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________________ माचार्य कुन्दकुन्द की न दर्शन को रेन २९ सत् या सत्ता सद्भाव बना रहना स्वभाव है" । सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य जैन दर्शन में सत्, द्रव्य, सत्ता अर्थ और वस्तु एका- रूप है", अत: सत् ही द्रव्य का स्वभाव और ऐसा लक्षण र्थक माने गए हैं । सत् का अर्थ अस्तित्व होता है और है जो सभी द्रव्यों में पाया जाता है। इसलिए द्रव्य यही अर्थ सत्ता का भी है । आचार्य कुन्दकुन्द ने सत् या स्वभाव से सत्वान या सत्तावान है। सत्ता को द्रव्य का लक्षण बतलाया है"। यह मत् सभी आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि द्रव्य और सत् द्रव्यों में विद्यमान रहता है। भिन्न-भिन्न नही हैं। इसके विपरीत सत् द्रव्य से अभिन्न सत्ता की विशेषताएं है। ऐसा नही है कि सत् या सत्ता अलग है और द्रव्य सत्ता के लक्षण में निम्नाकित विशेषतायें परिलक्षित अलग है तथा सत्ता सामान्य के सयोग से द्रव्य सत्तावान होती हैं - हो जाता है। इसलिए कहा है कि यदि द्रव्य स्वभाव से १. सत्ता ममस्त पदार्थों में रहती है। सत् रूप न होता तो वह असत् हो जाएगा अथवा सत से २ सत्ता सविश्वरूप अर्थात् नाना प्रकार के स्वरूपो गे भिन्न हो जाएगा। अतः द्रव्य स्वय सत्ता स्वरूप है, युक्त है। ऐसा मानना चाहिए" सत्ता रूप परमतत्त्व का द्रव्य-गुण ३. सत्ता अनन्तपर्यायात्मक है। और पर्यायो में रहने के कारण सर्वत्र विस्तार है" । द्रव्य ४. सत्ता उत्पाद-व्यप ध्रौव्यात्मक है। और सत्ता में प्रदेश भेद न हो कर गुण-गुणी या अन्यत्व ५. सत्ता प्रतिपक्ष हे अर्थात् समान प्रतिपक्षी धर्मो से रूप भेद है" । द्रव्य गुणी है और मना गुण हैं" । इसलिए युक्त है। द्रव्य सत्ता का स्वरूप है। ६, सत्ता एक है। द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप है ७. मत्ता का विनाश नही होता है। आचार्य ने द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कहा है। द्रव्या स्वरूप उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य का परिणाम है । द्रव्य का 'स्वय पनास्तिकाय मे आचार्य ने द्रव्य को सत्ता से अभिन्न उत्पाद अथवा विनाश नही होता है। पर्याय की अपेक्षा ही कह कर मत्ता को ही द्रव्य का लक्षण कहा है"। यी द्रव्य उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य रूप होता है" । उत्पाद एव लक्षण की अपेक्षा सत्ता और द्रव्य मे अन्तर है" लेकिन । विनाश द्रव्य में रहने वाली पर्यायो का होता है । वास्तव में मत्ता और द्रव्य एक ही है । द्रव्य के लक्षण में उत्तर पर्याय की उत्पत्ति और पूर्व पर्याय का विनाश निम्नांकित विशेषताये है"-. होना क्रमश. उत्पाद-व्यय कहलाता है और इन दोनो अव१. द्रव्य की व्युत्पत्ति के अनुमार जो उन-उन (अपनी- स्थाओ मे अस्तित्व रूप से रहना ध्रीव्य कहलाता है। उदा अपनी) गुण-पर्यायो को प्राप्त होता है वह द्रव्य हरण द्वारा आचार्य ने बतलाया है कि "मनुष्य पर्याय से कहलाता है। नष्ट हुआ जीव देव अथवा अन्य पर्याय रूप हो जाता है। २. द्रव्य सत् स्वरूप है। लेकिन दोनो पर्यायो मे जीवत्वभाव का मद्भाव मौजूद ३. द्रव्य उत्ताद-व्यय और प्रौव्य स्वरूप है। रहता है। जीव का न स्वय उत्पाद होता है और न उसका ४. द्रव्य गुण-पर्याय स्वरूप है। विनाश होता है। वही जीव उत्पन्न होता और मरता है ५. द्रव्य अपने स्वभाव - " ....है अर्थात द्रव्य लेकिन सत्स्वरूप स्वभाव से वह न मरता है और न अपरित्यक्त स्वभाब है। उत्पन्न होता है"। द्रव्य-स्वरूप को व्याख्या उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य का परस्पर सम्बन्ध बतलाते ___आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य-स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है कि व्यय के बिना उतााद नहीं होता है और हुए बतलाया है कि अपने गुणो और नाना प्रकार की उत्पाद के बिना व्यय नही होता है। उत्पाद और व्यय पर्यायो, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त द्रव्य का तीनो काल में दोनो ध्रौव्य के बिना नही होते हैं। इस प्रकार उ ९६
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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