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________________ अनेकान्त 10, 15, fue व्यय और प्रोव्य में परस्पराश्रय सम्बन्ध बतलाया है। raft उत्पादादि पर्यायों में होते हैं लेकिन वे द्रव्य से भिन्न नहीं हैं । क्योकि पर्याय द्रव्य में रहती है ।" अतः सिद्ध है कि उत्पाद-व्यय-धौव्य एक ही समय द्रव्य में होते हैं । इसलिए उत्पादादि द्रव्य का है। इस से भिन्न नहीं है।" इस प्रकार आचार्य ने द्रव्य को उत्पाद व्यय और धौष्य रूप कहा है। अन्य गुरु-पर्याय वाला है कुन्दकुन्दाचार्य ने द्रव्य की एक यह विशेषता बतलाई है कि द्रव्य गुण-पर्याय स्वरूप है। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि द्रव्य परिणमनशीन है जो उत्पन्न और विनष्ट होती है उसे पर्याय कहते हैं। पर्याय दो प्रकार की होती हैं। स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय आचार्य कुन्दकुन्द ने मनुष्य, नारक, तियंच और देव को विभाग पर्याय और कर्मरूप उपाधि से रहित पर्यायों को स्वभाव पर्याय कहा है। जिनके द्वारा द्रव्यों में भेद किया जाता है उसे गुण कहते है। आचार्य कुन्दकुन्द की विशेषता यह है मि उन्होने द्रव्य और गुण-पर्याय अभेद होते हुए भेद भी दिखलाया है। द्रव्य और गुणपर्याय अभिन्न हैं क्योंकि पर्याय के बिना द्रव्य नही है और द्रव्य के बिना परिणाम नहीं है। पंचास्तिकाय में भी कहा है कि पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं होती है। इसलिए द्रव्य पर्याय दोनों परस्पर में अभिन्न है। द्रव्य के बिना गुण नहीं रह सकते और न गुण के बिना द्रव्य ही सम्भव है। इसलिए द्रव्य और गुण में अव्यतिरेक अर्थात् अभिन्न भाव है। द्रव्य जब जिस रूप से परिणमन करता है तब वह उसी रूप हो जाता है ।" द्रव्य स्वयं एक गुण से अम्य गुण रूप परिणमन करता है इसलिए द्रव्य गुण-पर्याय वाला है।" द्रव्य और गुण-पर्याय के भिन्न और अभिन्न सम्बन्ध को समझने के लिए आचार्य के पृथकत्व और ममत्व को समझना होगा । वस्तुओं के प्रदेशों में अत्यन्त भेद को पृथकत्व नामक भेद और अदूभाव को (वह यह नहीं है) अन्य मेद ते हैं।" द्रव्य-गुण-पर्याय से पृथक सर्वधा चिन्न नहीं है क्योंकि उनमें प्रदेश-भेद नहीं है । किन्तु उनमें अन्यत्व भेद है।" क्योंकि जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं हैं और जो द्रव्य है वह गुण नही है । द्रव्य और गुण-पर्याय में स्वरूप भेद तो है लेकिन वे सर्वथा भिन्न नहीं है। इसी प्रकार यदि द्रव्य गुण से सर्वथा भिन्न हो और गुण द्रव्य से भिन्न हो तो (एक) द्रव्य अनन्त हो जायेगा अथवा द्रव्य का अभाव हो जायेगा और गुण सर्वथा भिन्न नहीं है। इसके विपरीत व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय की अपेक्षा द्रव्य और गुण-पर्याय मे भेद होते हुए भी अभेद है।" उदाहरण द्वारा आचार्य ने बतलाया है कि सम्ब न्धियों के अलग-अलग होने पर एक होने पर भी स्वामि भाव हो सकता है। जैसे धन और पुरुष दोनों भिन्नभिन्न हैं और धन से धनी सम्बन्ध बनता है। इसी प्रकार ज्ञान और पुरुष एक होने पर वह ज्ञानी कहलाता है। लेकिन जैसे धन धनी से सर्वथा भिन्न है उसी प्रकार ज्ञान ज्ञानी से भिन्न नहीं है।" यदि ज्ञान भी ज्ञानी से न के समान सर्वथा भिन्न माना जाय तो आत्मा और ज्ञान दोनों बचेतन (जड़) हो जायेंगे" आचार्य ने इस सिद्धांत का खण्डन किया है कि ज्ञान और आत्मा के भिन्न मानने पर भी समवाय सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानी हो जाता है । समवाय सम्बन्ध से आत्मा को ज्ञानी मानना सिद्ध नही होता है क्योंकि अज्ञान के साथ आत्मा का एकत्व सिद्ध होता है।" अतः उन्होंने गुण-गुणी के सादात्म्य सम्बन्ध को समवाय कह कर उसे अपृथग्भूत और अयुतसिद्ध बतलाया है ।" अतः द्रव्य और गुण अयुतसिद्ध और अपृथग्भूत हैं अर्थात् इनमे समवाय सम्बन्ध है । दृष्टान्त द्वारा उन्होने बतलाया है कि दर्शन ज्ञान गुण आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है किन्तु व्यय देश-संज्ञादि की अपेक्षा पृथक कहे जाते हैं। इस प्रकार द्रव्य और गुग-पर्याय कथंचित् भिन्न और कचित् अभिन्न है।" अर्धमागधी आगम में द्रव्य और गुण-पर्याय को इस प्रकार कथंचित् भिन्न और कचित् अभिन्न नही सिद्ध किया गया है। अतः यह आचार्य की अपूर्व देन है। ख) द्रव्य का स्वभाव नहीं छूटता आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की एक इस विशेषता का
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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