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________________ जैनदर्शन में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय 0 अशोक कुमार जैन एम० ए०, शास्त्री अनेकान्तदृष्टि जैवतत्वदर्शियों की अहिंसा का ही एक है और विवक्षित नय की अपेक्षा एकान्त है । अतः नय के रूप है जो विरोधी विचारों का वस्तु स्थिति के आधार बिना अनेकान्त सम्भव नहीं है।' सकलादेश प्रमाण का पर सत्यानुगामी समीकरण करती है और उमी अनेकान्त विषय है, विकला देश नय का विषय है प्रमाण समन को दृष्टि का फलितवाद नयवाद है। प्रमाण और नय से विषय करता है तथा उससे ही नय प्ररूपणा की उत्पत्ति जीवादि पदार्थों का अधिगम ज्ञान होता है। प्रमाण वस्तु हुई है। सकलादेश क्या है ? कथञ्चिद् घट है, कथञ्चिद् के पूर्णरूप को ग्रहण करता है और नय प्रमाण के द्वारा घट नही है, कथञ्चिद् घट अवक्तव्य है, कथञ्चिद् घट है जानी गई वस्तु के एक अश को जानता है। वस्तु अनन्त- नही है, कथञ्चिद् घट है और अवक्तव्य है, कथञ्चिद् घट धर्म वाली हैं । प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ को नही है और अवक्तव्य है, कथञ्चिद् घट नही है और एकदंश मे वस्तु का निश्चय कराने वाले ज्ञान को नय अवक्तव्य है इस प्रकार ये सातों भग सकलादेश कहे जाते कहते हैं । ज्ञाता के अभिप्राय का नाम नय है।' प्रमाण के हैं।" विकलादेश क्या है ? घट है ही, घट नहीं ही है, घट द्वारा प्रकाशित अनेक धर्मात्मक पदार्थ के धर्मविशेष को अवक्तव्य रूप ही है घट है ही और नही ही है, घट है तो ग्रहण करने वाला ज्ञान नय है।' आचार्य समन्तभद्र ने और अवक्तव्य ही है, घट नही ही है और अवक्तव्य ही है, स्याद्वाद से गृहीत अर्थ के नित्यत्व विशेषधर्म के व्यञ्जक घट है ही, नही है और अवक्तव्यरूप ही है इस प्रकार यह को नय कहा है। नय' प्रमाण से उत्पन्न होता है अत: विकलादेश है। सातों वाक्य एक धर्म विशिष्ट वस्तु का प्रमाणात्मक होकर भी अशग्राही होने के कारण पूर्ण प्रमाण ही प्रतिपादन करते हैं इसलिए ये विकलादेश रूप है।" नहीं कहा जा सकता। अत. जैसे घड़े का जल समुद्रैकदेश जैसे शास्त्रों का मूल अकारादि वर्ण है, तप आदि गुणों के है उसी तरह नय भी प्रमाणकदेश है अप्रमाण नही । वस्तु भण्डार साधु में सम्यक्त्व है। धातुवाद में पारा है वैसे ही के अनेक धर्मात्मक होने पर भी ज्ञाता किसी एक धर्म की अनेकान्त का मूल नय है।" जो नय दृष्टि से विहीन हैं मुख्यता से ही वस्तु को ग्रहण करता है जैसे व्यक्ति मे उन्हे वस्तु के स्वरूप का ज्ञान नही हो सकता और वस्तु अनेक सम्बन्धो के होते हुए भी प्रत्येक सम्बन्धी अपनी के स्वरूप को न जानने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते दृष्टि से ही उसे पुकारता है। अनेकान्त का मूल नय है। हैं।" अध्यात्मशास्त्र मे नयो के निश्चय और व्यवहार ये नय का विषय एकान्त है इसलिए नय को एकान्त भो दो भेद प्रसिद्ध है। निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार कहते हैं और एकान्तों के समूह का नाम अनेकान्त है। नय को अभूतार्थ कहा गया है।" इसी बात को माइल्ल अतः एकान्त के बिना अनेकान्त सम्भव नहीं है । जो वस्तु धवल ने भी कहा है कि निश्चय नय और व्यवहार नय प्रमाण की दृष्टि मे अनेकान्तरूप है वही वस्तु नय की सब नयो के मूल भेद है।" निश्चय के साधन मे कारण दृष्टि मे एकान्त स्वरूप है। यदि एकान्त न हो तो जैसे पर्यायाथिक और द्रव्याधिक जानो। जैन अध्यात्म का एक बिना अनेक नही वैसे ही एकान्त के बिना अनेकान्त निश्चय नय वास्तविक स्थिति को उपादान के आधार से नही। अतः जब सभी अनेकान्त रूप है तो अनेकान्त पकडता है वह अन्य पदार्थों के अस्तित्व का निषेध नही एकान्तरूप कैसे हो सकता है। प्रमाण और नय के द्वारा करता जब कि वेदान्त या विज्ञानाद्वैत का परमार्थ अन्य अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है। प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त पदार्थों के अस्तित्व को ही समाप्त कर देता है। बुद्ध की
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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