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ओम् अहम्
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परमागमस्य बोजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत २५०६, वि० स०२०४०
वर्ष ३६ किरण २
अप्रैल-जून १९८३
सम्बोधन
कहा परदेसी को पतियारो। मन मानं तब चल पंथ कों, सांझिगिने न सकारो। सब कुटुम्ब छोड़ि इतही, पुनि त्यागि चल तन प्यारो॥१॥ दूर वितावर चलत प्रापही, कोउ न राखन हारो। कोऊ प्रीति करो किन कोटिक, ग्रंत होयगो यारो॥२॥ धन सौ रुचि धरम सों मूलत, झलत मोह मझारो। इहि विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहि भव पारो॥३॥ सांचे सुख सौं विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतह चेत सुनह रे 'भैया' माप ही पाप संभारो॥॥
कहा परदेसी को पतियारो॥ गरब नहि कोरे एनर निपट गंवार । झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीज रे। कछिन सांझ सुहागर जोबन, के दिन जग में जीजे रे॥ बेगहि चेत बिलम्ब तजो नर, बंध बड़े थिति कीजैरे। 'भूधर' पल-पल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजरे॥