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१० बर्ष ३६, कि०१
अनेकान्त
कुछ रुकने लगे और वह ज्ञाता बना पर क्योंकि अनादि पूरा जोर है तो विकल्प कोई भी नहीं रहता, विकल्पों से काल की आदत पड़ी है अतः बार-बार फिर मन का कुछ लेना-देना नहीं । यद्यपि शाता पने में पूरी सावधानी माश्रय ले लेता है फिर गल्ती समझकर फिर मन से हट है और अन्य किसी भी चीज में हेय उपादेय की भी दृष्टि कर ज्ञाता बनता है इस प्रकार से चेष्टा करते-करते नहीं है पर अभी भी यह पूरी अनुभूति की स्थिति नही उसकी मन का अवलम्बन लेने की पुरानी आदत छूटती क्योंकि बाहर का कार्य चालू है। अब इसके बाद भी जाती है, विकल्प बंद होते जाते हैं, निर्विचार होता जाता वह आगे बढ़े और जब वह सत्ता मात्र रह जाए, वह है। अभी भी थोड़ा अश उसका बाहर के काम में लगा हुआ अनुभूति की अवस्था है। नीद में व अनुभूति में मात्र है। जैसे बाहर में अभी बोलने की क्रिया हो रही है तब इतना ही अन्तर है कि नींद में मूच्छित-सी, असावधान थोड़ा उपयोग तो उसमें जा रहा है और बाकी का उपयोग अवस्था हे और अनुभूति में जाग्रत अवस्था है। उसे जान रहा है, बीच में मन का जो कार्य था इधर-उधर इन विकल्पों से क्या हानि होती है ? घूमने का, हिसाब-किताब करने का वह अब नही है। जितने विचार व विकल्प हम हैं वे पर-पदार्थ में राग अब इससे आगे बढ़े तो कदाचित् ऐसा होता है कि वह पैदा करते हैं, उतने ही सस्कार गहरे हो जाते हैं, और बाहर का काम भी बंद हो जाय और केवल वह जानने सस्कार का गहरा होना ही कर्म है। वे संस्कार इतने गहरे वाला शुद्ध ज्ञान बचा तो अनुभूति पैदा हो जाती है। अनु- हो जाते हैं कि आपको तद्रुप परिणमन करा देते हैं । आप भूति का समय कम है, देरी से होती है पर यह ज्ञातापना । बीस दफे रसगुल्ले को अपने उपयोग में याद करो तो भीतर हर समय चालू रह सकता है। मन की यदि जरूरत है मे इतनी जोर की रुचि पैदा होगी कि खाना ही पड़ेगा। कुछ सोचने-विचारने को उसका सहारा ले लो अन्यथा सही बात यह है कि पहला विकल्प आते ही तत्काल वह जरूरी नही । बाहर का काम चलने दो और उसे मात्र सावधान हो जाए कि अब दुबारा ये विकल्प नहीं जानते रहो।
उठेगा। यदि वही विकल्प बार-बार उठ जाए तो वह णमोकार मंत्र जोर-जोर से बोल रहे है तो उसे चलने इतना मजबूत हो जाता है कि हम उसके आधीन हो जाते दो उसके जानने वाले बन जाओ तो वह धीमा होता चला है। जायेगा, वह बहुत मंद हो जाता है और ज्ञातापने पर
-भक्ति-परक सभी प्रसंग सर्वाङ्गीण याथातथ्य के स्वरूप के प्रतिपादक नहीं होते। कुछ में भक्ति-अनुराग-उद्रेक जैसा कुछ और भी होता है। जैसे-'शान्तेविधाताशरणं गतानाम', 'पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः', श्रेयसे जिनवृष प्रसोद नः' इत्यादि । इन स्थलों में कर्तृत्व की स्पष्ट पुष्टि है जब कि आत्म-स्वभाव इससे बिल्कुल उल्टा। ऐसे में विवेक पूर्वक वस्तु को परखना चाहिए कि वक्ता की दृष्टि क्या है? xxxx
-तू ज्ञानी, धनी या कहीं का कोई अधिकारी है, यह सोचना महत्त्वपूर्ण नहीं । अपितु महत्त्वपूर्ण ये है-कि तूने कितनों को ज्ञानी धनी या अधिकारी बनने में कितना योग दिया:'जो अधीन को प्राप समान । कर न सो निन्दित धनवान ।'
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