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२०पर्व ३६ कि.१
सम्बन्ध होने के कारण भ्रमवश भावश्रुत शान रूप निज निमित नैमैत्तिक सम्बन्ध वाले वास्तविक अपदेश रूप द्रव्य अन्तस्तत्व का अनुभव नहीं होकर मात्र भावश्रुत ज्ञान के श्रुत शान अर्थात जल्परूप शब्द ज्ञान (भाव श्रुत शान के विकल्प रूप द्रव्य श्रूत ज्ञान अर्थात जल्प रूप शब्द का ही विकल्प) का अन्त होकर एकमात्र अक्रमवर्ती तिर्यग सामान्य अनुभव होता रहता है कारण जल्प रूप शब्द ज्ञान का उप- रूप भावश्रुत अर्थात अन्तस्तत्व रूप निज शुद्धात्म स्वरूप चार याने विकल्प भी ज्ञेयाकार रूप उपचरित पर पद में ज्ञायक स्वभाव ही अनुभव में आता है। यह अवस्था अनिही होता है।
वृतिकरण के समय सहज ही बनती है क्योंकि बाह्य प्रवृति
और बाह्य निवृति रूप विकल्प का अन्त होने पर ही अर्थात अनादि काल से इस अविनाभावी निमित्त नैमित्तिक
उपयोग के साथ मन वचन काय की प्रवृति और निवृति के सम्बन्ध की श्रङ्खला चालू रहने पर भी ज्ञेयाकार रूप भाव
विकल्प का अन्त होने पर ही याने निश्चय त्रिगुप्ति की श्रुत शान द्रव्य श्रुत ज्ञान (जल्प रूप शब्द ज्ञान) का तथा
आंशिक शुरूआत होने पर ही स्वानुभव रूप सेवा धर्म जल्प रूप शब्द ज्ञान (द्रव्य श्रुत ज्ञान) ज्ञेयाकार रूप भाव
होता है इसलिए त्रिगुप्ति कहो या अनिवृतिकरण कहो एक थत ज्ञान का आपस मे एक दूसरे का निमित होने के
ही बात है अतः इस पन्द्रहवीं गाथा में अपदेश का वास्तकारण एक दूसरे का निर्देश तो अवश्य करते है लेकिन
विक अर्थ द्रव्य श्रुत रूप शब्द (अतर्जल्प और बहिर्जल्प रूप एक दूसरे की उत्पत्ति बिल्कुल भी नही करते अर्थात एक
शब्द) ही तर्क संगत सही है। दूसरे के गमक रूप निमित कारण तो अवश्य है लेकिन एक दूसरे के जनक रूप उपादान कारण किंचित भी नहीं है उपरोक्त विवेचन अनुसार इस गाथा का भावार्थ इसलिए शेयाकार रूप भाव श्रुत ज्ञान मे द्रव्य श्रुत (जल्प निम्न प्रकार से बनता है। जो अबद्ध स्पष्ट, अनन्य, अविरूप शब्द) का विकल्प होने पर भी द्रव्य श्रुत रूप शब्द शेष तथा उपलक्षण से नियत एवं असंयुक्त आत्मा को ज्ञान (जल्प) का अन्त रूप अभाव होने के कारण यह अन्तस्तत्व के विकल्प रूप द्रव्य श्रुत (बहिर्जल्प और अन्तर्जल्प रूप रूप भाव श्रुत ज्ञान सदा ही अपदेश के अंत सहित अर्थात शब्द) के अन्त सहित अन्तस्तत्व रूप भाब श्रुत ज्ञान में दव्य श्रत ज्ञान रूप पद के अन्त सहित याने जल्प रूप देखता है व ज्ञाता का दृष्टा होने के कारण समस्त जिन शब्द से रहित ही है लेकिन भ्रम वश इससे विपरीत शासन को देखता है क्योंकि द्वादशांग वाणी रूपी उपचरित मानता हआ जीव मिथ्यात्वी होकर स्वयं ही अनन्त के साथ जिन शासन भी भावश्रुत ज्ञान रूपी वास्तविक जिन-शासन अनबद्ध करता हुआ अर्थात अनन्तानुबंधी कषाय के कारण का ही निर्देश करने वाली है। महान आकुलित हो रहा है।
विवेकी विद्वान इस गाथा का वास्तविक अभिप्राय भावश्रत एवं द्रव्य श्रुत के भेद को पडित प्रवर श्री समझ कर इसके अर्थ का निर्णय करके विकल्प रहित अंतजयचन्द जी छाबड़ा ने समयसार के मंगलाचरण में "शब्द स्तत्व में अबद्ध, स्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, नियत और असंबह्म परब्रह्म के वाचक वाच्य नियोग" कह कर स्पष्ट युक्त आत्मा के विकल्प का भी अंत करके निज शुद्धात्म किया है। इस भेद की यथार्थ समझ होने पर जब उप- स्वरूप ज्ञायक स्वभाव का अनुभव करेंगे इसी भावना के चरित अपदेश रूप ज्ञेयाकार ज्ञान अर्थात ज्ञान के क्रमवर्ती साथ । विशेष का प्रयोजन वश तिरोभाव होता है तब अविनाभावी
-इम्फाल (मनीपुर)