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जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता - श्रीमद् मट्टाकलंकदेव
उन्हें दिया जाता हैं, किन्तु उनमे से जो उपलब्ध है, वे परवर्ती लेखकों की कृतियां प्रतीत होती है।
प्राचीन काल के अन्य अनेक महान आचायों की भांति अकलङ्कदेव भी स्वय अपने विषय में प्राय कोई ज्ञानव्य प्रदान नही करते — उनकी कुछ कृतियो मे उनका नामोल्लेख मात्र प्राप्त होता है, केवल तत्त्वार्थ राजवार्तिक के एक पद्य से ज्ञात होता है कि वह लघुहव्व नामक किसी नृपति के पुत्र थे । अकलङ्कष्टक-सह-अकलङ्कचरित नामक एक लघु रचना का धेय भी स्वयं अकलंकदेव को दे दिया जाता है, किन्तु अधिक सम्भावना यही है कि वह उनके किसी नातिदूर परवर्ती प्रणवक की कृति है। इसमे अकलङ्कदेव के मुख से किन्ही राजन् - माहसत्तुग की राजसभा मे बौद्धो पर प्राप्त अपनी वाद विजय का सक्षिप्त विवरण दिया गया है, और उक्त घटना की तिथि. वि०स० ७०० (अर्थात् ६४३ ई०) भी सूचित कर दी गई है। दशवी शती ई० से ही अकलहू की बीढानायों पर प्राप्त इस महत्वपूर्ण दाद विजय का उल्लेख अनेक गिनाने तथा ग्रन्थो मे प्राप्त होने लगता है विशेष कर, ११२ ई० की मल्लिपेण प्रशस्ति नामक शि० ले० मे उक्त घटना का विस्तृत वर्णन है जो अकलङ्कपरित के कपन की पुष्टि करता है, और बताता है कि उक्त शास्त्रार्थं महाराज हिमशीतल की राजसभा मे हुआ था तथा उक्त अवसर पर बौद्धाचार्यने अपनी सहायतार्थ तारादेवी का आह्वान किया था " । प्रभाचन्द्र के आराधनासत् - कथा प्रबन्ध ( ११वी शनी) के अनुसार अकलङ्क का भक्त नरेश मान्यखेट का राजा शुभतुग था, जिसका पुरुषोत्तम नामक ब्राह्मण मन्त्री ही स्वयं उनका पिता था, तथा उक्त शास्त्रार्थ कलिंग नरेश हिमशीतल के समक्ष रत्न- सचयपुर मे हुआ था" श्रीचन्द्र और ब्रह्म नेमि त के कथाकोणो मे प्राय उसी की पुनरावृत्ति है। क हिमशीतलक (१८०० ई०), राजाबलिक तथा भुवनप्रदीपिका (१८०८ ई०) भी स्थूलतया कथाकोशां के कथन का ही समर्थन करते है, किन्तु वे अकलङ्क को तामिल देशवासी या कर्णाटक का निवासी सूचित करते हैं, जबकि कथाकोशो का इति महाराष्ट्र की ओर है। माहसग के विषय में ये ग्रन्थ मौन हैं, और हिमशीतल को काञ्ची
का राजा रहा बताते हैं, जो उक्त वादविजय के परिणाम स्वरूप जैनधर्म का अनुयायी बन गया था और उसने arat का उत्पीडन किया था । भुवनप्रदीपिका के अनुसार हिमशीतल तुण्डीर देश का राजा था और घटना की तिथी कलि स० ११२५ पिंगलसवत्मर थी" । अजितसेन ने न्यायमणिदीपिका की प्रशस्ति मे सकल राजाधिराजपरमेश्वर हिमशीतल के महास्थान को बादस्थल सूचित किया है"। पीटरसन ने किसी अनुश्रुति के आधार पर अकलङ्क को राष्ट्रकूट कृष्ण प्र० (७५६-७२ ई०) का पुत्र सूचित किया" ।
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उपरोक्त तथ्यों तथा सुप्रसिद्ध जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मणीय विद्वानों के साथ जो अकलक द्वारा उल्लेखित हुए अथवा जिन्होने अकलक का प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख किया, स्वय अकलक की सममामयिकता एवं पूर्वापर के आधार पर आधुनिक युगीन विद्वानों में अकलङ्क की तिथी एवं जाति-कुलादि को लेकर गया उनके भक्त नरेशों माहमत्तुग एवं हिमशीतल की पहिचान को लेकर, पर्याप्त उहापोह एवं गद विवाद हुए है। मन जनाब्दी के प्रारंभिक दशकों में होने वाले मेसनमा सर्वप्रथम विद्वान थे जिनने उक्त आचार्य के विषय मे ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया" कल मेकेजी के उल्लेखों के आधार पर विल्सन ने यह निष्कर्ष निकाला कि 'आठवी शती ई० मे धरण बेलगोल के जैन गुरु अकलङ्क ने, जिनकी अशन शिक्षा त्रिवत्तूर के निकटस्थ पोन्नग के बौद्ध अधिष्ठान मे हुई थी, काची के अन्तिम बौद्धराजा हिमशीतल के समक्ष बौद्धो से वाद किया और उन्हें पराजित किया था। फलस्वरूप राजा ने भी जैन धर्म अपना लिया और बौद्धों को अपने राज्य से निर्वाचित करके (सिंहलद्वीप के ) कंन्डी नामक स्थान में भेज दिया या" विल्सन का अनुसरण करते हुए जान मुरडोख ने वाद की तिथी लगभग ८०० ई० अनुमानित की और राबर्ट सिवेल ने तो ठीक ७८८ ई० निर्धारित कर दी" । बी० एल० राईस ने गिवेल के मन का समर्थन तो किया, उसे इस विषय में भी कोई सन्देह नही था कि हिमशीतल काञ्ची का कोई पल्लव नरेश था, किन्तु यह भी सूचित कर दिया कि वाद की तिथि के विषय मे स्वयं जैनों का
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