SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८पर्व ३६, कि०२ अतः वस्तुस्थिति के परिप्रेक्ष्य में उससे उल्टे मिथ्या दृष्टि संमत अनादि तथ्य है-नवीन नहीं। इसमें जैनी को कैसे आदि व्यवहार भी अनादि हैं। बर्तना चाहिए ? जरा सोचिए! आठों कमों में मोहनीय कर्म को सबसे बलवान बत- ३. शोध-पत्रिकाएं कैसी हों! लाया है और उसका साक्षात् सम्बन्ध आत्मा के भावों से भौतिक शोध (रिसर्च) का जोर है और लोगों का है। मूलतः उसकी दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय ये ___ध्यान पर्याप्त मात्रा में उधर ही है। उस दिन एक सज्जन . दो प्रकृतियां हैं और कोके अनादि होने से ये प्रकृतियां भी बोले-समाज में शुद्ध मायने में शोध-पत्रिकाएं होनी अनादि हैं। दर्शन मोहनीय प्रकृति के उदय का फल । चाहिएँ। हमने सोचा बात तो ठीक है। टीका-टिप्पणी मिथ्यात्व भाव भी है और जिसे इस मिथ्यात्व का उदय और आलोचना-प्रत्यालोचना के प्रसंगो से तो अनेकों पत्र होता है वह मिथ्या दृष्टि है। भरे रहते हैं। पर, प्रश्न यह उठता है कि शोध करने से सम्पदृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों भावों और शब्दो तात्पर्य क्या है ? मात्र जड़ की या चेतन की भी ? तथा व्यक्तित्वों का अस्तित्व भगवान ऋषभदेव के समय अनादि काल से यह जीव पर की खोज में रहा मे भी था। उस युग में जो ३६३ मिथ्या-मत कहे गए उसने सिद्धान्त को और अपने को नही खोजा। यदि हैं-वे मिघ्यावृष्टियों के ही थे। तीर्थकर महावीर के अपने को खोजे और खोजकर अपना निखार करे तो खोज समय में भी ऐसे जीव विद्यमान थे । वाद के प्राचीनतम सार्थक हो। आज जो लोग खोज की बातें या खोज के आचार्यों ने भी मिथ्यादृष्टि शब्द को स्थान दिया है। कार्य करते हैं उनमें कितने ऐसे हैं जिनका ध्यान सिद्धान्त तपाहि और आचार-विचार के प्रसंगों की ओर हो या जो जिन'मिच्छाइट्ठी णियमा उवइ→ पवयणं ण सद्दहदि ।' मार्ग में प्रवृत्ति करते-कराते हों । यतः सिद्धान्त ज्ञान और -गुणधराचार्य कसायपाहुड १०८ आचार-विचार के बिना इन भौतिक मिट्टी-पाषाणो, -~-गोम्मटसार जीवकाण्ड साहित्य, इतिहास एवं पाण्डुलिपियों के संग्रह मात्र में धर्म 'ओषेण अस्थि मिन्छाइट्ठी का उतना लाभ नही। ऐसी-ऐसी खोजें तो आज तक -षट्खंडागम १-१-६ बहुत हो चुकीं और उनसे जैनधर्म का उतना ठोस प्रचार नहीं इसी प्रकार गुणस्थानों में प्रथम गुणस्थान का नाम हो सका। ठोस सिद्धान्त ज्ञान और आचार-विचार के 'मिथ्यात्व है और वह अनादि से है और उस गुणस्थान बिना धर्म का आचरण में ह्रास ही हुआ है। वर्ती अनन्तजीव हैं, उन सभी को 'मिथ्यादृष्टि' नाम दिया इस प्रसंग में अनेकान्त के जन्म का इतिहास जब गया है। उक्त वर्णन में हिंसा-अहिंसा का प्रश्न छुए बिना हमारी दृष्टि में आया तब हमने पढ़ामात्र वस्तु-तत्त्व वर्णन को प्रमुखता दी गई है। एतावता ऐसा मानना कि 'मिथ्यादृष्टि' हिंसक, झूठा, चोर आदि "जैन समाज में एक अच्छे साहित्यिक तथा ऐतिजैसे शब्दों में 'वैचारिक हिंसा' का दोष आता है-अतः ये हासिक पत्र की जरूरत बराबर महसूस हो रही है, और जैन आगमिक शब्द नहीं हैं या वाद के प्रचलन है आदि सिद्धान्तविषयक पत्र की जरूरत तो उससे पहिले से चली कहना सर्वथा निर्मूल है। पुण्यात्मा-पापात्मा, हिंसक आती है। इन दोनों जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, अहिंसक, सत्यवादी-झूठा आदि सभी विरोधी धर्मों के समंतभद्राश्रम ने अपनी उद्देश्य सिद्धि और लोकहित की विकल्प और सभी विरोधी धर्म अनादि हैं। भावों की साधना के लिए सबसे पहिले 'अनेकान्त' नामक पत्र को निकालने का महत्त्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में लिया है।' संभाल (उत्तमता) से इनके कथन में अहिंसा है और भावों की कलुषता में हिंसा है। समताभाव से यथार्ष अनेकान्त वर्ष १, किरण एक, वी. नि. २४५६ । वस्तु-स्वरूप का वर्णन करना पाप नहीं । मिथ्या को मिघ्या उक्त नीति के आधार पर 'वीर सेवा मन्दिर' की और मिथ्या मानने वाले को मिथ्यादृष्टि कहना आगम नियमावलि में प्रकाशित निम्न पैरा भी मननीय है
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy