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________________ जरा सोचिए १. संस्कृति क्या है ? आत्मा में ऐसा नहीं होता-मानवता एक रूप अखण्ड है और आत्मा भी एक रूप अखण्ड है। इनके लक्षणों-गुणों ___ संस्कृति शब्द बडे गहरे में है और इसका सम्बन्ध में फर्क नहीं होगा ! जो फर्क दिखेगा भी वह फरक मानवस्तु की स्व-आत्मा से है। जिसे हम 'संस्कृत' कहते हैं वह वता या आत्मत्व के लिहाज से न होकर, पर-प्रभावित संस्कार किया हुआ होता है और संस्कार किए हुए से आधारो से स्व की असंस्कृत अवस्था में ही होगा अतः वह संस्कृति पनपती है और वह स्थायी होती है। क्योकि वह उसके लिए असस्कृति ही होगी। स्व-गुणों के विकास का रूप होती है, निखरे गुणों का पुंज होती है। इससे उल्टी असंस्कृति-पर से प्रभावित, बहु मानव और अमानव में स्वभाव, विभाव-स्व-परिरूपियापन से लदी होती है और बहुरूपियापन-उधार गतिशीलता और पर-परिणतिशीलता का भेद है। जब लिया रूप-नाश होने वाला रूप होता है। उदाहरणार्थ, कोई मानव स्व-परिणति-स्वभाव मे प्रकट होगा तब उसकी स्वर्ण का रूप निखरना उसका सस्कृत होना है और निखरे संस्कृति मानव-सस्कृति होगी। और जब वह हिन्दू-मुसल मान आदि पर-प्रभावित रूपो मे प्रकट होगा तब वह अमासंस्कृत रूप से प्रभावित होने वाली परम्परा स्वर्ण-सस्कृति नव-सस्कृति से ग्रस्त होगा। क्योंकि वह उसका 'स्व' का है। ऐसे ही अन्यत्र समझना चाहिए। अमस्कृत-विना संस्कार किया हुआ और पर-प्रेरित रूप आज जो विभिन्न मत-मतान्तरों, भाषाओं, जाति होगा। इसी प्रकार जब आत्मा स्वभाव की ओर जाता है पंथों और प्रान्तवादों आदि से सस्कृति का नाता जोडा जाना ना जाडा जा तब उमका सस्कृत रूप होता है और जब स्वभाव में न रहा है वह अटपटा-सा लगता है। जैसे--हिन्दू-सस्कृति, जाकर पर-प्रेरित रूप में होता है तब उसका रूप असंस्कृत मुस्लिम-संस्कृति इत्यादि । क्योकि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, होता है। फलत. मानव के असली रूप से पनपने वाली बौद्ध, पारसी, ईसाई आदि किसी मूल के उभरे संस्कार संस्कृति मानव सस्कृति होती है और आत्मा के असली रूप नही-ऊपर के वेष हैं, बाने हैं, जो समय-समय पर मत से पनपने वाली संस्कृति आत्म-संस्कृति होती है, आदि । भेदों के प्रादुर्भाव में लादे जाते रहे है और बदलते रहे हैं, बदलते रहेंगे और कभी नष्ट भी हो जायेंगे । न जाने कब उक्त तथ्य के प्रकाश में आज हमें अपनी श्रेणी निश्चित से अब तक कितने मत-मतान्तर, प्रान्त, राष्ट्र आदि पंदा करनी होगी कि हम किस पक्ति में बैठ रहे हैं? पहले हुए और न जाने कितने अतीत में समा गए। पर, बताई गई सस्कृति की पंक्ति में या दूसरी असंस्कृत पंक्ति संस्कृति न कभी निर्मित हुई और न कभी नाश होगी। मे? हममे रत्नत्रय हैं या मिध्या-स्वादि विकृत भाव ? हम अत: यदि हम ऐसा कहें कि मानव-सस्कृति, आत्मा-सस्कृति परमेष्ठियो वत् अपने गुणों में विकास की ओर चल रहे अहिंसा-संस्कृति आदि तो ठीक बैठ जाता है क्योकि ये हैं या अविरति प्रमाद कषायादि की ओर? गुणस्थानों की सदा से हैं और सदा रहेंगे। इनके अपने रूप मे कभी अपेक्षा हम कहां हैं और हमारी गति अनेकान्त अथवा अपनों से भेद-भाव न होगा। जबकि हिन्दू का हिन्दू से, एकान्त किस विचारधारा के आश्रय में वर्तमान है? मुसलमान का मुसलमान से भेद-भाव हो जायेगा-एक आदि । पंच-सम्प्रदाय के होने पर भी उसके आधार से पनपने वाली पुरुष के विषय मे जब आचार्य कहते हैंसंस्कृति, उसके अनुयाइयों से दो भेदों में बंट जायेंगी-एक 'पुरुगुणभोगेसेदे, करेदि लोपम्मि पुरु गुणं कम्म । 'परुगणभोगेसेदे. करेदि लोपनि हा हिन्दू की संस्कृति कुछ होगी तो दूसरे की कुछ । मानव या पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वणिो पूरिसो॥
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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