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________________ नायक भाष के घर में हैं फिर भी घर के नहीं है, उसी प्रकार चेतमा लगाए, अतः वह कर्म का कार्य तो होता है पर उसमें कोई में पबपि भाव कर्म हो रहे हैं पर फिर भी चेतना के अपने हर्ष-विषाद वाली बात नहीं रहती क्योंकि मैं तो जानने नहीं है। उस ज्ञान के कार्य को हमने आज तक पकड़ने वाला हूं और जानने वाला मरता नहीं, बीमार होता नहीं, की चेष्टा ही नहीं की और उस कर्म के कार्य को हमने उसका हाथ कटता नहीं अत: में क्यों रोऊ और जिसका जाना कि मैं इसका करने वाला और यह मेरे करने से कटता है वह रोना जानता नहीं। इस प्रकार से शरीर हुआ है और मैं इस रूप हूं। आचार्य कहते हैं कि यह तेरी में रहते हुए इससे अलग हो जाओ। पहले तो केवल अज्ञान अवस्था है, तूने अपने को क्यों नही जाना? और एक कर्मधारा चलती थी पर अब ज्ञानधारा भी चालू हो इस कर्म के कार्य को अपना जानने से तेरे अहंकार पैदा गई और कब जो भी कार्य होता है उसे ये कहता है कि हुमा ज्ञान के कार्य में तूने अपनापन क्यों नहीं माना, तू काम तो यह कर्म का है मेंने तो उसे जाना है अतः पहले कर्म रूप नहीं, तू तो चेतना रूप है, अपने रूप ही है। मन के आश्रय से जो मिथ्या अहंकार पैदा होता था कि मैं कर्म तो चौकी की तरह जड़ है वह अपना फल दे देता करोड़पति, मैं गरीब, मैं सुखी, मैं दुःखी वह सारा टूट गया है, अज्ञानी उसे ले लेता है,शानी उसे नहीं लेता, फल नही अब कर्म का, पुण्य पाप का उदय तो है, शरीर भी है पर लेता है तो वह कर्म फालतू हो जाता है । आचार्य कहते हैं उसमें अपनापन न होकर ज्ञान के कार्य मे अपनापन है अतः कि तू उस जानने वाले को देख जो वहाँ सतत विद्यमान कहते हैं कि अब यह शरीर का मालिक नही रहा पड़ोसी है, वही तू है। अकलंक स्वामी ने कहा कि जिसने कोध बन गया और जब मालिक ही नहीं रहा तो कैशियर के जाना उसी ने क्रोध के अभाव को भी जाना। हम भी पास कितना ही धन पड़ा रहे, उसे उसका अहंकार नहीं कभी-कभी कहते हैं कि आज हमारा मूड खराब है उसको हो सकता। आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जो किसने जाना? मूड तो खराब से ठीक हो गया परन्तु जानने केवल इस बात का अहंकार कर रहा हो कि मैं आज दो वाला वही है ? वह पहले जान रहा था मूड खराब है अब करोड़ के नोट गिनकर आया हूं। तो पहले कर्म के जान रहा है मूड ठीक है। क्रोध भीतर में चाल हआ चाहे कार्य को चेतना का योगदान मिलता था, पर अब वह बंद बाहर मे अभी प्रगट नही हा पर उस जानने वाले ने हो गया क्योंकि वह सारा योगदान जाननपने के काम को जानना शुरू कर दिया कि क्रोध शुरू हो चका है। एक मिलने लगा अंत: कर्म की ताकत घट गई। आदमी ने सुन्दर बात बताई कि क्रोध चाल हो तो उससे पहले अज्ञान अवस्था में एक और अडंगा था कहो कि पांच मिनट बाद अवि और फिर वह होगा ही भूतकाल की सोच-सोचकर दुःखी होता था और भविष्य नही। इसमें भी वही सत्व है कि जानने वाला जागरूक की सोचकर शेखचिल्ली की तरह सुखी भी हो जाता था है, जागृत है, सावधान है, उसने बान लिया कि धनी अब शामी हो गया तो उसकी समझ में आया कि अरे ! रहा है और जब जानने वाला सावधान है तो फिर वह यह पागलपन कहाँ से लाया, इसमें तेरा अपना कुछ है नहीं क्रोध कैसे रह सकता है ! और इससे कुछ लेना-देना नहीं फिर जो शक्ति वह इस जानने वाले को पकड, वही हूं है। पंक- पहले मन द्वारा फालतू इन विकल्पों में लगा रहा था वह इना कहते हैं कि जैसा अपनापन तेरे आज तक शक्ति उसने उन सब कार्यों के आनने में लगा दी, और अव कर्म, उसके कार्य उसके फल मे आ रहा है, कोष बह उन सबको मात्र जान रहा है और स्वयं को उन रूप करने में, दया करने में आ रहा है, खान में आ रहा नहीं मान रहा है तो राग-द्वेष का कोई प्रयोजन नहीं है,शरीर के घाव में दर्द में आ रही है पैसा बंपनापन रही। मन तो एक माध्यम है, और उसे आप चाहो उस जानने वाले में आए और जब जानने वाले में अपना- ती इस्तेमाल में ले लो, अन्यथा ये तो पौद्गलिक है, पन आयेगा तो चेतना की जितनी ताकत पहले कर्म में लग जड़ है, ऐसे ही पड़ा रह जायेगा जैसे इस चस्मे की हमें रखी थी वह जाननपने में मम गई जब उसमें पोल तापात परकार होती है तभी लगा लेते हैं। अब विकल्प
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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