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________________ जैन दर्शन में सप्तमंग-बार की अपेक्षा स्यात् असहाच्यरूप ही है, पररूपादि चतुष्टय और मिथ्या अनेकान्त । प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु से की अपेक्षा तथा स्वपररूपादि चतुष्टयों के युगपद् कहने की एक देश को हेतु विशेष की सामर्थ्य की अपेक्षाहण अशक्ति की अपेक्षा, और स्याद-सदसदवाच्यरूप है। क्रमा करने वाला सम्यक् एकाना है और एक सर्वया पित स्वरूपादि चतुष्टय तय की अपेक्षा तथा सहार्पित उक्त अवधारण करके अन्य सब धर्मों का निराकरण करने वाला चतुष्टय दय की अपेक्षा । इस तरह तत्व सत् असत् आदि मिथ्या एकान्त है। एक वस्तु में युक्ति और आगम से विमिश्रित देखा जाता है।" स्वयंभूस्तोत्र में आचार्य अविरुद्ध प्रतिपक्षी अनेक धर्मों का निरूपण करने वाला समंतभद्र ने सुविधिनाम की स्तुति करते हुए कहा है कि सम्यक् बनेकान्त है । तत् और बत्तत्स्वभाव माली वस्तु से आपने अपने मान तेज से उस प्रमाण सिद्ध तत्व का प्रणयन शून्य काल्पनिक अनेक धर्मात्मक जो कोरा वा गार है किया है प्रोसत, असत् मावि रूप विवक्षितावक्षित स्व- वह मिथ्या अनेकान्त है । सम्यक् एकान्त को पहले है भाव को लिये हुये है और एकान्त दृष्टि का प्रतिषेधक है। बोर सम्यक् बनेकान्त को प्रमाण कहते हैं। नव कोमेक्षा सम्यक् अनुभूत तत्व का प्रतिपादक 'तदतत्स्वभाव' जैसा से एकान्त होता है क्योकि एक ही धर्म का निश्चय करने पद आपसे भिन्न मत रखने वाले दूसरे मत प्रवर्तको के की ओर उसका झुकाव होता है और प्रमाण की वोका से द्वारा प्रणीत नहीं हुआ है।" जैन शासन में वस्तु कचित् अनेकान्त होता है क्योकि यह भनेक निश्पयों का आधार सद ही है, कम्चिद् असद् ही है इस प्रकार अपेक्षाभेद है। यदि अनेकान्त को अनेकान्त रूप ही माना जाय और से वस्तु उभयात्मक और अवाच्य भी है। ना की अपेक्षा एकान्त को सर्वथा न माना जाय तो एकान्तकापाव से वस्तु सत् आदि रूप है सर्वथा नहीं।" अनेकांत में भी होने से एकान्तों के समूह रूप अनेकान्ता भी समान हो सप्तमजी अवतरित होती है ।" यथा स्यादेकान्त, स्यादने जाये जैसे शाखा, व पुष्प, मादि के अभाव में वृक्ष का कान्त, स्वादुभय, स्यादवक्तव्य, स्यादेकान्त अवक्तव्य, अभाव अनिवार्य है तथा' यदि एकान्त को ही मावाच्य स्यादवेकान्त अवक्तव्य और स्यादेकान्त अनेकान्त अव- तो अविनाभावी इतर सब धर्मों का निरूपण करने के क्तव्य । ये भज प्रमाण और नय की अपेक्षा से घटित होते कारण प्रकृत धर्म का भी लोप हो जाने से सर्वसोपा हैं। एकान्त दो प्रकार से है, सम्यक् एकान्त और मिथ्या प्रसग होता है इस कारण बनेकान्त में सप्तमली है। . एकान्त अनेकान्त भी दो प्रकार का है-सम्यक् अनेकांत संदर्भ-सूची १.बैन रन-मो० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य पृ४६८। ६. तत्वार्थवानिक सं. प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ४२ २. तत्वार्य लोक का० सूत्र १-६ १९२८ । १० तत्वार्थ वार्तिक ४।४२ । ३. प्रसनक्शावकस्मिन् बस्तुन्यविरोधेन विधि प्रतिषेध ११. सप्तभङ्गी तरंगिणी-विमसदास,प्र० रायचन्द्र शास्त्र कलमा सप्तमजी।सत्वार्थ राजवा० १-६ पृ० ३३ माला । पृ० ३३ । ४. प्रवचनसार गाथा २०१३ । १२. तत्वार्थ श्लोक वार्तिक पृ० १३२ । - - m antणोतलिये। १३. जैन न्याय-4. कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ. ३२५-३२६ दव्य खु सव्वंभंग आदेसबसेण संभवति । पंचास्ति० १४. आप्तमीमांसा का.९-११। १ण. वही का० १२। ६. समागतिक पृ० ३४३, पृ० ३३॥ १६-१७. वही का० १२॥ ७. बलहवी. १२५॥ १७. तत्वार्थ वार्तिक-सं० प्रो० महेन्द्रकुमार ४२ हि. कापोली श्रुवश्य को स्यावादलयमंशितो। पृ. ४२८ । स्याहारः सकलादेशो नयो विकलसंकथा ॥ मधी- १८. समयसार-स्यावाद अधिकार, मदिसा मन्दिर प्रधपर-३२। सन दिल्ली पृ० ५३८ । (शेष पृ० १४ पर)
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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