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जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता श्रीमद् भट्टाकलंकदेव
। इतिहासमनीषो डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन 'विद्यावारिषि'
प्रायः छठी शती ई. के मध्य से लेकर १२वी शती साहित्य के इस दौर के वास्तविक सस्थापक श्रीमद के अन्त पर्यन्त जैन साहित्याकाश का सर्वोपरि मखर स्वर भट्टअकलंकदेव ही थे, जिन्होने अपने प्रायः समस्त न्यायशास्त्र रहा'-सन्मति सूत्र प्रणेता सिद्धसेन दिवाकर उत्तरवर्ती लेखको को प्रभावित एव प्रेरित किया--मात्र (ल. ५५०-६०० ई०), द्वादशारनयचक्र के कर्ता मल्ल- जन विद्वानों को ही नही, ब्राह्मण एवं बौद्ध दार्शनिको को वादी (ल० ६०० ई०) त्रिलक्षण-कदर्थन के रचयिता भी प्रभावित किया। पात्रकेसरि (ल. ५७५-६०० ई.), अकलङ्कदेव महान,
यह अकलकदेव या भट्टाकलकदेव जैन परपरा में न्यायावतारकार सिद्धसेन (ल० ७००-७५० ई०), अनन्त
अकलक नाम के प्रथम ज्ञात आचार्य है। मात्र पूज्यपाद, कीर्ति प्र. (ल. ७५० ई०), याकिनीसन हरिभद्रसरि देव, देवेन्द्र, मुनीन्द्र, वादिसिंह जैसे विरुदो से भी परवर्ती (ल० ७५०-८२५ ई०), बृहद् अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र प्र०,
साहित्य में इनका कई बार उल्लेख हुआ है।' वह सर्वपरवादिमल्ल, विद्यानन्द (ल. ७७५-८२५ ई०), रवि
महान जैन नैयायिक, ताकिक एव वादी थे, और भारतीय भद्रपादोपजी िपनन्तवीर्य (ल०८००ई०), चन्द्रकीति, न्याय दर्शन की जैन शाखा के वास्तविक संस्थापक थे। अनन्तवीर्य द्वि०, नामदेव (ल.86५-७५ ई०), माइल्ल- वस्तुत , विभिना सप्रदायो के नैयायिको की दृष्टि मे जैन धवल, माणिक्यनन्दि (ल. ६६५-१०००ई०), अभयदेव
न्याय और अकलकन्याय पर्यायवाची शब्द बन गये। (ल. १००० ई०), नरेन्द्रसेन, वादिराज (ल० १०००
अकलंकदेव के कई टीकाकार भी परम उद्भट नैयायिक १०३५ ई.), महापडित प्रभाचट (लगभग १०१०- थे और वह स्वय दिगम्बर-श्वेताम्बर उभय-सम्प्रदायो के १०६०ई०), जिनेश्वरसरि (ल. १०५० ई.), वादीभ- तथा जैनेतर सम्प्रदायो के भी अनगिनत मनीषियो की सिंह अजितसेन (ल० १०५०-१०१० ई.), महासेन प्रशंसा के पात्र बने। अनेको शिलालेखो, साहित्योल्लेखो, (१०५४ ई०), देवसेन (१०६८ ई०), चन्द्रप्रभ (१०१२ एव लोकानुश्रुतियों में इन आचार्य प्रवर के प्रति परवर्ती ई०), वसुनन्दि (ल० ११००-५०ई०), लघ अनन्तवीर्य पीढियो की श्रद्धा मुखर हुई। (११०५-१७ ई.), हेमचन्द्राचार्य (११०९-७२ ई०), अकलकदेव को सुनिश्चित रूप से ज्ञात एव उपलब्ध मुनिचन्द्र, वादिदेवसूरि (१९१७-६६ ई०), शान्तिसूरि कृतियां है : (ल० ११२५ ई०, कुमुदचन्द्र, विमलदास (ल० ११५० १. उमास्वामिकृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की अत्यन्त ई०), शान्तिषेण, मल्लिषेण (११५८ ई०), रत्नप्रभ विद्वतापूर्ण विशद एव विशाल टीका, तत्वार्थ राजवातिक, ११६६ ई०), अभयचन्द्र, अजितसेन, रामचन्द्रसूरि, २. समन्तभद्राचार्य (२री शती ई०) की आप्तमीमासा देवभद्र, लघुसमन्तभद्र (ल० १२०० ई०), चन्द्रसेन, अपर नाम देवागम की ८०० पद्यो मे रचित पाडित्यपूर्ण प्रद्युम्नसूरि, चारुकीर्ति पडितदेव (ल. १२०० ई०), टीका, अष्टशती, ३. लघीयस्त्रय ४. न्यायविनिश्चय प्रभादेव सौख्यनन्दि (ल. १२०० ई०), पं० आशाधर, ५. सिद्धिविनिश्चय, ६. प्रमाण सग्रह या प्रमाणसार संग्रह प्रभृति लगभग पचास न्याय निष्णात जैन दार्शनिको ने -अकलङ्कदेव की समस्त कृतियां जैन न्याय के सवोत्कृष्ट जैन न्याय के इस तथाकथित मध्ययुगीन सम्प्रदाय का रत्न हैं और शेढ़ संस्कृत भाषा मे निबद्ध हैं । 'स्वरूपप्रोत्साह संवर्धन एवं पोषण किया। किन्तु जैन दार्शनिक संवोधन' आदि कई अन्य ग्रंथो के कृतित्व का श्रेय भी