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________________ बनेकान्त है, तब अवसर्पिणी काल होता है। इसके भी छह विभाग भगवान वृषभदेव के एक सौ पुत्र उत्पन्न दुए। उनमें किए गए हैं। दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल बनता सबसे बड़े सहयोगी भरत थे। उनके नाम पर इस देश को है। इन दोनों कल्पों की अवधि लाखो वर्षों की होती है। भारतवर्ष कहते हैं। "अग्निपुराण" में भी यही उल्लेख है इस समय दुषमा या दु:खम नामक पाँचवा अवसर्पिणी कि ऋषम और मरुदेवी के पुत्र भरत के नाम से यह काल चल रहा है। भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ। "ब्रह्मण्डपुराण" और विष्णुपुराण" पुराणों में प्रारम्भ के दो कालों को भोग भूमिकाल में ऋषम को राजाओं में श्रेष्ठ, सभी क्षत्रियों का पूर्वज कहा गया है। इन कालों मे आधुनिक ग्राम- सभ्यता या और भरत आदि सौ पुत्रो का जनक कहा गया है। नगर-सभ्यता नही थी। लोगो की आवश्यकताएं बिना "विष्णुपुराण" के अनुसार महात्मा नाभि और मरुदेवी से श्रम किए कल्पवृक्षो से पूर्ण हो जाती थी। कल्पक्ष दस अतिशय कान्तिमान ऋषभ नामक पुत्र हुआ। ऋषभ से तरह के थे-मद्यांग, तूर्याग, विभूषणांग, स्रगग, ज्योतिरंग, भरत का जन्म हुआ। वे एक सौ पुत्रो मे सबसे बड़े थे। दीपांग, गहांग, भोजनांग, पत्रांग और वस्त्रांग । उसयुग में पिता ने वन जाते समय राज्य भरत को सौप दिया था। मनुष्य परिवार बना कर नही रहता था । लोग खेती नहीं प्रतापी राजा भरत के नाम से यह हिमवर्ष भारतवर्ष के करते थे। कल्पवृक्षों से घर-मकान, भोजन-वस्त्रादि प्राप्त नाम से विश्रुत हुआ। "मार्कण्डेपुराण" [५०,३९-४१] मे हो जाते थे। भाई-बहन का जन्म युगल रूप मे होता था। कहा गया है-ससार से विरक्त होकर ऋषभ ने हिमवान अपना अंगठा चूस-चूस कर वे ४६ दिनों मे तरुण हो जाते पर्वत की दक्षिण दिशा का भूमि-भाग भरत को सौंप दिया थे। उन में परस्पर अनायास विवाह हो जाता था । भोग जो भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हो गया। "कूर्मपुराण" भूमि की यह व्यवस्था लाखों वर्षों तक चलती है। फिर, अग्निपुराण, वायुमहापुराण, गरुणपुराण, वाराहपुराण, तीसरे काल की समाप्ति होते-होते कल्पवृक्षों का प्रभाव लिंगपुराण तथा स्कन्दपुराण आदि में भी लगभग समान क्रमशः क्षीण हो जाता है। रूप से वर्णन मिलता है। एक दिन सहसा अस्त होते हुए सूर्य तथा चन्द्र को देख हिन्दू पुराणो में कहीं-कही जैनधर्म की विशिष्ट प्रशसा कर लोग भयभीत हो उठते हैं । प्रथम कुलकर उन्हें ग्रह- की गई है। यहां तक कहा गया है कि जैनधर्म सनातन है, नक्षत्रों की जानकारी देते हैं। इसप्रकार चौदह कुलकर पूज्य है, केवल जिन की ही पूजा करनी चाहिए। होते हैं जो आवश्यकतानुसार उन सब को शिक्षा देते है। "पद्मपुराण" [भूमिखन्ड ३७.१५] मे उल्लेख हैइन कुलकरों में अन्तिम कुलकर नाभिराय हए । नाभिराय जिनरूप विजानीहि सत्यधर्म कलेवरम् । का उल्लेख वैदिक तथा श्रमण दोनो परम्पराओ के ग्रन्थों मे अर्हन्तो देवता यत्र निर्ग्रन्थो दृश्यते गुरु. । समान रूप से मिलता है। नाभिराय भगवान ऋषभदेव के दया चैव परो धर्मस्तत्र मोक्ष प्रदृश्यते । पिता तथा कर्मभूमि की व्यवस्था के सूत्राधार थे । सस्कृत अर्थात् -जिनमुद्रा ही सत्यधर्म का कलेवर [शरीर] के शब्दकोशों में यह उल्लेख है कि जिस प्रकार चक्र के है। जिसके देवता अहंन्त हों, निर्ग्रन्थ जिसके गुरु हो और मध्य में नाभि अर्थात् कीली मुख्य होती है, इसी प्रकार वे जो स्वयं दया रूप ही है, वही उत्कृष्ट धर्म है और उससे क्षत्रिय राजाओं में मुख्य थे। उनके नाम पर सुदीर्घ मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्राचीन काल में इस देश का नाम अजनाभवर्ष था। "नगरपुराण" में कहा गया है-कृतयुग में दश नाभिराय अत्यन्त प्रतापी राजा थे। आगे चलकर उनके ब्राह्मणों को भोजन कराने का जो फल है, कलियुग में वही पुत्र ऋषभ या वृषभ आदि तीर्थकर हुए। ऋषभ के पुत्र फल अर्हन्तभक्त मुनि का भोजन कराने का है। भरत चक्रवती के नाम पर इस देश का नाम भारत वर्ष पुराणों में ही नही, वेदों में भी जैनधर्म के चौबीस पड़ा। हिन्दू पुराणों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है। "यजुर्वेद" (अ० २५, "श्रीमद्भागवत" में [५।४) ८६में कहा गया है- म० १६, अष्ट ६१, अ०६, वर्ग १) में उल्लेख है
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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