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पर्युषण-कल्प
विद्यावारि घio ज्योतिप्रसाद जैन
उत्तम क्षमादि दशविध आत्मधर्मों की आराधना का इस सूत्र की नियुक्ति के अनुसार पर्युपण, परिवसना पर्युपपावन पर्व दशलाक्षणिक' वर्ष मे तीन बार, भाद्रपद, माघ शमना, वर्षावास, प्रथम समवशरण, ज्येष्ठ ग्रह सब शब्द तया चैत्र मामों के शुक्ल पक्ष की पचमी से चतुर्दशी पर्यन्त पर्यायवाची है । अतएव वहा भी पर्युषण से मूलत वर्षाचलता है। इनमे भी भाद्रपद की दणलक्षणी अनेक कारणा वाम का ही आशय है। से सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय है। उमे दिगम्बर
भगवान महावीर का प्रथम समवसरण तथा समाज मे भी सामान्यतया 'पापण पर्व' कहा जाने लगा है, खलनात परत परत प्रथम कावासाजी यद्यपि प्राचीन साहित्य अथवा शिलालेखो मे भाद्रपद की में व्यतीत हुआ, इग कारण पर्युपण का अर्थ 'प्रथम समवइस दशलाक्षणी के लिए 'पर्युषण पर्व' शब्द प्रयुक्त हुआ सरण भी किया जाने लगा। सभव है कि उक्त प्रथम प्राप्त नहीं होता। हाँ, श्वेताम्बर परम्परा मे भाद्रपद समवसरण की पावन स्मृति के सरक्षणार्थ ही पर्युषण पर्व शुक्ल चतुर्थी या पचमी को पूरे होने वाले आठ दिवसीय मनाने की प्रथा ने जन्म लिया हो। इसके अतिरिक्त, जैन पर्व के लिए पर्युषण शब्द प्रायः रूढ हो गया है। परन्तु परम्परा मे साधु-साध्वियो के लिए नित्य, पाक्षिक, मासिक मलतः पर्युषण का अभिप्राय कुछ विशेष रहा प्रतीत होता तथा वार्षिक प्रतिक्रमण करने आवश्यक होते है। दिगम्बर
मुनि आदि इम चातुर्मास के मध्य ही अपना वार्षिक या शिवायंकृत भगवती आराधना की विजयोदया एव सावत्मरिक प्रतिक्रमण करते है। श्वेताम्बर साधुओ के मूलाराधना नाम्नी टीकाओ के अनुसार वर्षाकाल के लिए इस प्रतिक्रमण की तिथि प्रारम्भ मे भाद्रपद शुक्ल चार मासो में अन्यत्र गमनागमन न करके एक ही स्थान पचमी निश्चित की गई थी जिसे कालान्तर में एक में निवास करना जैन मुनियो का 'पर्युषण' नामक दसवा आचार्य ने चतुर्थी कर दिया। प्रारम्भ मे यह सावत्सरिक 'स्थितिकल्प' है-'पज्जोममणकणो अथवा 'पज्जोसवणा- प्रतिक्रमण (सवत्सरी) साधुजन ही करते थे, शन. शनै. कप्पो' नाम 'दशमः स्थितिकल्प.' । इस ऋतु मे पानी, उसमे श्रावक गमाज भी सम्मिलित होने लगा। इस अवकीचड़, घास-पात कटकादि तथा त्रस जीव-जन्तुओ की यत्र सर पर सवत्सरी के आठ दिन पूर्व से नित्य पर्दूषण कल्प तर बहुलता हो जाने से हिंसा एव आशातना की आशका अपरनाम कल्पसूत्र में निबद्ध महावीरचरित का पाठ करने और सभावना निरन्तर बनी रहती है। इसी कारण मुनि, की प्रथा भी देवद्धिगणी क्षमाश्रमण (५वी शती ई०) के आयिका, ऐलक, क्षुल्लक आदि गृहत्यागी सत गमनागमन समय से चल पड़ी। का परित्याग करके एक ही स्थान मे बर्षायोग या चतुर्मा- एक बात और है, अनादि कालगणना मे वर्ष का सिक योग धारण करके निवास करते है। यह वर्षावास आरम्भ थावण कृष्ण प्रतिपदा से होता है। तीसरे काल आषाढ़ शुक्ल १५ से कार्तिक शुक्ल १५ पर्यन्त १२० दिन (सुखमा-दुखमा) के अन्त होने मे जब पल्य का आठवा का होता है। यही पर्युषणकल्प है और इसी के कारण वह भाग शेष रह गया था तो ज्योतिराग जाति के कल्पवृक्षों पूरा चातुर्मासिक वर्षाकाल 'प!पण' कहलाता है। श्वेता- की आभा क्षीण हो गई, और आकाश मे सूर्यास्त एव चन्द्रोम्बर पराम्परा मे मान्य दशाश्रुतस्कंध नामक छेदसूत्र के दय एक साथ दृष्टिगोचर हुए । कुलकर प्रतिश्रुति ने मध्ययन का नाम भी 'पाजोसणाकप्प' (पर्युषणकल्प) है। तत्कालीन भोगभूमियां जनो का समाधान किया तथा अगले