा। (शेष प०१३पर)