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________________ २२,वर्ष ३६, कि० २ अनेकान्त धर्मदेशना को भी परमार्थ सत्य और लोकसंवृतिसत्य इन याथिक को मिलाने से नौ नय हैं तथा तीन उपनय हैं वे दो रूप" से घटाने का प्रयत्न हुआ है। जो नय आत्मा हैं सद्भुत, असद्भुत और उपचरित ।" शब्द की अपेक्षा को बंध रहित और पर के स्पर्श रहित, अन्यत्वरहित, नयों के एक से लेकर असंख्यात विकल्प होते हैं। मध्यम चलाचलता रहित विशेष रहित अन्य के संयोग रहित ऐसे रुचि शिष्यों की अपेक्षा ७ भेद भट्टाकलङ्क देव ने बताये पांच भाव रूप अवलोकन करता है उसे शुद्धनय जानो।" हैं।" जो उन-उन पर्यायो को प्राप्त होता है या उन-उन व्यवहार नय तो ऐा कहता है कि जीव और देह एक ही पर्यायो के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य है।" स्व है और निश्चय नय का कहना है कि जीव और देह ये और पर कारणो से होने वाली उत्पाद और व्ययरूप दोनों तो कभी एक पदार्थ नहीं हो सकते ।" स्वसमयी पर्यायों को जो प्राप्त हो तथा पर्यायों से जो प्राप्त होता व्यक्ति दोनों नयों के वक्तव्य को जानता है पर किसी एक हो वह द्रव्य है।" जो सत् है वह द्रव्य है।" वह सत् नय का तिरस्कार करके दूसरे नय के पक्ष को ग्रहण नही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। * गुणपर्याय वाला करता। वह एक नय को द्वितीय सापेक्ष रूप से ही ग्रहण द्रव्य होता है।" उत्पाद एवं नाशरूप पर्यायों से रहित करता है। जिस पदार्थ में जितने शब्दों का प्रयोग होता द्रव्य नही होता और द्रव्य अर्थात् ध्र वांश से रहित पर्याय है उममें उतनी ही वाच्य शक्तियां होती हैं तथा वह जितने नही होते क्योंकि उत्पाद नाश, स्थिति ये तीनो द्रव्य सत् प्रकार के ज्ञानो का विषय होता है उसमें उतनी ही ज्ञेय का लक्षण है । जो नहीं छोड़े हुए अपने अस्तित्व स्वभाव शक्तियां होती हैं। शब्द प्रयोग का अर्थ है प्रतिपादन से उत्पाद-व्यय तथा ध्रौव्य से युक्त है और अनन्त गुणाक्रिया । उसके साधन दोनों ही हैं शब्द और अर्थ । एक ही त्मक है, पर्याय सहित है उसे द्रव्य कहते हैं।" अकलङ्क घट मे घट पार्थिव, मातिक, सत्, ज्ञेय, नया, बड़ा आदि देव ने नय के दो मूल भेद माने हैं द्रव्यास्तिक और पर्याअनेकों शब्दों का प्रयोग होता है तथा इन अनेक ज्ञानो का यास्तिक । द्रव्यमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करने वाला विषय होता है । अत: जैसे घड़ा अनेकान्तरूप है उसी तरह द्रव्यास्तिक और पर्यायमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करने आत्मा भी अनेक धर्मात्मक है।" अनेकान्तात्मक जीव का वाला पर्यायास्तिक है । अथवा द्रव्य हो जिसका अर्थ हैकथन शब्दों से दो रूप में होता है एक क्रमिक और दूसरा गुण और कर्म आदि द्रव्यरूप ही है वह द्रव्याथिक ओर योगपद्य रूप से । तीसरा कोई प्रकार नहीं है जब अस्तित्व पर्याय ही जिसका अर्थ है वह पर्यायाथिक । पर्यायाथिक आदि अनेक धर्म कालादि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित का विचार है कि अतीत और अनागत चुकि विनष्ट और होते हैं उस समय एक शब्द मे अनेक अर्थों के प्रतिपादन अनुत्पन्न है। अतः उनसे कोई व्यवहार सिद्ध नही हो की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है इसे सकता और वर्तमान मात्र पर्याय ही सत् है। द्रव्याथिक विकलादेश कहते है परन्तु जब उन्ही अस्तित्वादि धर्मों की का विचार है कि अन्वयविज्ञान अनुमताकार वचन और कालादिक की दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक भी अनुगत धर्मों का लोप नही किया जा सकता अतः द्रव्य ही शब्द के धर्ममुखेन तादाम्यरूप से एकत्व को प्राप्त अखण्ड । अर्थ है।" माइल्लधवल ने भी जो पर्याय को गौण करके भाव से युगपद कथन हो जाता है और यह सकलादेश द्रव्य का ग्रहण करता है उसे द्रव्याथिक नय कहते हैं और कहलाता है।" समन्तभद्र ने नय के साथ उपनय का भी जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है उसे प्रयोग किया है।" अकलङ्क देव ने लिखा है सग्रह आदि पर्यायाथिक नय कहते हैं। जो कर्मों के मध्य में स्थित नय हैं और उसकी शाखा प्रशाखायें उपनय है।" द्रव्या- अर्थात् कर्मों से लिप्त जीव को सिद्धों के समान शुद्ध ग्रहण थिक और पर्यायाथिक ये दो ही मूल नय कहें गये हैं अन्य करता है उसे कर्मोपाधि निरपेक्ष शुख द्रव्याधिक नय कहते असंख्यात संख्या को लिए हुए उन दोनो के ही भेद जानने हैं। उत्पाद और व्ययको गौण करके जो केवल सत्ता को चाहिए । नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समधि- ग्रहण करता है उसे आगम से सत्ता ग्रहण शुद्ध द्रव्याथिक रूढ़ और एवंभूत इन सात नयों में द्रव्याथिक और पर्या- नय कहते हैं । गुण गुणी आदि चतुष्क रूप अर्थ में जो भेद
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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