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________________ जैन साहित्य में वणित जन-जातियां 0 डा. प्रेम सुमन जैन, उदयपुर भारतीय समाज में जातियों का विभाजन प्रायः नाम से जाना जाता है, उन्हें पहले शूद्र के अन्तर्गत गिना चतुर्वर्ण जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत हुआ है । ब्राह्मण, जाता था। मोठे तौर पर जो जातियां किसी भी कारण क्षत्रिय, वैश्य एव शूद्र इन चार जातियो के अन्तर्गत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अन्तर्गत नही आ पाती थी। विभिन्न जातियो को सम्मिलित किया जाता रहा है। किंतु उन्हे शूद्र जाति के अन्तर्गत गिना जाता था। कृषक, नीति शास्त्रों में वर्णित इन चारों जातियों के कार्य एव शिल्पी. अन्त्यज और मलेच्छ कही जाने वाली जातियां प्रतिष्ठा समय-समय पर बदलती रही है। भारत के शूद्र के अन्तर्गत थी । यद्यपि आगे चलकर पूर्व-मध्य युग में प्राचीन साहित्य एव इतिहास की सामग्री में जातियों के ये जातियां क्रमशः अपनी स्थिति में सुधार कर रही थी। इस विकास-क्रम के उल्लेख प्राप्त है । जैन साहित्य ईसा आर्थिक सम्पन्नता के कारण इन्हें कुछ सम्मान प्राप्त हो की प्रथम शताब्दी से वर्तमान युग तक लिखा जा रहा रहा था, किन्तु इनकी सामाजिक और धार्मिक स्थिति है।' इस विशाल साहित्य का सम्बन्ध जन-जीवन तथा अच्छी नही थी। लोक-जीवन से अधिक रहा है ।' अन. जैन साहित्य मे जैन साहित्य मे जातियो का बिभाजन यद्यपि परपराजन-जातियों को सस्कृति का पर्याप्त वर्णन हुआ है। अभो गत ढग से इन चार वर्षों में हुआ है-ब्राह्मण, क्षत्रिय, इस दृष्टि से जैन-साहित्य का अध्ययन नही हुआ है । अत. वैश्य और शूद्र । किन्तु इनको प्रमुख रूप से दो वर्गों मे जन-जातियों के प्रारम्भिक जीवन के अध्ययन की दष्टि से विभक्त किया गया है-(१) आर्य जातिया और (२) जैन साहित्य मे शोध कार्य की अधिक सभावनाएं हैं। अनार्य जातिया । प्रज्ञापना (१.६७-७१) नामक प्राकृत भगवान महावीर के उपदेशो का संग्रह प्राकृत भाषा आगम मे वणित है कि आर्यों के छह भेद थे-क्षेत्र आर्य, के आगम साहित्य मे हुआ है। यह आगम साहित्य लग जाताच पुल, जाति-आर्य, कुल,आर्य, कर्म-आर्य, भाषा-आर्य और शिल्पीभग एक हजार वर्ष की भारतीय संस्कृति को अपने मे आर्य । इनमे जाति आर्य मे छह जातिया थी--अम्बठ, समेटे हुए है । इसका आधारभूत अध्ययन डा. जगदीश - कलिन्द, विदेह, वेदग, हरित और चुचुण । इनमे से अंबट्ठ चन्द्र ने अपने प्रथ "जैन आगम साहित्य में भारतीय माता आर। और विदेह निम्न जातिया थी। कर्म-आर्यों मे कुम्हार समाज" मे प्रस्तुत किया है। इसी तरह के अन्य अध्ययनो (कोलालिय) और पालक (कौलालिय) और पालकी ढोने वाले (परवाहणिय) निम्न की भी नितात आवश्यकता है। प्राकृत के कुछ स्वतन्त्र जातिय न जातिया थी। शिल्प-आर्यों में मशक बनाने वाले देयड़, कथाग्रंथो का भी सामाजिक एव सास्कृनिक अध्ययन रस्सा बटने वाले वरुड़, चटाई बुनने वाले छबिय आदि विद्वानो ने प्रस्तुत किया है। उससे भी प्राकृत साहित्य में निम्न जाति के कर्मकार थे। रामायण एव बौद्ध साहित्य बणित भारतीय समाज का चित्र उजागर होता है। इन मे भी इनमे से कुछ जातियों का उल्लेख है। अध्ययनो से तथा जैन साहित्य के अन्य ग्रन्थो से भारत की अनार्य जाति के लोग आयो के अधीन रहते थे और जन-जातियो आदि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत प्रायः ये कृष्ण वर्ण के होते थे।"प्राकृत के प्रति कथाकार निबन्ध मे संक्षेप मे कुछ जन-जातियो का वितरण प्रस्तुत हरिभद्रसूरि ने" उन जातियो को जो आचार-विचार किया गया है, जिसे आधुनिक समाज शास्त्रीय दृष्टि से से भ्रष्ट हों तथा जिन्हें धर्म-कर्म का कुछ विवेक न हों, जांचा-परखा जा सकता है। अनार्य या म्लेच्छ कहा है। उद्योतनसूरि ने भी कुवलय. प्राचीन भारत मे शूद्रों की स्थिति के सम्बन्ध में मालाकहा मे अनार्यों को पापी, प्रचण्ड और धर्म, अर्थ, विद्वानो ने विशेष अध्ययन किये है । उसके आधार पर काम, पुरुषार्थ से रहित कहा है। उन्होने लगभग ४० वर्तमान मे जिन्हे हरिजन, अनुसूचित जन-जाति आदि के प्रकार की अनार्य जातियों का उल्लेख किया है, जिनकी + अ०भा० आर० सी० एच० आर६ सेमिनार, जनवरी २३, उदयपुर में पठित निबन्ध ।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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