SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२, बर्ष १० बनेका की प्रतिपत्ति होती है बौद्ध यदि अनित्यत्वैकान्त की सिद्धि न्याश्रय दोष आता है क्योंकि अविनाभाव का ज्ञान हो अनुमान से करना चाहें तो बौद्धों के यहाँ अनुमान भी जाने पर अनुमान होगा और अनुमान के उत्पन्न होने पर नहीं बन सकता है। साध्य और साधन में अविनाभाव अविनाभाव का ज्ञान होगा। इस प्रकार बौखों के यहां सम्बन्ध का ज्ञान होने पर साधन के ज्ञान से जो साध्य किसी भी प्रमाण से अविनाभाव का ज्ञान न हो सकने के का ज्ञान होता है वह नुअमान है। घूम साधन है और कारण अनुमान प्रमाण सिद्ध नहीं होता है इसलिए अनुमान वह्नि साध्य है। उनमें असा ज्ञान करना कि जहाँ-जहाँ प्रमाण से भी अनित्यत्वकान्त की सिद्धि नही होती है। धम होता है वहाँ-वहाँ वह्नि होती है और जहाँ वह्नि क्षणिकात्मबाद मे हेतु बनता ही नहीं है क्योकि हेतु नही होती वहां धूम भी नही होता इस प्रकार के ज्ञान का का ही को यदि सत् रूप माना जाय-सत् रूप ही पूर्वचित्तक्षण नाम अविनाभाव का ज्ञान है। घूम और वह्नि में अवि- उत्तरचित्तक्षण का देत है ऐमा स्वीकार किया जाय तो नाभाव का ज्ञान हो जाने पर पर्वत में धूम को देखकर इससे विभव का प्रसंग आता है अर्थात् एकक्षणवर्ती चित्त वहिका ज्ञान करना अनुमान है किन्तु बौद्धों के यहां में चित्तान्तर की उत्पत्ति होने पर उस चित्तान्तर के कार्य अविनाभाव का शान किसी प्रमाण से नहीं हो सकता है। की भी उसी क्षण उत्पत्ति होगी और इस तरह सकलचित्त प्रत्यक्ष से तो साध्य और साधन में अविनाभाब का ज्ञान और चत्तक्षणो के एकक्षणवर्ती हो जाने पर सकल जगत हो नही सकता क्यो कि बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक व्यापरीचित प्रकारो की यगपत मिति ii (अनिश्चयात्मक) मानते हैं । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा होने से जिसे क्षणिक कहा जाता है वह विभुत्व रूप ही है, अविनाभाव का ज्ञान कैसे संभव हो सकता है । जो किसी सर्व व्यापक ही है यह कैसे निवारण किया जा सकता है। बात का निश्चय ही नहीं करता । वह अविनयभाव को इसके सिवाय एकक्षणवर्ती सत् चित्त के पूर्वकाल तथा कैसे जानेगा। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के बाद एक सविकल्पक उत्तरकाल मे जगत चित्तशून्य ठहरता है और सन्तान प्रत्यक्ष भी होता है जिसको बौद्ध भ्रान्त मानते हैं। वह भी निर्वाणरूप जो विभवमोक्ष है वह सबके अनुपाय (बिना अविनयभाव का ज्ञान नहीं कर सकता । क्योंकि उसका प्रयत्न के ही) सिड होता है और इसलिए सत् हेतु नहीं विषय भी वही है जो निर्विकल्पक का विषय है जब निर्वि. बनता (इस दोष से बचने के लिए) यदि हेतु को असत् ही कल्पक अविनाभाव को नहीं जानता है तो सविकल्पक को कहा जाय तो अकस्मात् विना किसी कारण के ही) कार्योकैसे जान सकता है। दूसरी बात यह भी है कि प्रत्यक्ष त्पत्ति का प्रसग आयेगा और इसलिए असत् हेतु भी नहीं पास के अर्थ को ही जानता है। उसमें इतनी समर्थ्य नहीं बनता। यदि पदार्थ को प्रलयस्वभावरूप आकस्मिक माना है कि वह संसार के समस्त साध्य ओर साधनों का ज्ञान जाय-यह कहा जाय कि जिस प्रकार बौद्ध मतानुसार कर सके अतः प्रत्यक्ष के द्वारा अबिनाभाव का ज्ञान सभव बिना किसी दूसरे कारण के ही प्रलय (विनाश) आकस्मिक नही है। होता है, पदार्थ प्रलयस्वभावरूप है उसी प्रकार कार्य का अनुमान के द्वारा भी अविनाभाव का ज्ञान संभव नही उत्पादन भी बिना कारण के ही आकस्मिक होता है तो है 'पर्वतोऽयं वह्निमान धूमवत्वात्' इस अनुभान मे जो इससे कृतकर्म के भोग का प्रणाश ठहरेगा-पूर्वचित्त न जा अविनाभाव है उमका ज्ञान इसी अनुमान से होगा या शुभ अथवा अशुभ कर्म किये उसके फल का भोगी वह न दूसरे अनुमान से यदि दूसरे अनुमान से इस अनुमान के रहेगा और इससे किये हुए कर्म को करने वाले के लिए अविनाभाव का जान होगा तो दूसरे अनुमान में अविनय- निष्फल कहना होगा और अकृत कर्म के फल को भोगने भाव का ज्ञान जीसरे से और तीसरे में अविनाभाव का का प्रसग आयगा जिस उत्तरभावी चित्त ने कर्म किया ही शान चौथे "नुमान से होगा इस प्रकार अनवस्था दूषण नही उसे अपने पूर्वचित्त द्वारा किये हुये कर्म का फल या जाता है। यदि इसी अनुमान से इस अज्ञान के अवि- भोगना पड़ेगा क्योंकि क्षणिकात्मवाद मे कोई भी कर्म की नाभाव का ज्ञान किया जाता है तो ऐसा मानने में अन्यो- कर्ता चित्त उत्तरक्षण में अवस्थित नहीं रहता किन्त कर
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy