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________________ कमागत: विश्व शांति में म० महावीर के सिद्धान्तों को उपादेयता कु० पुखराज न किया जाय में यह पृथ्वा तक माना भौतिक सुख सुविधाओं के बीच पलने वाला व्यक्ति और सारी ही जिनवाणी का निर्माण तीर्थंकर महावीर की संतप्त है, हताश है भौतिक सुख-सुविधायें क्षणिक हैं इस- देशना से हुआ है। इसलिए महावीर के सिद्धांतों के साथलिए प्रति समय वह व्यक्ति अपनी मौत का अनुभव कर साथ जैन धर्म के सिद्धांतों का उल्लेख आये तो वह प्रसंग रहा है लेकिन उसे इच्छा है जीने की, दौड़ने की बजाय वश होगा। कुछ पल ठहरने की, जिससे उसकी सांस न फूलने पाए यदि जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धांतों को आत्मसात जिससे वह भावी जीवन का रास्ता तय करने के लिए किया जाये तो न केवल विश्वशांति स्थापित हो सकेगी शक्ति जुटा सके । व्यक्ति को युद्ध की दुनियां से निकाल- वरन् सच्चे अर्थों में यह पृथ्वी मनुष्य के लिए जीने योग्य कर सहज सुख शान्ति के संसार में प्रतिष्ठित करते हैं बन सकेगी। राधाकृष्णन ने तो यहां तक माना कि वे महावीर के सिद्धांत । इन सिद्धांतों को जीने से व्यक्ति इतिहास के सच्चे महापुरुष थे। प्राचीन भारत के निर्माण असुरक्षित न रहकर अभय व निर्भार होता जा रहा है। में भगवान महावीर का स्थान बहुत ऊँचा था और आधु साथ ही हताश, दिग्भ्रमित व्यक्ति को सार्थक व सुख- निक भारत व आधुनिक मानव के निर्माण में जैन सिद्धांत पूर्ण जीवन जीने की कला (मार्ग) भी महावीर के सिद्धान्त आज भी सहायक सिद्ध हो सकते । प्रश्न उठता है हमारे धर्म बताते हैं । महावीर जिन धर्म मय हैं जिन वाणी के शब्दों का स्वरूप कैसा हो? हमारा दर्शन ऐसा हो जो मानव से महावीर के अङ्गों-प्रत्यङ्गों का निर्माण हुआ है। दूसरी मात्र को सतुष्ट कर सके। उसे शांति एवं सौहार्द का (पृ. १३ का शेषांश) अमोघ मंत्र दे सके। इसके लिए मानवीय मूल्यों की स्था पना करनी होगी भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की १९. प्रवचनसार-प्र० रायचन्द्र जैन शास्त्र माला पृ०१६२ प्रतिष्ठा करनी होगी। २०. न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेक मात्मान्तरं सर्वनिषेध गम्यम् । धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो प्राणी दृष्टं विमिश्रं तदुपाधि भेदात् मात्र को प्रभावित कर सके। एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके। ऐसा दर्शन स्वप्नेऽपि नैतत्वदृषेः, परेषाम् ॥३२ नहीं होना चाहिए जो आदमी आदमी के बीच दिवारें युक्त्यनुशासनः समन्तभद्र पृ० ३६-३७ ! खड़ी करे । धर्म एवं दर्शन को आधुनिक मूल्यों, स्वतन्त्रता २१. एकान्तदृष्टि प्रतिषेधितत्व प्रमाणसिद्धं तदतत्स्वभाव । समानता, विश्व बन्धुत्व तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों त्वया प्रणीतं सुविधे स्वधाम्न नैतत्समालीढ़ का विरोधी होना चाहिये। पदंत्वदन्य। स्वयम्भूस्तोत्र ॥९ पृ. ३६ । इन सभी तत्वों का सुन्दर समन्वय जैन धर्म एवं दर्शन २२. कञ्चिद् ते सदेवेष्टं कथंचिदसदैव तत् । में देखने को मिलता है। सामाजिक समता एवं एकता की तयोभयमवाच्यं च नययोगाच्च सर्वथा ॥१-१४॥ दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है। इस परम्परा आप्तमीमांसा तत्वदीपिका पृ० १४२। में मानव को मानव के रूप में देखा गया। मानव महिमा २३. तत्वावतिक पृ० ३५ । का जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह अन्य -बिजनौर किसी दर्शन में नहीं। भगवान महावीर ने आत्मा की स्व.
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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