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________________ २८, वर्ष ३६, कि०१ अनेकान्त बार आहार आदि। हां, पात्र प्रक्षालन करके श्रावक के हिंसोंपकरण दान का सर्वथा निषेध करते है-परशुकृपाण घर प्रवेश, भिक्षायाचना, कई घरों से याचना, बैठकर खनित्र' आदि । इसी प्रकार पात्र रखना, उसे धोना आदि भोजन आदि नियम शुल्लक के नियमों से मेल खाते हैं। आडम्बर क्षुल्लक को नहीं कल्पते। ऐसा मालूम होता है ऐसा प्रतीत होता है कि श्वे. मुनि का यह रूपान्तर बारह- कि किसी समय स्पृश्य-अस्पृश्य का प्रश्न बड़ी प्रबलता से वर्षीय अकाल के प्रभाव का द्योतक है। सामने उभरकर आया हो और पात्र आदि के रखने की छूट दी गई हो। इसी प्रकार द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक में जो विशेषजहां तक दिगम्बर परंपरा में क्षुल्लक के नियम बत- ताएं बतलाई गई हैं वे भी इसलिए विचारणीय है कि यदि लाए गए हैं उनमे भी कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। जैसे- वे विशेषताए प्रथमोत्कृष्ट में नियमित नहीं हैं तो वह भूमि छरे से हजामत । क्या क्षुल्लक छुरा रख सकते हैं? यदि परिमार्जन किससे करता है यतः एक वस्त्र के सिवाय हां तो परिग्रह बढ़वारी के साथ हिसोपकरण रखने का , अन्य वस्त्र का कही भी विधान नहीं है । ऐसे में एक वस्त्रदोष भी आता है और यदि श्रावक से मांगते है तो नियमित मागत ह ता नियमित धारी और दो वस्त्रधारी आदि भेद कैसे घटित हो गए? श्रावक उन्हें क्यों और कैसे देता है ? जबकि आ० समन्तभद्र (क्रमश:) (पृष्ठ २१ का शेषांश) इस गर्दभ के शमन हेतु-चन्दन की धूप का सेवन इसकी चिकित्सा निम्न प्रकार है :करें। विजोर के बीज, प्रियंगु, हल्दी, मंजीठ, कुंकुम, खश ५-स्त्री और पुरुष के गुप्तांगों में पैदा होने वाले और न वाले और केशर को सफेद सरसों के जल में पीस कर लेप करें। गर्दभ को कुम्भकर्ण ज्वालागर्दभ का नाम दिया गया है। इसके लिए लिखा है कि लोंग तगर और कट को इस प्रकार यह लघु रूप में आपके सामने वर्णन किया पीस कर मिलावें तथा लेप करें। इससे पीड़ा शान्त हो है इसका विस्तृत विवरण प्रत्येक रोग का पृथक-पृथक जाती है। किया जा सकता। ६- अण्डकोष में पैदा होने वाले ज्वाला गर्दभ को विभीषण ज्वाला गर्दभ कहते हैं । नोट-उक्त ग्रन्थ जैन धर्मानुयायी किसी धार्मिक विद्वान ७-हृदय में होने वाले ज्वाला गर्दभ को चन्द्रताल द्वारा रचित हो ऐसा हम नहीं मानते। ग्रन्थ में नाम की सज्ञा दी गई है। अभक्ष्य और असेव्य के सेवन का विधान जैसे प्रसंग इसकी चिकित्सा के लिये कोले के बीजो को बकरी के जैन परम्परा के सर्वथा विरुद्ध है। ऐसे प्रसग हमने दूध मे पीस कर लेप करे एवं सेवन करे। लेख से निकाल दिए हैं। लोग कैंसर से परिचित ___-मुख में होने वाले ज्वाला गर्दभ को दुर्दर नभ हों, इसी दृष्टि से लेख छपाया जा रहा है, अन्यथा की संज्ञा दी गई है। न लें। -संपादक अभिनन्दनों और अभिनन्दन-ग्रन्थों के संग्रह की होड़ समाज और धर्म को कहां ले जाएगी? यह सोचने का विषय है। सोचना ये भी है कि क्या सभी पात्र धार्मिक-आचार-विचार के आलोक में उस योग्य होते हैं ? जरा विवेक से काम लें और इन दिखावों को छोड़, आचार-विचार को ऊंचा उठाएं तभी जैन धर्म स्थिर और पुष्ट रह सकेगा।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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