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२८ वर्ष ३६, कि० २
किंतु पुलिन्दों ने अपना सामर्थ्य बढ़ाकर अधिपति बनना प्रारम्भ कर दिया था । कुवलयमाला में पुलिन्द राजकुमार का भी उल्लेख है । किन्तु उसे राज्यसभा में पर्याप्त आदर प्राप्त नहीं था ।" पुलिन्दी दासियां भी राजदरबार में रखी जाती थीं।"
अनेकान्त
भील : प्राचीन जन-जातियों में भील जाति के भी उल्लेख हैं । शबर, पुलिन्द भिल्ल इन तीन के नाम प्रायः एक साथ मिलते हैं। तीनों ही जंगली जातियां थी। इनमें थोडा अन्तर रहा होगा । कुवलयमाला में भिल्ल जाति की दो पल्लियों (गांवों) का वर्णन किया गया है, जिससे उनके क्रिया-कलापों और रहन-सहन का पता चलता है। भिल्लपति एक राजा के समान अपना शासन चलाता था । सह्य पर्वत में चिन्तामणिपल्लि थी, जो कुछ सभ्य भीलों का निवास स्थान थी । किन्तु विन्ध्य पर्वत की म्लेच्छपल्लि असभ्य और जंगली भीलों की बस्ती थी ।" प्राकृत साहित्य से ज्ञात होता है कि भील शिव के परम भक्त होते थे।" शबर और भिल्ल जाति के लोग सेना में काम करते थे । युद्ध में उनकी सेना सबसे आगे रहती थी ।"
इनके अतिरिक्त वनेचर, मातंग आदि भी जंगली जन-जातियां थी ।" इन सभी जन-जातियों का वर्तमान
१. घुर्ये, कास्ट एण्ड रेस इन इण्डिया । २. शास्त्री, नेमिचन्द्र, प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, वाराणसी ।
सन्दर्भ-सूची
३. द्रष्टव्य, लेखक का निबन्ध - " प्राकृत साहित्य और लोक संस्कृति" पं. चैनसुखदास अभिनन्दन ग्रंथ जयपुर ४. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग १ - ३ ५. जैन जे० सी० जैन लाइफ इन ऍशियेन्ट इण्डिया, ऐज डिफिक्टेड इन जैन कैनन्स, बम्बई ।
६. ( क ) चन्द्रा, के० आर०, ए क्रिटीकल स्टडी आफ पउमचरियं ।
सन्दर्भ में अध्ययन किया जा सकता है। जैन साहित्य के इस प्रकार के उल्लेखों को ध्यान में रखकर भारतीय जनजातियों के इतिहास और विकासक्रम को प्रस्तुत किया जा सकता है।
(ख) शास्त्री, नेमिचन्द्र, हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य आलोचनात्मक परिशीलन, वैशाली । (ग) जैन, प्रेम सुमन, कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन |
प्राकृत साहित्य के मध्ययुगीन साहित्य में भी इन जातियों का उल्लेख है । कुछ अन्य नई जातियां भी इसमें सम्मिलित हुई हैं । यदि इस साहित्य का सूक्ष्म दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो भारतीय समाज की विभिन्न जातियों के उद्भव और विकास का पता चल सकता है । प्राकृत साहित्य की दृष्टि जन-सामान्य के जीवन की ओर रही है । अतः उसने सूक्ष्मता से मनुष्य के जीवन को आंका है। समाज के किसी भी वर्ग के चित्रण मे इस साहित्य ने संकोच नहीं किया अतः इसमे भारतीय समाज का सही प्रतिबिम्ब प्राप्त हो सकता है। समाज शास्त्रियों और इतिहास वेत्ताओं का ध्यान प्राकृत साहित्य की ओर आकृष्ट करने के लिए प्राकृत की इस प्रकार की बहुमूल्य सामग्री को आधुनिक ढंग से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति प्राकृत के विद्वान कर सकते हैं ।
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७. शर्मा दशरथ, राजस्थान थू दि एजेज, बीकानेर पृ० ४२७ ॥
८. बुद्धप्रकाश, आस्पेक्ट्स आफ इंडियन हिस्ट्री एण्ड सिविल इजेशन, पृ० २५५ ।
E. (क) रामायण (२.८३-१२ आदि) ।
(ख) दीर्घनिकाय १, सामंयफलसुत्त ( पृ० ४४) । १०. सेनार्ट, कास्ट इन इण्डिया, पृ० १२२ आदि । ११. समराइच्चकहा, पृ० ३४८ एवं ६०५ आदि । १२. विस्तार के लिए देखें - लेखक की पुस्तक - कुव० सा० अ० पृ० १०८ आदि ।
१३. निशीच भाष्य, १६२७-२८ चूर्णी ।
१४. शर्मा राजस्थान यू दि एजेज, पृ० ४४३, पृ० ४२६१ १५. प्राचीन भारतीय स्थलकोश प्रयाग, पृ० २४१ (शेष पृ० ३० पर)