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________________ जैनधर्म की प्राचीनता व ऐतिहासिकता "ओम् ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वशं यज्ञेषु नग्नं परमं पुरातात्त्विक दृष्टि से सिन्धु घाटी के उत्खनन से माहसंस्तुतं वरं शत्रु जयंतं पशुरिन्द्रमाहतिरिति स्वाहा। प्राप्त मुद्राओं तथा मूर्तियों पर अंकित वृषभ से यह ओम् त्रातारमिन्द्र हवे शत्रमजितं तद्वद्धमानपुरहूतमिन्द्र प्रमाणित होता है कि शवधर्म की भांति जैनधर्म भी ताम्र माहरिति स्वाहा । ......... शान्त्यर्थमनुविधीयते सो युगीन सिन्धु सभ्यता के साथ फल रहा था। सिन्धु स्माक अरिष्टनेमिः स्वाहा।" घाटी से प्राप्त मोहरों पर कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित मूर्तियां इसमे ऋषभदेव, सुपार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ठीक वैसी हैं, जैसी कि मथुरा म्यूजियम की दूसरी शती वर्द्धमान इन चार तीर्थंकरों की पूजा की गई है। "ऋग्वेद" की कायोत्सर्ग मुद्रा मे स्थित ऋषभदेव की मूति है । सिन्धु के कई मन्त्रों में ऋषभदेव का "वृषभ" रूप से और घाटी की मूर्ति की शैली इससे बहुत कुछ समानता लिए नेमिनाथ का "अरिष्टनेमि" शब्द से स्तुति-गान किया गया हुए है । इतिहास के सुप्रसिद्ध विद्वान् डा. राधाकुमुद है। इससे अत्यन्त स्पष्ट है कि साहित्यक, सांस्कृतिक, मुकर्जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिन्दू सभ्यता" में लिखते पौराणिक व ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन है-"श्री चन्दा ने ६ अन्य मोहरो पर खड़ी हुई मूर्तियों किंवा अनादि-अनिधन परम्परा है। की ओर ध्यान दिलाया है । फलक १२ और ११८, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास "कृषि के देवताः ऋषभ" आकृति ७ (मार्शलकृत "मोहनजोदड़ो") कायोत्सर्ग नामक से प्रारम्भ होता है। सृष्टि के प्रारम्भ के दिनो मे खेती योगासन में खडे हुए देवताओ को सूचित करती है। यह क्यो और कैसे करनी चाहिए-इसका ज्ञान उन्होने समाज मुद्रा जैन योगियो की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती को दिया था। उनके ही समय मे अग्नि की उत्पत्ति हुई है, जैसे मथुरा सग्रहालय में स्थापित तीर्थकर श्री ऋषभदेव थी। समाज-व्यवस्था की सभी पद्धतियो का जन्म उनसे की मूति मे । ऋषभ का अर्थ है बैल जो आदिनाथ का प्रारम्भ हुआ। समाज की सभी मर्यादाए और नियम लक्षण है । मुहर संख्या एफ० जी० एच० फलक दो पर उन्होंने बनाए । उन्होने अपनी बडी पुत्री ब्राह्मी को अठारह अकित देवमूति मे एक बैल ही बना है । सम्भव है यह प्रकार की लिपियां सिखाई, आगे चलकर ब्राह्मी के नाम ऋषभ का ही पूर्व रूप हो । यदि ऐसा हो तो शैव धर्म की पर "ब्राह्मीलिपि" प्रचलित हुई । श्री पी० सी० राय तरह जैनधर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चौधरी के अनुसार "जैन शास्त्रो द्वान यह प्रमाणित होता चला जाता है।" है कि ऋषभ देव ने जैनधर्म का प्रचार मगध (विहार) में जन साधारण का यह भ्रम है जो यह कहते हैं कि पाषाण-युम के शेष काल मे तथा कृपि-युग के आरम्भ में जैनधर्म कभी इस देश के बाहर नही गया । इतिहास मे किया था। उस प्राचीन काल मे मगधदेश शेष भारत से.. इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि मध्य एशिया से नरनियापान का प्राचीन इतिहास लेकर सुदूर पूर्व देशो तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार रहा भी इस बात का साक्षी है ।" (जैनिज्म इन विहार, है। मेजर जनरल जे फाग, कर्नल जेम्स टारमादि कई प्रारम्भिक प्राच्यविदो का अनुमान है कि जैनधर्म यूरोप जैन पुराणो के अनुसार ऋषभदेव अरबो (८२ हजार स्केन्डिनेविया जैसे दूरस्थ प्रदेशो मे तुर्की तथा ऊपरी मध्य वर्ष कम लगभग एक सागर) वर्ष पहले हुए थे। उनकी एशिया के क्षेत्रो तक पहुंच गया था। चौथी शती.ई०पू० पज्यता अत्यन्त प्राचीन है । बौद्ध दार्शनिक "न्यायविन्दु", में यूनानी सम्राट् सिकन्दर महान् इस देश के तम शिला "आर्यमंजूश्रीमूलकल्प" आदि ग्रन्थों में उनका सादर उल्लेख से कल्याण नामक जैन सन्त को अपने साथ बाबुल तक ने किया गया है। आचार्य शुभचन्द्र स्वयं "योगी-कल्लतर" गया था, जहां उन सन्त ने सल्लेखना ग्रहण कर समाधि के रूप में ऋषभदेव का स्मरण करते है पूर्वक देहत्याग किया था। ईस्वी सन् के प्रारम्भ में भड़ोंच भवनाम्भोजमार्तण्डं धर्मामृतपयोधरम् । के श्रमण आचार्य का रोम जाना और वहीं समाधि करने का योगिकल्पतरूं नौमि देवदेवं वृषध्वज ॥ उल्लेख पाया जाता है। दक्षिण एवं पूर्व में बृहत्तर भारत
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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