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५, वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
अविस्मरणीय वाक्य सप्त शैलाद्रि' आदि है, जिसके अनु- उल्लेख या उनके उदरण आदि अपने ग्रन्थों में देते पाये सार वह तिथि शक ७७७ (या ८५५ ई०) बैठती है। जाते हैं। साहसत्तुंग को चीन्हने में उसने अपनी असमर्थता भी स्वी- जेनेतर विद्वानों में पतञ्जलि के महाभाष्य (ईसापूर्व कार की"। तदुपरान्त प्रायः किसी भी विद्वान ने हिम- २री शती), वसुबन्धु के अभिधर्मकोष (ल. ४००६०) शीतल की इस पहिचान पर सन्देह नहीं किया और अनेको दिङ्नाग के प्रमाण समुच्चय (३४५-४२५ ई०) और ने ७८८ ई० की तिथि को भी मान्य किया।
भर्तृहरि के वाक्यपदीय (५६०-६५० ई०) से अकलङ्क जहां तक साहसत्तुग की चीन्ह का प्रश्न है. डा० अपने ग्रन्थो मे उद्धरण देते हैं, उनके मतो की आलोचना पाठक ने उसका समीकरण पहले राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्र० करते है, अथवा उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत करते हैं। (७५६-६२ ई० के साथ किया था, और डा० स० च० स्वय अकलङ्क देव के मुविदित टीकाकार हैं-अभयविद्याभषण ने उनका समर्थन किया था"। कालान्तर में चन्द्र (१२वी शती), प्रभाचन्द्र (९८०-१०६५ ई०), वादिपाठक ने अपने पूर्वमत में मशोधन करके उमका समीकरण राज (१०२५ ई०), अनन्तवीर्य द्वि० (ल० ८२५ ई.) राष्टकट दन्तिदूर्ग (७४५-५६ ई०) के माथ कर दिया"। और अनन्तवीर्य प्र. (ल. ७२५-५० ई०)। इसके अतितब से इस पहिचान पर भी किसी विद्वान ने प्रश्न चिन्ह रिक्त, जिनसेनीय आदि पुराण (ल. ५३७ ई.), हरिभद्रनहीं लगाया केवल डॉ. अल्तेकर एव डा० उपाध्येय ने सरि (ल. ७२५-८२५ ई०) की अनेकान्त जयपताका, उसे एक निराधार अनुमान मात्र माना।
जिनसेन पुन्नाट के हरिवश (७८३ ई०), वीरसेनीय धवला उपरान्त काल मे कई विद्वानो ने आठवी शती ई० टीका (७८० ई०) तथा सिद्धसेनगणि के तत्त्वार्थभाष्य के उत्तरार्ध वाली (७८८ ई० आदि) तिथि को सर्वथा (ल. ७५० ई०) मे अकलड्डूदेव का गुणगान, प्रशसा या अस्वीकृत कर दिया और परम्परागत तिथि वि० स०७०० प्रत्यक्ष वा परोक्ष उल्लेख प्राप्त है । जिनदास गणि (ई०६४३), की एम्भवनीयता की पुष्टि करने का प्रयत्न महत्तर, जिनने अपनी नन्दिचूणि शक ५६८ (या ६७६ ई.) किया"। प० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने तो स्वयं अकलङ्क मे पूर्ण की थी, अपनी निशीथणि मे अकलङ्ककृत सिद्धितथा उक्त शताब्दियो के अन्य जैन एवं जैनेतर विद्वानो विनिश्चय को एक 'प्रभावक शास्त्र कहते हैं। द्वारा किये गये पारस्परिक उल्लेखों आदि के आधार पर अकलङ्क देव की कृतियों का भर्तृहरि (५६०-६५० उनका पूर्वापर प्रकट करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि ई०), कुमारिलभट्ट (६००-६६० ई०) एव धर्मकीति अकलङ्क सातवी शती ई० मे ही हुए हैं। किन्तु इन मब (६३५-४० ई० की मृतियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन विद्वानों ने अकलवीय अनुश्रुति के हिमशीतल एवं माह- करने से लगता है कि जैसे ये सब विद्वान प्रायः समसामसत्तुंग वाले पक्षो का स्पर्श नहीं किया और न ६४३ ई०
यिक एव दार्शनिक क्षेत्र में साक्षात् प्रतिद्वन्द्वी थे-वे की परम्परागत तिथि की ऐतिहासिकता पर ही कोई परम्पर आलोचना-प्रत्यालोचना करते प्रतीत होते है। गदेषणा की।
अकलहू की उनके साथ अल्पाधिक समसामयिकता अवश्य इन महान आचार्य से सम्बन्धित मूल साधन स्रोतो, रही लगती है, कम से कम उनके तथा अकलङ्क के मध्य अनुश्रुतियों एवं आधुनिकयुगीन चर्चाओ के निरीक्षण- टोकको से अधिक परीक्षण से निम्नोक्त तथ्य उभर कर सम्मुख आते है- अकलङ्क की परम्परागत तिथि, वि० स० ७ ० (या ___अकलङ्कदेव उमास्वामि (प्रथम शती ई०) और सम- ६४३ ई.) की मान्यता की प्राचीनता कम से कम हवी न्तभद्राचार्य (२री शती ई.) के टीकाकार सुविदित है, शती ई० मिलती है। तथा वह श्रीदत्त (ल० ४०० ई०), देवनन्दि-पूज्यपाद भुवनप्रदीपिका में वह तिथि कलि सं० ११२५ पिंगल (४६४-५२४), सिद्धसेन दिवाकर (५५०-६०० ई०), पात्र- वर्ष के रूप मे प्राप्त होती है। एक लोकानुश्रुति के अनुकेसरि (५७५-६२५ ई.) और मल्लवादी (६००)ई. के सार कलिसंवत का प्रारम्भ प्रथम नन्द नरेश के सिंहा