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________________ निमित्ताधीन दृष्टि र्वाद क्यों दिया इसका कारण है कि साधु के पास आशीर्वाद के अलावा और कुछ नहीं था । जो था वही दे सकते थे वही दिया। सवाल यह नहीं है कि राजा ने क्या किया ? सवाल यह है कि हमारे पास क्या है ? अगर हमारे भीतर गाली है तो गाली ही देगे अगर ऊपर से आशीर्वाद भी दिया तो भीतर से तो वही देगे जो हमारे पास है । इसलिए सवाल यह नही है कि दूसरे ने क्या किया वह कैसा है, सवाल है कि हम कैसे हैं ? इसलिए यह देखने से नुकसान होगा कि दूसरे ने क्या किया परन्तु यह देखिए मैंने क्या किया । परन्तु जब तक रोग है अस्वस्थ है तब तक ठण्डी हवा से बचना चाहिये, वह इसलिए नही कि हवा हमारा बिगाड करने वाली है परन्तु इसलिए कि हम अस्वस्थ है । हम इसलिए बच रहे है कि हमारा स्वास्थ्य ठीक नही है । अपनी कमी की वजह से बच रहे है । इसलिए जो जोर आयेगा वह अपनी कमी दूर करने पर आएगा न कि हवा से द्वेष करने पर । घी बहुत बढिया चीज है । लोगो को फायदा भी करता है परन्तु बुखारवाला खावे तो नुकसान करता है इसलिए ऐसा मानना उचित नही कि घी खराब है परन्तु बुखार की वजह से उससे बचना जरूरी है । इसलिए बाहरी निमित्तो से बचना भी चाहिए तबतक जब तक हमारे मे कमजोरी है परन्तु दोष उनका न समझ कर अपनी कमजोरी को समझना चाहिए तब तो हम अपनी कमजोरी को दूर करने का पुरुषार्थ करेंगे जो हो २३ सकता है । अगर दूसरे का दोष समझेंगे तो उसको ठीक करने का पुरुषार्थ करेंगे जो हो सकता है। जो जैसा हम कर रहे हैं और जो हो नही सकता परन्तु हमारी कमजोरी तो इससे दूर होगी नही । एक आदमी को कुछ आदमी छेड़ रहे हैं वह किस किस का मुह बन्द करने की चेष्टा करेगा । अगर कुछ लोगो को समझाता है तो और लोग छेड़ने लग जाते हैं । दुनिया बहुत बड़ी है परन्तु हम अपने को ठीक कर लें चिढ़ना बन्द कर दे तो बात ठीक हो जाती है । 'आत्मार्थी अपना दोष देखता है अपने को ठीक करने की चेष्टा करता है । ससार मार्गी दूसरे का दोष देखता है और उसे ठीक करने की चेष्टा करता है । दो आदमियो को बुखार है और दोनो किसमिस खाते है और दोनो को खारी लगती है परन्तु एक सच्चा है वह किसमिस को खारी समझता है और एक कहता है कि अगर किसमिस खारी लगती है तो अभी मेरे बुखार है । जो ऐसा समझता है वह अपने बुखार को दूर करने का उपाय करता है जो सही उपाय है परन्तु जो विर मिस को बारी समझता है वह किसमिस को धोकर खारापन दूर करने की चेष्टा करता है जो असम्भव है । हमे विचार करना है कि क्या उसी आदमी की सी हालत ही हमारी नही है ? हम भी जीवन में दूसरे को ठीक करने की चेष्टा करते है अपने को नही देखते अपने को ठीक करने की चेष्टा नही करते । एको मे सासदो प्रध्या रगारगदं सरलक्खरगो । सेसा मे बाहिराभावा सब्वे संजोगलक्खणा ॥ अथ मम परमात्मा शास्वतः कश्विदेकः, सहजपरमचिच्चितामरिण निश्यशुद्धः । निरवधिनिजदिव्यज्ञानदृग्भ्यांसमृद्धः, 00 किमिह बहुविकल्पे मे फलं बाह्यभावः ॥ निश्चय से मेरा आत्मा नित्य, एक, अविनाशी है। ज्ञान-दर्शन लक्षण का धारी है। मेरे आत्मीक भाव के सिवाय अन्य सर्वभाव मुझसे बाह्य हैं तथा सर्व ही भाव संयोग लक्षण हैं अर्थात् पर द्रव्य के संयोग से उत्पन्न हुए हैं ।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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