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________________ सविनय श्रद्धांजली ऐसा कोनसा धर्मानुरागी है जो सम्यग्दर्शन-शान-नारिव के साधक, अध्यात्म-रसिक, जैनसिद्धान्त धी जिनेन्द्र वर्णी (श्री सिद्धान्त सागर जी) से परिचित न हो? उनसे सभी परिचित हैं। जिसने एक बार उन्हें निरखा वह तृप्त हो गया। वर्णी जी के मन-वचन और काया तीनों संयम के मूर्तरूप थे। दूसरे शब्दों में वे 'मन में हो सो वचन उचरिए, वचन होय सो तन सों करिए' का पूर्ण रूपेण निर्वाह करते रहे । व्यवहार जगत में जहां लोग बड़ी से बड़ी कही जाने वाली विभूति में भी गुण-दोषों का विभाजन करते देखे जाते हैं वहां उन्हें वर्णी जी में सदा गुण ही परखने को मिलते रहे। वे वास्तव मे संतसत्पुरुष थे। वर्णी जी का सैद्धान्तिक ज्ञान उनकी अपूर्व, अनूठी रचनाओं से ही उजागर रहा है। 'समणसुत्त', 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' और 'शान्तिपथप्रदर्शक' आदि के निर्माण उनकी ऐसी देन हैं जो 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' उनके स्मरण को बल देती रहेंगी। जो भी इन्हे पढ़ेगा, प्रचार में लाएगा अपूर्व पुण्योपार्जन का भागी होगा। हर्ष है कि उदारमना साहू श्री अशोक कुमार जैन ने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष के द्वितीय मरकरण को भारतीय ज्ञानपीठ से पुनर्मुद्रण कराने का सकल्प प्रकट किया है। जैन ग्रन्थो के प्रकाशन में भा० ज्ञानपीठ का अनूठा योगदान है। वणी जी का त्याग सर्वथा त्याग के लिए था। यह प्रवृत्ति क्वचित् ही-कठिनता से दष्टिगोवर होती है। जहां लोग त्यागकर कुछ ग्रहण करने की भावना रखते हैं और नही तो यश-कीर्ति, पूजाप्रतिष्ठा ही सही। वहा वर्णी जी कुछ नही चाहते थे। यदि उनकी चाह थी भी तो यही कि वे त्यागत्याग और सर्वस्व त्याग की ओर बढ़े और एक दिन ऐसा आए कि निष्परिग्रही-अन्तरग व बहिरग परिग्रहों से मुक्त हो जाएँ। यही जैन दर्शन का सिद्धान्त है जहा आत्मा-आत्मा मे रह जाती है, शूधनिर्विवाल्प हो जाती है। जीवन के अन्तिम क्षणो तक बर्णी जी ने अपने प्रण-पण का निर्वाह किया। उन्होने १२ अप्रैल १९८३ को सल्लेखना लेकर २४ मई १९८३ को समाधि-मरण प्राप्त किया। वे सदा ही अपने धर्मसाधन के प्रति जागत रहे। हमें उनकी जीवन-चर्या से बहुत कुछ सीखना है। वे हमारे गुरु थे, हमे मार्ग प्रशस्त कर गए। वीर सेवा मन्दिर परिवार उनके अमीम उपकार के लिए, उनके कृत्यों के प्रति अवाबनत होते हुए उन्हें सादर श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है। ---सुभाष जैन महासचिव वीर रोवा मन्दिर, दरियागंज, नई दिल्ली
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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