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________________ १२.२०१ मनेकान्त होती है । गुणभेदक अंशों में क्रम, यौगपद तथा क्रमयोग पद दोनों से विवक्षावश विकलादेश होते हैं। जब अस्तित्व तथा नास्तित्व आदि धर्मो की देश काल आदि के भेद से कथन की इच्छा है तब अस्तित्व आदि रूप एक ही शब्द की नास्तित्व आदि रूप अनेक धर्मों के बोधन करने में शक्ति न होने से नियत पूर्वापरभाव वा अनुक्रम से जो निरूपण है उसको 'क्रम' कहते हैं। और जब उन्ही अस्तित्व आदि धर्मों को काल आदि द्वारा अभेद से वृत्ति कही जाती है तब एक अस्तित्व आदि शब्द से भी अस्तित्व आदि रूप एक धर्म के बोधन के उपलक्षण से उस वस्तुरूपता को प्राप्त जितने धर्म हैं उनका प्रतिपादन एक समय में सम्भव है, इस प्रकार से जो वस्तु के स्वरूप का निरूपण है उसको यौगपद्य कहते हैं।" प्रथम और द्वितीय भाग में स्वतन्त्र कम, तीसरे में यौगपद्य, चौधे में संयुक्त रूप, पाँचवें और छठे भंग में स्वतन्त्र क्रम के साथ योगपद्य तथा सातवें भंग में संयुक्त क्रम और यौगपद्य है । सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थ दृष्टि से 'स्वावस्त्थेव आत्मा' यह पहला विकला देश है। इस अंग में अन्य धर्म यद्यपि वस्तु में विद्यमान हैं तो भी काजादि की अपेक्षा भेद विवक्षा होने से शब्द वाच्य स्वेन स्वीकृत नहीं है । अत न उनका विधान ही है और । न प्रतिषेध | " एक धर्म के विधि निषेध की विवक्षा से सात ही भंग होते हैं क्योकि प्रश्न के भी सात ही प्रकार होते हैं और प्रश्नों के अनुसार ही सप्तभंगी होती है । जिज्ञासा सात प्रकार की होने से प्रश्न भी सात प्रकार के होते हैं तथा जिज्ञासा भी सात प्रकार की होती है क्योंकि संशय सात प्रकार के होते हैं ।" सप्तभंगी का विकास दार्शनिक क्षेत्र में हुआ अत: उसका उपयोग भी उसी क्षेत्र में होना स्वा: भाविक है। स्याद्वाद चूंकि विभिन्न दृष्टिकोणों को उचित रीति से समन्वयात्मक शैली में व्यवस्थित करके पूर्ण वस्तुस्वरूप का प्रकाशन करता है अतः उसका फलित सप्त भंगीवाद भी प्रयोजनका साधन है ।" स्वामी समन्तभद्र ने अपने आप्तमीमासा नामक प्रकरण में अपने समय के सदैकान्तवादी" सांख्य, असदैकान्तवादी" माध्यमिक सर्वथा उभयवादी वैशेषिक" और अवक्तव्येकान्तवादी बौद्ध का निराकरण करके आदि ४ मंगों का ही उपयोग किया है और शेष तीन अंगों के उपयोग का सूचनामात्र मर दिया है। आप्तमीमांसा पर अष्टशती नामक भाष्य के रचयिता अकलंक देड़ ने और उनके व्याख्याकार विद्यानन्द ने शेष तीन मंगों का उपयोग करते हुए शंकर के अनिवर्चनीयवाद को सदवक्तव्य, बौद्धों के अन्यापोहवाद को असदवक्तव्य और योग के पदार्थवाद को एक सदसयवक्तव्य बतलाया है और इस तरह सप्तभंगी के सात मंगों के द्वारा दार्शनिक क्षेत्र के मन्तव्यों को संग्रहीत किया है। वचनात्मक स्याद्वाद भूत के द्वारा जीवादि की प्रत्येक पमय सम्भ रूप से जानी जाती है।" स्यात् शब्द का अर्थ कचिंत है जो एकांत का निषेध और अनेकांत का प्रकाश करता है । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य है, अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा हस्य नहीं है, स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा हम्प है और नहीं है और स्वद्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों से युगपद कहे जाने की अपेक्षा अर्थात नहीं कहा जा सकता, द्रव्य अवक्तव्य है, स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और युगपद् स्वपर अन्य क्षेत्र, काल भाड़ों की अपेक्षा ग्रम्य नहीं है और अवक्तव्य है, स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, घाव की अपेक्षा द्रव्य है और नही है तथा अवक्तव्य है ।" विधिनिषेध की मुख्यता पोणता करके यह सप्तभंगी वाणी 'स्यात्' पद रूप सत्यमंत्र से एकांन्तरूप खोटे नामरूपी विषमोह को दूर करती है।" सत्य न तो सम्मान सत्ताईस रूप है और न असन्मात्र सर्वचा अभाव रूप है, क्योंकि परस्पर निरपेक्ष सतत्व और असत्तत्व दिखाई नहीं पड़ता- किसी भी प्रमाण से उपलब्ध न होने के कारण उसका होना असम्भव है। हाँ सत्यासत्य से विभिन्त परस्परापेक्षरूप तत्व जरूर देखा जाता है और वह उपाधि के स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप तथा परद्रव्य, क्षेत्र, काल, धाव रूप विशेषणों के भेद से है अर्थात सम्पूर्ण तत्व स्यात् सत् रूप ही है । स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा स्वात् स रूप ही है पर असत् रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा, स्पातु उभयरूप ही है, स्वपररूपादि चतुष्टयद्वय के माथा की अपेक्षा स्वात् अना रूप ही है। स्वपररूपादि चतुष्टय द्वय के सहार्पण की अपेक्षा, स्वात्सववाच्यरूप ही है स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा तथा युगपत्स्वरूपादि चतुष्टयों के कचन की नाति
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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