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________________ नदर्शन में व्यापक और पर्यायानिक नय ३२. दव्वं पज्जव विउयं दव्व विउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पाद्दिभंगा हृदि दबिय लक्खणं एवं ॥ -सन्मति प्रकरण १।१२ ३३. अपरिचत सहावेणुप्पादम्बय धुवत्वसयुत । गुणवं च सपज्जायं जं जं दव्वंति वुच्चति ॥ प्रवचनसार अ० २।३ ३४. तत्वार्थं वार्तिक ११३३ । ३५. द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र : माइल्लघवल संपादक कैलाशचन्द्र शास्त्री गाथा १६९ से २०४ । ३६. तत्वार्थवार्तिक हिन्दी सार : स० प्रो० महेन्द्रकुमार स० [प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य हिन्दी सार पृ० ३३४ । चन्द्र तथा यतीन्द्र कुमार शास्त्री ने ग्रन्थ सूची निर्माण एवं प्रकाशन का कार्य अपने हाथ में लिया था परन्तु किन्ही कारणों से वे इसे पूरा नही कर पाये । तत्पश्चात् मन् १६७७ मे लेखक ने इस ग्रन्थ भण्डार के वर्तमान मे उपलब्ध ग्रन्थों की सूची के निर्माण एव उसके प्रकाशन का कार्य हाथ मे लिया। लेखक के समक्ष शास्त्र भण्डार की व्यवस्था सम्बन्धी सीमाएं हैं जिनके ( पृ० २० का शेषांश) ३७. सन्मति प्रकरण १।४।५ । ३८. सिद्धिविनिश्चय टीका प्र० भाग–सम्पादक पंडित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य प्रस्तावना पृ० १४४ । १. Jainism in Rajasthan by K. C. Jain p. 153 २. History of Gujrat Page 68. १. Epigraphika Indomuslima 1623-24 & 26. ४. राजस्थान के ग्रंथ भण्डारों की सूची भाग प्र० पृ० ७६ ५. सपादलक्षेविषयेति सुंदरे, भियांपुरं नागपुरं समस्तितत्। फेरोजखाना] नृपति प्रयायिन्यायेन होयेंज रिपुन्निति च ॥ ६. Dr. P. C. Jain, Granth Bhandar in Jaipnr and Nagpur, P. 118. ७९. नागौर ग्रंथ भण्डार मे उपलब्ध भट्टारक पट्टावली के २५ ३६. कषायपाहुड भाग १, नयपस्वर्ण भाग १, वाचा १३१४, पृ० २२१ । ४०. षट्खण्डागम : वेदनाखण्ड कृति अनुयोग द्वार खण्ड ४, भाग १, पुस्तक ६, पृ० १७१ । ४१. तत्वार्थ राजवार्तिक १।३३ । ४२. सर्वार्थसिद्धि १३३ ० ० ० १ ५० ४३. जयधवत पृ० २७० ॥ ४४. ष० ख० पु० १, पृ० ६०; जयधवला १, पृ० २४२ । सन्दर्भ-सूची कारण वे इसे शीघ्रतर पूरा नही कर पा रहे हैं। फिर भी अब तक सूची के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं, अगला भाग प्रेस में दिया जा रहा है। ग्रंथ भण्डार की सम्पूर्ण सूची का पाव भागों मे प्रकाशित करने का लेखक का अपना संकल्प है । जैन अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर । आधार पर। ब-डा० जोहरापुरकर भट्टारक सम्प्रदाय पृ० १२४-२५ । ८. डा० कासलीवाल ने शाकम्भरी प्रदेश के सांस्कृतिक विकास में जैनधर्म का योगदान में 'भुवनकीर्ति' नाम दिया है। मोट—जैन सिद्धान्त भास्कर किरण ४ भाग १ अप्रेल से जून तक १९१३ में पृ० ८० पर हवें भट्टारक का नाम भुवनकीर्ति तथा १३वें में अमरेन्द्रकीर्ति दिया गया है। और डा० कासलीवाल ने भी 'वीर शासन के प्रभावक आचार्य' मे इनका 'अमरेन्द्रकीति' नाम दिया है ।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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