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________________ सपनंगवार और मकान्त की परम्परा चलती है। साथ ही कर्म भी असंवेतित-अवि- सार दो वस्तुएं एक ही ज्ञान का विषय हो नहीं सकती। चारित टहरेगा, क्योंकि जिस चित्त ने कार्य करने का एक ही क्षण तक ठहरने वाले और अंशो से रहित निरात्म विचार किया उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जाने भाव में भी क्रम और योमपच नहीं ठहरते हैं तथा अपने से और विचार न करने वाले उत्तरवर्ती चित्त के द्वारा अर्थ क्रिया भी नही होती है अर्थात् कूटस्थ के समान नि:उसके सम्पन्न होने से उसे उत्तरवर्ती चित्त का अविचारित स्वभाव क्षणिक पदार्थ मे भी कम और योगाद्य तथा कार्य ही कहना होगा। पदार्थ के प्रलय स्वभावरूप क्षणिक अर्थक्रिया का होना विरुद्ध हो रहे हैं क्योंकि ये अनेकहोने पर कोई मार्ग भी युक्त नही रहेगा। क्षणिक एक धर्मात्मक पदार्थ में पाये जाते हैं जिस कारण वह बोडों का चित्त में बन्ध और मोक्ष भी नही बनते।' शास्ता और सत्व हेतु विपक्ष में वृत्ति होने से अनैकान्तिक (व्यभिचारी) शिष्यादि के स्वभाव-स्वरूप की भी कोई व्यवस्था नहीं है अर्थात् एकान्त साध्यवाद से विपरीत में वृत्ति कर रहा बनती। वह हेतु विरुद्ध है। बौद्धों की यह कल्पना भी उचित नही जान पड़ती सभी प्रकार मूल से ही दूसरे क्षण मे नाश होने वाले पदार्थ मे वास्तविक रूप से क्रम और अक्रम नही बनते कि अनेक वस्तुयें एक ही कार्य को जन्म देने में समर्थ हैं क्योंकि इन अनेक वस्तुओं में अनेकता रहती है जब कि हैं। क्रम तो कालान्तरस्थायी पदार्थ में बनता है और इस अनेकता का प्रस्तुत कार्यगत एकता के साप विरोध अक्रम यानी एक साथ कई कार्यों का करना भी कुछ देर है। कारण सामग्री की अगभूत सभी वस्तुओं पर निर्भर तक ठहरने वाले पदार्थ मे सम्भवता है। तिस कारण रहते हुए अस्तित्व में आने वाला कार्य एक कैसे कहा जा अक्रम के असम्भव होने पर ज्ञानमात्र हो जाना इस अपनी सकता है क्योकि एक वस्तु वह होती है जिसमे एक स्व निज की अर्थक्रिया की भी भला कैसे व्यबस्था हो सकेगी? भावता रहती है जब कि अनेक बस्तुओ से उत्पन्न होने जिससे कि उस सर्वथा क्षणिक से निवृत्ति को प्राप्त हो रहा वाली वस्तु में एकस्वभावता रह नहीं सकती। कारण- सत्ता सस्व हेतु अनेकान्तस्वरूप कथंचित् क्षणिक पदार्थ मे सामग्री की अंगभूत वस्तुएँ अनेक इसीलिए हैं कि उनके स्थिति को प्राप्त करके उस क्षणिकपन से विरुव नहीं स्वभाव परस्पर भिन्न है ऐसी दशा में इन्हीं (अनेक) होता।" सत्व हेतु से कथचित् क्षणिकपन और न्यारे-न्यारे वस्तुओं की सामथ्यं के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली वस्तु पदाथों में कथंचित् सदृश्यपना सिद्ध हो जाने से निर्वाध हो एकरूप कैसे हो सकती है। जो कार्य एकवस्तु की सामथ्य गई सदृशपन और एकपन को विषय करने वाली प्रत्यके फलस्वरूप उत्पन्न होता है वह किसी दूसरी वस्तु से भिशा नाम की प्रतीति पदार्थों के सर्वथा नित्यपन अथवा भी उत्पन्न हो यह संभव नही; क्योंकि उस दशा में उक्त क्षणिकपन के एकान्त को नष्ट कर देती है और पदार्थों दो वस्तुयें परस्पर अभिन्न हो जायेंगी और यदि ये वस्तुयें को उत्पाद, व्यय, धौव्यरूप परिणाम का साधन करा देती परस्पर भिन्न रहेंगी तो यह कार्य भी दो रूपों वाला हो है। ऐसे अनेकान्तरूप और परिणामी उस पदार्थ में भला जाएगा। किन्हीं वस्तुओं के सम्बन्ध में यह कहना कि वह प्रत्यभिज्ञान कैसे नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा। कसी कार्य विशेष को जन्म देने में वे सभी समर्थ तभी परिणाम नही होने वाले कूटस्थ और निरश एकान्त रक्तसंगत है जब इनमे से प्रत्येक वस्तु उक्त कार्यको अणिक पदार्थों की सिद्धि नहीं हो सकी है। कथंचित् नित्य, जन्म देने में समर्थ हो क्योंकि सबकी सामर्थ्य 'प्रत्येक की परिणामी, अनेकधर्मात्मक वस्तुभूत अर्थ मे प्रत्यभिज्ञान सामर्थ्य के बिना सभव नही। दो वस्तुओं को एक ही प्रमाण का विषयपना है।" ज्ञान का विषय बनाये बिना उनके बीच कार्यकारणभाव की कल्पना करना युक्तिसगत नहीं लेकिन बोडों के अनु निकट जैन मन्दिर, बिजनौर (उ० प्र०)
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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